Saturday 27 December 2008

भाषायी पत्रकारिता को सलाम


अन्नू आनंद
भारतीय पत्रकारिता में अंग्रेजी की चैधराहट अब अधिक समय नहीं चलेगी। राष्ट्रीय पाठक सर्वे2006 ने स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय भाषायी समाचारपत्र अंग्रेजी पत्रों से कहीं आगे है। इस वर्षभारतीय भाषाओं के पाठकों की संख्या पिछले वर्ष के मुकाबले एक करोड़ 36 लाख बढ़ी है जबकिअंग्रेजी के पाठकों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई। अंग्रेजी के पाठक आज भी दो करोड़ दसलाख ही हैं जबकि भाषायी पाठकों की संख्या 20 करोड़ 36 लाख है। पाठकों की संख्या में जोबढ़ोतरी हो रही है वह केवल हिंदी या अन्य भाषाओं के पाठकों की है।पिछले लंबे समय से मीडिया जगत के लंबरदार अंग्रेजी अखबार ही बने हुए हंै। जबकि देश केसबसे अधिक पढ़े जाने वाले पहले दस अखबार हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के हैं। सर्वे के मुताबिकअंग्रेजी का एक ही अखबार 11वें नंबर पर है।

राष्ट्रीय राजधानी से निकलने वाले अंग्रेजी के इन अखबारों ने ऐसा भ्रम बना रखा है कि वे ही देशकी अधिकतर जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। देश की राजधानी से निकलने के कारण इनसमाचारपत्रों की पहुंच राजनेताओं और अफसरशाहों तक अधिक है। अंग्रेजी राज की मानसिकता सेग्रस्त केंद्रीय मंत्री भी वही पढ़ता, समझता और सच मानता है जो दिल्ली से निकलने वाले अंग्रेजीके मुख्य अखबार छापते हैं। विज्ञापनों के जरिए इन अखबारों ने ‘नंबर वन’ होने का ऐसा मायाजालफैला रखा है कि नेता से लेकर अभिनेता तक इन्हीं अखबारों को जनता का ‘आईना’ समझता है।जबकि हकीकत यह है कि मात्र 75 लाख की पाठक संख्या के साथ अंग्रेजी का ‘टाइम्स आॅफइंडिया’ अखबार 11वें स्थान पर है। पहले दो नंबर पर आने वाले हिंदी के पाठकों की संख्या दोकरोड़ से ऊपर है। अब आम जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है यह सिर्फ अंग्रेजीअखबार के मालिकों को ही नहीं बल्कि नीति निर्माताओं और राजनेताओं के लिए समझना जरूरीहै। क्योंकि किसी भी मुद्दे पर कार्रवाई की उम्मीद तब तक नहीं की जाती जब तक उसकी खबरइन अंगे्रजी समाचारपत्रों में नहीं छपती।
बड़ा अखबार केवल अधिक विज्ञापनों की संख्या से नहीं बल्कि अधिक पाठकों की संख्या सेपहचाना जाना चाहिए। इसके लिए मुख्यधारा के मीडिया को पुनर्परिभाषित करना होगा। निजीचैनलों के बढ़ते वर्चस्व में अखबारों के पाठकों की यह वृद्धि एक सुखद आश्चर्य है।टीवी के दर्शकों में भी वृद्धि हुई है। लेकिन जैसी कि आशंका जताई जा रही थी कि आने वालेसमय में टीवी से स्पर्धा में अखबार बेहद पीछे छूट जाएंगे या टीवी माध्यम अखबारों का विकल्प बनकर उभरेगा, सर्वे के परिणामों से साबित होता है कि यह आशंकाएं निराधार हैं। टीवी के दर्शकोंकी संख्या आज यदि 23 करोड़ तक पहुंच गई है तो 22 करोड़ 20 लाख लोग आज भी अखबारपढ़ते हैं। साक्षरता दर में वृद्धि के साथ-साथ यह संख्या और भी बढ़ेगी। यूं भी निजी चैनल आगेनिकलने की जिस बेलगाम दौड़ में शामिल हो चुके हैं उसको देखकर तो यही लगता है कि आनेवाले समय में लोगों के बीच समाचारपत्रों की विश्वसनीयता और बढ़ेगी।


दूसरी ओर सरकार ने चैनलों की विषय-सामग्री को सुधारने के बहाने उन पर नकेल डालने केलिए प्रसारण विधेयक लाने का मन बना लिया है। टीवी चैनलों की ओर से इसका पुरजोर विरोधकिया जा रहा है। यह बात सही है कि टीवी चैनलों ने किसी भी नियमन के अभाव में अपनीमनमानी करते हुए लोगों के समक्ष धर्म, मनोरंजन, अपराध का ऐसा तिलिस्म बना दिया है कि इसतिलिस्म को तोड़ना अब आसान बात नहीं है। लेकिन चैनलों के कंटेंट को सुधारने का समाधानसरकारी अंकुश नहीं। भले ही सरकार यह दावा करे कि प्रसारण विधेयक के माध्यम से वह चैनलोंकी विषय-वस्तु के नियमन की कोशिश कर रही है लेकिन हमारे पिछले अनुभव बताते हंै कि जबभी मीडिया को सुधारने की आड़ में कोई भी सरकारी प्रयास किया गया वह सेंसर या अंकुश केरूप में ही सामने आया।
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। यह स्वतंत्रता देश का गर्वहै। विधेयक के कई प्रावधान ऐसे हैं जो स्पष्ट करते हैं कि यदि यह विधेयक लागू हुआ तोसरकारी अफसरों को मनमानी करने की छूट मिल जाएगी और इसका दुरुपयोग होना स्वाभाविकहै।
चैनलों की अराजकता पर रोक जरूरी है इस से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यह रोकस्व-निर्मित होनी चाहिए। किसी प्राधिकरण का गठन भी समस्या का हल नहीं। क्योंकि कोई भीप्राधिकरण या परिषद् ‘सरकारी आशीर्वाद’ के बिना नहीं बनता। प्रेस के मामलों को देखने के लिएबनी प्रेस परिषद् भी अधिकारों के अभाव में अपनी सार्थकता साबित नहीं कर सकी।
सबसे बड़ा नियमन या तो चैनलों के अपने हाथ में है या इनको देखने वाले दर्शकों के हाथ में।जागरूक दर्शक ही चैनलों के कंटेंट को बदल सकते हैं क्योंकि अंतिम उपभोक्ता वही हैं। प्रसारणमीडिया को उपभोक्ता फोरम बनाने चाहिए। उनके साथ मिलकर उन्हें स्वयं अपनी आचार संहिताबनानी होगी।
यह तय है कि चैनल हों या अखबार लंबे समय तक वही टिक पाएगा जो आम आदमी काप्रतिनिधित्व करेगा, फिलहाल यह आम आदमी केवल भारतीय भाषाओं से ही जुड़ा हुआ है। 􀂄

(यह लेख जुलाई -सितम्बर २००६ के विदुर अंक में प्रकशित हुआ है )

Friday 26 December 2008

एक अरब लोगों का मीडिया?

अन्नू आनंद
मई माह में राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने प्रेस इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया द्वारा आयोजित ‘ग्रासरूटसमिट’ में एक अरब लोगों के लिए मीडिया का विकास करने का आह्नान किया। उनका कहना थाकि मीडिया को देश की समूची जनता की ‘पीड़ाओं और दुखों तथा खुशियों और सफलताओं’ कोप्रतिबिंबित करना चाहिए। यानी मीडिया को उनकी स्पष्ट हिदायत थी कि वे किसी विशिष्ट वर्गतक सीमित न रह समूची जनसंख्या की भावनाओं का प्रतिबिंब बने। राष्ट्रपति का यह सुझाव बेहदही सामयिक और सटीक है क्योंकि मौजूदा समय में मीडिया केवल दस प्रतिशत लोगों का खैरख्वाहबना हुआ है।
नब्बे करोड़ से अधिक लोगों की उपेक्षा कर केवल दस प्रतिशत लोगों की जरूरतों, ख्वाहिशों,खुशियों और गमों को प्रस्तुत करने वाले मीडिया का यह संकुचित दृष्टिकोण अब निरंतर चिंता औरबहस का विषय बनता जा रहा है। पिछले एक दशक से मीडिया का जिस तेजी से विस्तार हो रहाहै उसी तेजी से उसकी प्राथमिकताएं भी बदल रही हैं। पिछले तीन माह में मीडिया में प्रमुखता सेछाए रहे मुद्दों को देखने से यह स्थिति स्पष्ट होती है।
अप्रैल माह की शुरूआत में सबसे अधिक मीडिया पर छाने वाला मुद्दा ‘लक्मे फैशन वीक’ और‘सेंसेक्स में अभूतपूर्व उछाल’ था। लक्मे फैशन वीक में रैम्प पर एक माॅडल की चोली के खिसकनेपर चैनलों के स्टूडियो में बहसों के दरबार सज गए। अधिकतर अखबारों ने इस पर बड़ी-बड़ीफोटो के साथ विभिन्न कोणों से अपने नजरियों को छापा। लेकिन इसी दौरान विदर्भ में किसानोंकी मौतों का आंकड़ा एक सप्ताह में चार सौ तक पहुंच गया। कुछेक पत्रों को छोड़कर शेष सभीमीडिया (चैनल/अखबार) ने इनकी कवरेज को एक दो कालमों तक ही सीमित रखा। सेंसेक्स में1100 तक के उछाल को अधिकतर पत्र-पत्रिकाओं ने लीड और कवर स्टोरीज़ बनाया। प्राइमचैनलों ने भी सबसे अधिक समय दिया। जबकि हकीकत यह है कि स्टाॅक एक्सचेंज में निवेश करनेवाले लोगों की संख्या दो प्रतिशत से अधिक नहीं है।
जब समाचारपत्रों के फीचर पन्नों पर और चैनलों के स्टूडियों में सेंसेक्स के बढ़ते ग्राफ और ‘लक्मेफैशन वीक’ पर लंबी चर्चाएं हो रही थीं उसी दौरान वोट के अधिकार से महरूम, खुले आकाश केनीचे रहने को मजबूर करीब छह करोड़ की जनसंख्या वाला एक समुदाय मात्र वोट का अधिकारहासिल करने और सिर पर एक छत पाने के लिए राष्ट्रीय अधिवेशन कर रहा था लेकिन उनके इसबुनियादी अधिकारों के समाचार न तो अखबारों में खबर बने और न ही 24 घंटे के समाचार चैनलोंने इसकी कवरेज करना उचित समझा।
मई माह देश के चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के परिणामों की स्विंग में हुए जोड़-घटाव मेंबीत गया और फिर शुरू हुआ म्ंाडल 2 का विवाद। सभी खबरिया चैनलों ने आरक्षण के मुद्दे परबहस चलाने से अधिक आरक्षण के विरोध में हो रहे आंदोलन को कवर करने में दिलचस्पी दिखाई।चैनलों में आंदोलन को ‘रंग दे बसंती’ की तर्ज पर कवर करने की होड़ मच गई। जून माह में‘राहुल महाजन की अय्याशी’ के कारण उपजे माहौल पर चैनलों ने एक-एक पल की फुर्तीलीरिपोर्टें दीं। लेकिन इसी दौरान राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत होनेवाली पदयात्रा और उड़ीसा के कलिंगनगर तथा छत्तीसगढ़ के नक्सली क्षेत्रों में आदिवासियों परहमलों की खबरें मीडिया की हेडलाइन बनने से तरसती रहीं।
यह सर्वविदित है कि देश में तीन वर्ष से कम आयु के 47 प्रतिशत बच्चे कम वजन के पैदा होतेहैं। केवल 42 प्रतिशत बच्चों का जन्म ही प्रशिक्षित हाथों से हो पाता है। प्रसव कारणों से मरनेवाली महिलाओं की औसत दर अभी भी 540 है। इस सब के बावजूद यदि मीडिया आइटम गर्लराखी सावंत और मीका के प्रकरण पर सबसे अधिक समय और स्पेस खर्च करे, राहुल महाजन कोअभियुक्त या निर्दोष साबित करने के लिए ‘चार या पांच ग्राम’ जैसे विशेष कार्यक्रम प्रसारित करे,समाचारपत्रों में विशेषज्ञों की विवेकशीलता का सबसे अधिक इस्तेमाल इन घटनाओं के विश्लेषणोंपर खर्च हो तो यह आभास होना स्वाभाविक है कि कहीं न कहीं कुछ गलत अवश्य है।
पिछले दिनों राष्ट्रीय मीडिया की सामाजिक पृष्ठभूमि पर कराए गए एक सर्वेक्षण के बाद मीडिया मेंयह बहस छिड़ गई कि मीडिया के उच्च पदों पर आसीन उच्च जाति के लोगों के कारण मीडियाका नजरिया पिछड़े दलितों और हाशिए के लोगों के प्रति उपेक्षित है। जल्दबाजी में यह निष्कर्षनिकालना शायद उचित नहीं। भले ही निर्णयकत्र्ताओं के पदों पर बैठने वाले लोगों की जात इनमुद्दों को उजागर करने में आड़े न आती हो लेकिन केवल चुनिंदा लोगों (दो से दस प्रतिशत) केमुद्दों की कवरेज़ के प्रति उनका विशेष मोह उनका एक विशेष ‘क्लास’ से संबंधित होने को दर्शाताहै।अगर केवल बाजारी दबावों के कारण मुख्यधारा के पत्र टेबलाॅयड में और न्यूज चैनल मनोहरकहानियों में बदलने के लिए विवश हो रहे हैं तो उन्हें अपनी सीमा रेखा निर्धारित करनी होगी। एकअरब से अधिक लोगों की अपेक्षाओं का मीडिया केवल दस करोड़ लोगों तक सीमित न रहे इसकेलिए मीडिया समूहों के संपादकीय और प्रबंधकीय विभाग को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने केसाथ इस सोच को भी बदलना होगा कि पाठक/दर्शक अपराध, सनसनी और मनोरंजन ही चाहताहै। फिलहाल किसी भी राष्ट्रीय स्तर के किसी सर्वे में ऐसे निष्कर्ष नहीं निकले हैं। 􀂄
(यह लेख अप्रैल-जून 2006 में प्रेस इंस्टीट्यूट की पत्रिका विदुर में प्रकाशित हुआ )है

Tuesday 23 December 2008

बाज़ार से नियंत्रित मीडिया

अन्नू आनंद

पिछले कुछ समय से मीडिया में आई बाजारवादी क्रांति के साथ कदमताल मिलाते हुए देश कीप्रमुख और गंभीर समझी जाने वाली पत्रिकाएं भी अपने मुखौटे बदल रही हैं। केवल रंग-रूप यासाज-सज्जा ही नहीं, इन पत्रिकाओं के कंटेंट (विषय-सामग्री) में भी आश्चर्यजनक परिवर्तन आरहा है। कुछ समय पहले तक ये पत्रिकाएं केवल राजनीति, व्यापार, खेल या कभी-कभार फिल्मों सेजुड़े मुद्दों को आवरण कथा के रूप में प्रकाशित करती थीं। लेकिन अब प्रायः महिला और पुरुषों केयौन संबंधों से जुड़े विभिन्न पहलुओं को इनके कवरों पर देखा जा सकता है।प्रायः इन आलेखों का आधार कोई न कोई ‘राष्ट्रीय’ या ‘एक्सक्लूसिव’ सर्वे बताया जाता है।यौन-संबंधों से जुड़े इन आलेखों को देखकर ऐसा आभास होता है जैसे कि समूचे देश में यौनव्यवहार की क्रांति आ गई हो। राष्ट्रीय सर्वे के हवाले से इन आलेखों में आंकड़ों का प्रस्तुतिकरणइस प्रकार किया जाता है जैसे कि यह तस्वीर पूरे देश की हो। जब तक पाठक पूरा लेख ध्यान सेनहीं पढ़ता यह बात समझ में नहीं आती कि जिस वर्ग और जिस समूह का यह सर्वे प्रतिनिधित्वकर रहे हैं उसका प्रतिशत एक से भी कम है। हकीकत में इस सर्वे का आधार महानगरों/शहरों केकुछ चुनिंदा महिलाएं या पुरुष होते हैं और ये चुनिंदा महिला/ पुरुष समूचे शहर या महानगर केयौन व्यवहार का प्रतिनिधित्व नहीं करते।एक पत्रिका द्वारा ऐसा कवर छपते ही प्रतिद्वंद्वी पत्रिका भी किसी ऐसे ही मुद्दे को कवर पर छापतीहै और फिर एक-दूसरे की होड़ में इस तथ्य को पूरी तरह दरकिनार कर दिया जाता है कि इसकापाठकों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। इस प्रकार के चित्रण से समूचे देश की एकल महिला(अधिकतर जिन पर ये लेख केंद्रित होते हैं) या पुरुषों की गलत छवि प्रस्तुत होती है।दरअसल पिछले कुछ समय से मीडिया में आई परिवर्तन की आंधी ने सबसे अधिक प्रभावित कंटेंटकी गुणवत्ता को किया है। भारी पूंजी निवेश से शुरू हुईं इन पत्र-प़ित्रकाओं के विषय का निर्धारणबाजार के नजरिए से किया जाता है। पहले कंटेंट की कमान संपादक के हाथ में होती थी जोकिपत्रकारिता के मापदंडों के मुताबिक किसी खबर/लेख को प्रकाशित करने का निर्णय लेता था। येअधिकार अब प्रसार या विज्ञापन प्रबंधक के हाथ में चला गया है। प्रबंधकों/मालिकों के इस दबावका असर देश की कुछ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है। इन पत्रिकाओं केसंपादक हमेशा यह समझा और समझाया करते थे कि पाठकों की रूचि ‘होती’ नहीं ‘बनाई’ जातीहै और इसे ’बनाने’ का काम संपादकों के हाथ में होता है। आज बाजार से प्रभावित वही पत्रिकाएंयौन संबंधों से लेकर मुंबई में रात की पार्टियों पर कवर स्टोरी इस तर्क के साथ छाप रही हैं कि‘‘पाठक यही पढ़ना चाहते हैं।’’ क्योंकि सेक्स बिकता है इसलिए किसी न किसी बहाने उसे ‘कवर’पर छापकर मीडिया समूह अधिक मुनाफे की जुगत लगाते रहते हैं।कई छोटे-मझोले क्षेत्रीय अखबारों की बड़े मीडिया समूहों द्वारा खरीद की प्रवृति से पत्र/पत्रिकाओंकी विषय सामग्री में और भी गिरावट के आसार नजर आ रहे हैं। क्योंकि बड़े मीडिया समूह अधिकसे अधिक बोली देकर इन अखबारों को खरीद रहे हैं, संभवतः वे अपनी पूंजी निवेश को दोगुनाकरने के लिए हर हथकंडे भी अपनाना चाहेंगे। इस क्रम में सबसे बड़ा समझौता कंटेंट के साथ हीहोगा।कुछ समय से झारखंड के जन सरोकारी अखबार ‘प्रभात खबर’ के बिकने की खबरें आ रही हैं।इस अखबार की अपनी पहचान है। ग्रामीण मुद्दों को वरीयता देकर इसने दूर-दराज के इलाकों मेंअपनी जगह बनाई है, लेकिन अब कुछ बड़े समाचारपत्र समूह इस पर अपनी नजर लगाए बैठे हैं।उन्हें इस समाचारपत्र के जरिए अपने व्यापार को बढ़ाने की कई संभावनाएं नजर आ रही हैं।‘प्रभात खबर’ को खरीद कर वे इसके स्पेस को बेचकर करोड़ों का मुनाफा कमाना चाहते हैं।जाहिर है कि अपने व्यापार का विस्तार उन्हें हरिवंश जैसे संपादकों की तरह गरीबी, भुखमरी,बीमारी या हताशा की खबरें प्रकाशित कर नहीं मिलेगा। लेकिन यदि बड़े समाचारपत्र समूहों द्वाराव्यापार के नज़रिए से इसी तरह छोटे पत्रों को मुनाफे के लिए खरीदने की प्रवृत्ति जारी रही तोफिर मीडिया की पहचान किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी से भिन्न नहीं रहेगी और यह देश औरसमाज के हित में नहीं होगा। 􀂄

(यह लेख जनवरी -मार्च के विदुर अंक में प्रकाशित हुआ है )

अख़बारों का भविष्य

अन्नू आनंद

पिछले दिनों पत्रकारिता के कुछ छात्रों से जब यह पूछा गया कि समाचारों को जानने के लिए वेसंचार के कौन से माध्यम पर भरोसा करते हैं? तो अधिकतर ने जवाब में समाचारपत्रों का नामलिया। इस सवाल पर छात्रों से हुई बहस का निचोड़ यह था कि समाचार जानने का सबसेविश्वसनीय, निष्पक्ष और प्रामाणिक स्रोत वे अखबारों को ही मानते हैं। छात्रों का तर्क था कि टीवीमें भी वे समाचारों को सुनते हैं। लेकिन हड़बड़ी के इस माध्यम में उन्हें उतनी सटीक और गहनजानकारी नहीं मिलती। रेडियो में खबरें संक्षिप्त में होती हैं इसलिए इन समाचारों की अधिकजानकारी के लिए वे फिर अखबार पढ़ते हैं। इंटरनेट उतना सुविधाजनक माध्यम नहीं जितना किअखबार। इस बहस का लब्बोलुआब यही था कि समाचारों की दृष्टि से आज भी संचार के सभीमाध्यमों में से अखबारों को सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है।इस सवाल की व्यावहारिकता इसलिए भी समझ में आती है कि पिछले कुछ समय से विश्व स्तरपर अखबारों के अस्तित्व को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है। अंतरराष्ट्रीय मंचो पर भी अखबारों कोनकारने की आवाजें सुनने को मिल रही हैं। इसका एक कारण अमेरिका में अखबारों के स्तर मेंआई गिरावट है। जिसके कारण वहां पर समाचारों के लिए नेट पर निर्भरता बढ़ती जा रही है औरयह कहा जा रहा है कि सूचना क्रांति की वजह से संचार माध्यमों में होने वाली नई-नई खोजों केचलते समाचारपत्र कुछ समय में अतीत की बात हो जाएंगे। लेकिन हकीकत यह नहीं है। आकड़ोंकी बात करें तो विश्व स्तर पर वर्ष 2006 में अखबारों के प्रसार में 1.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कीगई। आज भी विश्व में विज्ञापनों के कुल हिस्से का 42.3 प्रतिशत अखबारों और पत्रिकाओं कोमिलता है। विश्व स्तर पर गत वर्ष समाचारपत्रों के विज्ञापनों के राजस्व में चार प्रतिशत वृद्धि दर्जकी गई है।ये तथ्य इस बात के साक्ष्य हैं कि अखबारों के अस्तित्व पर संकट की बात सही नहीं। पश्चिम मेंअखबारों के स्तर में आई गिरावट ने उनके अस्तित्व के संकट को जरूर थोड़ा बढ़ाने का कामकिया है लेकिन भारत के संबंध में यह बात नहीं कही जा सकती। भारत में अभी अखबारों काभविष्य चढ़ाव पर है। वर्ष 2006 में भारत में समाचारपत्रों के प्रसार में सबसे अधिक बढ़ोतरी देखीगई। कई नए अखबारों की शुरूआत हुई और विज्ञापनों से मिलने वाली आमदनी में वृद्धि दर्ज कीगई।यह बात सही है कि पिछले कुछ समय में अखबारों के लिए टीवी और इंटरनेट के साथ प्रतिस्पर्धाएक चुनौती बनती जा रही है। लेकिन अभी यहां के समाचार चैनल और नेट शैशवावस्था में हैं औरउन्हें प्रौढ़ होने में अभी लंबा समय लगेगा। उनकी तुलना सीएनएन और बीबीसी जैसे चैनलों औरवेबसाईटों से नहीें की जा सकती जिनसे कि पश्चिमी दशों के लोग अपनी खबरों की भूख को शांतकरते हैं। यह सही है कि पिछले कुछ समय में संख्या की दौड़ में भारत के अखबारों में भीपरिवर्तन हुए हैं जिससे उनकी विश्वसनीयता भी कम हो रही है लेकिन अभी यह स्थिति पश्चिमदेशों वाली नहीं हुई है।यह गनीमत है कि ऐसी स्थिति में ही हमारे यहां ‘उत्कृष्ट पत्रकारिता’ की बहस छिड़ पड़ी है औरयह सवाल भी उठाया जा रहा है कि श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिए जरूरी क्या है। मूल्य आधारितपत्रकारिता या फिर ‘पाॅपुलर’ पत्रकारिता। जिस प्रकार से समाचार चैनलों की अगंभीरता रोमांच औरसनसनी से भरे समाचारों की आलोचना और दर्शकों की प्रतिक्रियाएं मिल रहीं हैं उससे स्पष्ट हैकि प्रसार और टीआरपी की दौड़ में विश्वसनीयता और तथ्यपरकता को दाव पर नहीं लगाया जासकता। तुच्छ और सनसनी की खबरें कुछ समय के लिए तो चल सकती हंै लेकिन इन्हेंपाठक-श्रोता या दर्शक अधिक समय तक नहीं सहने वाले। भारत में समाचार चैनलों में होने वालीऐसी धृष्टताओं की आलोचना गंभीर रूप लेती जा रही है। हमें पश्चिम की गलतियों से सबक लेनाहोगा। भारत में भी आखिर वही माध्यम सफल होगा जो सत्य, सही, गंभीर और तथ्यात्मक समाचारप्रदान करेगा। 􀂄
(यह लेख अप्रैल-जून २००७ के विदुर अंक में प्रकशित हुआ था )

Thursday 18 December 2008

भाषा से खिलवाड़


अन्नू आनंद

किसी भी पत्र-पत्रिका की विषय-वस्तु अगर उसका शरीर है तो भाषा उसकी आत्मा कही जासकती है। किसी भी पत्र-पत्रिका की पहचान उसकी विषय सामग्री, भाषा, उसकी साज-सज्जाऔर उसके प्रस्तुतिकरण के तरीके से बनती है।पिछले कुछ समय से तकनीकी क्रांति और उदारीकरण के चलते पत्र-पत्रिकाओं के स्वरूप में भारीबदलाव की प्रक्रिया देखने को मिल रही है। नए प्रकार की पिं्रट तकनीकों और बाजारवाद के प्रभावके चलते अखबारों की साज-सज्जा पूरी तरह बदल गई है। विषय-सामग्री का स्थान सिकुड़ करछोटा हो गया है जबकि चित्रों का आकार बड़ा हो गया है। पृष्ठों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुईहै। काले-सफेद चित्र रंगमय हो गए हैं। बदलाव की आंधी ने विषय-सामग्री की गंभीरता को भीकम कर दिया है। गंभीर विषयों को भी इस ढंग से प्रस्तुत करने की होड़ छिड़ी है कि पाठकउसको भी मनोरंजन समझ कर पढ़ने के लिए मजबूर हो जाएं। विचार गायब होते जा रहे हैं औरबाॅक्स आइटम जैसी रिपोर्टें भी बडे़ समाचारों के रूप में प्रकाशित हो रही हैं।बात यहीं खत्म नहीं होती, बदलाव की चक्की में सबसे अधिक भाषा पिस रही है। हिंदीसमाचारपत्रों में भाषा को लेकर मन-माने प्रयोग किए जा रहे हैं। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की मौजूदाभाषा में अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ इस कदर बढ़ गई है कि हिंदी की अपनी सुगंध, उसकीअभिव्यक्ति की मिठास अंग्रेजी की मिलावट से पूरी तरह खत्म हो गई है।हिंदी भाषा के समर्थक और उसके संरक्षण के हिमायती भी अब बाजारवाद की भाषा लिखने-बोलनेलगे हैं। कुछ समय पहले तक पत्र-पत्रिकाओं में भाषा के साथ छेड़छाड़ करना उतना संभव नहींथा, लेकिन अब सबसे अधिक प्रयोग भाषा के साथ ही हो रहे हंै। हैरत की बात तो यह है किबदलाव की इस चूहा-दौड़ में हिंदी के उन शब्दों का इस्तेमाल भी बंद हो गया है जिनके बेहदसरल और स्पष्ट मायने हंै। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के शीर्षकों को देखें तो यह पता ही नहीं चलेगाकि वे किस भाषा में हैं। भाषा में इस बदलाव के समर्थकों का तर्क है कि आम पाठक तक पहुंचनेके लिए हिंदी में अंग्रेजी भाषा के शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है।हिंग्रेजी समर्थकों का यह तर्क समझ से बाहर है क्योंकि आम पाठकों में हर वर्ग शामिल है औरहिंदी समाचारपत्र-पत्रिका पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति उतनी सरलता से एचीवमेंट, फेवरेट,सिचुएशन, जर्नी या पेशेंट्स को नहीं समझ सकता है जितनी सहजता से उपलब्धि, पसंदीदा,स्थिति, यात्रा या मरीज जैसे शब्दों को समझता है।कुछ समय पहले तक अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल तकनीकी शब्दों तक ही सीमित था। उसमें भीप्रयास यही रहता था कि उसका हिंदी विकल्प ढूंढा जाए। जरूरत पड़ने पर अंग्रेजी के तकनीकीशब्दों के हिंदी शब्द गढ़े जाते थे। ऐसे ही एक प्रयास में विज्ञान लेखक रमेश दत्त शर्मा नेजेनेटिकल इंजीनियरिंग के लिए ‘जिनियागरी’ शब्द खोज निकाला था। मुझे याद है कि स्वास्थ्यऔर पर्यावरण के विषयों पर हिंदी में लिखते हुए अक्सर ऐसे शब्दों पर कठिनाई आती थी। फिर भी‘ट्यूबकटोमी’ के लिए बंध्याकरण या ‘वेस्कटोमी’ के लिए नसबंदी और बायोटेक्नोलाॅजी के लिएजैविक तकनीक तथा बायोडेवर्सिटी के लिए जैव विविधता का ही इस्तेमाल किया जाता था।उस समय हिंदी के किसी भी कठिन या तकनीकी शब्द को सरल बनाकर प्रस्तुत किया जाता थाताकि हर वर्ग का पाठक इन शब्दों को समझ सके। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने जनसत्ता कासंपादन करने के दौरान एक वर्तनी भी बनाई और सभी को हिदायत दी कि वे सरल शब्दों काप्रयोग करें। उन्होंने ‘अर्थात्’ के लिए ‘यानी’, ‘उद्देश्य’ के लिए मकसद, ‘किंतु-परंत’ु के लिए‘लेकिन’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर जोर दिया ताकि बोलचाल की हिंदी जानने वाला पाठक भीउसे समझ सके।ऐसे ही प्रयास अन्य संपादकों ने भी किए ताकि हिंदी अखबारों में एक बेहतर और सरल भाषा काविकास हो सके।लेकिन आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। अब तो सभी अखबारों में हिंदी के सरल शब्दों कोभी अंग्रेजी में लिखने का प्रचलन है। इसके लिए यह तर्क दिया जा रहा है कि इस से पाठकों कीसंख्या बढ़ रही है। क्या कोई भी सर्वे या अध्ययन यह बताता है कि हिंग्रेजी का इस्तेमाल पाठकोंको अधिक सुखद लगता है। पाठकों की संख्या बढ़ने का कारण अंग्रेजी शब्दों की खिचड़ी है यापोस्टरनुमा चित्र और सनसनीखेज ग्लैमरयुक्त विषय सामग्री। इस पर विचार करने की जरूरत है।क्या पत्र-पत्रिकाओं को किसी भी उत्पाद की तरह केवल उनकी बिक्री बढ़ाने के लिए बदला जासकता है? वह भी भाषा में मिलावट कर। अखबारों की अपनी सामाजिक जिम्मेदारी है जिससे वेसभी दबावों के बावजूद मुक्त नहीं हो सकते। अगर हिंग्रेजी अखबारों के लिए मध्यम वर्ग, युवाओंया माॅल्स संस्कृति तक पहुचंने का रास्ता है तो यह उन्हें ऐसे करीब 60 प्रतिशत पाठकों से दूर भीकरती है, जो अंगे्रजी से अभी भी बेहद दूर हैं।􀂄
( यह लेख अक्टूबर- दिसम्बर 2006 के विदुर अंक में प्रकाशित हुआ है )

Tuesday 16 December 2008

निजी समझौते और मीडिया

अन्नू आनंद

बाजारी ताकतों का पत्रकारिता पर प्रभाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। प्रिंट माध्यम हो या इलेक्ट्राॅनिकअब विषय-वस्तु (कंटेंट) का निर्धारण भी प्रायः मुनाफे को ध्यान में रखकर किया जाता है। कभीसंपादकीय मसलों पर विज्ञापन या मार्केटिंग विभाग का हस्तक्षेप बेहद बड़ी बात मानी जाती थी।प्रबंधन विभाग संपादकीय विषयों पर अगर कभी राय-मशविरा देने की गुस्ताखी भी करते थे तो वहएक चर्चा या विवाद का विषय बन जाता था और यह बात पत्रकारिता की नैतिकता के खिलाफमानी जाती थी।लेकिन यह बातें अब अतीत बन चुकी हैं। अब अखबार या चैनल के पूरे कंटंेट में मार्केटिंग वालोंका दबदबा अधिक दिखाई पड़ता है। इसकी एक वजह यह भी है कि हर मीडिया समूह अधिक सेअधिक मुनाफा कमाना चाहता है और उसके लिए खबरों को प्रोडक्ट मानना एक मजबूरी बनती जारही है। ‘खबर’ नाम के इस प्रोडक्ट को भले ही वे चैनल पर हो या अखबार में, अधिक से अधिकबेचने के लिए बड़े-बड़े मीडिया समूह आए दिन नए-नए प्रयोग कर रहे हैं।इसी प्रवृत्ति को आगे बढ़ाते हुए इन दिनों बड़े मीडिया समूहों ने बड़ी-बड़ी काॅरपोरेट कंपनियों केसाथ ‘निजी समझौतों की शुरूआत की है। इन समझौतों के तहत प्रायः कंपनियांे के विज्ञापन औरप्रचार की जिम्मेदारी मीडिया कंपनी की होती है और बदले में काॅरपोरेट कंपनियां मीडिया कंपनीको अपनी कंपनी में हिस्सेदारी देती हैं।सूचनाओं के मुताबिक हाल ही में बेनेट एण्ड कोलमेन कंपनी के वर्ष 2007 में ऐसे निजी समझौतोंकी मार्केट कीमत पांच हजार करोड़ रुपए हुई है जो कि उसकी सालाना तीन हजार पांच सौकरोड़ की आमदन से भी अधिक है। अब यह प्रवृत्ति अन्य हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में भी पांवपसार रही है। हालांकि कहा यह जा रहा है कि काॅरपोरेट कंपनियों के अधिक विज्ञापनों को बिनापैसे के हासिल करने का यह तरीका है और मीडिया समूह इस प्रकार केवल बड़ी कंपनियों कोविज्ञापन स्पेस ही उपलब्ध करा रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि इस प्रकार के निजीसमझौतों के बाद क्या कोई अखबार या चैनल पूरी तरह निष्पक्ष होकर उन कंपनियों की कवरेजकर सकता है जिनका कि वे स्वयं शेयरधारक है?बड़ी बड़ी काॅरपोरेट कंपनियां तो यही चाहती हैं कि वे अधिक विज्ञापनों के जरिए इन अखबारों औरचैनलों के कंटेंट मंे भी अपनी जगह बना सकें और ऐसा होना कोई असंभव भी नहीं दिखता जैसाकि ऐसे समझौते करने वाले अखबार या टीवी चैनल कहते नहीं अघाते कि इनका संपादकीयमसलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। पिछले कुछ समय में बाजारवाद के नाम पर प्रिंट औरइलेकट्राॅनिक मीडिया में ‘ब्रांड पत्रकारिता’ की प्रवृत्ति बढ़ी है उसको देख कर नहीं लगता किसंपादकीय विभाग ऐसे समझौतों से खुद को बचा पाएंगे।कंटंेट के जरिए मुनाफा कमाने के उद्देश्य और प्रतिस्पर्धा के नाम पर धीरे-धीरे अखबारों और चैनलोंके कंटंेट (विषय सामग्री) पर मार्केटिंग वालों का कब्जा बढ़ता ही जा रहा है। इसकी शुरूआतसबसे पहले संपादकों की हैसियत कम करने से हुई थी ताकि वे खबर को बेचने के रास्ते कीरूकावट न बनंे। उनके कद को छोटा करने के लिए मार्केटिंग और विज्ञापन विभागों का संपादकीयविषयों पर दखल बढ़ाया गया।अखबारों में 60 प्रतिशत कंटंेट और 40 प्रतिशत विज्ञापन की नीति लागू होती है। लेकिन मार्केटिंगके हाथों में कमान आते ही उन्होंने विज्ञापनों का प्रतिशत बढ़ाने के लिए नए-नए रास्ते निकाललिए। इसके लिए पहले अखबार के ‘मास्ट हेड’ मुख पृष्ठ बिके। फिर विज्ञापनों के विशेष पन्ने शुरूहुए। पहले पन्ने पर विज्ञापन की कवायद भी शुरू हुई। इसी होड़ में फिर खबरों के रूप मेंविज्ञापन भी छपने लगे। इसके लिए अखबारों ने बकायदा खबरों का कुछ स्पेस ‘विज्ञापनी’ खबरोंके लिए निर्धारित किया। इस स्पेस में खबरों के रूप में किसी कंपनी, वस्तु के बारे में जानकारी दीजाने लगी। इन ‘विज्ञापनी’ खबरों को इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाता है कि पाठक के लिए यहसमझना कठिन होता है कि यह वास्तविक खबर है या प्राॅपोगेंडा। टीवी चैनलों में भी बकायदा ऐसेकार्यक्रम दिखाए जाते हैं कि यह अंतर करना मुश्किल हो जाता है कि खबर है या पैसे से खरीदागया विज्ञापन। अब स्वास्थ्य से संबंधित किसी भी नए प्रोडक्ट या फिर कोई इलेक्ट्राॅनिक संयंत्र नयाकैमरा या कोई नए स्पा, रिर्सोट के बारे में जानकारी खबरों का ही हिस्सा होती हैं। देश-विदेश कीखबरों के साथ इन प्रोडक्ट की जानकारी भी उसी तर्ज पर दी जाती है कि यह अंतर करना भीकठिन हो जाता है कि अमुक कोई खबर है या स्पांसर कार्यøम।अब जबकि संपादकीय और मार्केटिंग के बीच की रेखा दिन प्रतिदिन धुंधली पड़ रही हो, ऐसे मेंयह उम्मीद करना कि मीडिया कंपनियों के निजी समझौतांे का असर संपादकीय विषय-वस्तु परनहीं पडे़ेगा नासमझी होगी। पत्रकारिता के मूल्यों और उसकी बची हुई विश्वसनीयता के लिए यहप्रवृत्ति बेहद घातक साबित हो सकती हैं खासकर जबकि मझोले और क्षेत्रीय अखबारों में भी ऐसेसमझौतांे की संभावनाएं बढ़ रही हैं। 􀂄
(यह आलेख अक्तूबर-दिसंबर 2007 के विदुर अंक में प्रकाशित हुआ है)

Tuesday 9 December 2008

अन्याय के खिलाफ गुलाबी गिरोह



अन्नू आनंद
मानवी अब अपने हकों के लिए इस कदर जागरूक हो रही है कि अगर कोई उसके अधिकारों के रास्ते में रूकावट बनता है तो वह इस नाइंसाफी के खिलाफ अवैध तरीका भी इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करती।
उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाके बुंदेलखंड में इन दिनों ‘गुलाबी गिरोह’ नामक महिलाओं के एक बहुत बड़े समूह ने क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ कर प्रशासन की नींद उड़ा दी है। वर्ष 2006 में बना यह गिरोह मुख्यतः भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी जंग लड़ रहा है। यह समूह कमजोर और गरीब वर्गों के लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं के अमलीकरण में होने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहा है। इस क्षेत्र में बहुत सी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ गरीबों और वंचितों को नहीं मिल रहा है। गुलाबी गिरोह की मुखिया अर्धशिक्षित, गरीब 45 वर्षीया संपत देवी पाल है।
बांदा के अटारा गांव से करीब 100 सदस्यों के साथ शुरू हुए इस समूह के अब करीब 20 हजार समर्थक सदस्य हैं। समूह के पास सबसे अधिक शिकायतें राशन की दुकानों से राशन न मिलने की आती है। इसकी एक वजह यह है कि इस गिरोह को बांदा और चित्रकूट जिले के कोटे का राशन काला बाजार में पहुंचने से रोकने में सबसे बड़ी उपलब्धि हासिल हो चुकी है। इन जिलों का अभी तक 70 फीसदी राशन काला बाजार में पहुंच जाता था। अटारा के राशन विक्रेता रामअवतार दारा राशन न देने की शिकायतें मिलने के बाद गिरोह के सदस्यों ने उसपर नजर रखनी शुरू कर दी। आखिर समूह के सदस्यों ने उन दो टैक्टरों को बीच रास्ते में रोक लिया जिन पर बीपीएल लोगों के हिस्से का राशन खुले बाजार में बेचने के लिए जा रहा था। संपत देवी के मुताबिक प्रमाण दिखाने के बावजूद जब पुलिस ने रामअवतार के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं की तो हमारा संदेह विश्वास में बदल गया कि पुलिस और राशन विक्रेताओं की मिलीभगत के चलते ही गरीबों का राशन खुुले बाजार में बेचा जा रहा है। बाद में समूह की सदस्यों ने गुस्से में अटारा पुलिस स्टेशन को घेर लिया ओर डयूटी पर मौजूद पुलिस अधिकारियों के साथ हाथापाई की। इस घटना के बाद भले ही इन जिलों में राशन वितरण में हेराफेरी की घटनाएं कम हो गईं लेकिन गिरोह के पास अन्य क्षेत्रों से राशन न मिलने की शिकायतें की संख्या बढ़ने लगीं हैं। गिरोह अब तक राशन के अलावा बिजली, पानी और पुलिस की ज्यादतियों के खिलाफ मोर्चा खोल चुका है।
अपने सदस्यों को अलग पहचान देने के लिए गिरोह ने एक ही रंग के कपड़े पहनना तय किया। गुलाबी रंग क्योंकि किसी भी राजनैतिक पार्टी से जुड़ा नहीं इसलिए गिरोह इस रंग का इस्तेमाल करता है। गुलाबी रंग के चुनाव पर संपत देवी कहती है, ‘‘अपनी अलग पहचान स्थापित करने के लिए हमने एक ही रंग के कपड़े पहनना तय किया है और गुलाबी रंग जीवन का प्रतीक भी है। इसके अलावा धरना प्रदर्शन और भीड़ में हमें अपने साथियों को पहचानने में भी आसानी होती है।
आर्थिक दष्टि से पिछड़े इस क्षे़त्र की जनसंख्या लगभग 2 करोड़ है। यहां की अधिकतर महिलाएं खासकर दलित इस समूह से जुड़ कर भोजन, आवास और सामाजिक न्याय की लड़ाई में स्वयं को अधिक सुरक्षित महसूस करतीं है। जैसा कि समूह की एक सदस्य कहती है हमारी संख्या ही हमारी ताकत है।
भारतीय दंड संहिता के तहत इस गिरोह पर गैरकानूनी सभा, दंगा, सरकारी अधिकारी पर हमला और सरकारी कर्मचारियों का अपना काम करने से रोकने के आरोप लग चुके है। लेकिन स्थानीय स्तर पर ‘गुलाबी गिरोह’ को मिल रहे भारी समर्थन और उनकी मजबूत इच्छा शक्ति के चलते उन पर अकुंश लगाना संभव नहीं होगा।
गिरोह का मानना है कि जब मांगने से नहीं मिलता तो छीनना पड़ता है। इसलिए इस के लिए समूह के कुछ सदस्य अपने पास लाठी भी रखते हैं लेकिन संपत देवी कहती है कि यह लाठी हमारा सहारा है लेकिन अन्याय के खिलाफ और आरोपी अधिकारियों को सबक सिखाने के लिए यह उठ भी सकती है। गिरोह ने अपने संदेश को अधिक से अधिक महिलाओ तक पहुचांने के लिए नारों को गीतों में बुनने की शुरूआत की है। ‘‘नेताओ हो जाओ होश्यार, बहने हो गई तैयार’’ और ‘‘बहनो हो जाओ तैयार नेता हो गए गददार’’, जैसे गीतों से महिलाओं को सचेत किया जा रहा हैै।
हांलाकि गुलाबी गिरोह की शुरूआत गुलाबी संगठन के रूप में हुई थी लेकिन बाद में इसकी चर्चा ‘गिरोह’ के रूप में होने लगी। संपत देवी के मुताबिक गिरोह का मतलब केवल नकारात्मक ही नहीं। अपने हको के लिए लड़ने वाले मजदूरों आदि के समूह का भी गिरोह कहा जाता है। दूसरा गिरोह के रूप में ख्याति फैलने से पुलिस और प्रशासन भी हमसे डरता है। कुछ लोग संपत देवी की तुलना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से करते हैं।
बचपन से ही संपत को लड़कियों के साथ किए जाने वाले भेदभाव के रवैये को झेलना पड़ा। छोटी उमर में ही उसे खेतों में काम करने के लिए भेज दिया गया जबकि उसके भाई स्कूल पढ़ने के लिए जाते। 12 साल की हुई तो उसकी शादी कर दी गई और 15 वर्ष में वह मां बन चुकी थी। दो लडकियां पैदा होने के बाद भी सास ने आपरेशन कराने से मना कर दिया क्योंकि उसे बेटा चाहिए था। उसके बाद संपत के चार बच्चे पैदा हुए। संपत के मुताबिक सास उसे पुरूषों के सामने चुप रहने और पर्दा करने के लिए कहती जो उसे मंजूर नहीं था।
महिलाओं के प्रति इस प्रकार के उपेक्षित रवैये ने ही शायद संपत को क्रांतिकारी बनने पर मंजूर कर दिया। आज संपत और उसका गिरोह महिलाओं की हर प्रकार की सहायता करने के लिए तैयार रहता है। नशेड़ी पतियों से पीड़ित महिलाओं के पतियों को सबक सिखाने के अलावा गिरोह विधवा महिलाओं को पेंशन दिलाने में भी मदद करता है। गिरोह की साख अब इस कदर बढ़ गई है कि अब पुरूष भी अपने मसले सुलझाने के लिए गिरोह से मदद मांगने लगे हैं। इसी वर्ष फसल नष्ट हो जाने पर बांदा के हजारों किसानों ने प्रशासन से मुआवजे की रकम हासिल करने के लिए गिरोह से मदद मांगी थी।
अपने हकों की खातिर भले ही ये महिलाएं कानून को भी अपने हाथों में लेने से गुरेज नहीं करतीं लेकिन नांइसाफी के खिलाफ लड़ी जानी वाली इस जंग में उनके लिए वे सब जायज है जिससे वे अपने बुनियादी अधिकारों को हासिल कर सकती हैं। भले ही इसके लिए उन्हें हिंसा पर उतारू होना पड़े। आखिर मानवी के साहस की परीक्षा क्यों?





Tuesday 2 December 2008

बस और नहीं



सैकरों मासूम लोगों और देश के सब से वरिष्ठ और जांबाज़ अधिकारियों का मरना सहनशीलता नहीं कायरता और बुज्द्ली की निशानी है । इसलिए यह गर्व करना की हम बड़े सहनशील हैं और कोई भी हमले के बाद भी हम फिर
उसी हौंसले से खरे होने की ताकत रखते हैं का राग अलापना बंद करना होगा। अब आपना होंसला नहीं अपनी ताकत दिखाने की आवश्कता है ताकि बाहरी लोग हमारे घर में घुसकर अब हमारे अपनों को नुक्सान पहुचने की हिम्मत न करे।
मुंबई हमले से देश के राजनेताओं, मीडिया कर्मियों और सरकारी अफसरों को कई सबक सीखने होंगे।
जिस प्रकार से चैनल के रिपोर्टर्स ने इस घटना की लाइव कवरेज की है उस से लगता है की अभी भी हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया काफ़ी इम्मेच्यौर है । लाइव कवरेज को सब से पहले और सब से एक्सक्लूसिव दिखाने के चक्कर में कई चैनल ऐसे दर्शय दिखाते नज़र आए जो की सुरक्षा के लिहाज़ से उचित नहीं कहे जा सकते। एक लोकप्रिय और बेहतर समझे जाने वाले अंग्रेजी चैनल ने ताज के पीछे की लेन में जाकर खंभों के पीछे छुपे सुरक्षा गार्डस पर कैमरा घुमाते हुएय कहा कि आंतकवादी कहीं पीछे से न भाग जाए इसलिए गार्डस ने यहाँ भी पोसिशन ले ली है । जब कैमरा सुरक्षा कर्मी पर घुमा तो वह स्वयं को खम्भे के पीछे छुपाने कि पूरी कोशिश करता रहा। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण देखने को मिले जब कई चैनलों ने बेहद ही बचकाना बरताव किया।
घटना का राजनैतिककरण न करने कि दुहाई देने वाला मीडिया ही स्टूडियो में विभिन्न पार्टियों कि प्रतिनेधियों को बुला कर उन कि राजनैतिक प्रतिक्रियों को जानने और एक के बयाँ पर दूसरे कि टिपननी जानने और उन्हे उकसाने कि कोशिश करता रहा। अन्नू आनंद