Saturday, 27 December 2008

भाषायी पत्रकारिता को सलाम


अन्नू आनंद
भारतीय पत्रकारिता में अंग्रेजी की चैधराहट अब अधिक समय नहीं चलेगी। राष्ट्रीय पाठक सर्वे2006 ने स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय भाषायी समाचारपत्र अंग्रेजी पत्रों से कहीं आगे है। इस वर्षभारतीय भाषाओं के पाठकों की संख्या पिछले वर्ष के मुकाबले एक करोड़ 36 लाख बढ़ी है जबकिअंग्रेजी के पाठकों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई। अंग्रेजी के पाठक आज भी दो करोड़ दसलाख ही हैं जबकि भाषायी पाठकों की संख्या 20 करोड़ 36 लाख है। पाठकों की संख्या में जोबढ़ोतरी हो रही है वह केवल हिंदी या अन्य भाषाओं के पाठकों की है।पिछले लंबे समय से मीडिया जगत के लंबरदार अंग्रेजी अखबार ही बने हुए हंै। जबकि देश केसबसे अधिक पढ़े जाने वाले पहले दस अखबार हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के हैं। सर्वे के मुताबिकअंग्रेजी का एक ही अखबार 11वें नंबर पर है।

राष्ट्रीय राजधानी से निकलने वाले अंग्रेजी के इन अखबारों ने ऐसा भ्रम बना रखा है कि वे ही देशकी अधिकतर जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। देश की राजधानी से निकलने के कारण इनसमाचारपत्रों की पहुंच राजनेताओं और अफसरशाहों तक अधिक है। अंग्रेजी राज की मानसिकता सेग्रस्त केंद्रीय मंत्री भी वही पढ़ता, समझता और सच मानता है जो दिल्ली से निकलने वाले अंग्रेजीके मुख्य अखबार छापते हैं। विज्ञापनों के जरिए इन अखबारों ने ‘नंबर वन’ होने का ऐसा मायाजालफैला रखा है कि नेता से लेकर अभिनेता तक इन्हीं अखबारों को जनता का ‘आईना’ समझता है।जबकि हकीकत यह है कि मात्र 75 लाख की पाठक संख्या के साथ अंग्रेजी का ‘टाइम्स आॅफइंडिया’ अखबार 11वें स्थान पर है। पहले दो नंबर पर आने वाले हिंदी के पाठकों की संख्या दोकरोड़ से ऊपर है। अब आम जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है यह सिर्फ अंग्रेजीअखबार के मालिकों को ही नहीं बल्कि नीति निर्माताओं और राजनेताओं के लिए समझना जरूरीहै। क्योंकि किसी भी मुद्दे पर कार्रवाई की उम्मीद तब तक नहीं की जाती जब तक उसकी खबरइन अंगे्रजी समाचारपत्रों में नहीं छपती।
बड़ा अखबार केवल अधिक विज्ञापनों की संख्या से नहीं बल्कि अधिक पाठकों की संख्या सेपहचाना जाना चाहिए। इसके लिए मुख्यधारा के मीडिया को पुनर्परिभाषित करना होगा। निजीचैनलों के बढ़ते वर्चस्व में अखबारों के पाठकों की यह वृद्धि एक सुखद आश्चर्य है।टीवी के दर्शकों में भी वृद्धि हुई है। लेकिन जैसी कि आशंका जताई जा रही थी कि आने वालेसमय में टीवी से स्पर्धा में अखबार बेहद पीछे छूट जाएंगे या टीवी माध्यम अखबारों का विकल्प बनकर उभरेगा, सर्वे के परिणामों से साबित होता है कि यह आशंकाएं निराधार हैं। टीवी के दर्शकोंकी संख्या आज यदि 23 करोड़ तक पहुंच गई है तो 22 करोड़ 20 लाख लोग आज भी अखबारपढ़ते हैं। साक्षरता दर में वृद्धि के साथ-साथ यह संख्या और भी बढ़ेगी। यूं भी निजी चैनल आगेनिकलने की जिस बेलगाम दौड़ में शामिल हो चुके हैं उसको देखकर तो यही लगता है कि आनेवाले समय में लोगों के बीच समाचारपत्रों की विश्वसनीयता और बढ़ेगी।


दूसरी ओर सरकार ने चैनलों की विषय-सामग्री को सुधारने के बहाने उन पर नकेल डालने केलिए प्रसारण विधेयक लाने का मन बना लिया है। टीवी चैनलों की ओर से इसका पुरजोर विरोधकिया जा रहा है। यह बात सही है कि टीवी चैनलों ने किसी भी नियमन के अभाव में अपनीमनमानी करते हुए लोगों के समक्ष धर्म, मनोरंजन, अपराध का ऐसा तिलिस्म बना दिया है कि इसतिलिस्म को तोड़ना अब आसान बात नहीं है। लेकिन चैनलों के कंटेंट को सुधारने का समाधानसरकारी अंकुश नहीं। भले ही सरकार यह दावा करे कि प्रसारण विधेयक के माध्यम से वह चैनलोंकी विषय-वस्तु के नियमन की कोशिश कर रही है लेकिन हमारे पिछले अनुभव बताते हंै कि जबभी मीडिया को सुधारने की आड़ में कोई भी सरकारी प्रयास किया गया वह सेंसर या अंकुश केरूप में ही सामने आया।
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। यह स्वतंत्रता देश का गर्वहै। विधेयक के कई प्रावधान ऐसे हैं जो स्पष्ट करते हैं कि यदि यह विधेयक लागू हुआ तोसरकारी अफसरों को मनमानी करने की छूट मिल जाएगी और इसका दुरुपयोग होना स्वाभाविकहै।
चैनलों की अराजकता पर रोक जरूरी है इस से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यह रोकस्व-निर्मित होनी चाहिए। किसी प्राधिकरण का गठन भी समस्या का हल नहीं। क्योंकि कोई भीप्राधिकरण या परिषद् ‘सरकारी आशीर्वाद’ के बिना नहीं बनता। प्रेस के मामलों को देखने के लिएबनी प्रेस परिषद् भी अधिकारों के अभाव में अपनी सार्थकता साबित नहीं कर सकी।
सबसे बड़ा नियमन या तो चैनलों के अपने हाथ में है या इनको देखने वाले दर्शकों के हाथ में।जागरूक दर्शक ही चैनलों के कंटेंट को बदल सकते हैं क्योंकि अंतिम उपभोक्ता वही हैं। प्रसारणमीडिया को उपभोक्ता फोरम बनाने चाहिए। उनके साथ मिलकर उन्हें स्वयं अपनी आचार संहिताबनानी होगी।
यह तय है कि चैनल हों या अखबार लंबे समय तक वही टिक पाएगा जो आम आदमी काप्रतिनिधित्व करेगा, फिलहाल यह आम आदमी केवल भारतीय भाषाओं से ही जुड़ा हुआ है। 􀂄

(यह लेख जुलाई -सितम्बर २००६ के विदुर अंक में प्रकशित हुआ है )

Friday, 26 December 2008

एक अरब लोगों का मीडिया?

अन्नू आनंद
मई माह में राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने प्रेस इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया द्वारा आयोजित ‘ग्रासरूटसमिट’ में एक अरब लोगों के लिए मीडिया का विकास करने का आह्नान किया। उनका कहना थाकि मीडिया को देश की समूची जनता की ‘पीड़ाओं और दुखों तथा खुशियों और सफलताओं’ कोप्रतिबिंबित करना चाहिए। यानी मीडिया को उनकी स्पष्ट हिदायत थी कि वे किसी विशिष्ट वर्गतक सीमित न रह समूची जनसंख्या की भावनाओं का प्रतिबिंब बने। राष्ट्रपति का यह सुझाव बेहदही सामयिक और सटीक है क्योंकि मौजूदा समय में मीडिया केवल दस प्रतिशत लोगों का खैरख्वाहबना हुआ है।
नब्बे करोड़ से अधिक लोगों की उपेक्षा कर केवल दस प्रतिशत लोगों की जरूरतों, ख्वाहिशों,खुशियों और गमों को प्रस्तुत करने वाले मीडिया का यह संकुचित दृष्टिकोण अब निरंतर चिंता औरबहस का विषय बनता जा रहा है। पिछले एक दशक से मीडिया का जिस तेजी से विस्तार हो रहाहै उसी तेजी से उसकी प्राथमिकताएं भी बदल रही हैं। पिछले तीन माह में मीडिया में प्रमुखता सेछाए रहे मुद्दों को देखने से यह स्थिति स्पष्ट होती है।
अप्रैल माह की शुरूआत में सबसे अधिक मीडिया पर छाने वाला मुद्दा ‘लक्मे फैशन वीक’ और‘सेंसेक्स में अभूतपूर्व उछाल’ था। लक्मे फैशन वीक में रैम्प पर एक माॅडल की चोली के खिसकनेपर चैनलों के स्टूडियो में बहसों के दरबार सज गए। अधिकतर अखबारों ने इस पर बड़ी-बड़ीफोटो के साथ विभिन्न कोणों से अपने नजरियों को छापा। लेकिन इसी दौरान विदर्भ में किसानोंकी मौतों का आंकड़ा एक सप्ताह में चार सौ तक पहुंच गया। कुछेक पत्रों को छोड़कर शेष सभीमीडिया (चैनल/अखबार) ने इनकी कवरेज को एक दो कालमों तक ही सीमित रखा। सेंसेक्स में1100 तक के उछाल को अधिकतर पत्र-पत्रिकाओं ने लीड और कवर स्टोरीज़ बनाया। प्राइमचैनलों ने भी सबसे अधिक समय दिया। जबकि हकीकत यह है कि स्टाॅक एक्सचेंज में निवेश करनेवाले लोगों की संख्या दो प्रतिशत से अधिक नहीं है।
जब समाचारपत्रों के फीचर पन्नों पर और चैनलों के स्टूडियों में सेंसेक्स के बढ़ते ग्राफ और ‘लक्मेफैशन वीक’ पर लंबी चर्चाएं हो रही थीं उसी दौरान वोट के अधिकार से महरूम, खुले आकाश केनीचे रहने को मजबूर करीब छह करोड़ की जनसंख्या वाला एक समुदाय मात्र वोट का अधिकारहासिल करने और सिर पर एक छत पाने के लिए राष्ट्रीय अधिवेशन कर रहा था लेकिन उनके इसबुनियादी अधिकारों के समाचार न तो अखबारों में खबर बने और न ही 24 घंटे के समाचार चैनलोंने इसकी कवरेज करना उचित समझा।
मई माह देश के चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के परिणामों की स्विंग में हुए जोड़-घटाव मेंबीत गया और फिर शुरू हुआ म्ंाडल 2 का विवाद। सभी खबरिया चैनलों ने आरक्षण के मुद्दे परबहस चलाने से अधिक आरक्षण के विरोध में हो रहे आंदोलन को कवर करने में दिलचस्पी दिखाई।चैनलों में आंदोलन को ‘रंग दे बसंती’ की तर्ज पर कवर करने की होड़ मच गई। जून माह में‘राहुल महाजन की अय्याशी’ के कारण उपजे माहौल पर चैनलों ने एक-एक पल की फुर्तीलीरिपोर्टें दीं। लेकिन इसी दौरान राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत होनेवाली पदयात्रा और उड़ीसा के कलिंगनगर तथा छत्तीसगढ़ के नक्सली क्षेत्रों में आदिवासियों परहमलों की खबरें मीडिया की हेडलाइन बनने से तरसती रहीं।
यह सर्वविदित है कि देश में तीन वर्ष से कम आयु के 47 प्रतिशत बच्चे कम वजन के पैदा होतेहैं। केवल 42 प्रतिशत बच्चों का जन्म ही प्रशिक्षित हाथों से हो पाता है। प्रसव कारणों से मरनेवाली महिलाओं की औसत दर अभी भी 540 है। इस सब के बावजूद यदि मीडिया आइटम गर्लराखी सावंत और मीका के प्रकरण पर सबसे अधिक समय और स्पेस खर्च करे, राहुल महाजन कोअभियुक्त या निर्दोष साबित करने के लिए ‘चार या पांच ग्राम’ जैसे विशेष कार्यक्रम प्रसारित करे,समाचारपत्रों में विशेषज्ञों की विवेकशीलता का सबसे अधिक इस्तेमाल इन घटनाओं के विश्लेषणोंपर खर्च हो तो यह आभास होना स्वाभाविक है कि कहीं न कहीं कुछ गलत अवश्य है।
पिछले दिनों राष्ट्रीय मीडिया की सामाजिक पृष्ठभूमि पर कराए गए एक सर्वेक्षण के बाद मीडिया मेंयह बहस छिड़ गई कि मीडिया के उच्च पदों पर आसीन उच्च जाति के लोगों के कारण मीडियाका नजरिया पिछड़े दलितों और हाशिए के लोगों के प्रति उपेक्षित है। जल्दबाजी में यह निष्कर्षनिकालना शायद उचित नहीं। भले ही निर्णयकत्र्ताओं के पदों पर बैठने वाले लोगों की जात इनमुद्दों को उजागर करने में आड़े न आती हो लेकिन केवल चुनिंदा लोगों (दो से दस प्रतिशत) केमुद्दों की कवरेज़ के प्रति उनका विशेष मोह उनका एक विशेष ‘क्लास’ से संबंधित होने को दर्शाताहै।अगर केवल बाजारी दबावों के कारण मुख्यधारा के पत्र टेबलाॅयड में और न्यूज चैनल मनोहरकहानियों में बदलने के लिए विवश हो रहे हैं तो उन्हें अपनी सीमा रेखा निर्धारित करनी होगी। एकअरब से अधिक लोगों की अपेक्षाओं का मीडिया केवल दस करोड़ लोगों तक सीमित न रहे इसकेलिए मीडिया समूहों के संपादकीय और प्रबंधकीय विभाग को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने केसाथ इस सोच को भी बदलना होगा कि पाठक/दर्शक अपराध, सनसनी और मनोरंजन ही चाहताहै। फिलहाल किसी भी राष्ट्रीय स्तर के किसी सर्वे में ऐसे निष्कर्ष नहीं निकले हैं। 􀂄
(यह लेख अप्रैल-जून 2006 में प्रेस इंस्टीट्यूट की पत्रिका विदुर में प्रकाशित हुआ )है

Tuesday, 23 December 2008

बाज़ार से नियंत्रित मीडिया

अन्नू आनंद

पिछले कुछ समय से मीडिया में आई बाजारवादी क्रांति के साथ कदमताल मिलाते हुए देश कीप्रमुख और गंभीर समझी जाने वाली पत्रिकाएं भी अपने मुखौटे बदल रही हैं। केवल रंग-रूप यासाज-सज्जा ही नहीं, इन पत्रिकाओं के कंटेंट (विषय-सामग्री) में भी आश्चर्यजनक परिवर्तन आरहा है। कुछ समय पहले तक ये पत्रिकाएं केवल राजनीति, व्यापार, खेल या कभी-कभार फिल्मों सेजुड़े मुद्दों को आवरण कथा के रूप में प्रकाशित करती थीं। लेकिन अब प्रायः महिला और पुरुषों केयौन संबंधों से जुड़े विभिन्न पहलुओं को इनके कवरों पर देखा जा सकता है।प्रायः इन आलेखों का आधार कोई न कोई ‘राष्ट्रीय’ या ‘एक्सक्लूसिव’ सर्वे बताया जाता है।यौन-संबंधों से जुड़े इन आलेखों को देखकर ऐसा आभास होता है जैसे कि समूचे देश में यौनव्यवहार की क्रांति आ गई हो। राष्ट्रीय सर्वे के हवाले से इन आलेखों में आंकड़ों का प्रस्तुतिकरणइस प्रकार किया जाता है जैसे कि यह तस्वीर पूरे देश की हो। जब तक पाठक पूरा लेख ध्यान सेनहीं पढ़ता यह बात समझ में नहीं आती कि जिस वर्ग और जिस समूह का यह सर्वे प्रतिनिधित्वकर रहे हैं उसका प्रतिशत एक से भी कम है। हकीकत में इस सर्वे का आधार महानगरों/शहरों केकुछ चुनिंदा महिलाएं या पुरुष होते हैं और ये चुनिंदा महिला/ पुरुष समूचे शहर या महानगर केयौन व्यवहार का प्रतिनिधित्व नहीं करते।एक पत्रिका द्वारा ऐसा कवर छपते ही प्रतिद्वंद्वी पत्रिका भी किसी ऐसे ही मुद्दे को कवर पर छापतीहै और फिर एक-दूसरे की होड़ में इस तथ्य को पूरी तरह दरकिनार कर दिया जाता है कि इसकापाठकों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। इस प्रकार के चित्रण से समूचे देश की एकल महिला(अधिकतर जिन पर ये लेख केंद्रित होते हैं) या पुरुषों की गलत छवि प्रस्तुत होती है।दरअसल पिछले कुछ समय से मीडिया में आई परिवर्तन की आंधी ने सबसे अधिक प्रभावित कंटेंटकी गुणवत्ता को किया है। भारी पूंजी निवेश से शुरू हुईं इन पत्र-प़ित्रकाओं के विषय का निर्धारणबाजार के नजरिए से किया जाता है। पहले कंटेंट की कमान संपादक के हाथ में होती थी जोकिपत्रकारिता के मापदंडों के मुताबिक किसी खबर/लेख को प्रकाशित करने का निर्णय लेता था। येअधिकार अब प्रसार या विज्ञापन प्रबंधक के हाथ में चला गया है। प्रबंधकों/मालिकों के इस दबावका असर देश की कुछ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है। इन पत्रिकाओं केसंपादक हमेशा यह समझा और समझाया करते थे कि पाठकों की रूचि ‘होती’ नहीं ‘बनाई’ जातीहै और इसे ’बनाने’ का काम संपादकों के हाथ में होता है। आज बाजार से प्रभावित वही पत्रिकाएंयौन संबंधों से लेकर मुंबई में रात की पार्टियों पर कवर स्टोरी इस तर्क के साथ छाप रही हैं कि‘‘पाठक यही पढ़ना चाहते हैं।’’ क्योंकि सेक्स बिकता है इसलिए किसी न किसी बहाने उसे ‘कवर’पर छापकर मीडिया समूह अधिक मुनाफे की जुगत लगाते रहते हैं।कई छोटे-मझोले क्षेत्रीय अखबारों की बड़े मीडिया समूहों द्वारा खरीद की प्रवृति से पत्र/पत्रिकाओंकी विषय सामग्री में और भी गिरावट के आसार नजर आ रहे हैं। क्योंकि बड़े मीडिया समूह अधिकसे अधिक बोली देकर इन अखबारों को खरीद रहे हैं, संभवतः वे अपनी पूंजी निवेश को दोगुनाकरने के लिए हर हथकंडे भी अपनाना चाहेंगे। इस क्रम में सबसे बड़ा समझौता कंटेंट के साथ हीहोगा।कुछ समय से झारखंड के जन सरोकारी अखबार ‘प्रभात खबर’ के बिकने की खबरें आ रही हैं।इस अखबार की अपनी पहचान है। ग्रामीण मुद्दों को वरीयता देकर इसने दूर-दराज के इलाकों मेंअपनी जगह बनाई है, लेकिन अब कुछ बड़े समाचारपत्र समूह इस पर अपनी नजर लगाए बैठे हैं।उन्हें इस समाचारपत्र के जरिए अपने व्यापार को बढ़ाने की कई संभावनाएं नजर आ रही हैं।‘प्रभात खबर’ को खरीद कर वे इसके स्पेस को बेचकर करोड़ों का मुनाफा कमाना चाहते हैं।जाहिर है कि अपने व्यापार का विस्तार उन्हें हरिवंश जैसे संपादकों की तरह गरीबी, भुखमरी,बीमारी या हताशा की खबरें प्रकाशित कर नहीं मिलेगा। लेकिन यदि बड़े समाचारपत्र समूहों द्वाराव्यापार के नज़रिए से इसी तरह छोटे पत्रों को मुनाफे के लिए खरीदने की प्रवृत्ति जारी रही तोफिर मीडिया की पहचान किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी से भिन्न नहीं रहेगी और यह देश औरसमाज के हित में नहीं होगा। 􀂄

(यह लेख जनवरी -मार्च के विदुर अंक में प्रकाशित हुआ है )

अख़बारों का भविष्य

अन्नू आनंद

पिछले दिनों पत्रकारिता के कुछ छात्रों से जब यह पूछा गया कि समाचारों को जानने के लिए वेसंचार के कौन से माध्यम पर भरोसा करते हैं? तो अधिकतर ने जवाब में समाचारपत्रों का नामलिया। इस सवाल पर छात्रों से हुई बहस का निचोड़ यह था कि समाचार जानने का सबसेविश्वसनीय, निष्पक्ष और प्रामाणिक स्रोत वे अखबारों को ही मानते हैं। छात्रों का तर्क था कि टीवीमें भी वे समाचारों को सुनते हैं। लेकिन हड़बड़ी के इस माध्यम में उन्हें उतनी सटीक और गहनजानकारी नहीं मिलती। रेडियो में खबरें संक्षिप्त में होती हैं इसलिए इन समाचारों की अधिकजानकारी के लिए वे फिर अखबार पढ़ते हैं। इंटरनेट उतना सुविधाजनक माध्यम नहीं जितना किअखबार। इस बहस का लब्बोलुआब यही था कि समाचारों की दृष्टि से आज भी संचार के सभीमाध्यमों में से अखबारों को सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है।इस सवाल की व्यावहारिकता इसलिए भी समझ में आती है कि पिछले कुछ समय से विश्व स्तरपर अखबारों के अस्तित्व को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है। अंतरराष्ट्रीय मंचो पर भी अखबारों कोनकारने की आवाजें सुनने को मिल रही हैं। इसका एक कारण अमेरिका में अखबारों के स्तर मेंआई गिरावट है। जिसके कारण वहां पर समाचारों के लिए नेट पर निर्भरता बढ़ती जा रही है औरयह कहा जा रहा है कि सूचना क्रांति की वजह से संचार माध्यमों में होने वाली नई-नई खोजों केचलते समाचारपत्र कुछ समय में अतीत की बात हो जाएंगे। लेकिन हकीकत यह नहीं है। आकड़ोंकी बात करें तो विश्व स्तर पर वर्ष 2006 में अखबारों के प्रसार में 1.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कीगई। आज भी विश्व में विज्ञापनों के कुल हिस्से का 42.3 प्रतिशत अखबारों और पत्रिकाओं कोमिलता है। विश्व स्तर पर गत वर्ष समाचारपत्रों के विज्ञापनों के राजस्व में चार प्रतिशत वृद्धि दर्जकी गई है।ये तथ्य इस बात के साक्ष्य हैं कि अखबारों के अस्तित्व पर संकट की बात सही नहीं। पश्चिम मेंअखबारों के स्तर में आई गिरावट ने उनके अस्तित्व के संकट को जरूर थोड़ा बढ़ाने का कामकिया है लेकिन भारत के संबंध में यह बात नहीं कही जा सकती। भारत में अभी अखबारों काभविष्य चढ़ाव पर है। वर्ष 2006 में भारत में समाचारपत्रों के प्रसार में सबसे अधिक बढ़ोतरी देखीगई। कई नए अखबारों की शुरूआत हुई और विज्ञापनों से मिलने वाली आमदनी में वृद्धि दर्ज कीगई।यह बात सही है कि पिछले कुछ समय में अखबारों के लिए टीवी और इंटरनेट के साथ प्रतिस्पर्धाएक चुनौती बनती जा रही है। लेकिन अभी यहां के समाचार चैनल और नेट शैशवावस्था में हैं औरउन्हें प्रौढ़ होने में अभी लंबा समय लगेगा। उनकी तुलना सीएनएन और बीबीसी जैसे चैनलों औरवेबसाईटों से नहीें की जा सकती जिनसे कि पश्चिमी दशों के लोग अपनी खबरों की भूख को शांतकरते हैं। यह सही है कि पिछले कुछ समय में संख्या की दौड़ में भारत के अखबारों में भीपरिवर्तन हुए हैं जिससे उनकी विश्वसनीयता भी कम हो रही है लेकिन अभी यह स्थिति पश्चिमदेशों वाली नहीं हुई है।यह गनीमत है कि ऐसी स्थिति में ही हमारे यहां ‘उत्कृष्ट पत्रकारिता’ की बहस छिड़ पड़ी है औरयह सवाल भी उठाया जा रहा है कि श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिए जरूरी क्या है। मूल्य आधारितपत्रकारिता या फिर ‘पाॅपुलर’ पत्रकारिता। जिस प्रकार से समाचार चैनलों की अगंभीरता रोमांच औरसनसनी से भरे समाचारों की आलोचना और दर्शकों की प्रतिक्रियाएं मिल रहीं हैं उससे स्पष्ट हैकि प्रसार और टीआरपी की दौड़ में विश्वसनीयता और तथ्यपरकता को दाव पर नहीं लगाया जासकता। तुच्छ और सनसनी की खबरें कुछ समय के लिए तो चल सकती हंै लेकिन इन्हेंपाठक-श्रोता या दर्शक अधिक समय तक नहीं सहने वाले। भारत में समाचार चैनलों में होने वालीऐसी धृष्टताओं की आलोचना गंभीर रूप लेती जा रही है। हमें पश्चिम की गलतियों से सबक लेनाहोगा। भारत में भी आखिर वही माध्यम सफल होगा जो सत्य, सही, गंभीर और तथ्यात्मक समाचारप्रदान करेगा। 􀂄
(यह लेख अप्रैल-जून २००७ के विदुर अंक में प्रकशित हुआ था )

Thursday, 18 December 2008

भाषा से खिलवाड़


अन्नू आनंद

किसी भी पत्र-पत्रिका की विषय-वस्तु अगर उसका शरीर है तो भाषा उसकी आत्मा कही जासकती है। किसी भी पत्र-पत्रिका की पहचान उसकी विषय सामग्री, भाषा, उसकी साज-सज्जाऔर उसके प्रस्तुतिकरण के तरीके से बनती है।पिछले कुछ समय से तकनीकी क्रांति और उदारीकरण के चलते पत्र-पत्रिकाओं के स्वरूप में भारीबदलाव की प्रक्रिया देखने को मिल रही है। नए प्रकार की पिं्रट तकनीकों और बाजारवाद के प्रभावके चलते अखबारों की साज-सज्जा पूरी तरह बदल गई है। विषय-सामग्री का स्थान सिकुड़ करछोटा हो गया है जबकि चित्रों का आकार बड़ा हो गया है। पृष्ठों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुईहै। काले-सफेद चित्र रंगमय हो गए हैं। बदलाव की आंधी ने विषय-सामग्री की गंभीरता को भीकम कर दिया है। गंभीर विषयों को भी इस ढंग से प्रस्तुत करने की होड़ छिड़ी है कि पाठकउसको भी मनोरंजन समझ कर पढ़ने के लिए मजबूर हो जाएं। विचार गायब होते जा रहे हैं औरबाॅक्स आइटम जैसी रिपोर्टें भी बडे़ समाचारों के रूप में प्रकाशित हो रही हैं।बात यहीं खत्म नहीं होती, बदलाव की चक्की में सबसे अधिक भाषा पिस रही है। हिंदीसमाचारपत्रों में भाषा को लेकर मन-माने प्रयोग किए जा रहे हैं। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की मौजूदाभाषा में अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ इस कदर बढ़ गई है कि हिंदी की अपनी सुगंध, उसकीअभिव्यक्ति की मिठास अंग्रेजी की मिलावट से पूरी तरह खत्म हो गई है।हिंदी भाषा के समर्थक और उसके संरक्षण के हिमायती भी अब बाजारवाद की भाषा लिखने-बोलनेलगे हैं। कुछ समय पहले तक पत्र-पत्रिकाओं में भाषा के साथ छेड़छाड़ करना उतना संभव नहींथा, लेकिन अब सबसे अधिक प्रयोग भाषा के साथ ही हो रहे हंै। हैरत की बात तो यह है किबदलाव की इस चूहा-दौड़ में हिंदी के उन शब्दों का इस्तेमाल भी बंद हो गया है जिनके बेहदसरल और स्पष्ट मायने हंै। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के शीर्षकों को देखें तो यह पता ही नहीं चलेगाकि वे किस भाषा में हैं। भाषा में इस बदलाव के समर्थकों का तर्क है कि आम पाठक तक पहुंचनेके लिए हिंदी में अंग्रेजी भाषा के शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है।हिंग्रेजी समर्थकों का यह तर्क समझ से बाहर है क्योंकि आम पाठकों में हर वर्ग शामिल है औरहिंदी समाचारपत्र-पत्रिका पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति उतनी सरलता से एचीवमेंट, फेवरेट,सिचुएशन, जर्नी या पेशेंट्स को नहीं समझ सकता है जितनी सहजता से उपलब्धि, पसंदीदा,स्थिति, यात्रा या मरीज जैसे शब्दों को समझता है।कुछ समय पहले तक अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल तकनीकी शब्दों तक ही सीमित था। उसमें भीप्रयास यही रहता था कि उसका हिंदी विकल्प ढूंढा जाए। जरूरत पड़ने पर अंग्रेजी के तकनीकीशब्दों के हिंदी शब्द गढ़े जाते थे। ऐसे ही एक प्रयास में विज्ञान लेखक रमेश दत्त शर्मा नेजेनेटिकल इंजीनियरिंग के लिए ‘जिनियागरी’ शब्द खोज निकाला था। मुझे याद है कि स्वास्थ्यऔर पर्यावरण के विषयों पर हिंदी में लिखते हुए अक्सर ऐसे शब्दों पर कठिनाई आती थी। फिर भी‘ट्यूबकटोमी’ के लिए बंध्याकरण या ‘वेस्कटोमी’ के लिए नसबंदी और बायोटेक्नोलाॅजी के लिएजैविक तकनीक तथा बायोडेवर्सिटी के लिए जैव विविधता का ही इस्तेमाल किया जाता था।उस समय हिंदी के किसी भी कठिन या तकनीकी शब्द को सरल बनाकर प्रस्तुत किया जाता थाताकि हर वर्ग का पाठक इन शब्दों को समझ सके। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने जनसत्ता कासंपादन करने के दौरान एक वर्तनी भी बनाई और सभी को हिदायत दी कि वे सरल शब्दों काप्रयोग करें। उन्होंने ‘अर्थात्’ के लिए ‘यानी’, ‘उद्देश्य’ के लिए मकसद, ‘किंतु-परंत’ु के लिए‘लेकिन’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर जोर दिया ताकि बोलचाल की हिंदी जानने वाला पाठक भीउसे समझ सके।ऐसे ही प्रयास अन्य संपादकों ने भी किए ताकि हिंदी अखबारों में एक बेहतर और सरल भाषा काविकास हो सके।लेकिन आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। अब तो सभी अखबारों में हिंदी के सरल शब्दों कोभी अंग्रेजी में लिखने का प्रचलन है। इसके लिए यह तर्क दिया जा रहा है कि इस से पाठकों कीसंख्या बढ़ रही है। क्या कोई भी सर्वे या अध्ययन यह बताता है कि हिंग्रेजी का इस्तेमाल पाठकोंको अधिक सुखद लगता है। पाठकों की संख्या बढ़ने का कारण अंग्रेजी शब्दों की खिचड़ी है यापोस्टरनुमा चित्र और सनसनीखेज ग्लैमरयुक्त विषय सामग्री। इस पर विचार करने की जरूरत है।क्या पत्र-पत्रिकाओं को किसी भी उत्पाद की तरह केवल उनकी बिक्री बढ़ाने के लिए बदला जासकता है? वह भी भाषा में मिलावट कर। अखबारों की अपनी सामाजिक जिम्मेदारी है जिससे वेसभी दबावों के बावजूद मुक्त नहीं हो सकते। अगर हिंग्रेजी अखबारों के लिए मध्यम वर्ग, युवाओंया माॅल्स संस्कृति तक पहुचंने का रास्ता है तो यह उन्हें ऐसे करीब 60 प्रतिशत पाठकों से दूर भीकरती है, जो अंगे्रजी से अभी भी बेहद दूर हैं।􀂄
( यह लेख अक्टूबर- दिसम्बर 2006 के विदुर अंक में प्रकाशित हुआ है )

Tuesday, 16 December 2008

निजी समझौते और मीडिया

अन्नू आनंद

बाजारी ताकतों का पत्रकारिता पर प्रभाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। प्रिंट माध्यम हो या इलेक्ट्राॅनिकअब विषय-वस्तु (कंटेंट) का निर्धारण भी प्रायः मुनाफे को ध्यान में रखकर किया जाता है। कभीसंपादकीय मसलों पर विज्ञापन या मार्केटिंग विभाग का हस्तक्षेप बेहद बड़ी बात मानी जाती थी।प्रबंधन विभाग संपादकीय विषयों पर अगर कभी राय-मशविरा देने की गुस्ताखी भी करते थे तो वहएक चर्चा या विवाद का विषय बन जाता था और यह बात पत्रकारिता की नैतिकता के खिलाफमानी जाती थी।लेकिन यह बातें अब अतीत बन चुकी हैं। अब अखबार या चैनल के पूरे कंटंेट में मार्केटिंग वालोंका दबदबा अधिक दिखाई पड़ता है। इसकी एक वजह यह भी है कि हर मीडिया समूह अधिक सेअधिक मुनाफा कमाना चाहता है और उसके लिए खबरों को प्रोडक्ट मानना एक मजबूरी बनती जारही है। ‘खबर’ नाम के इस प्रोडक्ट को भले ही वे चैनल पर हो या अखबार में, अधिक से अधिकबेचने के लिए बड़े-बड़े मीडिया समूह आए दिन नए-नए प्रयोग कर रहे हैं।इसी प्रवृत्ति को आगे बढ़ाते हुए इन दिनों बड़े मीडिया समूहों ने बड़ी-बड़ी काॅरपोरेट कंपनियों केसाथ ‘निजी समझौतों की शुरूआत की है। इन समझौतों के तहत प्रायः कंपनियांे के विज्ञापन औरप्रचार की जिम्मेदारी मीडिया कंपनी की होती है और बदले में काॅरपोरेट कंपनियां मीडिया कंपनीको अपनी कंपनी में हिस्सेदारी देती हैं।सूचनाओं के मुताबिक हाल ही में बेनेट एण्ड कोलमेन कंपनी के वर्ष 2007 में ऐसे निजी समझौतोंकी मार्केट कीमत पांच हजार करोड़ रुपए हुई है जो कि उसकी सालाना तीन हजार पांच सौकरोड़ की आमदन से भी अधिक है। अब यह प्रवृत्ति अन्य हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में भी पांवपसार रही है। हालांकि कहा यह जा रहा है कि काॅरपोरेट कंपनियों के अधिक विज्ञापनों को बिनापैसे के हासिल करने का यह तरीका है और मीडिया समूह इस प्रकार केवल बड़ी कंपनियों कोविज्ञापन स्पेस ही उपलब्ध करा रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि इस प्रकार के निजीसमझौतों के बाद क्या कोई अखबार या चैनल पूरी तरह निष्पक्ष होकर उन कंपनियों की कवरेजकर सकता है जिनका कि वे स्वयं शेयरधारक है?बड़ी बड़ी काॅरपोरेट कंपनियां तो यही चाहती हैं कि वे अधिक विज्ञापनों के जरिए इन अखबारों औरचैनलों के कंटेंट मंे भी अपनी जगह बना सकें और ऐसा होना कोई असंभव भी नहीं दिखता जैसाकि ऐसे समझौते करने वाले अखबार या टीवी चैनल कहते नहीं अघाते कि इनका संपादकीयमसलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। पिछले कुछ समय में बाजारवाद के नाम पर प्रिंट औरइलेकट्राॅनिक मीडिया में ‘ब्रांड पत्रकारिता’ की प्रवृत्ति बढ़ी है उसको देख कर नहीं लगता किसंपादकीय विभाग ऐसे समझौतों से खुद को बचा पाएंगे।कंटंेट के जरिए मुनाफा कमाने के उद्देश्य और प्रतिस्पर्धा के नाम पर धीरे-धीरे अखबारों और चैनलोंके कंटंेट (विषय सामग्री) पर मार्केटिंग वालों का कब्जा बढ़ता ही जा रहा है। इसकी शुरूआतसबसे पहले संपादकों की हैसियत कम करने से हुई थी ताकि वे खबर को बेचने के रास्ते कीरूकावट न बनंे। उनके कद को छोटा करने के लिए मार्केटिंग और विज्ञापन विभागों का संपादकीयविषयों पर दखल बढ़ाया गया।अखबारों में 60 प्रतिशत कंटंेट और 40 प्रतिशत विज्ञापन की नीति लागू होती है। लेकिन मार्केटिंगके हाथों में कमान आते ही उन्होंने विज्ञापनों का प्रतिशत बढ़ाने के लिए नए-नए रास्ते निकाललिए। इसके लिए पहले अखबार के ‘मास्ट हेड’ मुख पृष्ठ बिके। फिर विज्ञापनों के विशेष पन्ने शुरूहुए। पहले पन्ने पर विज्ञापन की कवायद भी शुरू हुई। इसी होड़ में फिर खबरों के रूप मेंविज्ञापन भी छपने लगे। इसके लिए अखबारों ने बकायदा खबरों का कुछ स्पेस ‘विज्ञापनी’ खबरोंके लिए निर्धारित किया। इस स्पेस में खबरों के रूप में किसी कंपनी, वस्तु के बारे में जानकारी दीजाने लगी। इन ‘विज्ञापनी’ खबरों को इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाता है कि पाठक के लिए यहसमझना कठिन होता है कि यह वास्तविक खबर है या प्राॅपोगेंडा। टीवी चैनलों में भी बकायदा ऐसेकार्यक्रम दिखाए जाते हैं कि यह अंतर करना मुश्किल हो जाता है कि खबर है या पैसे से खरीदागया विज्ञापन। अब स्वास्थ्य से संबंधित किसी भी नए प्रोडक्ट या फिर कोई इलेक्ट्राॅनिक संयंत्र नयाकैमरा या कोई नए स्पा, रिर्सोट के बारे में जानकारी खबरों का ही हिस्सा होती हैं। देश-विदेश कीखबरों के साथ इन प्रोडक्ट की जानकारी भी उसी तर्ज पर दी जाती है कि यह अंतर करना भीकठिन हो जाता है कि अमुक कोई खबर है या स्पांसर कार्यøम।अब जबकि संपादकीय और मार्केटिंग के बीच की रेखा दिन प्रतिदिन धुंधली पड़ रही हो, ऐसे मेंयह उम्मीद करना कि मीडिया कंपनियों के निजी समझौतांे का असर संपादकीय विषय-वस्तु परनहीं पडे़ेगा नासमझी होगी। पत्रकारिता के मूल्यों और उसकी बची हुई विश्वसनीयता के लिए यहप्रवृत्ति बेहद घातक साबित हो सकती हैं खासकर जबकि मझोले और क्षेत्रीय अखबारों में भी ऐसेसमझौतांे की संभावनाएं बढ़ रही हैं। 􀂄
(यह आलेख अक्तूबर-दिसंबर 2007 के विदुर अंक में प्रकाशित हुआ है)

Tuesday, 9 December 2008

अन्याय के खिलाफ गुलाबी गिरोह



अन्नू आनंद
मानवी अब अपने हकों के लिए इस कदर जागरूक हो रही है कि अगर कोई उसके अधिकारों के रास्ते में रूकावट बनता है तो वह इस नाइंसाफी के खिलाफ अवैध तरीका भी इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करती।
उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाके बुंदेलखंड में इन दिनों ‘गुलाबी गिरोह’ नामक महिलाओं के एक बहुत बड़े समूह ने क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ कर प्रशासन की नींद उड़ा दी है। वर्ष 2006 में बना यह गिरोह मुख्यतः भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी जंग लड़ रहा है। यह समूह कमजोर और गरीब वर्गों के लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं के अमलीकरण में होने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहा है। इस क्षेत्र में बहुत सी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ गरीबों और वंचितों को नहीं मिल रहा है। गुलाबी गिरोह की मुखिया अर्धशिक्षित, गरीब 45 वर्षीया संपत देवी पाल है।
बांदा के अटारा गांव से करीब 100 सदस्यों के साथ शुरू हुए इस समूह के अब करीब 20 हजार समर्थक सदस्य हैं। समूह के पास सबसे अधिक शिकायतें राशन की दुकानों से राशन न मिलने की आती है। इसकी एक वजह यह है कि इस गिरोह को बांदा और चित्रकूट जिले के कोटे का राशन काला बाजार में पहुंचने से रोकने में सबसे बड़ी उपलब्धि हासिल हो चुकी है। इन जिलों का अभी तक 70 फीसदी राशन काला बाजार में पहुंच जाता था। अटारा के राशन विक्रेता रामअवतार दारा राशन न देने की शिकायतें मिलने के बाद गिरोह के सदस्यों ने उसपर नजर रखनी शुरू कर दी। आखिर समूह के सदस्यों ने उन दो टैक्टरों को बीच रास्ते में रोक लिया जिन पर बीपीएल लोगों के हिस्से का राशन खुले बाजार में बेचने के लिए जा रहा था। संपत देवी के मुताबिक प्रमाण दिखाने के बावजूद जब पुलिस ने रामअवतार के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं की तो हमारा संदेह विश्वास में बदल गया कि पुलिस और राशन विक्रेताओं की मिलीभगत के चलते ही गरीबों का राशन खुुले बाजार में बेचा जा रहा है। बाद में समूह की सदस्यों ने गुस्से में अटारा पुलिस स्टेशन को घेर लिया ओर डयूटी पर मौजूद पुलिस अधिकारियों के साथ हाथापाई की। इस घटना के बाद भले ही इन जिलों में राशन वितरण में हेराफेरी की घटनाएं कम हो गईं लेकिन गिरोह के पास अन्य क्षेत्रों से राशन न मिलने की शिकायतें की संख्या बढ़ने लगीं हैं। गिरोह अब तक राशन के अलावा बिजली, पानी और पुलिस की ज्यादतियों के खिलाफ मोर्चा खोल चुका है।
अपने सदस्यों को अलग पहचान देने के लिए गिरोह ने एक ही रंग के कपड़े पहनना तय किया। गुलाबी रंग क्योंकि किसी भी राजनैतिक पार्टी से जुड़ा नहीं इसलिए गिरोह इस रंग का इस्तेमाल करता है। गुलाबी रंग के चुनाव पर संपत देवी कहती है, ‘‘अपनी अलग पहचान स्थापित करने के लिए हमने एक ही रंग के कपड़े पहनना तय किया है और गुलाबी रंग जीवन का प्रतीक भी है। इसके अलावा धरना प्रदर्शन और भीड़ में हमें अपने साथियों को पहचानने में भी आसानी होती है।
आर्थिक दष्टि से पिछड़े इस क्षे़त्र की जनसंख्या लगभग 2 करोड़ है। यहां की अधिकतर महिलाएं खासकर दलित इस समूह से जुड़ कर भोजन, आवास और सामाजिक न्याय की लड़ाई में स्वयं को अधिक सुरक्षित महसूस करतीं है। जैसा कि समूह की एक सदस्य कहती है हमारी संख्या ही हमारी ताकत है।
भारतीय दंड संहिता के तहत इस गिरोह पर गैरकानूनी सभा, दंगा, सरकारी अधिकारी पर हमला और सरकारी कर्मचारियों का अपना काम करने से रोकने के आरोप लग चुके है। लेकिन स्थानीय स्तर पर ‘गुलाबी गिरोह’ को मिल रहे भारी समर्थन और उनकी मजबूत इच्छा शक्ति के चलते उन पर अकुंश लगाना संभव नहीं होगा।
गिरोह का मानना है कि जब मांगने से नहीं मिलता तो छीनना पड़ता है। इसलिए इस के लिए समूह के कुछ सदस्य अपने पास लाठी भी रखते हैं लेकिन संपत देवी कहती है कि यह लाठी हमारा सहारा है लेकिन अन्याय के खिलाफ और आरोपी अधिकारियों को सबक सिखाने के लिए यह उठ भी सकती है। गिरोह ने अपने संदेश को अधिक से अधिक महिलाओ तक पहुचांने के लिए नारों को गीतों में बुनने की शुरूआत की है। ‘‘नेताओ हो जाओ होश्यार, बहने हो गई तैयार’’ और ‘‘बहनो हो जाओ तैयार नेता हो गए गददार’’, जैसे गीतों से महिलाओं को सचेत किया जा रहा हैै।
हांलाकि गुलाबी गिरोह की शुरूआत गुलाबी संगठन के रूप में हुई थी लेकिन बाद में इसकी चर्चा ‘गिरोह’ के रूप में होने लगी। संपत देवी के मुताबिक गिरोह का मतलब केवल नकारात्मक ही नहीं। अपने हको के लिए लड़ने वाले मजदूरों आदि के समूह का भी गिरोह कहा जाता है। दूसरा गिरोह के रूप में ख्याति फैलने से पुलिस और प्रशासन भी हमसे डरता है। कुछ लोग संपत देवी की तुलना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से करते हैं।
बचपन से ही संपत को लड़कियों के साथ किए जाने वाले भेदभाव के रवैये को झेलना पड़ा। छोटी उमर में ही उसे खेतों में काम करने के लिए भेज दिया गया जबकि उसके भाई स्कूल पढ़ने के लिए जाते। 12 साल की हुई तो उसकी शादी कर दी गई और 15 वर्ष में वह मां बन चुकी थी। दो लडकियां पैदा होने के बाद भी सास ने आपरेशन कराने से मना कर दिया क्योंकि उसे बेटा चाहिए था। उसके बाद संपत के चार बच्चे पैदा हुए। संपत के मुताबिक सास उसे पुरूषों के सामने चुप रहने और पर्दा करने के लिए कहती जो उसे मंजूर नहीं था।
महिलाओं के प्रति इस प्रकार के उपेक्षित रवैये ने ही शायद संपत को क्रांतिकारी बनने पर मंजूर कर दिया। आज संपत और उसका गिरोह महिलाओं की हर प्रकार की सहायता करने के लिए तैयार रहता है। नशेड़ी पतियों से पीड़ित महिलाओं के पतियों को सबक सिखाने के अलावा गिरोह विधवा महिलाओं को पेंशन दिलाने में भी मदद करता है। गिरोह की साख अब इस कदर बढ़ गई है कि अब पुरूष भी अपने मसले सुलझाने के लिए गिरोह से मदद मांगने लगे हैं। इसी वर्ष फसल नष्ट हो जाने पर बांदा के हजारों किसानों ने प्रशासन से मुआवजे की रकम हासिल करने के लिए गिरोह से मदद मांगी थी।
अपने हकों की खातिर भले ही ये महिलाएं कानून को भी अपने हाथों में लेने से गुरेज नहीं करतीं लेकिन नांइसाफी के खिलाफ लड़ी जानी वाली इस जंग में उनके लिए वे सब जायज है जिससे वे अपने बुनियादी अधिकारों को हासिल कर सकती हैं। भले ही इसके लिए उन्हें हिंसा पर उतारू होना पड़े। आखिर मानवी के साहस की परीक्षा क्यों?





Tuesday, 2 December 2008

बस और नहीं



सैकरों मासूम लोगों और देश के सब से वरिष्ठ और जांबाज़ अधिकारियों का मरना सहनशीलता नहीं कायरता और बुज्द्ली की निशानी है । इसलिए यह गर्व करना की हम बड़े सहनशील हैं और कोई भी हमले के बाद भी हम फिर
उसी हौंसले से खरे होने की ताकत रखते हैं का राग अलापना बंद करना होगा। अब आपना होंसला नहीं अपनी ताकत दिखाने की आवश्कता है ताकि बाहरी लोग हमारे घर में घुसकर अब हमारे अपनों को नुक्सान पहुचने की हिम्मत न करे।
मुंबई हमले से देश के राजनेताओं, मीडिया कर्मियों और सरकारी अफसरों को कई सबक सीखने होंगे।
जिस प्रकार से चैनल के रिपोर्टर्स ने इस घटना की लाइव कवरेज की है उस से लगता है की अभी भी हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया काफ़ी इम्मेच्यौर है । लाइव कवरेज को सब से पहले और सब से एक्सक्लूसिव दिखाने के चक्कर में कई चैनल ऐसे दर्शय दिखाते नज़र आए जो की सुरक्षा के लिहाज़ से उचित नहीं कहे जा सकते। एक लोकप्रिय और बेहतर समझे जाने वाले अंग्रेजी चैनल ने ताज के पीछे की लेन में जाकर खंभों के पीछे छुपे सुरक्षा गार्डस पर कैमरा घुमाते हुएय कहा कि आंतकवादी कहीं पीछे से न भाग जाए इसलिए गार्डस ने यहाँ भी पोसिशन ले ली है । जब कैमरा सुरक्षा कर्मी पर घुमा तो वह स्वयं को खम्भे के पीछे छुपाने कि पूरी कोशिश करता रहा। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण देखने को मिले जब कई चैनलों ने बेहद ही बचकाना बरताव किया।
घटना का राजनैतिककरण न करने कि दुहाई देने वाला मीडिया ही स्टूडियो में विभिन्न पार्टियों कि प्रतिनेधियों को बुला कर उन कि राजनैतिक प्रतिक्रियों को जानने और एक के बयाँ पर दूसरे कि टिपननी जानने और उन्हे उकसाने कि कोशिश करता रहा। अन्नू आनंद

Monday, 17 November 2008

फिर कम हो रही हैं लड़कियां






अन्नू आनंद

राजधानी दिल्ली सहित देश के विभिन्न उत्तरीय राज्यों में लड़कियों को गर्भ में खत्म करने का सिलसिला जारी है। लड़कियों के भू्रणों को खत्म करने की यह प्रवृति संपन्न राज्यों के संपन्न परिवारों में अधिक बढ़ रही है। हाल ही में हुई एक सर्वे के मुताबिक पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, के अधिकतर जिलों में लड़कियों का अनुपात वर्ष 2001 की जनगणना से भी कम हो रहा है। पंजाब में स्थिति और भी खराब है। यहां के कुछ इलाकों में धनी पंजाबी परिवारों 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या 300 ही पाई गई है।

चाहे उच्च वर्ग का शिक्षित परिवार हो पिछड़े वर्ग का गरीब और अनपढ़ परिवार लड़कियों की चाहत के प्रति दोनों की सोच में कोई अंतर नहीं दिखाई पड़ता इसलिए केवल गरीबी और अशिक्षा को लड़कियों की संख्या कम होने के लिए दोषी ठहराना उचित नहीं। वर्ष 2001 की जनगणना से यह पहले ही साफ साबित हो चुका है कि कन्या भ्रूणों को खत्म करने की रिवायत संपन्न इलाकों में अधिक है। इस जनगणना में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लड़कियों की संख्या 900 से भी कम पाई गई। इस में फतेहगढ़ साहिब में 1000 लडकों के पीछे 766 लड़कियों की संख्या थीं लेकिन अब यह कम होकर 734 तक पहुंच गई है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में यह 836 से कम होकर 789 पहुंच गई है। ऐसी ही प्रवृति अन्य संपन्न इलाकों में भी पाई गई।

देखा जाए तो पिछले सात वर्षो में देश में शिक्षा का विस्तार हुआ है। स्कूलों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। महिलाओं की साक्षरता के आंकड़ो का ग्राफ भी बड़ा है। देश की आर्थिक वृद्दि दर 9 तक पहुच गई है। देश सुपर पावर बनने का दावा कर रहा है। सूचना क्रांति से लोगों में जागरूकता बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा है। लेकिन इस सब के बावजूद लड़की के प्रति सोच पर अभी भी जंग लगा हुआ है। लड़कियों को गर्भ में ही खत्म करने की प्रवृति का सबसे बड़ा कारण वह रिवायत हैं जो लड़के को वंश आगे बढ़ाने और विरासत के रूप में देखती है। दूसरा लड़की को दिया जाने वाला दहेज जो लड़के के लिए बेयरर चेक का काम करता है।
दिल्ली की सेंटर फाॅर सोशल रिसर्च संस्था ने स्वास्थ्य और कल्याण मंत्रालय के सहयोग से हाल ही में दिल्ली में लिंग अनूपात से जुड़े आर्थिक ,सामाजिक और नीति संबंधी कारणों की जांच करने के लिए एक सर्वे कराई। सर्वे की रिर्पोट के मुताबिक पुराने रीति रिवाज और पारिवारिक परंपराओं के कारण दिल्ली में अधिकतर परिवार लिंग निर्धारित गर्भपात कराते हंै। दिल्ली में लड़कियों के कम अनुपात वाले तीन क्षेत्र नरेला, पंजाबी बाग और नजफगढ़ में कराई गई सर्वे में सभी अनपढ़, कम पढ़े-लिखे और उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले उतरदात्ताओं ने माना कि लडकी की बजाए लड़के के जन्म को परिवार में अधिक बेहतर माना जाता है क्योंकि वह मरने के बाद अतिंम रस्मों को पूरा कर मोक्ष दिलाता है। इसके अलावा परिवार का नाम भी आगे बढाता है। सर्वे के नतीजे साफ इस बात की ओर इशारा करते हैं कि गरीब और पिछड़ा वर्ग अगर लड़की को आर्थिक बोझ के रूप में देखता है तो मध्य और उच्च वर्ग के संपन्न लोग लड़के को अपनी संपति का वारिस और अतिंम रस्मों को पूरा करने का जरिया मानते हैं।

इसी प्रकार कुछ माह पहले एक्शन एड द्वारा देश के पांच खुशहाल माने जाने वाले राज्यों पंजाब राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल, हरियाणा के विभिन्न जिलों में की गई एक अन्य सर्वे सेे भी स्पष्ट होता है कि सभी दावों और प्रयासों के बावजूद लड़की को ‘अनचाही’ मानने की प्रवृति बढ़ती जा रही है। सर्वे में पाया गया कि मौजूदा समय में इन राज्यों में लड़कियों का अनुपात लड़कांे की अपेक्षा कम ही नहीं है बल्कि 2001 की जनगणना के बाद से शहरी क्षेत्रों में और कम हो रहा है। केवल राजस्थान को छोड़कर शेष सभी चार राज्यों में पहले से ही लड़कियों की कम संख्या में और भी कमी आ रही है। हांलाकि राजस्थान में भी यह आंकड़ा अभी औसत राष्ट्रीय अनुपात 1000 पर 927 लड़कियों तक नहीं पहुंच पाया। सर्वे से पता चलता है कि जिन इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं और अल्ट्रासांउड मशीनों की पहुंच नहीं है, उन इलाकोे में लड़कियां पैदा तो हो जाती हैं लेकिन जीवित कम बचती हैं। इसके लिए पैदा हुई लड़कियों को या तो बीमार होने पर मेडिकल सहायता नहीं दी जाती या फिर ऐसे तरीके अपनाए जातें हैं कि वे जीवित न बचें। जैसे मध्यप्रदेश के मुरैना इलाके में बच्चे की नाड़ को जानबूझ कर इन्फेक्शन के लिए छोड़ने जैसी घटनाओं का पता चला है ताकि ‘अनचाही’ बच्ची से छुटकारा मिल सके। सर्वे किए गए सभी इलाकों में पैदा हुए दूसरे बच्चे में लड़कियों की संख्या बहुत कम थी। इसी प्रकार तीन इलाकों में तो तीसरे नंबर पर पैदा हुए बच्चों में लड़कियों की संख्या 750 से भी कम थी।

जिस प्रकार से पिछले एक वर्ष में उड़ीसा और चण्डीगढ़ से अजन्मी बच्चियों के फेंके गए भू्रण पाए जाने की घटनाएं सामने आई हैं उससे पता चलता है कि लड़की को लेकर समाज के किसी वर्ग की सोच में बदलाव नहीं आया। लांसेट की रिर्पोट के मुताबिक भारत में हर साल 5 लाख लड़कियों का गर्भपात किया जा रहा है। लिंग निर्धारण तकनीकों की अधिक उपलब्धता हांलाकि इसका एक बड़ा कारण है। इसके लिए 1994 मे बना भू्रण परीक्षण निर्वारण कानून भी अधिक सहायक साबित नहीं हो रहा क्योंकि अल्ट्रासाउंड मशीनों का इस्तेमाल, लिंग परीक्षण के लिए करने वाले डाक्टरों के खिलाफ कार्रवाई के अधिक मामले सामने नहीं आ रहे। दरअसल इस की एक वजह यह भी है कि भू्रण परीक्षण एक निहायत ही निजी मामला है। इस प्रक्रिया में पति पत्नी और डाक्टर के अलावा अन्य कोई भी व्यक्ति मौजूद नहीं रहता। ऐसे में न तो परीक्षण करने वाले और न ही कराने वाले का पता चल सकता है। कानून को प्रभावी बनाने के लिए अधिक जरूरत महिलाओं के स्तर को उठाने की है। जिस प्रकार से लड़की से लड़के को अधिक प्राथमिकता देने की प्र्रवृति हर वर्ग में बढ़ती जा रही है उससे यह साफ जाहिर होता है कि समाज में महिलाओं का निम्न स्तर इस बुराई की सबसे बड़ी जड़ हैै। इस से निपटने के लिए लड़की के सामाजिक, आर्थिक अधिकारों को समान स्तर पर लाना होगा। लड़कियों को पिता की संपति में समान हक का कानूनी अधिकार भले ही मिल गया हो लेकिन इसे अमल में लाने वाले प्रयासांे को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। लड़कियों द्वारा मां- बाप के अतिंम संस्कार करने के भी छिटपुट प्रयास शुरू हो चुके हैं लेकिन ऐसे प्रयासों को ओर बढ़ावा मिलने की जरूरत है। परिवार में लड़की की अहमियत किसी भी प्रकार से लड़कों से कम नहीं, इस सोच को हर प्रकार से विकसित करना होगा। जब तक हर मोर्चे पर लड़की के स्तर को उठाने की प्रक्रिया शुरू नहीं होगी लड़कियों के गायब होने की संख्या कम नहीं होगी।


लेखिका प्रेस इंस्टीट्यूट की पत्रिका ग्रासरूट और विदुर की संपादक रही हैं

Thursday, 13 November 2008

प्रतिबंध के बावजूद


छोटू और मोनू जैसे असंख्य बच्चों के नाम जो बाल दिवस की खुशी से कोसों दूर हैं

अन्नू आनंद
पिछले दिनों गुड़गांव के एक घर में काम करने वाली बच्ची लखी को मालिकों द्वारा निर्ममता से पीटे जाने की घटना ने एक बार फिर घरों में काम करने वाली असंख्य बच्चियों की सुरक्षा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। अक्तूबर माह में घरेलू बाल मजदूरी पर लगे प्रतिबंध को दो साल पूरे हो गए। लेकिन घरों और ढाबों में काम करने वाले बच्चे अभी भी हिंसा और शोषण के माहौल में जी रहे हैं। दिल्ली-जयपुर हाईवे के एक ढाबे में काम करने वाले 10 साल के मोनू की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया। उसके दिन की शुरूआत सुबह चार बजे होती है। अपने छोटे छोटे हाथों से भारी भरकम बर्तन मांजने, फिर मेज कुर्सियां लगाने के बाद भाग भाग कर ग्राहकों को चाय, पानी पिलाने और खाना खिलाने में उसका पूरा दिन बीत जाता है। मोनू यह नहीं जानता कि दिन भर जो मेहनत वह कर रहा है वह उसका हकदार नहीं और और ऐसा करना या कराना अपराध है। सरकार ने दो साल पहले वर्ष 2006 में 14 साल से कम उमर के बच्चों का घरों, ढाबों और होटलों पर काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन इस प्रतिबंध के बावजूद आज भी देश भर में मोनू जैसे करीब 1.3 करोड़ (अधिकारिक आंकड़ांे के मुताबिक) बच्चे अभी भी पढ़ने की उमर में मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार हो रहे हंै। गैर सरकारी सूत्रों के मुताबिक यह संख्या 6करोड़ से ऊपर है।

काम करने वाले बच्चों का आंकड़ा करोडों़ में है। लेकिन सरकारी मशीनरी पिछले 19 महीनों में सारे देश में से केवल 6782 बच्चों को ही बचा सकी। कुल मिलाकर आठ हजार के करीब ऐसे मामलों का पता चला जिनमें कि सरकारी प्रतिबंध के बावजूद बच्चों से काम कराया जा रहा था। लेकिन इनमें से भी केवल 1680 मालिकों के खिलाफ ही मामला दर्ज किया गया। इस नियम को लागू करने की जिम्मेदारी श्रम मंत्रालय पर है। लेकिन श्रम मंत्रालय की ‘काबिलियत’ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राजधानी दिल्ली में ऐसे इस कानून का उल्लघंन करने वाले केवल 26 मामलों का ही पता लगाया जा सका। उन में से भी 12 मामले ही दर्ज हुए। जबकि दिल्ली में गैर सरकारी आंकड़ो के मुताबिक काम करने वाले बच्चों की संख्या 10 लाख बताई जाती है। बहुत से राज्यों में बचाए गए बच्चों का रिकार्ड भी उपलब्ध नहीं। जिन राज्यों मंे पता लगाए गए मामलों की संख्या अधिक है वहां भी बहुत कम मामलों मंे ही मुकदमा चलाया गया। जैसे उत्तर प्रदेश में अधिनियम का उल्लघंन करने वाले 726 मामलों का पता लगाया गया लेकिन मुकदमा केवल 92 मामलों में ही चला।

बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं प्रतिषेध) अधिनियम 1986 की खतरनाक श्रेणी में मौजूद 13 व्यवसायों में घरेलू नौकर, होटलों और स्पा को शामिल करने का मुख्य मकसद यह था कि कम आयु में बच्चों को काम की कठोर स्थितियों से बचाकर उन्हें स्कूलों का रास्ता दिखाया जाए। ग्रामीण इलाकों में स्कूलों में बढ़ते ड्राप -आउट का एक बड़ा कारण यह भी है कि मां बाप बच्चों को शहरों में भेजकर उन्हें काम पर लगाने में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं ताकि उन्हें घर की कमाई में मदद मिल जाए। सेव द चिल्ड्रन संस्था द्वारा पिछले साल कराई गई एक सर्वे में बताया गया है कि दिल्ली और कोलकाता में घरों में काम करने वाले बाल मजदूरों में अधिकतर संख्या लड़कियों की है जो देश के विभिन्न हिस्सों से काम करने के लिए इन शहरों में पहुंचती हैं। सर्वे से पता चला कि 68 प्रतिशत बच्चे मारपीट के शिकार हुए और 47 प्रतिशत बच्चे मारपीट के कारण कई बार जख्मी हो चुके थे। उम्मीद यह की जा रही थी कि घरेलु बाल मजदूरी पर प्रतिबंध के चलते घर की चारदीवारी में जुल्म सहने वाले बहुत से बच्चों को राहत मिलेगी। बाल अधिकारों के समर्थकों का भी मानना था कि इस प्रतिबंध के बाद स्कूलों में बच्चों की भर्ती बढ़ेगी। प्रतिबंध के मुताबिक इसका उल्लघंन करने वाले किसी भी व्यक्ति को बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं प्रतिषेध) अधिनियम 1986 के तहत तीन माह से दो साल की साल की कैद और 10 से 20 हजार रूपए का जुर्माना हो सकता है। लेकिन हैरत की बात यह है कि जो मुकदमे दर्ज भी हुए हैं उनमें अभी तक किसी भी मामले में किसी व्यक्ति को सजा मिलना का मामला सामने नहीं आया। बाल अधिकार से जुड़ी संस्थाएं इस बात से सहमत हैं कि प्रतिबंध प्रभावी साबित नहीं हो सका। श्रम मंत्रालय का मानना है कि उनके पास संसाधनों की कमी है इसलिए जल्द कुछ कर दिखाना संभव नहीं। लेकिन बाल मजदूरी से जुड़े अधिनियमों के अनुभव इस बात के गवाह हैं कि प्रतिबंध से वांछित सफलता की उम्मीद उचित नहीं।

होटलों और घरों में बच्चों के काम करने पर प्रतिबंध लगे दो साल ही बीते हैंै इसलिए सरकारी अमला कम समय की दुहाई देकर अपना पल्ला झाड़ सकता है लेकिन बाल मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1986 को लागू हुए कईं साल बीत गए फिर भी पटाखे, फुटबाल और कालीन बनाने से लेकर अन्य खतरनाक उधोगांे में आठ सालों के भीतर केवल 22588 मामलों में ही कार्रवाई की गई जबकि इन सभी उधोगों में काम करने वाले बाल मजदूरों की संख्या 6.70 करोड़ (गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक) है। बाल अधिकारों पर काम करने वाली बचपन बचाओं संस्था के हाल ही में कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक मेरठ, जालंधर सहित उत्तर प्रदेश और पंजाब के अन्य शहरों में 5000 बच्चे फुटबाल सिलने के कामों में लगे हैं। सर्वे के मुताबिक यह बच्चे 12 से 14 घंटों में एक से दो फृटबाल ही सिल पाते हैं और एक फुटबाल सिलने के लिए उन्हें 3 से 5 रूपए मिलते हैंै।

दरअसल सरकारी विफलता का ग्राफ ऊंचा होने का एक बड़ा कारण यह है कि सरकार ने कानून बनाकर बच्चों के काम करने पर तो प्रतिबंध लगा दिया लेकिन उसके अमलीकरन के लिए और बचाए गए बच्चों के पुनर्वास की कोई व्यापक नीति उनके पास नहीं। यह पहले से ही तय था कि प्रतिबंध के बाद घरों और होटलों मे काम करने वाले लाखों बच्चे काम से बाहर हो जाएंगे। लेकिन फिर भी छुड़ाए गए बच्चों को स्कूलों में भर्ती कराने अथवा अन्य किसी भी प्रकार से शोषण से बचाने के लिए सरकार के पास कोई प्रभावी वैक्लपिक नीति तैयार नहीं है। इनमें से कई बच्चे परिवार की कमाई का मुख्य जरिया है। इन बच्चों के काम न करने की स्थिति में उनका घर कैसे चलेगा? ऐसे काम से निकाले जाने वाले बच्चों के परिवारों में वयस्कों को काम देने संबंधी कोई भी नीति तैयार नहीं की गई। अधिनियम को लागू करने से पहले सरकार के पास घरों, होटलों में काम करने वाले बच्चों की पहचान करने और उनको छुड़ाने के प्रति कोई ठोस योजना प्रक्रिया नहीं थी। पिछले साल केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्यों से बचाव और पुनर्वास संबंण्ी कार्य योजना की मांग की थी लेकिन तीन राज्यों अलावा किसी राज्य ने ऐसी योजना नहीं बनाई। वर्ष 1987 से देश के कुछ राज्यों में लागू मौजूदा पुनर्वास नीति - ‘राष्ट्रीय बाल मजदूर परियोजना’ अभी तक प्रभावी साबित नहीं हो पाई। हर बच्चे का यह मौलिक अधिकार है कि वह उचित रूप से अपना मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास कर सके। बच्चों से संबंधित सभी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संधियों और कानूनों का यही निचोड़ है। लेकिन इसके बावजूद दुनिया के 76 प्रतिशत बच्चे इस अधिकार से वंचित है।

बाल मजदूरी एक गंभीर और जटिल समस्या है और इससे निजात पाने के लिए एक ऐसी दीर्घकालीन योजना की जरूरत है जिस में बच्चे के उचित विकास के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, बाल अधिकार जैसे सभी मुद्दों को शामिल करना होगा। यह तभी संभव है जब स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय जैसे मंत्रालय भी बाल मजदूरों के पुनर्वास में अपनी सक्रिय भगीदारी निभाएं। जब तक बचाव और पुनर्वास की बेहतर प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती बच्चों को घरों या होटलों से छुड़ाना उनके लिए अधिक शोषण के दरवाजे खोलना है। ऐसी घटनाएं भी सुनने को मिली हैं जहां काम से छुड़ाए गए बच्चों घरों में वापस नहीं पहुंचे जिनमें से कुछ ने कूडे़ बीनने का काम अपना लिया और कईं अन्य प्रकार के शोषण को झेलने के लिए मजबूर हो गए। नेपाल के केंद्रीय बाल कल्याण बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक गत साल में 500 नेपाली बच्चे तस्करी के जरिए भारतीय सर्कसों में बेचे गए। इन सर्कसों में ये मासूम बच्चे किस प्रकार के शोषण का शिकार हो रहेे हैं क्या सरकार और बाल अधिकारों के चिंतक इस ओर ध्यान देंगे।

Thursday, 6 November 2008

अंधेरे से उजाले की ओर


अन्नू आनंद
नसरीन परवीन के चेहरे पर खुशी साफ दिखाई पड़ रही थी। इस खुशी का कारण उसका आत्मविश्वास था जो उसे आश्रम की पढ़ाई से मिला था। अभी तक मदरसे के स्कूल में महज उर्दू पढ़ना सीखने वाली नसरीन की यह हसरत थी कि वह भी स्कूल में जाने वाले दूसरे बच्चों की तरह हिंदी अग्रेंजी भी पढ़ना सीखे। नसरीन के पांचों भाई बहन मदरसे में पढ़ते हैं। लेकिन 14 वर्षीय नसरीन यहां तीसरी कक्षा तक की शिक्षा हासिल करने के बाद नियमित स्कूल में जाने का रास्ता तैयार कर रही है।
हसीना खातून 13 साल तक कभी स्कूल नहीं जा पाई क्योंकि उसके गांव बरान में कोई स्कूल नहीं था। दूसरे गांव स्थित स्कूल जाने के रास्ते मंे नदी पड़ती थी। बरसात के दिनों में नदी में पानी भर जाने के कारण गांव के अधिकतर बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। इसलिए हसीना चाह कर भी अपनी पढ़ने की इच्छा को पूरा नहीं कर पाई। हसीना ने कभी सोचा नहीं था कि अब भी उसके स्कूल जाने का सपना हकीकत में बदल सकता है। लेकिन आवासीय आश्रम में आने के बाद उसे अपना पढ़कर टीचर बनने का सपना साकार होता नजर आ रहा है।
नसरीना और परवीन जैसी कई लड़कियों की किताबों को पढ़ने की तीव्र लेकिन दमित ख्वाहिश पूरी हो सकी क्योंकि स्थानीय शिक्षा कार्यकत्र्ताओं ने यहां के मुस्लिम बहुल गावों में जाकर लड़कियों के घरवालों और स्थानीय मौलानाओं को समझाया कि वे गांव की लड़कियों को पास के गांव में स्थित आश्रम के आवासीय स्कूल मे पढ़ने के लिए भेजे।
वनवासी विकास आश्रम झारखण्ड के गिरडीह जिले के बगोदर ब्लाॅक में स्थित है। यह आश्रम 10 से 14 साल की उन बच्चियों के लिए आवासीय ब्रिज स्कूल चलाता है जो लड़किया काम या दूरी के कारण कभी स्कूल नहीं जा पाई या फिर किन्हीं कारणों से उन्हें बीच में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। लेकिन अब इन लड़कियों को सामान्य स्कूलों मंे उमर के मुताबिक उन कक्षाओं में दाखिला नहीं मिल पाता जिनमें उन्हें होना चाहिए।
बगोदर ब्लाॅक झारखंड राज्य की कम साक्षरता दर वाले क्षेत्रों मंे एक है। खासकर लड़कियों की साक्षरता दर यहां 30 प्रतिशत से भी कम है। इस का एक बड़ा कारण कुछ समय पहले तक यहां स्कूलों की कमी थी। प्राथमिक शिक्षा से वंचित अधिकतर यहां की लड़कियां पशु चराने और घर और बच्चों को संभालने के कामों में लगी रहती हैं।
हांलाकि पिछले कुछ सालों में सर्व शिक्षा अभियान के तहत यहां के गावों में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है लेकिन पहले स्कूल छोड़ चुके बच्चों को कोई खास लाभ नहीं पहुंचा। लड़कियां खासकर दस से चैदह साल की उमर की लड़कियों को सेकेंडरी और हाई-स्कूलों में तब तक दाखिला नहीं मिलता जब तक कि उन की प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई का स्तर मजबूत नहीं होता।
एक से पांच कक्षा की बुनियादी शिक्षा में उन्हें निपुण बना मुख्यधारा के नियमित स्कूलों तक पहुचांना ही बनवासी आश्रम स्कूल का मुख्य मकसद है। आश्रम के संस्थापक सुरेश कुमार शक्ति के मुताबिक इसके लिए ब्लाॅक के उन 20 गावों को लक्ष्य बनाया गया है, जहां की साक्षरता की दर बेहद कम है। हर साल 100 के करीब लड़कियों को दाखिला दिया जाता है। एक साल के अंतराल के दौरान उन्हें एक से पांच तक की सभी कक्षाओं का कोर्स पढ़ाया जाता है। इसके लिए शिक्षा के नए और अनूठे तरीकों का उपयोग किया जाता है।
कक्षा तीन में पढ़ने वाली 14 साल की सोनी कुमारी बताती है, ‘‘जब मैं यहां आई तो शुरू शुरू में मुझे सुबह उठना फिर कक्षा शुरू होने से पहले अपना सारा काम निपटाना उसके बाद स्कूल की पढ़ाई और फिर स्कूल के बाद अपने पाठ याद करना सभी बेहद कठिन लगता था। लेकिन अब मुझे हर काम समय पर करने की आदत हो गई है और अब खेल- खेल में पढ़ाई और नाच-गाना सीखने में मुझे बेहद मजा आता है।’’ सोनी को बड़े होकर टीचर बनना है इसलिए वह कहती है मैं आगे भी पढ़ना चाहती हूं।
पिछले कईं सालों से स्कूल में पढ़ाई से लेकर स्कूल के अन्य कार्यकलापों को देखने वाली टीचर रेनु कुमारी के मुताबिक वर्ष 2000 में जब आश्रम की शुरूआत हुई थी तो गावों मे जाकर लड़कियों को स्कूल आने के लिए तैयार करना बेहद कठिन काम था। लेकिन अब तो इतनी अधिक संख्या में लड़कियां आने लगीं हैं कि हमारे पास सीटें कम होती हैं।
रेणु के मुताबिक लड़कियों को सब से पहले साफ सफाई की जानकारी दी जाती है। नहाने कपड़ो को साफ रखने बालों और नाखूनों की सफाई जैसी बुनियादी बातों से उनकी सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है। उन्हें हर काम अनुशासन में करने का विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है।
स्कूल में लडकियों की भर्ती के लिए एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है। सब से पहले संबंधित क्षेत्र के शैक्षिक आंकड़ों की जांच की जाती है। फिर उन गावों में नुक्कड़ नाटक, दीवार पेपर और जलसे जलूसों के जरिए लड़की की शिक्षा के महत्व के संबंध में समुदाय के लोगों को जागरूक बनाया जाता है। इसी दौरान आश्रम के कार्यकत्र्ता ग्राम पंचायतों के साथ बैठकें कर स्कूलों से बाहर 10 से 14 साल की लड़कियों का पता लगााते हैं। फिर आर्थिक और जातीय आधार पर इन बच्चों का वर्गीकरण किया जाता है ताकि हर वर्ग की लड़की को पढ़ने का अवसर मिले।
श्री सुरेश के मुताबिक कुल 100 साटों में से 25 फीसदी आदिवासी, 25 फीसदी अनुसुचित जाति और 25 फीसदी आर्थिक रूप से पिछड़े और 25 अल्प समुदाय के लिए आरक्षित रखी गई हैं।
दाखिले की प्रक्रिया पूरी होने के बाद योगयता और समझ के आधार पर उन्हें एबीसीडी श्रेणियों में बांटा जाता है। फिर उनकी योगयता स्तर के मुताबिक सिखाने का पैमाना तय किया जाता है। पढ़ाने के लिए यहां के ऐसे तरीकांे का इस्तेमाल किया जाता है जिससे कम समय में और खेल खेल में अधिक सिखाया जा सके। जैसे कक्षा दो में करीब 40 लड़कियों के समूह को एक से 100 तक की गिनती सिखाने के लिए एक से 100 तक लिखे कार्डो को एक लाइन में लगाने के लिए कहा गया। सभी लड़कियां को सही नंबर का कार्ड ढेर में से ढंूढने को कहा गया जो सही कार्ड ढूंढ कर लगाती उसके लिए सभी तालियां बजाते। पढ़ाने के अलावा सास्कृतिक और सामूहिक कार्यकलापों पर यहां अधिक ध्यान दिया जाता है। हसीना के मुताबिक स्कूल में दिन की शुरूआत प्रार्थना और योगा के साथ होती है। उसके बाद अलग-अलग विषयों पर नियमित कक्षाएं शुरू होती हैं। मुख्य तौर पर स्कूल में गणित, ंिहंदी, पर्यावरण पढ़ाया जाता है। शाम का समय खेल का होता है। सोने से पहले अंग्रेजी की क्लास होती हैं। सप्ताह के आखिरी दिन रविवार को बच्चों को चित्रकारी, कढ़ाई और दूसरे काम की चीजें सिखाई जाती हैं। इस के अलावा पढ़ाई में कमजोर रहने वाले बच्चों के लिए इस दिन विशेष कक्षाएं भी आयोजित की जाती हैं। यह दिन मां -बाप को भी अपने बच्चों से मिलने आने की छूट होती है। बच्चों मंे जिम्मेदारी और नेतृत्व की भावना पैदा करने के लिए उन्हें आश्रम के विभिन्न काम सौंपे जाते हैं। इसके लिए आश्रम में एक बाल संसद का गठन किया गया है। बाल संसंद के लिए एक प्रधानमंत्री और मंत्रियों का चुनाव किया जाता है। चयनित बाल मंत्रियों को स्वास्थ्य साफ सफाई, सांस्कृतिक और खेल कूद की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। बाल संसद के तहत विशेष समितियां भी बनाई गई हैं जो परिसर की साफ सफाई, बर्तन मांजने और समय पर हर काम को पूरा करने जिम्मा उठाती है।
जिस समय लेखक ने इस आश्रम में प्रवेश किया बहुत सी लड़कियों को अलग अलग समूहों में बंटा पाया। एक समूह में संवाददाताओं का चयन किया जा रहा था। पूछने पर पता चला कि यह हर माह लड़कियों द्वारा निकाले जाने वाले समाचारपत्र की तैयारी चल रही है। इसमें हर बार चक्रीय प्रक्रिया से चयनित संवाददाता माह के दौरान के अपने अनुभवों और अन्य मुद्दों पर लिखती हैं। एक समूह में गाने की रिहर्सल चल रही थी और एक अन्य कमरे में कुछ लड़कियां वाद विवाद और निबंध याद करने में व्यस्त थीं। यह तैयारी हर माह होने वाली बाल सभा के लिए की जा रही थी
श्री सुरेश के मुताबिक जब हमने इस प्रोजेक्ट को शुरू किया था तो सबसे पहले हमें युनिसेफ से दो साल के लिए सहयोग मिला था। उसके बाद वर्ष 2002 से यह प्रोजेक्ट दो सालों के लिए रीच इंडिया के सहयोग से चला। लेकिन उसके बाद पिछले दो सालों से सर्व शिक्षा के अभियान के ब्रिज कोर्स योजना से इसे वित्तीय मदद मिल रही है। लेकिन इसमें फंड अधिक न होने के कारण अभी हमें बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। श्री सुरेश के मुताबिक वर्ष 2005-06 में 100 में से 75 लड़कियों को हम नियमित स्कूलों में दाखिल कराने मे सफल रहे। इसी तरह वर्ष 2006-07 में 53 लड़कियांे को यहां ब्रिज कोर्स करने के बाद नियमित स्कूलों में दाखिला मिला। इस साल दो लड़कियां बोर्ड की परीक्षा भी दे रही हैं।
आश्रम के माहोल की बोरियत को तोड़ने के लिए समय समय पर लड़कियों को ऐतिहासिक स्थलों या दूसरे पिकनिक स्थलों पर भी लेजाया जाता है। इससे उन्हें अपने गांव के अतिरिक्त बाहरी दुनिया को देखने और समझने का मौका मिलता है।
जैसा कि कभी स्कूल न जाने वाली यहां की शाहीना कहती है मैं यहां आने से पहले अंधेरे से बहुत डरती थी लेकिन अब मुझे अधेंरे में भी डर नहीं लगता, मैं नहीं जानती थी कि शिक्षा की लौ इतनी तेज होती है।

Friday, 31 October 2008

मानवी के साहस


अन्नू आनंद
यहां उन महिलाओं की बात की जा रही है जिनकी उपलब्धियां तो असीम हंै लेकिन वे खबर बहुत कम बनती हैं। उनके संघर्ष, साहस और मेहनत के साथ काम की बात करें तो वे किसी भी लिहाज से ऐश्वर्या राय, इंदिरा नुयी, किरण मजूमदार शाॅ या सानिया मिर्जा से कम नहीं लेकिन वे टीवी चैनलों या अखबारों के पन्नों पर ढूंढने पर भी नहीं मिलतीं। ये वे महिलाएं हैं जो सभी प्रकार की विपरीत स्थितियों में भी नदी की धाराओं को मोड़ने का दम रखती हैं। इन्हें किसी नाम और शोहरत की भूख नहीं उनका मुख्य मकसद अपनी मंजिल तक पहुंचना है। असली भारत की ये योद्दाएं बिना किसी बड़े संगठन या संस्था की छत्रछाया के अपने गांव, समुदाय या समाज के विकास और उनके कायाकल्प के लिए दूर-दराज के गांवों मंे खमोशी से अपने काम को अंजाम देने में जुटी हैं।
ऐसी ही एक मानवी से मेरी मुलाकात उस दौरान हुई जब मंै मैला ढोने वाली महिलाओं की एक स्टोरी के सिलसिले में मध्यप्रदेश के देवास जिले की विभिन्न गावों का दौरा कर रही थी। उस का नाम क्रांति था लेकिन नाम के विपरीत वह स्वभाव से बेहद ही शांत और सौम्य थी। करीब 20 वर्ष की यह फुर्तीली युवती मुझे तीन दिन तक देवास के दूर -दराज की बस्तियों में घुमाती रही। उसके पास मेरे हर सवाल का जवाब था। वह मैला ढोने वाली महिलाओं के पुनर्वास से जुड़े एक अभियान की जिला संयोजक के नाते पूरे दौरे में मुझे मुद्दे से जुड़ी बारिकियों को समझाती रही। जिस बस्ती में भी हम गए, बस्ती के बच्चे और महिलाएं उसको देखते ही भागते आते और उसे हर महिला और बच्चे का नाम जुबानी याद था। महिलाओं को काम छोड़ने के लिए प्रेरित करना, बच्चों का स्कूलों में भर्ती कराना, पुनर्वास के कामों की व्यवस्था करने में मदद करना और फिर बस्ती में दलितों के साथे अन्य जातियों द्वारा किए जाने वाले अन्याय के खिलाफ खड़े होना, वह इन सब कामों में माहिर थी। काम के प्रति उसके समर्पण को देखकर मैं मन ही मन उससे प्रभावित हुए बिना न रह सकी।
एक बस्ती में उसने मुझे रेवती (बदला हुआ नाम) नाम की एक महिला से मिलाया। रेवती की शादी बहुत ही छोटी उमर में हो गई थी और ससुराल में कदम रखते ही अपनी परंपरा के मुताबिक झाड़ू और टोकरा हाथ में ले लिया था। 20 सालों तक शहरी कालोनियों में मैला ढोकर अपने परिवार का पेट पालने वाली रेवती के जीवन से बदबू का नाता अभी पूरी तरह नहीं छूटा। हांलाकि रेवती को यह काम छोड़े सात साल बीत चुके हैं लेकिन आज भी वह अपने बच्चों की खातिर कभी-कभार फिर से टोकरा हाथ में लेने के लिए मजबूर महसूस करती है। छोटी सी उमर में मन में पढ़ने का सपना पाले और सिर पर टोकरा उठाए लोगों की गंदगी को साफ करने के दिनों के बारे में जब वह बताती है तो सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन क्रांति के प्रयासों से रेवती जैसी कई महिलाएं अब यहां जीना सीख रहीं हैं।
क्रांति इन महिलाओं को जागरूक बनाने के काम के साथ देवास से पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही है। दौरे के आखिरी दिन एक रेस्तरां में खाना खाते हुए मैंने उससे पूछा कि वह पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर आगे क्या करेगी तो उसने जवाब दिया कि वह लाॅ करने की सोच रही है। इसके अलावा वह यह फील्ड वर्क भी जारी रखेगी। काम के साथ लाॅ की पढ़ाई क्या संभव हो पाएगा? वह बेहद संजीदा लेकिन हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘अगर मैं पढ़ती नहीं तो मेैं भी आज अपनी बहन ‘रेवती दीदी’ जैसे होती। उन की तरह पिता जी ने मेरी शादी भी 15 साल में कर दी होती और मैं भी दीदी की तरह -----’’
रेवती कौन? मैंने एकदम चैंकते हुए पूछा। रेवती वही बस्ती में रहने वाली जिससे आपने लंबी बातचीत की थी। वह मेरी सगी बहन है। हम दलित जाति से हैं इसलिए पिताजी ने उसकी शादी जल्दी कर दी थी। उसकी शादी के बाद मैंने ठान ली थी कि कुछ भी हो जाए मैं पढ़ना नहीं छोड़ंूगी। इसके लिए मुझे अपने परिवार और बिरादरी से एक लंबा विरोध करना पड़ा।
वह बता रही थी और मैं इस कल्पना से ही सहमी जा रही थी कि उसे अपने को इस श्राप से बचाने के लिए किस प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। खुद को इस नरक से बचाने के साथ अपनी बड़ी बहन और उन जैसी कई महिलाओं को बचाने में उसके संघर्ष और साहस के आगे मैं स्वयं और उन महिलाओं के व्यक्तित्व को बेहद बौना महसूस कर रही थी जिन्हें मैं अक्सर चैनल सर्फ करते हुए देखती रहती हूं।
ऐसी ही एक अन्य साहसी मानवी से मेरी मुलाकात राजस्थान के गांव सुरजुनपुर में हुई। अरावली के पर्वत की छाया में खुले आकाश में उसका डेरा था। छोटे छोटे टेंटों में आसमान के नीचे यहां कई परिवार रह रहे हैं। केला भी उन में एक है। केला बंजारन उस समुदाय से है जिनकी गिनती न तो बीपीएल परिवारों में होती है और न ही न ही वोटरों में उनका नाम आता है। जनसंख्या के आकड़ों में भी वे पूरी तरह शामिल नहीं। केला बंजारा जाति सहित घुमंतु समुदाय की अन्य जातियों बावरिया, भोपा और नट जाति के लोगों को उनके संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए दिनभर उनकी बस्तियों में घूमती रहती है। बच्चों के स्कूलों मे नाम लिखान,े पट्टे की जमीन के लिए आवेदन देने और बुनियादी सेवाएं हासिल करने के अधिकारों के बारे में समुदाय के लोगों को बताना उसका मुख्य मकसद है।
50 साल की केला ने दिल्ली, हरिद्वार सोनीपत, पानीपत जैसे शहरों में ढेरा लगा कर मुलतानी मिट््टी और नमक बेचकर अपने बच्चों को बड़ा किया है। लेकिन अब वह कहती है, ‘‘मेरा मकसद अब केवल अपने समुदाय के लोगों को इस घुमंतु जीवन से छुटकारा दिलाना है। इसके लिए वह राजस्थान में स्थायी डेरा लगा कर महिलाओं के बीच में काम कर रही है। पारंपरिक लहंगा, सिर पर बड़ी सी ओढ़नी, हाथों और पावों में चांदी के दिखने वाले पारंपरिक गहने और बाजूओं पर गोदने के निशान के साथ केला जब तेज तेज चलते हुए एक बस्ती से दूसरी बस्ती तक का लंबा रास्ता तय करती है तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि जीवन के इस पड़ाव में इतने कठिन जीवन जीने के बाद भी वह एक नई उर्जा ओर उत्साह के साथ इतने बड़े मिशन को पूरा करने का संकल्प रखती है। लेकिन अनपढ़ केला समुदाय की महिलाओं की मसीहा बन चुकी है। वह उनकी हर छोटी बड़ी समस्या को बेहद ध्यान से सुनती है और बीचबीच में उससे निपटने की सलाह भी देती जाती है।
राजस्थान के अजमेर जिले के तिहारी गांव की कमला देवी को मिलने के बाद मुझे सेलिबे्रटी की वास्तविक परिभाषा को समझने का एक और अवसर मिला। कमला दिखने में किसी भी देहाती महिला से भिन्न नहीं। सिर पर पल्लू, नाक में बड़ी सी नथ और हाथ पावों में चांदी के चमकते गहने। लेकिन वह साधारण महिलाओं की तरह खाना बनाने या सिलाई बुनाई की बातों की बजाए तारों के सक्रिट चार्ज कंट्रोलर और पैनलों को जोड़कर सौर लालेटन बनाने की जानकारी देती है। उसके द्वारा बनाए सौर लालटेन राजस्थान के गांवों के र्कइं अधेरे घरों और स्कूलों में प्रकाश फैला रहे हैं। कमला जब 12 साल की आयु में अपने ससुराल सिरोंज गांव में आई तो उसने कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखा था। वह अपनी चारों बहनों की तरह ही बिल्कुल अनपढ़ थी। उसके घर में स्कूल जाने का अवसर केवल उसके भाइयों को ही मिला। उसका काम अपनी बहनों की देखभाल करना, खाना बनाना और पानी ढोना और पशु चराना था। सिरांेज गांव में जब उसने बिजनवाड़ा के रात्रि स्कूल के बारे में सुना तो उसके मन में भी पढ़ने की इच्छा जागृत हुई। उसे लगा कि वह दिन भर घर के सारे काम खत्म कर भी स्कूल जा सकती है। लेकिन उसके पति सास इस बात के लिए तैयार नहीं थे। आखिर उसके ससुर ने उसका साथ दिया और उसने रात्रि स्कूल में पांचवी कक्षा तक पढ़ाई की। रात्रि स्कूल में पढ़ते हुए वह रात के अंधेरे में जलने वाले सौर लैंप से बेहद प्रभावित हुई क्योंकि गैर बिजलीकृत के क्षेत्र में इन लैंपों का अच्छा इस्तेमाल हो सकता है। यही सोच उसे केंद्र के ‘सोलर लाईट’ प्रशिक्षण कोर्स ले गई। इससे पहले गांव की किसी भी महिला ने सौर इंजीनियर का प्रशिक्षण नहीं लिया था। केवल पुरुष ही इसमें दाखिल होते थे। लेकिन अब कमला के कारण क्षेत्र की कई महिलाएं इसमे महारत हासिल कर अपने गावों में उजाला कर रही हैं।क्रांति, केला और कमला जैसी कई महिलाएं बेहद खामोशी से बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्यप्रदेश में बदलाव के नए अध्याय लिख रही हैं लेकिन जरूरत इन्हें पढ़ने और सराहने की है।





Thursday, 9 October 2008

पंचायतों में घुमंतू महिलायें


अन्नू आनंद
(अलवर, राजस्थान)वह समाज के सबसे पिछड़े समुदाय से हैं और समाज केसबसे निचले पायदान पर खड़ी हैं। उनके समुदाय के अधिकतरलोगों को वोट देने जैसे बुनियादी अधिकार भी हासिल नहीं।लेकिन वे अब लोकतंत्र की पहली सीढ़ी पर बेहद मजबूती केसाथ अपने कदम रख चुकी हैं। अपने समुदाय के विकास के लिएउन्होंने स्थानीय शासन का हिस्सा बनकर अपने संघर्ष की शुरूआतकर दी है।ये हैं पिछले वर्ष पहली बार राजस्थान की पंचायतों में नियुक्तहुई नट, बंजारा, बावरिया, भोपा जैसे घुमंतु समुदायों की उत्साही,उद्यमी महिलाएं।32 वर्षीय सावड़ी सूकड़ गांव की विमला पिलखुड़ी पंचायतकी उपसरपंच है। वह घुमंतु समाज के नट समुदाय से है औरकाफी समय से नट समाज की मुखिया रह चुकी है। विमला औरउसके परिवार की अन्य महिलाएं दौसा, भरतपुर और अलवर केग्रामीण इलाकों में नाच, तमाशा और नौटंकी कर अपनी जीविकाचलाते हैं। दिल्ली-जयपुर हाईवे से कुछ किलोमीटर की दूरी परबसी सावड़ी बस्ती में सात-आठ सौ परिवार रहते हैं। कच्चे-पक्केघरों में रहने वाले अधिकतर लोग नट समुदाय के हैं। गांव केकालूराम नट बताते हैं, ‘‘हमारे परिवारों में महिलाएं नाचती हैं यातमाशा करती है और पुरुष ढोलक आदि बजाने का काम करतेहैं। हम दीवाली के समय घरों से निकलते हैं और होली पर वापसघर लौटते हैं।’’ कुछ लोगों ने अब इस काम को छोड़कर अन्यछोटे-मोटे व्यवसायों को अपनाया है लेकिन जीविका के अभाव मेंउन्हें अपने पारंपरिक काम को ही करना पड़ता है। लेकिन अबउन्होंने निरंतर घुमंतु जीवन को छोड़कर पिछले कई वर्षों से यहींअपना स्थायी ठिकाना बना लिया है।विमला ने जब उपसरपंच के लिए अपना नामांकन भरा तोउसे कई गांवों का विरोध सहना पड़ा। विमला बताती है, ‘‘गांव केदूसरी जाति के लोगों ने स्पष्ट कह दिया कि हम नटिनी को बड़ापद नहीं देंगें। हमारा रास्ता भी रोक लिया गया। लेकिन नटसमुदाय के सहयोग से मैंने चुनाव लड़ा और 17 वोटों से जीतगई।’’उपसरपंच के रूप में विमला ने सबसे पहले गांव में पानी कीसमस्या को दूर करने के लिए नल लगाने का काम किया। गांवमें मौजूद दो पम्प गांववालों की पानी की जरूरतें पूरी करने केलिए काफी नहीं थे। उसने पंचायत में मामला उठाया और फिरएक नया पम्प लग गया। लेकिन उसकी मुख्य चिंता गांव की ओरजाने वाले रास्ते को पक्का बनाने की है।विमला पंचायत की हर बैठक में जाती है। पंचायत प्रतिनिधिबनने के बाद उसने बाहर गांवों में जाने का अपना काम भी कमकर दिया है ताकि विकास के कामों में अधिक रूचि ले सके।विमला के मुताबिक गांव में 40-50 बीघा जमीन एनीकट बनाने केलिए पड़ी है। लेकिन एनीकट न बनने के कारण बरसात के दिनोंमें इसमें पानी भर जाता है जिससे पूरे गांव में कीचड़ और गंदगीफैल जाती है। इसलिए उसकी मुख्य चिंता यहां एनीकट बनाने कीहै। विमला जिस उत्साह से पंचायत कार्यों में दिलचस्पी ले रही हैउसको देखकर लगता है कि वह बहुत जल्द नट समुदाय केविकास में एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित होगी।पारंपरिक लहंगा, ओढ़नी चांदी के गहने और बाजूओं परगोदने के बड़े बड़े निशान-- यह है गांव राढ़ी की 45वर्षीय मूमलबंजारन, जो बामनवास कांकड़ पंचायत से निर्विरोध वार्ड पंचनियुक्त हुई है। अलवर से 20-25 किलोमीटर की दूरी के बादएक किलोमीटर तक पक्की चट्टानों का रास्ता तय करने के बादयह बस्ती आती है। मूमल और उसके गांव के अधिकतर लोगबेवाड़ी, अलवर और राजस्थान के अन्य गांवों में नमक औरमुलतानी मिट्टी बेचकर गुजारा करते हैं। यह जानकर किसी को भीहैरत हो सकती है कि हमारे यहां आज भी वस्तुओं की अदला-बदलीप्रचलित है।मूमल बताती है कि एक मुट्ठी गेहूं के बदले चार मुट्ठी नमकदेना पड़ता है। गेहूं को बनिए को बेचकर वे लोग अपनी जरूरतोंको पूरा करते हैं। यह उनका पारंपरिक व्यवसाय है। अब वे कईअन्य छोटे-मोटे काम भी करते हैं लेकिन उसके समुदाय की मुख्यआय का साधन गांवों में गधों पर लादकर नमक और मुलतानीमिट्टी ही बेचना है।वार्ड पंच के रूप में उसकी मुख्य समस्या गांव में बिजली कीव्यवस्था करना है। उसने बताया कि गांव के पास की सड़क तकलाईट आती है लेकिन उनकी बस्ती को कनेक्शन नहीं दिया जारहा क्योंकि बस्ती के लोगों के पास पट्टे नहीं हैं। मूमल केमुताबिक, ‘‘पहले हम लोग एक जगह पर नहीं रहते थे लेकिनपिछले कई सालों से हमने अपना यहां स्थायी ठिकाना बना लियाहै लेकिन आज दो-तीन दशक बिताने के बाद भी हमें जमीन केपंचंचंचायतों ें में ें गूंजूंजूंजी घुमुमुमंतंतंतुअुअुओं ें की आवाज़अन्नू आनंदंदंदपट्टे नहीं मिले हैं। उसने बताया कि पंचायत में उसने बिजली औरसड़क को पक्का बनाने का मुद्दा उठाया है लेकिन उसे अन्यसदस्यों का सहयोग नहीं मिल रहा।मूमल के मुताबिक, ‘‘हमने पंचायत में जगह तो बना ली है औरहम अपनी बात रखने में समर्थ हैं लेकिन वहां अभी भी हमारे साथभेदभाव किया जाता है। विकास की सारी बहस गुज्जरों केसुझावों पर ही होती है। हमें अपनी बात मनवाने में अभी और समयलगेगा’’।किशोरी पंचायत की शारदा बंजारन का भी यही मानना है।वह कहती है कि मुलतानी मिट्टी और नमक बेचकर वह जो भीकमाती है वह भी बीडीओ के पास चक्कर लगाने में खर्च हो जाताहै। लेकिन वह पंचायत की हर बैठक में उपस्थित रहना चाहती हैताकि वह जान सके कि विकास कार्यों का पैसा कहां खर्च हो रहाहै। पृथ्वीपुरा पंचायत की सुआ बंजारन भी अपने गांव में पानी कानल लगाने के लिए संघर्ष कर रही है। वह शिकायत करती है,‘‘पंचायत बैठक में वह मेरी हर मांग लिखते हैं लेकिन जब मैंबीडीओ के पास जाकर पूछती हूं कि क्या हुआ है तो मुझे जवाबमिलता है कि यह प्रस्ताव तो आया ही नहीं।’’गेंदी बावरिया विराटनगर से केवल दो किलोमीटर की दूरी परबसे गोपीपुरा बस्ती से सोठाना ग्राम पंच नियुक्त हुई है। बावरियासमुदाय के लोग लंबे समय से जंगली जानवरों का शिकार करतेआए हैं। लेकिन 1972 में जानवरों के शिकार पर प्रतिबंध लगने केबाद से वे खेतों की जानवरों से रखवाली या पशुओं को चराने काकाम कर अपनी जीविका चलाते रहे हैं। 1871 में लागू एक्ट केतहत उन्हें आपराधिक जाति दबाव अधिनियम में शामिल कर लियागया था। इसी प्रकार भारत सरकार ने 1952 में इस अधिनियम कोखत्म कर इन पर आदतन अपराधी अधिनियम लागू कर दिया।जिसकी वजह से वे नागरिकों, पुलिस और दूसरे कानून लागू करनेवाली एजेंसियों के शोषण का शिकार हो रहे हैं।गेंदी बाई सहित उसके गांव के करीब पांच सौ परिवारों नेपिछले 14 वर्षों से घुमंतु जीवन छोड़कर राजस्थान की इस बस्तीमें अपना स्थायी ठिकाना बना लिया है। गेंदी बाई बताती है, ‘‘इतनेसालों के बाद भी हमें न तो जमीन के पट्टे मिले हैं और न ही उन्हेंकहीं और बसाया गया है। बस्ती में सबसे बड़ी दिक्कत पानी कीहै। गांव से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर लगे एक नल सेसमूची बस्ती पानी की जरूरतों को पूरा कर रही है। पंचायत मेंहमारी सुनवाई नहीं होती। सरपंच ब्राह्मण जाति का है इसलिएबैठक में हमारी कोई नहीं सुनता।’’ गेंदी और उसकी बस्ती केलोग जिस बस्ती में रह रहे हैं वह वन क्षेत्र की जमीन घोषित हैइसलिए उसे और उसके परिवार वालों को अक्सर वन अधिकारियोंकी प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है।’’ गेंदी बताती है, ‘‘हमारेघर में एक लकड़ी के टुकड़े को देखते ही जुर्माने की परची कटजाती है।’’इन सब समस्याओं के बावजूद पंचायत बैठक में वह अपनीबात रखने में संकोच नहीं करती। वह अभी पंचायत की बैठक सेलौटी है जिसमें विधवा पेंशन और बीपीएल कार्ड से संबंधित कुछफैसले लिए गए। गेंदी कहती है, ‘‘आज नहीं तो कल उन्हें हमारीसमस्याओं को सुनना ही पड़ेगा आखिर कब तक वे हमें खामोशरख पाएंगे।’’भोपा समुदाय की शीला केसरोली ग्राम पंचायत की वार्ड पंचनिर्वाचित हुई हैं। 45 वर्षीय शीला 120 भोपा परिवारों के साथपिछले तीन वर्षों से रामगढ़ गांव (भोपावास) में स्थायी रूप से रहरही है। भोपा समुदाय के लोग गाकर और पुरानी चित्रकलाओं कीकहानियां सुनाकर अपना पेट भरते आए हैं। शीला और उसकेपति आज भी गांव के लोगों का सारंगी बजाकर मनोरंजन करतेहैं। शीला ने सारंगी बजाना अपने घर के बड़े-बूढ़ों से सीखा है।शीला की बस्ती में 40-50 घर हैं। घास-फूस और मिट्टी के बनेइन घरों के पट्टे किसी के पास नहीं। गांव के सभी बच्चे खुले मेंपढ़ते हैं। पानी का भी कोई प्रबंध नहीं है।शीला के मुताबिक वह हर पंचायत की बैठक में बस्ती में पानीऔर बिजली की समस्या के बारे में बताती है। लेकिन पंचायत केलोग हमसे लिखवा तो लेते हैं पर उसका समाधान नहीं होता। वहबताती है, ‘‘लेकिन मैं चुप नहीं बैठूंगी। मैं अपनी मांगें तब तकरखती रहूंगी जब तक कि वे पूरी नहीं हो जातीं।’’पंचातयों में निर्वाचित घुमंतु समाज की इन महिलाओं कीसमस्या पंचायत बैठकों में न बोल पाना या पंच/सरपंच पति नहींहै। जिस बड़ी समस्या का सामना इन्हें करना पड़ा है वह हैविभिन्न जातियों के लोगों द्वारा इनकी स्वीकृति। इनके अस्तित्वको स्वीकारना और उनके साथ समान बर्ताव करना।घुमंतु समुदाय के विकास के लिए कार्यरत मुक्ति धारा संस्थाके संस्थापक रतन कात्यायनी के मुताबिक, ‘‘ये महिलाएं जागरूकहैं और स्थानीय प्रशासनिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए आगे आरही हैं। वे पंचायत बैठकों में बोलने से नहीं डरती लेकिन समाजउनके प्रति भेदभाव करता है। लेकिन समय के साथ और इनमहिलाओं की क्षमता से उसमें बदलाव आएगा।’’ कात्यायनी कोपूरी उम्मीद है कि ये घुमंतु महिलाएं अपने संकल्प में आखिरसफल होंगी। मुक्तिधारा पहली बार पंचायतों में चुनकर आने वालीइन महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए एक हजार रुपए प्रतिमाह की फेलोशिप दे रहा है।

मध्यप्रदेश में युवाओं ने किया गावों का कायाकल्प


अन्नू आनंद


(सीहोर, मध्य प्रदेश)


अरुण के चेहरे की मासूमियत और आंखों से झलकती शरारतदेखकर यह कयास लगाना कठिन था कि गांव के विकास मेंउसका भी कोई योगदान हो सकता है। किसी भी अजनबी केआगमन से बेखबर वह बड़ी तन्मयता के साथ गांव के बीचोबीचबने छोटे से चबूतरे पर एकत्रित हुए गांव के सभी छोटे-बड़े बच्चोंके हाथों के नाखूनों की जांच कर रहा था। ‘‘क्या तुम्हारे हाथों केनाखून कटे हैं,’’ इस सवाल को सुनते ही उसने अपनी गर्दन ऊपरउठाई और अपने कटे हुए नाखून वाले हाथ झट आगे कर दिए।इतना करने के बाद वह फिर से अपने काम में मग्न हो गया।दस वर्षीय अरुण मेवाड़ा गांव की ‘आजाद बाल विकाससमिति’ का सदस्य है। गांव के सभी बच्चों की साफ-सफाईजांचने की जिम्मेदारी इस समिति पर है। गांव में पोलियो कीखुराक दी जा रही है। धीरज और हृदयेश गांव के पांच वर्ष तकके सभी बच्चों को पोलियो बूथ भेजने का काम संभाले हुए थे।दोपहर तक वे गांव के सभी बच्चों को दवाई पिलाने का काम पूराकर चुके थे। 12 वर्षीय प्रमोद सभी घरों की दीवार पर बने सफाईके ग्राफ को चाक से भरने का काम कर रहा था। यह ग्राफ बताताहै कि अमुक घर में आज नाली की सफाई, घर के बाहर की सड़ककी सफाई और शौचालय की सफाई की गई है या नहीं।यह दृश्य है राजूखड़ी गांव का। भोपाल से करीब 45 किलोमीटरकी दूरी पर सीहोर जिले के दस गांवों में पानी, शौचालय औरस्वच्छता के सामुदायिक प्रयासों ने गावों का पूरी तरह कायाकल्पकर दिया है।तीन वर्ष पहले तक इन गावों में पानी की बेहद कमी थी बहुतसे घरों में शौचालय न होने के कारण गंदगी और पेट कीबीमारियां अधिक थीं। अधिकतर लोग शौच के लिए खुले में जातेथे। बच्चों में भी स्वच्छता की जानकारी का अभाव था। इस सबकाअसर गांव के अन्य विकास कार्यों पर भी पड़ रहा था। गांव केज्यादातर बच्चे स्कूल नहीं जाते थे क्योंकि गांव का इकलौताप्राइमरी स्कूल कभी-कभार ही खुलता था।वर्ष 2005 में भोपाल के गैर सरकारी संगठन ‘समर्थन’ नेसीहोर ब्लाॅक के 10 गावों में जल और शौचालय की एक परियोजनाकी शुरूआत की। इसके लिए यूके की एजेंसी ‘वाॅटर एड्’ सेवित्तीय मदद ली गई। संस्था ने प्रत्येक परिवार को घर मेंशौचालय बनाने के लिए 500 रुपए की मदद दी। शेष 2000 रुपएका खर्चा स्वयं परिवारों ने वहन किए। इसके अलावा उन्होंनेशौचालय बनाने में श्रम दान भी किया।सीहोर से करीब चार किलोमीटर कच्चा रास्ता पार करने केबाद राजूखड़ी गांव पहुंचा जा सकता है। गांव में कुल 88 घर हैंजिनमें से 80 परिवार पिछड़े वर्ग और आठ परिवार अनुसूचितजाति के हैं। यहां के अधिकतर लोग खेतों मंे मजदूरी का कामकरते हंै। गांव में करीब सभी घर कच्चे हैं, रास्ता भी कच्चा हैलेकिन फिर भी गांव का साफ-सुथरा और व्यवस्थित वातावरणकिसी काल्पनिक गांव का अहसास देता है। गांव के सभी घरों मेंशौचालय मौजूद है। घरों के गंदे पानी के निकास के लिए हर घरके बाहर एक पाइप की व्यवस्था है। इस पाइप को घर के बाहरबनाए गए सोक्ता (सोक-पिट) से जोड़ा गया है। सोक्ता के ऊपरबोरी का टुकड़ा लगा रहता है ताकि गंदी मिट्टी पानी के साथछनकर अंदर न जाए।इस व्यवस्था के बारे में गांव के सरपंच चंदन सिंह बताते हैं,‘‘गांव के पानी का स्तर कम न हो जाए इसलिए घरों से निकलनेवाले पानी को सोक-पिट के माध्यम से रिचार्ज किया जाता है।इसके अलावा पानी को संरक्षित करने के लिए मिली 36 हजाररुपए की सरकारी सहायता और गांववालों की मजदूरी की मददसे स्टाॅप डैम और चेक डेम भी बनाए गए हैं।’’गांव में लगे चार सार्वजनिक नल के अलावा कपड़े धोने केलिए अलग से प्लेटफाॅर्म बने हुए हैं। इन नलों और प्लेटफाॅर्म कीसफाई के लिए जिम्मेदार बाल समूह समिति के सदस्य प्रमोदबताते हैं कि किसी को भी नल के नीचे कपड़े धोने की इजाजतनहीं है क्योंकि इससे अन्य लोगों को पानी लेने में दिक्कत होतीहै और नल के नीचे गंदगी भी फैलती है।कुल 21 घरों में वर्षा का पानी संरक्षित करने की भी व्यवस्थाकी गई है। चंदन सिंह के मुताबिक, ‘‘तीन वर्ष पहले यहां पानीऔर शौचालय मुख्य समस्याएं थीं लेकिन स्थानीय संस्था ‘समर्थन’ने जब ‘पानी, स्वच्छता और शौचालय’ की परियोजना गांव में शुरूकी तो सभी परिवारों ने आर्थिक और श्रम का योगदान देकर इसेसफल बनाने में पूरा सहयोग किया।’’ इसके लिए बच्चे, युवा,महिला और पुरुष विभिन्न स्तरों पर अपना योगदान दे रहे हैं। हरग्रामीण को हिस्सेदार बनाने के लिए गांव में विभिन्न समितियांमप्र में ें युवुवुवा औरैरैर बच्चों ें ने किया गांवंवंवों ें का कायाकल्पअन्नू आनंदंदंदबनाई गई हैं। पांच से बारह वर्ष तक के बच्चों का ‘बाल समूह’ हैजिसकी जिम्मेदारी व्यक्तिगत स्वच्छता का ध्यान रखना है। इसकेअलावा वे गांव के हैंडपंप, वाशिंग प्लेटफाॅर्म और घर की साफ-सफाईका भी संचालन करते हंै। गांव के युवाओं का समूह ‘युवा विकासमंडल’ सामुदायिक संरचनाओं जैसे गांव के कुएं, टंकी, स्कूल औरस्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं की देखभाल करता है।‘युवा विकास मंडल’ के सदस्य धर्म प्रकाश ने बताया, ‘‘पिछलेकई वर्षों से हमारे गांव का प्राइमरी स्कूल केवल दो घंटे के लिएही खुलता था क्योंकि स्कूल की शिक्षिका भोपाल में रहने के कारण12 बजे के करीब स्कूल आती थी। हमारी समिति ने शिक्षिका सेकई बार इसकी शिकायत की। लेकिन कोई कार्रवाई न होने परहमने स्कूल में ताला लगा दिया और चेतावनी दी कि स्कूल पूरासमय नहीं खुला तो इसे बंद कर दिया जाएगा।’’युवा समिति की इस चेतावनी पर शिक्षिका ने अपने रहने कीव्यवस्था सीहोर में ही कर ली और अब स्कूल नियमित समय परखुलने लगा। इसी प्रकार इन युवाओं ने गांव में आने वालीअनियमित डाक के खिलाफ सूचना के अधिकार के तहत शिकायतदर्ज की तो पता चला कि गांव का डाकिया गांव की डाक नहीं लेजाता जिसकी वजह से काफी डाक पड़ी रहती है।धर्म प्रकाश के मुताबिक, ‘‘हमारी शिकायत के बाद अब रोजडाकिया आता है और गांव के बहुत से युवा जिन्हें अपने नौकरी केआवेदन के जवाब का इंतजार रहता था, वे अब अपने पत्रों केजवाब से खुश हैं।’’राजूखड़ी गांव में आज स्कूल, स्वास्थ्य सेवा और साफ-सफाईसब कुछ नियमित ढंग से चल रहा है। इसका पूरा श्रेय गांव कीसामूहिक भागीदारी को जाता है। गांव की महिलाएं स्वयं सहायतासमूह की सदस्य हैं। बचत के पैसे का इस्तेमाल ये महिलाएंछोटे-मोटे धंधे की शुरूआत में लगाती हंै।गांव में एक छोटे लेकिन बेहद ही सलीकेदार ढंग से सजेकमरे को ‘सूचना कंेद्र’ बनाया गया है। इस केंद्र में गांव में लागूहर सरकारी योजना की जानकारी के अलावा गांव से संबंधितदूसरे हर प्रकार की सूचना उपलब्ध है।सीहोर से आठ किलोमीटर दूर मानपुरा गांव में भी पानी औरशौचालयों की व्यवस्था ने पूरे गांव का नक्शा बदल दिया है। इसगांव में भी पानी की बेहद किल्लत थी। गांव के बीचोबीच बनेपुराने कुएं का जलस्तर भी काफी नीचे चला गया था। वर्ष के कुछमहीने ही यहां पानी उपलब्ध होता था। इस कमी को पूरा करने केलिए ‘समर्थन’ संस्था की मदद से यहां भी पानी और शौचालययोजना के तहत पानी आपूर्ति, शौचालय और स्वच्छता की एकीकृतपरियोजना शुरू की गई। इसके लिए समुदाय ने स्वयं औरसरकारी माध्यमों से फंड एकत्रित किया।यहां घरों की छतों पर वर्षा के पानी को संरक्षित किया जा रहाहै। कुल 60 घरों वाले इस गांव के हर घर की छत पर पानी कोएकत्रित करने की व्यवस्था है। पाइपों के माध्यम से वर्षा के पानीको पुराने कुएं में पहुंचाया जाता है। जिससे पानी रिचार्ज होकरनल में आता है। गांव के स्कूल में मिड-डे मील के प्रभारी दशरथका मानना है कि प्रोजेक्ट की शुरूआत से पहले गांव में दिसंबरआने तक पानी खत्म हो जाता था, लेकिन इस बार जनवरी-फरवरीमाह में भी पानी नलों में आ रहा है।सरकारी और सामुदायिक सहायता से दो लाख 36 हजाररुपए की लागत वाली 20 हजार लीटर पानी की एक बड़ी टंकीबनाई गई है। इस टंकी को पाइप के माध्यम से गांव की कुछ दूरीपर बने एक बोरवेल से पानी मिलता है। इस से गांव के 8सामूदायिक नल चल रहे हंै। इन नलों से पानी का इस्तेमाल करनेवाले परिवारों को गांव की ‘पानी और शौचालय निगरानी समिति’को दस रुपए प्रति माह फीस देने पड़ते हैं। इसके अलावा समिति30 रुपए प्रति माह की दर से घरों में भी पानी का कनेक्शन देतीहै।‘एकता युवा मंडल’ के पिंटू गांव के घरों की छत पर बने वर्षाके पानी को संरक्षित करने वाले ढंाचे को दिखाते हुए कहते हैं,‘‘कुछ साल पहले तक हमें पानी लेने के लिए एक किलोमीटर दूरजाकर बैलगाड़ियों पर पानी लाना पड़ता था, लेकिन अब हमनेपानी को बचाना सीख लिया है। अब हमें पानी की कोई कमी नहींहै।’’ पानी और शौचालयों से आई खुशहाली के बाद ग्रामीण जलऔर शौचालय समिति ने गांव में मिडिल स्कूल खोलने के प्रयासकिए। आज गांव में मिडिल स्कूल भी है जिसमें अन्य दो गावों केबच्चे पढ़ने आते हैं।‘समर्थन’ संस्था के जिला समन्वयक शाफिक का कहना है किराजूखड़ी, मानपुरा और जहांगीरपुरा सहित जिले के दस गांवों मेंआने वाले इस सार्थक बदलाव का मुख्य कारण सामूहिक भागीदारीहै। इसमें बच्चों और युवाओं की भगीदारी सबसे अधिक है, जोविभिन्न समितियों के माध्यम से इसे अंजाम देते हैं। इसके अलावापानी और शौचालयों के स्थाई संचालन के लिए हम पंचायतों कीक्षमता का निर्माण करते हैं। इसलिए कोई भी निर्णय पंचायतों कीभागीदारी के बिना नहीं होता।‘समर्थन’ के सामुदायिक समन्वयक लाखन सिंह के मुताबिककिसी भी योजना को लागू करने से पहले पंचायत समिति में उसपर बहस की जाती है। पंचायत सदस्य किसी भी मसले कोनिपटाने के लिए ग्रामसभा बुलाते हैं और सबकी सहमति से निर्णयलिया जाता है। राजूखेड़ी गांव के सरपंच चंदन सिंह का कहना हैकि उनके गांव की चैपाल आज भी संसद का काम करती है।सारे फैसले आज भी चौपाल पर ही लिए जाते हैं।साामूहिक भागीदारी की इस परियोजना ने यहां के लोगों केजीवन को पूरी तरह से बदल दिया है। शाफिक के मुताबिक पानीऔर शौचालय योजना की इस सफलता को देखते हुए जिले केअन्य गांव भी इसे अपनाना चाहते हैं। 􀂄

Monday, 6 October 2008

शिक्षा का प्रकाश फैलाते रात के स्कूल

अन्नू आनंद
(तिलोनिया, राजस्थान)
रात के आठ बजे का समय। जयपुर से करीब 120 किलोमीटरकी दूरी पर स्थित गांव तिलोनिया में एक स्कूल में सौर उर्जालैम्पों की रोशनी में 6 से 13 वर्ष की आयु के करीब 32 बच्चे पढ़नेमें तल्लीन हंै।जयपुर से अजमेर तक का अधिकतर रास्ता अरावली कीबंजर पहाड़ियों और पथरीली जमीन से घिरे होने के कारण अधिकही सुनसान है। रात का अंधेरा इसे और भी वीरान बना देता है।ऐसे वातावरण में स्कूलों से गूंजती बच्चों की प्रार्थनाओं की आवाजकिसी को भी हैरत में डाल सकती है।लेकिन यह द्वश्य केवल तिलोनिया गांव का नहीं। जयपुरऔर अजमेर और सीकर जिलों के कुछ गावों में चलने वाले रात्रिस्कूल इस समय कई परिवारों में शिक्षा का प्रकाश फैला रहे हैं।हालांकि सरकार शिक्षा आप के द्वार योजना के तहत हर बच्चे कोशिक्षित करने का दम भरती है लेकिन हकीकत में ऐसे बच्चों कीकमी नहीं जो गरीबी के कारण पारिवारिक आय में सहयोग करनेके कारण दिन के स्कूलों से बाहर हैं। यह बच्चे दिन के समयखेतों में मजदूरी या लकड़ियां लाने, पशुओं को चारा चराने तथापानी लाने के अलावा र्कइं घरेलू काम निपटाते हैं। इस के अलावादिन के स्कूलों की अधिकतर शिक्षा उनकी व्यावहारिक जरूरतोंकी दृष्टि से उपयोगी नहीं होती। इन स्कूलों में पढ़ाने का माध्यमग्रामीण बच्चों की रोजाना की भाषा से पूर्णतया भिन्न होता है।स्कूल का पाठ्यक्रम उनके परिवेश को ध्यान में रखकर नहींबनाया जाता। पांचवी या सांतवी पास करने के बाद भी छात्रकिसी प्रकार की हस्तकला या खेती बाड़ी के कामों में दक्ष नहीं होपाते। ये कारण ग्रामीण इलाकों के बहुत से बच्चों को औपचारिकशिक्षा प्रणाली से दूर रखते हैं।लेकिन तिलोनिया स्थित बहुचर्चित संस्था समाज कार्य एवंअनुसंधान क्षे़त्र (बेयरफुट कालेज) ने इन बच्चों को उनकी जरूरतोंके मुताबिक शिक्षित करने के लिए रात्रि स्कूलों की शुरूआत कीहै। इन स्कूलों के कारण बच्चे दिन भर अपने कामकाज खत्म कररात को सात बजे स्कूल पढ़ने आते हैं। यह स्कूल सामुदायिकभवन, धर्मशाला या किसी औपचारिक स्कूल की इमारतों में चलतेहैं।अजमेर जयपुर और सीकर जिले के गांवों में 150 ऐसे स्कूलचल रहे हैं। जिन में 3000 के करीब बच्चे पढ़ते हैं। इन में 90प्रतिशत संख्या लड़कियों की है। इन स्कूलों की सफलता सेप्रोत्साहित होकर केंद्रीय सरकार ने भी अन्य कई राज्यों मंे ऐसे125 रात्रि स्कूल खोले हैं।इन स्कूलों की देख-रेख का काम बेयरफुट कालेज काशैक्षणिक स्टाफ देखता है। स्कूलों का पाठ्यक्रम बच्चों की जरूरतोंऔर उनके परिवेश को ध्यान में रख कर तैयार किया गया है।स्कूलों में मुख्यतः पर्यावरणीय शिक्षा, हस्तकला के अलावा हिन्दीऔर गणित पढ़ाए जाते हैं।इसके अलावा पाठयक्रम को गावों की सामाजिक- आर्थिकऔर पर्यावरणीय स्थितियों से भी जोड़ा जाता है। ये स्कूल केवलपांचवी कक्षा तक ही सीमित हंै। चैथी और पांचवी की कक्षाओं मेंसरकारी स्कूलों के पाठयक्रम को भी शामिल किया जाता है ताकिरात्रि स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे बाद में औपचारिक स्कूलों में भी प्रवेशपा सकें।तिलोनिया स्थित रात्रि स्कूल नं 1 की कुल पांच लड़कियों नेपिछले वर्ष बोर्ड की परीक्षा पास की है। यहां कुल 32 छात्र हैं। इनमें लड़कियों की संख्या अधिक है। यह स्कूल 1998 से एक पुरानीखाली पड़ी धर्मशाला में चल रहा है। इस स्कूल में पढ़ने वाली10-11 वर्षीय जमुना दिन के समय पानी और लकड़ी लाने काकाम करती है। अनु दिन में बकरियां चराती है इसी तरह चंतादिन में घरेलु काम निपटाती है। यहां पढ़ाने की जिम्मेदारी दो अध्यापकों मुल्ला राम और चंद्रकातां पर है। मुल्ला राम हायर सेंकड्रीपास हैं जबकि चंद्रकाता सांतवी पास। बच्चों को पढ़ाने के बादरात नौ बजे अध्यापक सभी बच्चों को उनके घरों में छोड़ने के बादघर जाते हैं। चंद्रकाता हिन्दी और कला पढ़ाती हैं। च्ंाद्रकांताबताती है, ‘‘जब बच्चे रात के स्कूलों मंे पढ़ने के लिए आते हैं तोवे थके हुए होते हैं इसलिए हमें पढ़ाई को रूचिकर बनाने के लिएखेल और अन्य रूचिकर माध्यमों का इस्तेमाल करना पड़ता है।क्योंकि अगर पढ़ाई दिलचस्प नहीं होगी तो बच्चे पढ़ने नहींआएंगे।12 वर्षीय नदूं बताता है कि, ‘‘उसे रात में स्कूल आना अच्छालगता है। दिन में घर के कामों के कारण कोई स्कूल भेजता भीनहीं।’’ सात वर्षीय वनफूल बड़ी उत्सुकता से अपनी कापियांदिखाती है कि उसने गिनती और क ख ग सीख लिया है। उसकीशिक्षा का प्रक्रक्रकाश फैलैलैलाते रात के स्कूलूलूलअन्नू आनंदंदंदशादी हो चुकी है। यहां पढ़ने वाली दस वर्षीय चांत कुमारी भीविवाहित हैं। बचपन में हुई इस शादी की व्यर्थता को अब वे शिक्षाके माध्यम से समझ रही हैं। सभी स्कूलों में शिक्षकों के चुनाव कीजिम्मेदारी ग्राम सभा की शिक्षा समिति ही करती है। इस समितिमें गांव के कुछ वरिष्ठ व्यक्ति शामिल रहते हैं। सलाह-मशिवरे केअलावा ये समितियां स्कूलों के बजट बनाने का काम भी देखतीहैं।शिक्षक के चुनाव में शिक्षा स्तर की बजाय ऐसे व्यक्ति कोअधिक प्राथमिकता दी जाती है जो समुदाय के प्रति जिम्मेदार होऔर अच्छे प्रेरक का काम कर सके। इन शिक्षकों को बेयरफुटकालेज की ओर से प्रशिक्षण भी दिया जाता है। बेयरफुट कालेजके संस्थापक बंकर राय के मुताबिक इन स्कूलों से निकलने वालेकई अच्छे छात्र और छात्राएं उनके संस्थान में बतौर बेयरफुटइंजीनियर कार्य कर रहे हैं और वे रात्रि स्कूल से शिक्षित लोगों कोप्राथमिकता भी देते हैं।’’

Friday, 26 September 2008

सामुदायिक पुलिस व्यवस्था से गावों में सुधार

(रायपुर, छत्तीसगढ़)

अन्नू आनंद

धनेली गांव की 19 वर्षीया रानी साहू की आखों में खुशी साफदेखी जा सकती थी। अपने बाएं हाथ की बैसाखी को संभालते हुए,बड़े-बड़े कदमों के साथ गांव की तंग गलियों से गुजरते हुए वहबड़े उत्साह के साथ उन घरों की ओर इशारा करती जा रही थीजहां पहले या तो अवैध शराब की भट्ठी चलती थी या अवैध शराबबिकती थी। लेकिन अब यहां भट्ठी का कोई नामो-निशान नहीं है।रानी का कहना है, ‘‘अब आपको गांव में अवैध शराब की कोई भट्ठीनहीं मिलेगी। हमारे गांव में अब शांति है। शराब के कारण अबगांव में कोई दंगा नहीं होता। अगर कोई बाहर से लाकर भी यहांशराब बेचने की कोशिश करता है तो ग्रामीणों के साथ होने वालीमासिक बैठक में उसे उठाया जाता है और दोषी व्यक्ति केखिलाफ कार्रवाई की जाती है।’’ अपनी बड़ी-बड़ी आखों को औरबड़ा करते हुए बड़े गर्व के साथ बताती है कि बहुत सालों के बादइस बार होली गांव में शांतिपूर्वक बीती। ‘‘न कोई लड़ाई-झगड़ाहुआ और न ही किसी के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज हुई। अबतो हमारा गांव काफी सुधर चुका है।’’रानी की बातों में सचाई थी। 1200 की जनसंख्या वाले रायपुरजिले के इस गांव में सुधार की छाया साफ दिखाई दे रही थी।गांव की जो महिलाएं पति या घर के अन्य सदस्यों के शराब पीनेके कारण परेशान रहती थीं, अब महिला समूह के माध्यम से गांवके बेकार पड़े तालाब को खरीद कर उसमें मछली पालन काव्यवसाय शुरू करने की योजना बना रही हैं। कुछ समय पहलेतक पति की मारपीट को चुपचाप सहन करने वाली यहां की अध्िाकतर महिलाएं अब जानती हैं कि उन्हें ऐसी स्थिति में क्या करनाहै। गांव के प्राथमिक स्कूल में बच्चों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़रही है। गांववाले गांव में होने वाले किसी भी प्रकार के लड़ाई-झगड़ेकी सूचना के अलावा पानी, सिंचाई या स्कूल से संबंधित शिकायतको समुदाय संपर्क समूह यानी कम्युनिटी लेसन ग्रुप (सीएलजी) केसदस्य को देते हैं। संपर्क समूह का यह सदस्य उसे बाद में गांवमें होने वाली पुलिस अधिकारियों के साथ सामुदायिक कानूनव्यवस्था की बैठक में उठाता है।धनेली गांव में ऐसे संपर्क समूह के 12 सदस्य हैं जो गांव मेंकानून व्यवस्था कायम रखने तथा ग्रामीणों को उनके अधिकारों केप्रति सचेत करने का काम कर रहे हैं। रानी भी ऐसे ही एक संपर्कसमूह की सदस्य है और वह गांव की किसी प्रकार की समस्या कोसुलझाने में हमेशा उत्सुक रहती है।जिले के अन्य गांव टेमरी की महिला बुकय्या साहू जब गांवकी सरपंच बनी तो वह यहां के पुरुषों की शराब की लत से बेहददुखी थी। सरपंच बनने के बाद उसके लिए सबसे बड़ी चुनौतीगांव में चलने वाली अवैध शराब की भट्ठी को बंद कराना था। वहबताती है कि पंचायत के पुरूष सदस्यों का मानना था कि जब वेपंचायत की बैठक में पीकर आते हैं तभी बाघ बन पाते हैं। वे हंसतेहुए कहती है, ‘‘लेकिन पिछले करीब एक साल से सभी ‘बाघ’बकरी बन चुके हैं क्योंकि अब गांव के अधिकतर पुरुष न तो शराबपीते हैं और न ही लड़ाई-झगड़ा कर सकते हैं क्योंकि वे जानतेहैं कि इसकी तुरंत रिपोर्ट पुलिस थाने में हो जाएगी। इसलिएहमारी पंचायत में अब काम होने लगा है।’’रानी और बुकय्या साहू अपने गांवों में आए इस बदलाव कापूरा श्रेय ‘सामुदायिक पुलिस व्यवस्था’ को देते हैं। मानव अधिकारोंपर कार्य करने वाली दिल्ली स्थित गैर सरकारी संस्था ‘कामनवेल्थह्यूमन राइटस इनिशिएटिव’ और राज्य मानव अधिकार आयोग केसहयोग से वर्ष 2004 से पाॅयलट प्रोजेक्ट के रूप में यह योजनारायपुर जिले के माना पुलिस स्टेशन से चल रही है। योजना कामुख्य उद्देश्य पुलिस और समुदाय के परस्पर संबंधों को बेहतरबनाकर गांवों में कानून व्यवस्था कायम करना और ग्रामीणों कोउनके कानूनी अधिकारों के प्रति सचेत कर उन्हें सबल बनाना है।अपनी तरह के इस अनोखे माॅडल को माना पुलिस स्टेशन से 12गांवों की 33 हजार जनसंख्या पर चलाया जा रहा है।आदिवासियों से घिरे इस क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या अवैधशराब, सट्टा, जुआ और गैर सामाजिक तत्व है। अधिकतर गांवों मंेअवैध शराब के कारण समूचा सामाजिक ताना-बाना बिखरा हुआथा। देश की अधिकतर जनसंख्या की तरह यहां के गांवों के भीभोले-भाले ग्रामीणों ने पुलिस को कभी अपनी समस्याओं केसमाधान के रूप में नहीं देखा था। अवैध शराब के अधिक प्रचलनके कारण यहां कानून और व्यवस्था की समस्या अक्सर रहती थी।दो साल साल पहले तक गांववालों ने कभी सोचा भी नहीं था किपुलिसकर्मी उनकी किसी भी समस्या को सुलझा सकते हैं। लेकिनअब वे केवल कानून-व्यवस्था के अलावा पानी और स्कूल जैेसीबुनियादी जरूरतों के लिए भी पुलिस की मदद लेते हैं।सीएचआरआई की योजना निदेशक डोयल मुखर्जी के मुताबिक,‘‘1861 का पुलिस एक्ट पुलिस और समुदाय के संबंधों के प्रतिखामोश है। इस एक्ट में विकेंद्रीकृत पुलिस व्यवस्था या निजीपुलिस व्यवस्था का कोई वर्णन नहीं है। अतः आमतौर पर लोगस्वयं को पुलिस से अलग रखते हैं और समाज और पुलिस कीभूमिकाएं विपरीत रहती हैं। माना पुलिस स्टेशन के प्रयोग में हमनेपुलिस और समुदाय को जोड़ कर उनमें संवाद बनाने की प्रक्रियास्थापित की जिसका परिणाम बेहद सार्थक रहा।’’ग्रामीण पुलिस व्यवस्था और सामुदायिक पुलिस व्यवस्था केइस मुद्दे पर राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिर्पोटों में भी चर्चा होतीरही है। आयोग की सिफारिश थी कि प्रभावी कानून के लिएव्यवस्था पंचायतों और सब-डिवीजन पुलिस अधिकारियों के बीचनिकट संबंध होने चाहिए। कुछ राज्यों मंे पुलिस मैन्यूएल में ग्रामीणसमुदायों के साथ बेहतर संबंधों, और सामुदायिक पुलिस व्यवस्थाके सहायक के रूप में ग्रामीण सुरक्षा समितियों के गठन का जिक्रभी है। केरल के तिरुअनंतपुरम में ‘कम्बाइन्ड एक्शन अगेंस्टथीव्स, चीट्स एण्ड होलीगन्स (कैच) नाम की सामुदायिक पुलिसव्यवस्था चल रही है।लेकिन स्थानीय पुलिस को इस प्रकार की व्यवस्था के लिएतैयार करना हमेशा एक चुनौती रहा है। माना में सीएचआरआई नेइस प्रयोग को शुरू करने से पहले छत्तीसगढ़ सरकार, राज्य मानवअधिकार आयोग और गैर सरकारी संगठनों से लंबा संवाद किया।लेकिन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती पुलिसकर्मियों को तैयारकरना था। डोयल के मुताबिक सबसे पहले माना के पुलिस अध्िाकारियों के साथ प्रशिक्षण कार्यक्रम किए गए जिनमें उन्हें समुदायको संसाधन के रूप में इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण दिया गया।उनके मनोवृति को परिवर्तित करने के लिए प्रशिक्षण में कई प्रकारके तकनीकों का इस्तेमाल किया गया। गांवों में किए गए सर्वे सेपता चला कि लोग ऐसी पुलिस व्यवस्था चाहते हैं जो दिखाई पड़ेऔर जिसमें तत्काल कार्रवाई के साथ जवाबदेही बने।योजना के तहत माना थाना क्षेत्र के 12 गांवों को चार बीटों मेंबांटा गया है। हर बीट की जिम्मेदारी एक सब इंस्पेक्टर और दोकांस्टेबल पर है। ये बीट अधिकारी अपने बीट क्षेत्र की समस्याओंको चिन्हित करते हैं। हर बीट में चार ग्रामीण सदस्यों वालेसमुदाय संपर्क समूह (सीएलजी) यानी कम्युनिटी लेसन ग्रुप बनाएगए हैं। इन समूहों के सदस्य गांव में कानून व्यवस्था कायम करनेऔर कानूनी साक्षरता के अलावा लोगों को उनके अधिकारों केप्रति जागृत करने में सहायता करते हैं। हर बीट अधिकारी कीअपने क्षेत्र के लोगों के साथ माह में एक बैठक होती है जिसमेंआम ग्रामीण अपनी समस्याएं रखते हैं। इन समस्याओं को रजिस्टरमें नोट किया जाता है और क्या कार्रवाई की जाएगी उसके प्रतिनोट लिखा जाता है। अगली बैठक में फिर इस बात की समीक्षाकी जाती है कि क्या कार्रवाई हुई और नहीं तो क्यों?जो समस्याएं इस बैठक में हल नहीं हो पाती उन्हें फिर हरमाह पुलिस स्टेशन में संपर्क समूहों के साथ मुख्य पुलिस अधिकारीके साथ होने वाली बैठक में उठाया जाता है। समुदाय के साथकाम करने वाले प्रोजेक्ट सहायक अंशुमन झा के मुताबिक, ‘‘इसबैठक में संपर्क समूहों के सदस्य स्कूली शिक्षा में अनियमितताएं,सिंचाई और तालाब की व्यवस्था करने जैसी समस्याओं पर भीचर्चा की जाती है। फिर संबंधित अधिकारियों को इसके प्रतिलिखा जाता है। दहेज या बाल विवाह जैसी सामाजिक समस्याओंके खिलाफ गांवों में अभियान चलाने के लिए संपर्क समूह केसदस्यों को तैयार किया गया है। स्थानीय संगठनों, पंचायतों औरपुलिस की मदद से संपर्क समूहों के माध्यम से समय-समय परगांवों में जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं।माना पुलिस स्टेशन के एसएचओ जेपी दुबे का कहना है, ‘‘इसप्रयोग के कारण अब जनता और पुलिस की दूरी कम हुई है। गांवके लोग अपनी पंचायतों के काम न करने की शिकायतें भी लेकरआते हैं और अब वे आपसी झगड़े भी पुलिस के माध्यम सेनिपटाना चाहते हैं। सामुदायिक पुलिस व्यवस्था के चलते गांवोंकी पंचायतें सक्रिय हुई हैं क्योंकि उन्हें आशंका रहती है कि गांवके किसी भी विकास कार्य में गड़बड़ी होने या कुछ कार्य न होनेकी शिकायत सामुदायिक बैठकों में हो जाएगी।’’श्री दुबे के मुताबिक इस प्रोजेक्ट के तहत जब गांव में कामशुरू हुआ तो हमें पता चला कि 12 पंचायतों में से आठ पंचायतोंके सरपंच निष्क्रिय हैं। ग्रामीणों के साथ होने वाली बैठकों मेंउनकी शिकायतें आने लगी।’’बड़ौदा गांव के सरपंच द्वारा एकाउंट न देने पर संपर्क समूह(सीएलजी) के सदस्यों ने जब उसकी शिकायत थाने में की तो वहतुरंत एकाउंट देने को तैयार हो गया। इस प्रकार गांव डूमरतराईमें एक केमिकल फैक्टरी के प्रदूषण से परेशान लोगों ने सीएलजीके माध्यम से फैक्टरी मालिक के खिलाफ थाने में शिकायत दर्जकी। इस गांव के संपर्क समूह के सदस्य लीलाराम साहू ने बतायाकि पुलिस ने फैक्टरी से नमूना लेकर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डको भेजा। बाद में राज्य मानव अधिकार आयोग में मामला उठायागया। परिणामस्वरूप जांच से घबराकर फैक्टरी के मालिक नेजांच शुरू होने से पहले ही स्वयं ही गांव से फैक्टरी को स्थानांतरितकर दिया।इन शिकायतों को बेहतर मंच प्रदान करने के लिए प्रोजेक्ट केतहत माना पुलिस स्टेशन से एक त्रैमासिक न्यूज लेटर की भीशुरूआत की गई है। जनता पुलिस संबंधों पर आधारित इसपत्रिका ‘सहयोग माना’ में पुलिस सुधार के लेखों के अलावापंचायतों के सदस्य अपनी मूलभूत समस्याओं को रखते हैं। पत्रिकाके संपादक ग्रामीण कृष्णकांत ठाकुर का मानना है कि पत्रिका केमाध्यम से लोग स्वयं को प्रशासन से जुड़ा हुआ मानते हैं। यहपत्रिका उनके और प्रशासन के बीच संवाद की एक बेहतर कड़ीका काम करती है।कभी पुलिसकर्मियों को अपना विरोधी मानने वाले ग्रामीणकेवल अपनी समस्याओं के प्रति ही अब चिंतित नहीं बल्कि अब वेपुलिसकर्मियों की सीमाओं और सरोकारों को समझने लगे हैं।वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ एक बैठक में इन ग्रामीणों नेमाना पुलिस स्टेशन के लिए एक छोटी जीप प्रदान करने की मांगरखी, ताकि गांवों में उनकी पेट्रोलिंग बढ़ सके। आखिर पुलिसस्टेशन को गाड़ी मिल गई।अपने प्रकार का यह अनूठा माॅडल इन गांवों में कानून व्यवस्थाकायम करने के अलावा गांववासियों को सशक्त बनाने का भीकाम कर रहा है। इसकी सफलता को देखते हुए अब इसेछत्तीसगढ़ के अन्य जिलों में भी अपनाने की कवायद चल रही है।जैसा कि सुश्री डोयल कहती है कि निजी स्तर पर सामुदायिकपुलिस व्यवस्था के कुछ प्रयोग तो हुए हैं लेकिन ग्रामीण क्षे़त्र मेंसंस्थागत स्तर पर अपनी तरह का यह पहला प्रयोग है।छत्तीसगढ़ पुलिस महानिदेशक श्री ओपी राठौर इस प्रयोग सेबेहद आश्वस्त हैं वह कहते हैं, इस प्रयोग से थाने में दर्ज होनेवाले मामलों की गिनती बड़ी है। अब महिलाएं भी अधिक संख्यामें शिकायतें लेकर आती हैं। इस प्रयोग की सफलता से खुशहोकर राज्य पुलिस विभाग राज्य के अन्य जिलों में भी इसे शुरूकरने की योजना बना रहा है।सुविधाओं के अभाव में पुलिसकर्मियों के लिए ऐसा प्रयोगचलाना सरल नहीं। बिना किसी विशेष प्रोत्साहन के उन परअतिरिक्त जिम्मेदारियां डालना एक मुश्किल ही नहीं कठिन चुनौतीहै, जैसा कि अंशुमन कहते हैं, ‘‘लेकिन इससे गांववालों के दिलोंमें पुलिस वालों का आदर भाव बढ़ा है, अब वे उन्हें अपना दोस्तऔर मानव अधिकारों के रक्षक मानते हैं।’’ आखिर यह एक बहुतबड़ी उपलब्धि है।

Thursday, 11 September 2008

A school without pen and bag



By : Annu Anand
Udaipur, Rajasthan
It was an unusual classroom of seventh standard in Central Public Senior School in the tribal belt of south Rajasthan, in Udaipur. All forty students in the class were taking geography lessons on their respective computers. They were doing an exercise of a chapter on earth and rocks. All the information on the chapter was accessible on their computer screens. The kids were busy exploring different sections of their lesson with the help of their little mouse. To an outsider, it may appear that a computer class is in session.
But this is a unique class. They study all subjects - mathematics, Hindi or general knowledge - on the computer. Similar was the scene in all other classrooms in the school. Even nursery kids were learning A for Apple and Ant from their computers. As soon as they see pictures, the class would reverberate with sounds of the children.
This school is well on way to becoming the country's first pen-less and bag-less school. It was started in 1998 and has about 1200 students on its rolls. When Alka Sharma, the school's principal, founded the institution she wanted to free children from the burden of school bags on their shoulders. She began thinking of different ways and means of doing so and decided to use computers to translate her ideas into action. After all, she thought, computerized education has a bright future. This inspired her to go ahead and transform her dream into reality. To begin with, she used software to transform syllabus of different subjects into computerized modules.
The whole class is introduced to a new lesson with the help of a liquid crystal display (LCD) and projector. The subject teacher lectures in recorded voice the lesson's main points as in a normal classroom. Then children do the exercises on their computers. For homework and exercises, children are allowed to take computers home by rotation. The head of the Computer Department, Sunil Bawel, says: "Teachers with help from technical staff prepare question papers using special software packages such as Karo Karo." The 'answer sheets' are checked on computers and marks given to students instantly.
All tests for second to the 12th standard are conducted over computers only. Alka Sharma says: "We would like to have the final examination of 12th standard also on computers, but parents are not yet ready for it. Moreover, the state examination board has to agree for the change." So, about half the final examinations in the school are conducted over computers while the rest are taken the traditional way- with paper and pen.
In 2003, the school received second prize for excellence in computer education from the President, Dr. A P J Abdul Kalam. "Initially when I used to talk about pen-less school, people used to be surprised. But now my dream has taken shape. After we got this recognition, parents are also encouraged about the experiment and are now helping the school in conducting all exams on computers," says Alka Sharma. Most children in the school are happy with the new teaching system. Showing pictures of different rock on his computer screen, Mayank, studying in the seventh standard, says this way one can explore different subjects creatively and also get practical information. "We can make power point presentations even on difficult subjects", adds Kirti Jain of the same class.
For children who work for long hours on computers, physical exercises are prescribed. They are taught to practice pranayama and yoga. In addition, there is facility for acupressure also. In every class the computer kept is on a trolley so that it can be moved around in case the teacher has to explain something. All information about the school's e-library and video library is available on compact discs and children can access these.
As the principal says, the school is fully equipped and ready to be the completely computerized teaching institution in the country. Even final examinations will be conducted on computers once the education department gives the go-ahead.

Wednesday, 3 September 2008

सरपंच की सूझबूझ से गांव में आया पानी


अन्नू आनंद
अलवर से कोई 85 किलोमीटर दूर कच्चे और उबड़-खाबड़ रास्ता तय करने के बाद गांव पड़ता है बरवा डूंगरी। यहां रहने वाली बलोदेव पंचायत की सरपंच 45 वर्शीय लालीदेवी अपने घर के खुले अहाते में गांव में लगाई जाने वाली शौचालयों की सीटों को रखवा रही थी। यह सीटें बरवा डूंगरी और बलोदेव गांव के गरीबी की रेखा से नीचे वाले परिवारों के घरों में लगाए जाएंगे। बलोदेव पंचायत मे पांच राजस्व गांव आते हैं।
सरपंच लाली देवी के मुताबिक गांव की सबसे बड़ी समस्या शौचालय की है। सीटों को गिनते हुए वह बताती है कि गांव में सभी घरों में शौचालय नहीं। खासकर गरीबों की बस्ती में। इन परिवारों को काफी दिक्कत होती है। महिलाओं के लिए रात में बाहर जाना उतना आसान नहीं हैं। गांव में जंगली जानवर भी आते हैं। क्षेत्रीय सुधार योजना के तहत लाली देवी ने इन परिवारों में शौचालय की सुविधा प्रदान करने का प्रस्ताव भेजा। जो मंजूर हो गया। अब लाली देवी प्रसन्न है कि गांव की सबसे बड़ी परेशानी दूर हो जाएगी। लेकिन लाली देवी के लिए यह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं जिस सूझबूझ से वह दो गांवों में पानी की समस्या को हल कर रही है उस के लिए इन गावों में दनकी विशेष प्रंषसा की जाती है।
बरवा डूंगरी के इस छोटे से गांव में करीब 35 परिवार रहते हैं। इनमें अधिकतर मीणा जात के हैं। इस गांव के साथ सटा हुआ गांव पांवटा है। यहां पर गुर्जर जात के करीब 45 परिवार रहते हैं। ये लोग अधिकतर छोटी मोटी खेती या पशुपालन से अपना गुजारा करते हैं। लेकिन राजस्थान में पिछले कुछ सालों मे पड़ने वाले सूखे और राज्य में हमेशा रहने वाली पानी की कमी ने इनकी समस्याओं को बढ़ाने का काम ही किया। ये गांव पिछले कईं सालांे से पानी की किल्लत झेल रहे थे। जबकि यहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित नारायणी माता के गांव में स्थित नारायणी माता के मंदिर का कुण्ड हमेशा पानी से भरा रहता है। इस कुण्ड से एक नाला निकलता है। लेकिन इस नाले का अधिकतर पानी व्यर्थ बह जाता था।
नाले का पानी इस्तेमाल करने के लिए गांववालों ने कई बार उस पर मिट्टी का बांध बनाया लेकिन बरसात आते ही वह टूट जाता और पानी चारों ओर बिखर कर व्यर्थ बहने लगता। दोनो गांववालों ने आपसी सहमति से समस्या का हल करने की सोची। दोनों गांववालों ने अपने-अपने गांव के प्रतिनिधि चुनकर एक समिति बनाई जो इस का हल खोज सके। गांवों के प्रतिनिधि नारायणी माता गांव स्थित ‘चेतना’ संस्था के पास अपनी समस्या लेकर गए। यह संस्था कासा से मिलने वाली आर्थिक सहायता से आसपास के क्षेत्र में सामाजिक आर्थिक विकास के कार्य करती है। संस्था के सचिव दीन दयाल व्यास के मुताबिक वर्ष 99 उनके कार्यकत्र्ताओं ने दोनो गांव के लोगों के साथ बैठकें की और समस्या के हल पर विचार किया गया। आखिर नाले पर छोटा सा पक्का बांध बनाने पर सहमति हुई।’’
गांवों द्वारा नियुक्त समिति की देखरेख में वर्श 99 के जून माह में पक्का बांध बनाकर पानी रोकने का काम शुरू हुआ। दोनों गांववालों ने बांध बनाने की कुल लागत का 25 प्रतिशत वहन करने की पेशकश की। बांध बनाने में कुल 95 हजार रुपए का खर्चा आया। लेकिन पक्का बांध बनाने के बाद पानी का इस्तेमाल न्यायोचित ढंग से इस्तेमाल करने के लिए दोनों गांवों ने एक अनूठा तरीका निकाला। व्यास के मुताबिक पानी के उचित बटवारे गांववालो की सहमति के बिना संभव नहीं था। इस कार्य में लाली देवी ने लोगांे में सहमति बनाने का अद्भुत कार्य किया। बनाए गए बांध में दो रास्ते पानी के निकास के लिए रखे गए। एक निकास से पांवटा गांव को पानी मिलता है दूसरे से बरवा डूंगरी को। दोनों गांवों ने बारी-बारी से पानी लेने पर सहमत हुए। पांवटा गांव के पानी लेने के समय बरवा डूंगरी का निकास बंद कर दिया जाता है और जब बरवा डूंगरी को पानी चाहिए होता है तो पांवटा को पानी देने वाले निकास को बंद कर दिया जाता है। इस तरह आपसी समझ और मेल जोल से दोनों गांव व्यर्थ बहते पानी को अपने खेतों में इस्तेमाल कर रहे हैं। लाली देवी के नेतृत्व में गांववालो ने जिस समझ से पानी की समस्या को हल किया उससे जल विवाद में फसे कर्नाटक और तमिलनाडू राज्यों को भी सीख मिलती है।
इस संबंध में पांवटा गांव की तिबारी में बैठे रामकिषोर कहते है कि नाले पर पक्का बांध बना देने से अब वह दो बीघा की बजाए तीन बीघा जमीन पर फसल बोने में समर्थ हैं। हुक्का गुड़गुड़ाते छोटे लाल भी उनके समर्थन में बोलते हुए बताते हैं, ‘‘अब पानी खूब आयो। पहले कच्चा बांध होने के कारण बरसात से टूट जाता था अब हम दो गांव तीन-तीन घंटे की बारी से पानी इस्तेमाल करते हैं खेत को पानी अच्छा मिल रहा है।’’
लाली देवी वर्ष 2000 में सुरक्षित सीट से बलोदेव पंचायत की सरपंच चुनी गई थी। दो लड़को और दो लड़कियों की मां लाली देवी घर के कामों को निपटाने के बाद खेती का काम भी देखती है। वह मानती है कि सरपंच बनने के बाद उसे बहुत से कामों में पति की सहायता लेनी पड़ी लेकिन धीरे धीरे उन्होंने कामों की बारीकी को पहचानना षुरू किया। इस काम में उन्हें पंचायत सदस्यों के लिए आयोजित प्रशिक्षण से काफी मदद मिली। उनके मुताबिक वह अभी भी गांव के बुर्जगों के सामने घूंघट निकालती हैं लेकिन अब यह घूंघट उसके काम के प्रति उत्साह और आत्मविश्वास मे बाधा नहीं बनता। सरपंच बनने के बाद गांव मंे दो स्कूल और धिरोड़ा गांव मे स्वास्थ्य केंद्र बनवाने के बाद अब वह पंचायत के सभी गावों मे शौचालय बनावाने के कार्य को पूरा करने में जुटी हैं।
इस के बाद उनकी सब से बड़ी प्राथमिकता बरवा डंूुगरी मे स्वास्थ्य केंद्र खोलने की है। लाली देवी के मुताबिक उनके गांव में नर्स दूर गांव से आती है और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी 17 किलोमीटर दूर है जिसकी वजह से रात में डिलीवरी में महिलाओं को बेहद मुश्किल होती है। बलोदेव पंचायत में पांच महिलाएं और सात पुरूश हैं। पंचायत की सभी महिला सदस्यों से राय लेने के बाद ही कोई फैसला हो पाता है। लाली देवी के पति और वार्ड पंच कल्याण सिंह मीणा कहते हैं, ‘‘पहले पंचायत के बहुत से कामों में वह उनकी मदद करते थे लेकिन अब तो पंचायत मींटिग में उनके बहुत से फैसलों को सरपंच रद्द कर देती हैं। उन की इस बात पर लाली देवी हंसते हुए कहती है, ‘‘अब बात तो वही मानी जाएगी जिस पर सब की सहमति हो। फिर अब हमें अपनी समझ पर पूरा भरोसा है। जरूरत है इस समझ को पहचानने की।’’लाली देवी की इस बात में दम है।
जरूरत पड़ने पर एक अनपढ़ और देहाती महिला केवल अपने अनुभव के आधार पर बड़े बड़े विवादों को भीे सुलझा सकती है जो शहर के पढ़े लिखे लोग अपने तर्कों के आधार पर भी नहीं कर सकते। कम से कम सरपंच लालीदेवी का अनुभव तो यही सीख देता है।