Friday 2 April 2010

ऐसी तालिबानी सोच का क्या करें

अन्नू आनंद

मुलायम सिंह कहते हैं कि अभिजात्य वर्ग की महिलाओं के संसंद में आने से छेड़खानी की घटनाएं बढ़ेंगी। उन का कहना है कि बड़े घर की महिलाओं के संसंद में आने से लोग सीटियां बजाएंगे। महंत नृत्यगोपाल दास का कहना हैं कि महिलाओं को अकेले मंदिर, मठ या देवालय नहीं जाना चाहिए। इन जगहों पर उन्हें पुरूषों को साथ लेकर ही जाना चाहिए। धर्मगुरू रामविलास वेदांती तो महिलाओं के अकेले मंदिर में जाने पर प्रतिबंध लगाने के पक्ष में है। शिया कल्बे ज़व्वाद का कहना है कि महिलाओं को घर संभालना चाहिए, बच्चे पैदा करने चाहिए। उन्हेें राजनीति से दूर रहना चाहिए। उन्हें अच्छे नेता पैदा करने चाहिए न कि स्वयं नेता बनना चाहिए।

एक बार फिर से मुखर होती इस मर्दवादी सोच से साफ जाहिर है कि महिलाओं की बढ़ती सबलता से राजनेता और धर्मभीरू अपनी सत्ता में सुराख होते देख पूरी तरह बौखला गए हैं। एक ओर वे महिलाओं की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए राजनीति में उनके प्रवेश का विरोध कर रहे हैं तो दूसरी तरफ अपने पापों को छिपाने के लिए धर्म का सहारा लेकर महिलाओं को ऐसे खांचों में कैद करने की चाल चल रहे हैं जिससे उनकी पुरूषों पर निर्भरता बनी रहे। मुलायम सिंह समर्थक महिलाओं कीे राजनैतिक ताकत से डरे हुए हैंे इसलिए वे हर जायज और नाजायज हथकंडा अपनाकर महिलाओं को संसद से बाहर रखना चाहते हैं। धर्मगुरू राजनीति के साथ महिलाओं की वैयक्तिक आजादी पर भी प्रतिबंध की बात कर रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने साथी साधू संतों के चरित्र पर भरोसा नहीं।

मुलायम सिंह जिन्हें संसद में महिलाओं की तादाद बढ़ाने से सीटियों का डर सता रहा है वे ऐसी ओछी हरकतों के खिलाफ आवाज बुलंद करने की बजाय महिलाओं को संसद से बाहर रहने की सलाह दे रहे हैं। लेकिन वह यह भूल रहें हैं कि संसद के दोनो सदनों में अभी भी जितनी महिलाएं मौजूद हैं वे सिरफिरों की सीटियों का जवाब देने में पूरी तरह सक्षम हैं। ऐसे ओछों से निपटने के गुर वे जानती हैं और इसके लिए उन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं। लिहाजा जरूरत उन ओछे कठमुल्लापंथियों से लड़ने की है जो महिलाओं के राजनीति में आने से इस प्रकार भयभीत हैं कि कभी जाति कभी धर्म और अब उनकी अस्मिता और सुरक्षा का खोखला आधार बनाकर उन्हें घर की चारदीवारी में कैद करने की साजिश रच रहे हैं।

बाबा भीमानंद और स्वामी परमहंस नित्यानंद के सेक्स सकंेडलों में लिप्त होने के खुलासे के बाद नृत्यगोपाल दास और वेदांती जैसे धर्मगुरूओं को महिलाओं का मंदिरों में जाना नागवार लग रहा है। हास्यस्पद तो यह है कि ढोंगी साधू महात्माओं को सजा देने, उन्हें संयम सिखाने और महिलाओं का सम्मान करने का पाठ पढ़ाने की बजाय ये धर्मभीरू महिलाओं पर ही शिकंजा कसने लगे। कोई भी साधू का चोला पहन कर ही सच्चे अर्थों में साधू नहीं हो जाता। ऐसे फर्जी साधू तो हर जगह हैं लेकिन इसके लिए महिलाएं घरों में कैद तो नहीं हो सकतीं। उचित तो यह होता कि सभी धर्माचार्य ढोंगी बाबाओं की हवस पर लगाम लगाने और उन्हें उनके अपराध की कड़ी सजा देने की हिमायत करते। लेकिन इसका समाधान भी कट्टरपंथियों की इस जमात को महिलाओं के मंंिदर में अकेले प्रवेश पर रोक लगाने में दिख रहा है। यह तो वही बात हुई हाथ पर लगी चोट का इलाज करने के लिए हाथ काटने की सलाह देना। तरस आता है ऐसी सोच पर और इसको खमोशी से सुनने वाले समाज पर जो आज भी हर क्षेत्र में अपनी कौशलता से र्कीति के नए आयाम बनाने वाली मानवियों की सुरक्षा के नाम पर अपना भय, कमजोरी ओर कामुकता को छिपाने का गंदा खेल खेल रहे हैं। ऐसी मर्दवादी सोच का इतिहास काफी लंबा है।

तलिबानो ने महिलाओं पर पाबंदी लगाने के लिए हमेशा ही धर्म का सहारा लिया है। ऐसा ही एक फरमान के द्वारा वर्ष 1998 में अफगानिस्तान में तालिबानों ने महिलाओं की सभी बसों पर पर्दे लगाने और इन बसों में टिकट काटने के लिए 15 साल से कम उमर के लड़कों को रखने का हुक्म सुनाया। आदेश के पीछे इस्लाम धर्म का हवाला दिया गया। महिलाओं को बसों में पर्दों के पीछे रहनेे के इस हुक्म का कारण भी महिलाओं की इज्जत की रक्षा बताया गया था। ऐसी ही तालिबानी सोच अब भारत में भी लगातार सिर उठा रही है। महिलाओं को सुरक्षित रखने की यही दलील अब वेदातीं जैसे महंत और जव्वाद जैसे मौलना दे रहे है। यानी महिलाएं पुरूषों की हवस और दरिदंगी का शिकार न हो उनके रूप और सौन्दर्य को देख कर उनका मन न डोल जाए इसका इंतजाम भी महिलाएं करें।
यह प्रवृति सदा से महिलाओं को पीछे धकेलने की साजिश रचती रही है। इन धार्मिक कठमुल्लाओं का मकसद एक ही है कि अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए महिलाओं को ज्ञान और शिक्षा से दूर रखना। जहां उनके आत्मनिर्भर या सबल होने की बात होती है तो कभी इस्लाम, कभी हिंदू धर्म और कभी भारतीय संस्कृत के नाम पर महिलाओं के विचारात्मक शोषण करने की साजिश शुरू हो जाती है।

वर्ष 1990 में कोलकाता से प्रकाशित होने वाली एक बंगला पत्रिका को बांगलादेश में प्रवेश की अनुमति इसलिए नहीं मिली क्योंकि यह पत्रिका नारी शरीर की संपूर्ण जानकारी देने के साथ स्त्री शरीर के विकास की विभिन्न प्रक्रियाओं की जानकारी देती थी। लेकिन बांग्लादेश के तत्कालीन कत्र्ताधत्र्ताओं को यह अंक नागवार लगा इसलिए इस पर पाबंदी लगा दी गई। दरअसल नारी शरीर और उसकी विभिन्न प्रक्रियाओं की वैज्ञानिक जानकारी आम महिलाओं को मिलना पुरूषों के हित में नहीं था। महिला अगर यह समझ हासिल कर ले कि बच्चे के लिंग की जिम्मेदारी उस की नहीं पुरूष की है,े यौन संबंधों मे जितना सुख का अधिकारी पुरूष है उतनी महिला भी तो पुरूषों को महिला पर मनमानी चलाने और ‘लड़की जनने’ के उलाहने देने की तानाशाही चलाने में कष्ट होता।

जो तर्क इस पत्रिका के पर रोक लगाने के लिए है वही भारत में फायर जैसी फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए उत्पात मचाने वालों के थे। ऐसी ही तालिबानी सोच रखने वाले ‘मनसे’ के लोग कितनी बार भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर कभी फिल्मों के पोस्टर जलाते हैं, कभी पब जाने से रोकते हैं कभी वेलंनटाइन डे को मुद्दा बनाते हैं। महिलाओं के पहनावे से लेकर उनके उपनाम तक उनके निशाने पर है। भारत में धर्म और राजनीति में ऐसी तालिबानी सोच बेहद उफान पर है। लिहाजा अभी सबसे बड़ी चुनौती महिलाओं को इन धर्मभीरूओं, कठमुल्लापंथियों की चालों को नाकाम करने की है।