Saturday 1 September 2012

गांवों में लड़कियों के बदल रहे हैं बदल रहे हैं रोल मॉडल




अन्नू आनंद

शहरों में रहने वाली किशोर लड़कियों के रोल मॉडल भले ही फिल्म जगत, बिजनेस, खेल, या राजनीति में नाम कमाने वाली महिलाएं जैसे एश्वर्या राय, इन्द्रा नूई, सानिया मिर्ज़ा या हिलेरी क्लिंटन हो. लेकिन गांवों में रहने वाली वाली किशोरियों के रोल मॉडल बदल रहे हैं. पहले की तरह अब उनकी बड़े शहरों की शिक्षित और ऊँचे ओहदों पर विराजमान बड़ी हस्तियाँ या फ़िल्मी हीरोईन और मिस इंडिया बनने वाली महिलाएं प्रेरणास्त्रोत नहीं हैं. किरण बेदी, सोनिया गाँधी या सुषमा स्वराज की बजाय अब गांवों की लाखों युवा लड़कियां पढ़ने लिखने के बाद पंचायतों में सरपंच, पंच या वार्ड मेंबर के रूप में प्रभावी भूमिका निभाने वाली महिलाओं को अपना वास्तविक रोल मॉडल मानती हैं. देश के लाखों गांवों में महिला नेतृत्व के रूप में उभरने वाली कई दबंग, सबल और प्राशसनिक कार्यों में दखल रखने वाली ‘कुशल पंचायत लीडर’ में वे अपनी छवि तलाशती हैं. स्कूलों में पढ़ने वाली बहुत सी लड़कियां के लिए स्थानीय सत्ता के कार्यों में हाथ बांटने, स्थानीय मुद्दों पर अपनी राय देने, हक के लिए अपनी आवाज़ उठाने, और अशिक्षित तथा पिछड़ी महिलाओं को जागरूक बनाने वाली स्थानीय ‘महिला लीडर’ उनकी असली रोल मॉडल हैं.

पंचायतों में महिलाओं की बदती तादाद के कारण स्कूलों में लड़कियों की भर्ती  बढ़ने लगी है. ग्रामीण माँ बाप जो कभी केवल परिवार के लड़के को स्कूल भेजने को प्राथमिकता देते थे उनका नजरिया बदल गया है. अब वे छोटी उमर की लड़कियों को भी स्कूल में भर्ती करने को प्रोत्साहित हो रहे हैं. संविधान के 73वें संशोधन से वर्ष 1992-1993 में पंचायतों में महिलायों को मिले एक तिहाई आरक्षण (बाद में पचास प्रतिशत) से यह बदलाव संभव हुआ है.


लड़का स्कूल में पढ़ेगा और लड़की चूल्हा चौका संभालेगी की सोच रखने वाले ग्रामीण समाज के समक्ष अब ऐसी लाखों महिलाएं खड़ी हैं जो घर के कामों के कामों के साथ सत्ता के गलियारों में पहुँच रखती हैं और पुरुषों के समान या उनसे बेहतर राजनैतिक कामों को अंजाम देने में समर्थ हैं.
हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय प्रमुख शोध पत्रिका ‘साइंस’ में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर  में भारत के सन्दर्भ में इन तथ्यों की जानकारी दी गई है. नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी द्वारा की गई इस सर्वे में बताया गया है कि लोकतंत्र के सबसे निचले स्तर पर यानी पंचायतों में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के कानून का सीधा असर गांवों के रोल मॉडल पर पड़ा है. इससे ग्रामीण लड़कियों और उनके माता पिता की महिला नेतृत्व की भूमिका के प्रति सोच बदल रही है. यही नहीं इसने किशोर लड़कियों की करियर और शिक्षा के प्रति उनकी आकांक्षाओं को बढ़ाने का काम किया है. जिस प्रकार से हिलेरी क्लिंटन ने ग्लास सीलिंग तोड़ कर 18 मिलियन महिलाओं को राजनीति में शामिल कर लोगों की सोच को बदलने का काम किया है, सर्वे का मानना है कि भारत में भी महिलाओं के प्रति कानून में हुए साकारात्मक बदलाव का ठीक वही नतीजा निकल रहा है. सर्वे के मुताबिक कानून द्वारा पंचायतों में महिलाओं की संख्या बढ़ने से लोगों में राजनीति में आने वाली महिलायों के प्रति नजरिया बदल गया है. सर्वे का दावा है कि राजनीति के सबसे निचले स्तर पर महिलाओं के स्थान आरक्षित करने के परिणाम दीर्घकालीन होंगे.

यह सर्वे देश के पश्चिम बंगाल राज्य के 495 गांवों के 8,453 किशोरों और किशोरियों और उनके माता पिता के बीच वर्ष 2006-2007 के दौरान की गई. इस क्षेत्र में 1998 में महिला आरक्षण का कानून लागू हुआ था. सर्वे टीम की एक लेखक लोरी बामन के मुताबिक भारत निश्चित रूप से एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ महिलाओं के लिए सीमित अवसर उपलब्ध हैं. इस कानून ने भारतीय महिलाओं को ग्रामीण स्तर पर स्वयं को सक्षम नेता साबित करने का अवसर प्रदान किया है.  
सर्वे के परिणाम इस विचार का समर्थन करते हैं कि राजनीति में महिलाओं के  कम प्रतिनिधित्व को खत्म करने के लिया आरक्षण साकारत्मक कार्रवाई है और शायद अन्य क्षेत्रों जैसे विज्ञान या कॉर्पोरेट, बोर्ड रूम में ऐसे निर्णय बेहतर साबित हो सकते हैं. क्योंकि ऐसे फैसले प्रभावी रोल मॉडल बनाते हैं और लंबे समय में ऐसे प्रयास अधिक फायदा पहुंचाते हैं. सर्वे में आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि जिन गांव में महिलाओं के लिए आरक्षण नहीं था उन गांव की अपेक्षा जहाँ आरक्षण लागू था उन गांवों के माता -पिता के बीच में बच्चों की शिक्षा को लेकर जेंडर अंतर 25 प्रतिशत और किशोरों में 32 फीसदी जेंडर अंतर कम हुआ था. जिन गांवों में महिलायों के लिए सीटें आरक्षित थी वहाँ अधिक लड़कियां स्कूलों में मौजूद थी और कम समय घर के कामों में बिताती थी.   
·        राजनीति में महिलाओं के प्रति नजरिया बदला है .
·        स्कूलों में लड़कियों की भर्ती बड़ी है .
·        आरक्षित क्षेत्रों में जेंडर अंतर कम हुआ है
·        सकारत्मक कानूनों से प्रभावी रोल मॉडल बनाये जा सकते हैं. इसलिए ऐसे प्रयासों को बढ़ावा मिलना चाहिए. 



सर्वे के परिणाम इस बात की और इशारा करते हैं कि ग्रामीण स्तर पर लड़किया अपने बीच में से ही निकली महिला लीडर को अपने अधिक नजदीक पाती हैं और उनके जैसा बनने का सपना उन्हें अधिक पूरा होने के करीब दीखता है इसलिए वे उन्हें अपना रोल मॉडल मानना अधिक संभव मानती हैं.
भले ही यह सर्वे केवल पचिम बंगाल में की गई हों लेकिन देश के दूसरे हिस्सों से भी ऐसे ही अनुभव सुनने को मिल रहे हैं. रूरल गवर्नंस पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों कि महिलाओं को प्रशिक्षण देने वाली नयना चौधरी के मुताबिक, ‘’गांव की महिला लीडरों और किशोरियों के बीच एक प्रकार का स्वाभाविक संबंध है.  जब ये महिलाएं शोषण के खिलाफ बोलते हुए कहती हैं कि अब हमारी बहुओं या बेटियों के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए तो उनमें महिला नेताओं के प्रति सम्मान बढ़ता है और वे भी बढ़ी होकर इन मुद्दों के खिलाफ खड़ी होने को प्रेरित होती हैं.” वह बताती है कि गाजीपुर जिले की नसीमा बानो ने जब दहेज के कारण एक महिला को मारकर गांव में लटका देने वाले परिवार के खिलाफ बेहद दबंग तरीके से लड़ाई लड़ते हुए दोषी परिवार को गिरफ्तार कराया तो वह गांव की बहुत सी किशोरियों के लिए एक रोल मॉडल के रूप में उभरी.   

उत्तर प्रदेश के अम्बेदकर नगर की २८ वर्षीय अनुपम सिंह ने बीए तक पढ़ाई की है. वह अपने इलाके की महिला लीडर कहलाती है. अनुपम हर रोज अलग अलग पंचायतों में जाकर बैठक करती है और महिलाओं को उनके क़ानूनी हकों के बारे जैसे राशन और काम हासिल करने की जानकारी देती है. अभी तक वह अपने जिला के कई लोगों को मनरेगा के तहत काम दिला चुकी है. अनुपम के इलाके की बहुत सी लड़किया पढ़ाई पूरी करने के बाद उसके जैसा बनाना चाहती है. अनुपम बताती है, ”जब मैं गांवों की महिलाओं से बात करती हैं तो बहुत सी युवा लड़कियां भी आकर मुझे ध्यान से सुनती है और कहती हैं कि वे भी बड़ी होकर गांव से अज्ञानता को दूर करेंगी और लोगों को मेरी तरह जागरूक बनाने का काम करेंगी.’’
वर्ष 2009 से पचास प्रतिशत के आरक्षण का प्रस्ताव लागू होने के बाद से   करीब 14 लाख महिलायें पंचायतों के राज-काज में हिस्सेदारी कर रही हैं.  निस्संदेह इनमें बहुत सी महिला लीडर अपने अधिकारों के प्रति जानकारी रखने  में और सता की पेचीदगियों को समझने और समझाने में किसी भी महिला नेता को टक्कर दे सकती हैं. 1993 में पंचायतों में आने वाली महिलाओं के लिए ‘सरपंच पति’ और ‘रबड़ स्टेम्प’ जैसे आक्षेपों से शुरू हुआ सफर बेहद संघर्ष भरे पड़ावों से जूझता रहा है. लेकिन सभी प्रकार की चुनौतियों के बावजूद महिला ताकत के रूप में उभरी यह महिलाएं अगर आज गांवों की लड़कियों को प्रेरित करने में समर्थ हैं और उनकी रोल मॉडल बन रही है तो निश्चित ही यह ग्रामीण महिलाओं के संघर्ष की बहुत बड़ी जीत है.
 (  नवभारत टाइम्स में 24 सितम्बर  2012 को प्रकाशित आलेख) 

Tuesday 10 July 2012

सरकार की दोहरी नीति ने बच्चों से छुड़वाया स्कूल


अन्नू आनंद
(देवास, मध्य प्रदेश)
मध्य प्रदेश में मैला ढोने वालों के पुनर्वास को लेकर कर्इ प्रकार की अनियमितताएं देखने को मिल रही हैं। सरकार की पुनर्वास नीति में इतने सुराख हैं कि यहां पर कर्इ जिलाें में इस काम को छोड़ने वाले कर्इ लोग फिर से इस काम को अपनाने लगे हंै। फरवरी 2002 में देवास जिले में चलने वाले 'गरिमा अभियान के तहत किरन सहित बस्ती की 26 महिलाओं ने यह काम करना छोड़ दिया। मध्य प्रदेश में इस अभियान के तहत मैला ढोने वालों को अपनी मान मर्यादा और सम्मान की खातिर इस काम को छोड़ने के लिए तैयार किया जा रहा है। किरन बताती है कि यह काम छोड़ने के बाद उन सभी महिलाओं के पास बच्चों का पेट पालने के लिए कोर्इ विकल्प नहीं था। उन्होंने खेतों में मजदूरी करना शुरू किया लेकिन यह मजदूरी का काम भी कभी-कभार मिलता। मजदूरी के काम से अनजान किरन अक्सर नौ बीघा सोयाबीन काटती जबकि उसे मजदूरी केवल सात बीघा की ही मिलती। किरन सहित काम छोड़ने वाली बस्ती की अन्य महिलाओं के बच्चों को स्कूल में मिलने वाली छात्रवृत्ति भी बंद कर दी गर्इ। अब बस्ती के अधिकतर बच्चे स्कूल से बाहर हंै।
केंद्र सरकार ने जब वर्ष 1993 में मैला ढोने के अमानवीय कार्य को बंद करने का सफार्इ कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सनिनर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम 1993 लागू किया था तो साथ में काम छोड़ने वाले लोगों के लिए पुनर्वास की राष्ट्रीय योजना भी लागू की थीं। इनमें से एक योजना अस्वच्छ धंधों में लगे लोगों के बच्चों को शिक्षित बनाने के संबंध में थी। अप्रैल 1993 से लागू इस योजना के तहत अस्वच्छ धंधों में लगे लोगों के दो बच्चों को दस माह तक पहली से दसवीं कक्षा तक छात्रवृत्ति प्रदान करने का प्रावधान है। योजना के मुताबिक एक से पांचवीं तक 40 रुपए प्रति माह और छठी से आठवीं तक 60 रुपए प्रति माह तक की छात्रवृत्ति निर्धारित की गर्इ थी। इस आर्थिक प्रोत्साहन ने देश भर में मैला ढोने के काम में लगे बहुत से परिवारों के बच्चों को स्कूलों में पहुंचाने का काम किया।
लेकिन जब वर्ष 2000 से कानून के तहत सरकारी और गैरसरकारी प्रयासों के चलते मैला ढोने वाले लोगों द्वारा काम को त्यागने की प्रवृति ने जोर पकड़ा तो इसका सबसे बुरा प्रभाव स्कूली बच्चों पर पड़ा। स्कूलों में उनको मिलने वाली छात्रवृत्ति बंद होने लगी। इसकी मुख्य वजह यह है कि बच्चों को छात्रवृत्ति की इस कल्याणकारी योजना और कानून में ही विरोधाभास है। कानून अस्वच्छ धंधे पर रोक लगाता है जबकि योजना अस्वच्छ धंधे में लगे बच्चों को ही स्कूली शिक्षा के लिए सहायता देती है।


मैला ढोने का काम बंद करने वाली बस्ती की शोभा ने अपनी दो लड़कियों का स्कूल छुड़वा दिया। वह बताती है कि एक तो काम नहीं ऊपर से बच्चों की फीस, वर्दी और दूसरे खर्चे हम कहां से लाएं। किरन ने बताया कि जब स्थानीय सरकारी अधिकारियों से पूछा तो उन्होंने बताया कि छात्रवृत्ति तो अस्वच्छ धंधों में लगे लोगों के बच्चों के लिए है जब काम छोड़ दिया तो छात्रवृत्ति क्यों मिलेगी। किरन तर्क देती है कि एक तरफ तो सरकार यह प्रथा बंद करना चाहती है और इसके लिए कानून भी बनाया है दूसरी ओर उसी कानून का सहारा लेकर हमारे बच्चों के पढ़ने के रास्ते बंद किए जा रहे हैं हम बच्चों की जरूरतें कैसे पूरी करें। ऐसे में हमारे पास बच्चों को स्कूल से हटाने के अलावा क्या विकल्प है। पिछले वर्ष किरन ने गरिमा अभियान के तहत आयोजित जनसुनवार्इ में भी सरकार से ऐसे धंधों को छोड़ने वालों के बच्चों को दोगुनी छात्रवृत्ति देने की मांग की थी।
किरन की बातों में दम है लेकिन स्थानीय सरकारी अधिकारी सिर्फ कागजों की भाषा समझते हंै। इस छात्रवृत्ति को पाने के लिए साल में 100 दिन काम करने का हलफनामा देना पड़ता है। जिस पर सरकारी अधिकारी को हस्ताक्षर करने होते हैं। कोर्इ भी सरकारी अधिकारी यह मानना नहीं चाहता कि उनके जिले में मैला ढोने का काम चल रहा है। इसलिए बच्चों को छात्रवृत्ति नहीं मिल पाती।     
2500 की आबादी वाले सिआ गांव में वर्षों से मैला ढोने के काम को त्यागने वाली 54 वर्षीया मन्नू बार्इ कहती है, ''जब मैं और मेरी बहुएं यह काम करते थे तो मेरे पोते-पोतियों  के साथ स्कूल में भेदभाव होता था। अब काम छोड़ दिया तो हम बच्चों को स्कूल भेजने के काबिल ही नहीं रहे। सरकारी सहायता भी तो बंद कर दी गर्इ। संतोष बताती है कि पहले मैं मैला सिर पर ढोकर ले जाती थी बदले में मुझे बासी रोटी फेंक कर दी जाती थी। बच्चे स्कूल जाते तो उन्हें नल से पानी नहीं पीने दिया जाता। उनको टाटपल्ली पर बैठने भी नहीं देते थे। बच्चे घर आकर शिकायत करते। दोपहर के भोजन में भी उन्हें अलग बिठाकर भोजन खाने को मिलता। लेकिन बाद में जब गांव में इस काम को छोड़ने का अभियान शुरू हुआ और कानून के बारे में जानकारी दी गर्इ तो हमने काम छोड़ दिया, लेकिन हमें काम छोड़कर क्या मिला। आज न हमारे पास काम है उस पर बच्चों को शिक्षा में मिलने वाली मदद भी बंद हो गर्इ। आज जब हमारे काम की वजह से स्कूल में उन्हें शर्मसार नहीं होना पड़ता और वे सभी बच्चों के समान व्यावहार पाने के काबिल हुए हैं तो प्रशासन ने बच्चों को मिलने वाली राशि बंद कर दी। यह कहां का न्याय है।
वास्तव में मैला ढोने जैसे श्राप से मुकित दिलाने के लिए चालू की गर्इ सरकारी पुनर्वास योजनाओं में इतनी कमियां हैं कि निर्धारित समय सीमा तक इस काम को बंद करने का लक्ष्य अभी बेहद दूर जान पड़ता है। केंद्र की यूपीए सरकार ने सामाजिक न्याय मंत्रालय को यह आदेश दिया है कि दिसंबर 2007 तक सभी राज्यों में यह काम पूरी तरह बंद हो जाना चाहिए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए योजना आयोग ने 'मैला ढोने से मुकित राष्ट्रीय कार्ययोजना 2007 भी बनार्इ है। जिस का मकसद 2007 के अंत तक इस काम को पूरी तरह बंद किया जाना है। लेकिन जमीनी हकीकत अलग ही कहानी बयां करती है।
मध्य प्रदेश सरकार ने हार्इकोर्ट में हलफनामा दिया है कि मध्य प्रदेश में अब कोर्इ भी  मैला ढोने का काम नहीं कर रहा। जबकि यहां के नौ जिलों में पिछले वर्ष गरिमा अभियान द्वारा करार्इ गर्इ सर्वे से पता चलता है कि अभी भी यहां 618 लोग इस काम में लगे हैं। इस के अलावा 52 ऐसे लोगों का भी पता चला जिन्होंने काम छोड़ने के बाद उचित पुनर्वास के अभाव में फिर से इस काम को अपना लिया है। जो लोग ये काम छोड़ चुके हैं उन से  आज भी अन्य हीन काम जैसे गांव में मरे पशुओं को फेंकना, श्मशान से मृतक के कपड़े लेना, लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करना, जजमानी करना और किसी की मृत्यु होने पर ढोल बजाना इत्यादि कामों को कर रहें हैं और इन जातिगत कामों के बंटवारे को रोकने के लिए सरकार के पास कोर्इ ठोस नीति नहीं है।
सरकार का पूरा जोर आर्थिक पुनर्वास पर है। अधिकतर योजनाएं भी पुरुषों को ध्यान में रखकर बनार्इ जा रही हैं। जबकि इस धंधे में 93 प्रतिशत महिलाएं लगी हुर्इ हैं। जिन रोजगारों के लिए कर्जा दिए जाने की व्यवस्था है वे अधिकतर पुरुषों द्वारा किए जाते हैं। देवास जिला में इस मुíे पर काम करने वाली संस्था 'जनसाहस के प्रमुख आसिफ के मुताबिक अधिकतर ऐसे कामों के लिए कर्जा दिया जा रहा है जो पुरुष करते हैं। जैसे आटो, दुकानदारी आदि। ऐसा नहीं है कि ये काम महिलाएं नहीं कर सकतीं लेकिन उन्हें प्रशिक्षण के माध्यम से सशक्त बनाने की जरूरत है और ये लंबी प्रक्रिया है। आसिफ के मुताबिक स्कूलों से मिलने वाली आर्थिक मदद के बंद होने की नीति इन लोगों को यह काम न छोड़ने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। उन्होंने बताया कि भावरासागर में मैला ढोने के काम मे लगी शोभा की छह लड़कियां स्कूल जाती थीं, लेकिन जब उसने वर्ष 2003 में काम छोड़ा तो कुछ समय बाद उसकी सभी बेटियों को स्कूल छोड़ना पड़ा क्योंकि स्कूल से मिलने वाली आर्थिक सहायता यानी कि छात्रवृत्ति बंद हो गर्इ और शोभा के लिए बिना सहायता के उन्हें पढ़ाना संभव नहीं था। 
किरन, शोभा, संतोष जैसी बाल्मीकी बस्ती की अधिकतर महिलाओं को यह काम छोड़े पांच वर्ष हो चुके हैं, लेकिन आज भी वे कभी खेतों में दाने तो कभी अनाज की फसल आने का इंतजार करती हैं तो कभी नगर पंचायत से नाली या गटर साफ करने की पर्ची कटने का इंतजार। यह काम केवल 15 दिनों के लिए बारी-बारी से हर परिवार को दिया जाता है।
सरकार नौ प्रतिशत आर्थिक वृद्धि का भले ही जश्न मनाती रहे लेकिन हकीकत तो यह है कि आज भी छह लाख के करीब लोग इस अमानवीय काम को करने का खामियाजा भुगत रहे हैं। अब देखना यह है कि सरकार दिसंबर 2007 तक इन लोगों को इस प्रथा से निजात दिलाने के साथ ही उनके स्कूलों मे पढ़ने वाले बच्चों के साथ भी न्याय कर पाती है या फिर कोर्इ नर्इ तारीख, नया साल इनकी उम्मीद की परीक्षा लेगा।
(यह लेख २००७ में जनसत्ता, ग्रासरूट में कवर स्टोरी सहित क्षेत्रीय समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ है.)    

Tuesday 28 February 2012

मॉडर्निटी क्या कोई थोपने की चीज है




भारत सरकार के विशेष दबाब के बावजूद भी नॉर्वे सरकार २३ मार्च तक ही बच्चों को उनके परिवार को सौपने के लिए तैयार हई है. आखिर आपने ही बच्चों कि कस्टडी पाने के लिए परिवार को धरने पर बैठना पड़ा है.  लेकिन नॉर्वे सरकार अभी भी बच्चों की उचित देखभाल के नाम पर उन्हें माँ बाप को सौंपने को तैयार नहीं, क्या  बच्चों को पारिवार से दूर,नए परिवेश, नयी भाषा और नए कल्चर में रखने से उनका  सही विकास संभव है ? क्या नॉर्वे की चाइल्ड वेल्फेयर एजेंसी इस का जवाब देगी. 

अन्नू  आनंद 
क्या भारतीयों का बच्चों को पालने का सामान्य तरीका बच्चों के विकास के लिए उचित नहीं है? बच्चों के पालन-पोषण की शैली क्या उन्हें विदेशों से सीखनी होगी? बच्चों की बेहतर परवरिश किसे कहेंगे? क्या देश बदलने के साथ जीवन शैली भी बदलना बच्चों के हित में है? क्या अपनी संस्कृति से जुड़े मूल्यों के मुताबिक बच्चों की देख-रेख करने में कोई बुराई है? इस तरह के कई सवाल इन दिनों चिंता का कारण बने हुए हैं। इसकी खास वजह है नॉर्वे में उन दो मासूम बच्चों को सरकारी स्तर पर उनके मां-बाप से अलग करने की घटना, जिसने देश और विदेशों में रहने वाले करोड़ों भारतीय परिवारों को असमंजस में डाल दिया है। इन सवालों पर बहस से पहले घटना को ठीक से जानना जरूरी है । 

साथ सुलाने का अपराध 
नार्वे के स्टावंगर शहर में रहने वाले अनुरूप और सागरिका भट्टाचार्य से उनके तीन साल के बेटे अभिज्ञान और एक साल से भी कम उमर की उनकी बेटी ऐश्वर्या को वहां की सरकारी एजेंसी ने कुछ समय पहले इस आधार पर अलग कर दिया कि वे बच्चों का पालन-पोषण सही ढंग से नहीं कर रहे। इस सिलसिले की शुरुआत तब हुई
 जब किंडरगार्टन में पढ़ने वाले अभिज्ञान के स्कूल को लगा कि वह कुछ चीजों को जल्दी नहीं समझ पा रहा है। उन्होंने इसकी जानकारी चाइल्ड प्रोटेक्टिव संस्था को दे दी। इसके बाद संस्था से जुड़े अधिकारी जांच के लिए उसके घर आने लगे। उनकी राय यह बनी कि बच्चों की परवरिश ठीक से नहीं हो रही। अधिकारियों को शिकायत थी कि दंपति बच्चों को हाथ से खाना खिलाते हैं और खाने में दही-चावल देते हैं। इसके अलावा वे बच्चों को अपने साथ बिस्तर पर सुलाते हैं। जो बातें हमारी दिनचर्या का आम हिस्सा हैं, वही भट्टाचार्य दंपति के लिए अपराध बन गईं। 

कोर्ट-कचहरी के चक्कर 
सरकारी अधिकारियों ने बच्चों के अधिकारों से संबंधित नार्वे के कड़े कानूनों का हवाला देते हुए दोनों बच्चों को मां-बाप से जबरन अलग कर बारनेवर्ने नार्वेजियन चाइल्ड वेलफेयर सर्विस सेंटर में भेज दिया। पिछले आठ माह से भट्टाचार्य दंपति अपने बच्चों की कस्टडी के लिए अदालत, सरकारी दफ्तरों और दूतावास के चक्कर काट रहे हैं। वहां की अदालत ने भी वेलफेयर सेंटर के पक्ष में फैसला देते हुए 18 साल तक बच्चों को अलग-अलग फोस्टर केयर में रखने और मां-बाप को साल में केवल दो बार बच्चों से मिलने की इजाजत दी। भारत सरकार के भारी दबाव के बाद नार्वे सरकार बच्चों को कोलकाता स्थित उनके चाचा के हवाले करने को तैयार हुई है। उम्मीद है कि बच्चे मार्च तक यहां पहुंच पाएंगे। 
 

नार्वे की इस घटना से उठा विवाद विदेशों में रहने वाले करीब तीन करोड़ भारतीयों के धार्मिक, सांस्कृतिक, और कानूनी अधिकारों पर सवालिया निशान लगाता है। विदेशी जमीन पर अपनी संस्कृति और जीवन शैली को भूलकर बाहरी कल्चर अपनाना और उसी के आधार पर बच्चों को ढालना आसान नहीं है। हर बच्चे को, चाहे वह कहीं भी रहे, अपने धार्मिक, सामाजिक, जातीय और भाषाई माहौल में पलने का हक है। कानून का डर दिखा कर उसका यह हक छीनना अन्याय है। नार्वे में बच्चों को हाथ से खिलाना अपराध है। वहां बच्चे को पैदा होते ही अलग सुलाने की रिवायत है। हमारी संस्कृति में बच्चों को हाथ से खिलाना आम बात है। 


दही-चावल हमारे रोजाना के भोजन का हिस्सा है। पांच साल तक बच्चों का मां-बाप के साथ सोना यहां सामान्य बात है। एक हद तक यह हमारी मजबूरी भी है। कम जगह के चलते अक्सर हमारे बच्चे मां-बाप के साथ या उनके कमरे में ही सोते हैं। बच्चों का मां-बाप की देख-रेख में रहना उनकी सुरक्षा तथा उनमें उचित मूल्यों के विकास के लिए भी बेहतर माना जाता है। भारत में लड़के शादी के बाद भी मां-बाप के साथ ही रहते हैं। हमारी इस रिवायत को पश्चिमी देशों में हैरत से देखा जाता है। इन देशों में बेटा अगर 21 साल की उमर के बाद माता-पिता के साथ रहे तो उन्हें इसे 'असामान्य प्रवृत्ति' समझा जाता है। 

यह संस्कृति का अंतर ही है कि हम आज भी बूढ़े मां-बाप को परिवार के साथ रखने में गर्व महसूस करते हैं, उन्हें ओल्ड एज होम या वेलफेयर सेंटर में नहीं रखते। ऐसा नहीं कि नार्वे या किसी और देश की संस्कृति खराब है, या उसे अपनाना गलत है। लेकिन इसे किसी पर थोपना ठीक नहीं है। सबसे ज्यादा हैरत की बात यह है कि नार्वे की अदालत ने भी फैसला दिया है कि दोनों बच्चे 18 साल की उम्र तक अलग-अलग फॉस्टर होम में रहेंगे और उनके मां-बाप साल में केवल एक बार उनसे मिल सकते हैं। अदालत के मुताबिक अगर पति-पत्नी अलग होते हैं तो बच्चे पिता को सौंपे जा सकते हैं। 

दूसरों को भी समझें 
इस फैसले से यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या भारत से बाहर रहने वाले भारतीयों को स्थानीय सिविल और क्रिमिनल लॉ के पालन के साथ अब अपने घरों में भी विदेशी कानूनों का पालन करना होगा? नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड जैसे यूरोपीय देशों में बच्चों के अधिकारों से जुड़े कानून इतने सख्त हैं कि बच्चों के हित के नाम पर उन्हें परिवारों से अलग रखने से भी गुरेज नहीं किया जाता। लेकिन इस मामले में भारतीय दंपति के पर्सनल लॉ को ताक पर रख कर नार्वे ने अपने देश के पालन-पोषण के नियमों को अधिक महत्वपूर्ण माना। 

यह मामला दूसरी संस्कृतियों के प्रति असंवेदनशीलता को भी दर्शाता है। जिस तरह वहां के कानून और कल्चर में बच्चे को हाथ से खिलाना 'फॉर्स्ड फीडिंग' है, उसी तरह मां का दूध पीने वाली आठ माह की बच्ची को मां से अलग करना भारतीय दृष्टि में बाल उत्पीड़न है। यूरोप को अपनी संस्कृति को उच्च मानने की प्रवृत्ति छोड़ कर दूसरे देशों की जीवन शैली को समझने का प्रयास भी करना चाहिए।

Thursday 23 February 2012

सिंगल है तो क्या हुआ अकेली क्यों रहे




अन्नू आनंद 
इन दिनों टीवी चैनल पर एक नए सीरियल कीशुरूआत हुई है। सीरियल की कहानी एक ऐसीसिंगल यानी एकल महिला के इर्द 
 गिर्द घूमती हैजो अपने पति की मृत्यु के बाद अपने दो छोटेबच्चों की परवरिश के लिए ससुराल पड़ोस औरसमाज के अन्य लोगों के तानों और उलाहनों काशिकार रहती है। परिवार और समाज अक्सर उसेशक की नजर से देखता है। सीरियल की कहानीकाफी हद तक इस युवा सिंगल महिला के प्रेम -प्रसंगों पर फोकस है जो अपनी आकांक्षाओं को पूराकरने के साथ अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बचाएरखने की भी जद्दोजहद से जूझती है। लेकिन इसकेसाथ ही यह सीरियल एक शिक्षित समाज में एक सिंगल महिला के संघर्ष की ओर इशारा कर ऐसीमहिलाओं की समस्याओं पर विचार करने और समाज की तंग सोच को बदलने की ओर भीध्यान आकर्षित करता है।

दस फीसदी का सवाल 
भारत में कुल महिला आबादी का दस फीसदी हिस्सा सिंगल महिलाओं का है। इनमें अविवाहित 
,विधवा तलाकशुदा और परित्यक्ता महिलाएं शामिल हैं। ये अपनी इच्छा से या इच्छा के विपरीतया किसी हादसे के कारण अकेले जीवन जी रही हैं लेकिन अफसोस की बात है कि दिनोंदिनउन्नत आधुनिक और शिक्षित होता हमारा समाज आज भी उन्हें समानता के साथ सामान्यजीवन जीने का अधिकार नहीं दे पाया है। बच्चों की परवरिश से लेकर अपनी हर छोटी बड़ीआंकाक्षा को पूरी करने के लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ता है।

हैरत की बात है कि आर्थिक रूप से संपन्न महिला भी पुरुष साथी का साथ छूटने के बाद एकसहज जीवन की कल्पना नहीं कर पाती। कुछ समय पहले पुणे में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरतपल्लवी का पति संदीप बनर्जी उसे छोड़कर चला गया। पढ़ी 
लिखी होने के बावजूद पल्लवी कोलगा जैसे संदीप के बिना उसका कोई काम पूरा नहीं हो पाएगा। पति के धोखे से उबरना बच्चोंका लालन पालन और मानसिक यातनाओं से लड़ना उसके लिए आसान  था। पल्लवी जैसी नजाने कितनी संपन्न और योग्य महिलाएं सिंगल होने पर अपने को ऐसी समस्याओं से घिरा पातीहैं।

सिंड्रेला सिंड्रोम 
इसका एक बड़ा कारण 
सिंड्रेला सिंड्रोम है। भारत में हर किशोरी की यही कल्पना होती है किजैसे ही उसके सपनों का राजकुमार उसे मिलेगा उसके जीवन की हर परेशानी दूर हो जाएगी।वह एक ऐसे राजकुमार की चाहत लिए बड़ी होती है जो उसे दुनिया के सारे दुखों से छुटकारादिलाए। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब इस युवती के सपनों का राजकुमार किसी कारण सेउसे छोड़कर चला जाता है या उसकी समस्याओं को दूर करने की बजाए स्वयं उसके लिएसमस्या बन जाता है।

शहरों में रहने वाली पढ़ी 
लिखी एकल महिलाओं के लिए जहां महानगरों का एकाकीपन असुरक्षाकी भावना मानसिक यातनाएं बच्चों की परवरिश और अपनों का उपेक्षापूर्ण रवैया अधिकयातनाओं का कारण बनता है वहीं छोटे कस्बों और गांवों में रहने वाली सिंगल महिलाओं कोआर्थिक तंगी सामाजिक परंपराओं और समाज के शंकालु नजरिए जैसी समस्याओं से गुजरनापड़ता है।

हाल ही में नेशनल फोरम फॉर सिंगल विमिन राइट्स ने देश के छह राज्यों में कम आय वालीएकल महिलाओं पर एक सर्वे कराया। इससे पता चला कि 
2002 की जनगणना में इन महिलाओंकी गिनती करीब चार करोड़ थी। अभी यह मानकर चला जाता है कि सिंगल महिलाओं में विधवाया बूढ़ी महिलाओं की गिनती अधिक है। लेकिन सर्वे में पाया गया कि बहुत सी युवा महिलाएं भीसिंगल रह कर चुनौतीपूर्ण स्थितियों में जीवन गुजारती है। सर्वे के मुताबिक इन महिलाओं कोटूटा विवाह वैधव्य बीमारी बच्चों को अकेले पालना कहीं जाने की जगह  होना हिंसा ,शारीरिक  मानसिक उत्पीड़न कम शिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है।युवा महिलाएं यह दबाव भी झेलती हैं कि उन्हें मदद की क्या जरूरत वे अपनी और अपने बच्चोंकी देखरेख खुद कर सकती हैं।

फोरम की अध्यक्ष जिन्नी श्रीवास्तव के मुताबिक सरकार को आर्थिक अभाव से ग्रस्त एकलमहिलाओं तक अपनी पहुंच बनाने के लिए पर्याप्त बजट रखना चाहिए। जब तक केंद्र सरकार ऐसेप्रावधान अपने बजट में शामिल नहीं करती 
निचले स्तर पर अकेला जीवन जीने वाली महिलाओंकी मुश्किलें कम नहीं होंगी। सामाजिक सुरक्षा पेंशन में एकल महिलाओं को शामिल कर उनकीदिक्कतों को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। देखने में आया है कि तलाकशुदा औरपरित्यक्त महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता। सर्वेमें पाया गया कि ये महिलाएं अब केवल परिवार या समाज पर निर्भर रहने के लिए तैयार नहींहैं।

अनुराधा और सोनाली 
संपन्न परिवार की जिन महिलाओं को आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना पड़ता 
उनके लिए भीएकल होने का दर्द कम नहीं है। बच्चों के लिए मां और बाप दोनों की भूमिका निभाने के साथपड़ोसियों और परिवार द्वारा शक की नजर से देखा जाना और असुरक्षा का माहौल अपनी इच्छासे जीने के उनके अधिकार में बड़ी बाधा बनते हैं। अपनों की उपेक्षा और जीवन भर एकाकी रहनेकी आशंका कितनी भयावह हो सकती है यह हम पिछले साल नोएडा में रहने वाली दो बहनोंअनुराधा और सोनाली बहल के स्वयं को घर में कैद कर खुद को भूखों मरने के लिए छोड़ देनेकी घटना में देख चुके हैं।

भाई के छोड़ जाने के बाद उन्होंने केवल इसलिए स्वयं को अलग कर लिया था कि उन्हें लगताथा 
उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। आर्थिक अभाव को तो सरकारी योजनाओं केमाध्यम से दूर किया जा सकता है लेकिन एकल महिलाओं के प्रति अपना तंग नजरिया बदलनेके लिए समाज को ही कुछ करना होगा। समाज से इन महिलाओं की कोई बड़ी अपेक्षा नहीं है।जरूरत उन्हें सिर्फ यह एहसास दिलाने की है कि उनका होना बाकी दुनिया के लिए भी महत्वपूर्णहै।

पत्रकार और टिप्पणीकार 
सिंगल है तो क्या हुआ अकेली क्यों रहे

अन्नू आनंद 
इन दिनों टीवी चैनल पर एक नए सीरियल कीशुरूआत हुई है। सीरियल की कहानी एक ऐसीसिंगल यानी एकल महिला के इर्द 
 गिर्द घूमती हैजो अपने पति की मृत्यु के बाद अपने दो छोटेबच्चों की परवरिश के लिए ससुराल पड़ोस औरसमाज के अन्य लोगों के तानों और उलाहनों काशिकार रहती है। परिवार और समाज अक्सर उसेशक की नजर से देखता है। सीरियल की कहानीकाफी हद तक इस युवा सिंगल महिला के प्रेम -प्रसंगों पर फोकस है जो अपनी आकांक्षाओं को पूराकरने के साथ अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बचाएरखने की भी जद्दोजहद से जूझती है। लेकिन इसकेसाथ ही यह सीरियल एक शिक्षित समाज में एक सिंगल महिला के संघर्ष की ओर इशारा कर ऐसीमहिलाओं की समस्याओं पर विचार करने और समाज की तंग सोच को बदलने की ओर भीध्यान आकर्षित करता है।

दस फीसदी का सवाल 
भारत में कुल महिला आबादी का दस फीसदी हिस्सा सिंगल महिलाओं का है। इनमें अविवाहित 
,विधवा तलाकशुदा और परित्यक्ता महिलाएं शामिल हैं। ये अपनी इच्छा से या इच्छा के विपरीतया किसी हादसे के कारण अकेले जीवन जी रही हैं लेकिन अफसोस की बात है कि दिनोंदिनउन्नत आधुनिक और शिक्षित होता हमारा समाज आज भी उन्हें समानता के साथ सामान्यजीवन जीने का अधिकार नहीं दे पाया है। बच्चों की परवरिश से लेकर अपनी हर छोटी बड़ीआंकाक्षा को पूरी करने के लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ता है।

हैरत की बात है कि आर्थिक रूप से संपन्न महिला भी पुरुष साथी का साथ छूटने के बाद एकसहज जीवन की कल्पना नहीं कर पाती। कुछ समय पहले पुणे में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरतपल्लवी का पति संदीप बनर्जी उसे छोड़कर चला गया। पढ़ी 
लिखी होने के बावजूद पल्लवी कोलगा जैसे संदीप के बिना उसका कोई काम पूरा नहीं हो पाएगा। पति के धोखे से उबरना बच्चोंका लालन पालन और मानसिक यातनाओं से लड़ना उसके लिए आसान  था। पल्लवी जैसी नजाने कितनी संपन्न और योग्य महिलाएं सिंगल होने पर अपने को ऐसी समस्याओं से घिरा पातीहैं।

सिंड्रेला सिंड्रोम 
इसका एक बड़ा कारण 
सिंड्रेला सिंड्रोम है। भारत में हर किशोरी की यही कल्पना होती है किजैसे ही उसके सपनों का राजकुमार उसे मिलेगा उसके जीवन की हर परेशानी दूर हो जाएगी।वह एक ऐसे राजकुमार की चाहत लिए बड़ी होती है जो उसे दुनिया के सारे दुखों से छुटकारादिलाए। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब इस युवती के सपनों का राजकुमार किसी कारण सेउसे छोड़कर चला जाता है या उसकी समस्याओं को दूर करने की बजाए स्वयं उसके लिएसमस्या बन जाता है।

शहरों में रहने वाली पढ़ी 
लिखी एकल महिलाओं के लिए जहां महानगरों का एकाकीपन असुरक्षाकी भावना मानसिक यातनाएं बच्चों की परवरिश और अपनों का उपेक्षापूर्ण रवैया अधिकयातनाओं का कारण बनता है वहीं छोटे कस्बों और गांवों में रहने वाली सिंगल महिलाओं कोआर्थिक तंगी सामाजिक परंपराओं और समाज के शंकालु नजरिए जैसी समस्याओं से गुजरनापड़ता है।

हाल ही में नेशनल फोरम फॉर सिंगल विमिन राइट्स ने देश के छह राज्यों में कम आय वालीएकल महिलाओं पर एक सर्वे कराया। इससे पता चला कि 
2002 की जनगणना में इन महिलाओंकी गिनती करीब चार करोड़ थी। अभी यह मानकर चला जाता है कि सिंगल महिलाओं में विधवाया बूढ़ी महिलाओं की गिनती अधिक है। लेकिन सर्वे में पाया गया कि बहुत सी युवा महिलाएं भीसिंगल रह कर चुनौतीपूर्ण स्थितियों में जीवन गुजारती है। सर्वे के मुताबिक इन महिलाओं कोटूटा विवाह वैधव्य बीमारी बच्चों को अकेले पालना कहीं जाने की जगह  होना हिंसा ,शारीरिक  मानसिक उत्पीड़न कम शिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है।युवा महिलाएं यह दबाव भी झेलती हैं कि उन्हें मदद की क्या जरूरत वे अपनी और अपने बच्चोंकी देखरेख खुद कर सकती हैं।

फोरम की अध्यक्ष जिन्नी श्रीवास्तव के मुताबिक सरकार को आर्थिक अभाव से ग्रस्त एकलमहिलाओं तक अपनी पहुंच बनाने के लिए पर्याप्त बजट रखना चाहिए। जब तक केंद्र सरकार ऐसेप्रावधान अपने बजट में शामिल नहीं करती 
निचले स्तर पर अकेला जीवन जीने वाली महिलाओंकी मुश्किलें कम नहीं होंगी। सामाजिक सुरक्षा पेंशन में एकल महिलाओं को शामिल कर उनकीदिक्कतों को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। देखने में आया है कि तलाकशुदा औरपरित्यक्त महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता। सर्वेमें पाया गया कि ये महिलाएं अब केवल परिवार या समाज पर निर्भर रहने के लिए तैयार नहींहैं।

अनुराधा और सोनाली 
संपन्न परिवार की जिन महिलाओं को आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना पड़ता 
उनके लिए भीएकल होने का दर्द कम नहीं है। बच्चों के लिए मां और बाप दोनों की भूमिका निभाने के साथपड़ोसियों और परिवार द्वारा शक की नजर से देखा जाना और असुरक्षा का माहौल अपनी इच्छासे जीने के उनके अधिकार में बड़ी बाधा बनते हैं। अपनों की उपेक्षा और जीवन भर एकाकी रहनेकी आशंका कितनी भयावह हो सकती है यह हम पिछले साल नोएडा में रहने वाली दो बहनोंअनुराधा और सोनाली बहल के स्वयं को घर में कैद कर खुद को भूखों मरने के लिए छोड़ देनेकी घटना में देख चुके हैं।

भाई के छोड़ जाने के बाद उन्होंने केवल इसलिए स्वयं को अलग कर लिया था कि उन्हें लगताथा 
उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। आर्थिक अभाव को तो सरकारी योजनाओं केमाध्यम से दूर किया जा सकता है लेकिन एकल महिलाओं के प्रति अपना तंग नजरिया बदलनेके लिए समाज को ही कुछ करना होगा। समाज से इन महिलाओं की कोई बड़ी अपेक्षा नहीं है।जरूरत उन्हें सिर्फ यह एहसास दिलाने की है कि उनका होना बाकी दुनिया के लिए भी महत्वपूर्णहै।
 नवभारत टाइम्स में  28 जनवरी 2012 को प्रकाशित