Sunday 29 November 2009

स्त्री का अस्तित्व

इन दिनों स्त्री विमर्श की बहसों में स्त्री के यौन अधिकार पर चर्चाओं ने बेहद जोर पकड़ लिया है। इन बहसों में अक्सर जब मध्यम वर्ग की महिलाओं के अधिकारों की बात होती हैं तो अधिकतर बहसें भू्रण हत्याओं, महिला हिंसा पर थोड़ा ज्ञान बखारने के बाद स्त्री के यौन अधिकारो की ओर मुड़ जाती हंै। इन दिनों यह रिवायत कुछ अधिक ही दिखाई पड़ रही है। (शायद टीआरपी के खेल के चलते)। स्त्री केे यौन अधिकार एक बड़ा मसला है इससे इंकार नहीं लेकिन जिस समाज में वह पुरूष के अस्तित्व में ही अपना अस्तित्व ढूंढती हो, अपने नाम से अधिक ‘मिसेज फलां’ कहलाने में गर्व महसूस करती हो, जो अपने हर छोटे बड़े फैसले के लिए पति पर निर्भर हो और अपनी इच्छाओं अपने वजूद को भुलाकर जीने के आदी हो चुकी हो उनसे से उम्मीद करना कि वे पति के साथ दैहिक संबंधों में अपने सुख, अपनी इच्छा- अनिच्छा को तरजीह दे कितना उचित है? स्त्री अधिकार के हिमायतियों की नई पौध में स्त्री के पारिवारिक और घरेलु अधिकारों की बजाय यौन अधिकारों के प्रति चिंता अधिक है। इस में कोई संदेह नहीं कि स्त्री मंे किसी भी परिस्थिति, वातावरण में स्वयं को ढालने की क्षमता गजब की है। अपनी इस कला में वह इस कदर माहिर है कि इसके लिए वह स्वयं को पूरी तरह भुला देती हैं। खासकर शादी के बाद वह जिस प्रकार अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को भूलकर एक नया अवतार धारण करती है उससे मुझे बेहद झल्लाहट होती है। अपनी इस अदाकारी के लिए वह प्रशंसा की पात्र हो या नहीं इस पर मेरी सोच अलग हो सकती है। लेकिन मुझे दुख इस बात का है कि मैं हर दूसरी स्त्री में अपना वजूद मिटाकर भी खमोश, संतुष्ट और सहज रहने वाली ‘कलाकार स्त्री’ के दर्शन करती हूं। इसलिए मेरा संताप बढ़ता ही जा रहा है। कुछ समय पहले मुझे अपनी बेहद पुरानी सहेली से मिलने का अवसर मिला। मेरे लिए उससे मिलना किसी उत्सव से कम नहीं था। इस सहेली से मैंने अपने स्कूल और कालेज के दिनों में बहुत कुछ सीखा था। शलिनी, उसके नाम से ही मैं स्कूल के दिनों में रोमांचित हो जाती थी। पढ़ाई में तो वह हमेशा अव्वल आती ही थी। अन्य पढ़ने लिखने के कामों मे भी उसका दिमाग खूब चलता था। उससे प्रतिस्पर्धा के चलते अक्सर मेरी उत्सुकता रहती कि कोई किताब ऐसी न रह जाए जिसे पढ़ने में वह मेरे से आगे निकल जाए। नईं चीजांे को जानने समझने की उसे हमेशा उत्सुकता रहती। हर विषय में उसकी महारत मेरी हर चुनौती की प्रेरणा बनती। उसकी प्रतिभा, वाक-शैली और विचारों के कईं ट्राफीनुमा साक्ष्य, सालों तक स्कूल और कालेज में प्रिसींपल के आफिस की शोभा बढ़ाते रहे। उसे जब पता चला कि मैं शहर में हूं तो वह मिलने आई फिर हम दोनों मिलकर उसके घर गए। मैं उससे 13 सालों में शादी के बाद पहली बार मिल रही थी। बातचीत का सिलसिला लंबा चला। बातचीत में ‘‘ये कहते हैं,’’ ‘‘इन्होंने बताया’’, ‘‘इन्हीं को पता है’’, जैसे वाक्यों की गिनती घड़ी की आगे बढ़ती सुइयों के साथ बढ़ती जा रही थी। उसकी बातों का केंद्र पति, बच्चे और ‘‘हमारे यहां तो ऐसा होता है’’ जैसे विषयों पर ही रहा। चलने का समय हो गया था। शालिनी को अपने घर परिवार में खुश और संतुष्ट देखकर मुझे संतोष हुआ। लेकिन मेरे मन में उस की दबी बैठी पुरानी छवि कुछ और जानने के लिए उत्सुक थी इसलिए पूछ बैठी, ‘‘अरे भई तुम्हारी किताबों का कलेक्शन तो बहुत बढ़ गया होगा क्या वह नहीं दिखाएगी। इतने सालों में तो तुमने ढेरों बुक्स जमा कर ली हांेगी। उसने हैरत से मुझे देखते हुए पूछा, ‘‘कौन सी किताबें भई? मैंनें तो कभी कोई किताब नहीं पढ़ी। ‘‘अरे, तुम्हें याद नहीं स्कूल और कालेज में तो तू कोई भी किताब आते ही पढ़ लेती थी। दरअसल किताबें पढ़ने की आदत तो मुझे तुमसे ही पड़ी।’’ उसने जैसे कुछ याद करते हुए जबाब दिया, ‘‘अरे तब। वह तो और बात थी तब तो स्कूल -कालेज के दिन थे। मैनें तो अरसे से किसी किताब को हाथ भी नहीं लगाया।’’ वास्तव में उसके करीने से सजे सजाए पूरे घर में न तो कोई किताबों की अलमारी नजर आई और न ही कोई शेल्फ। घर लौटते हुए मैं सिदंूर से सजी मांग, हाथों में चूड़ियां और मुंह में ‘इन्होंने कहा’ की रंटत वाली शालिनी में कभी स्कूल-कालेज के विभिन्न आयोजनों पर दहेज, विधवा विवाह, स्त्री अधिकार पर अपने वक्तव्यों से कईं प्रतियोगियों के छक्के छुड़ाने वाली शालिनी की छवि ढूंढ रही थी। शालिनी को मिलने के बाद कईं दिन तक मुझे यह बात कचोटती रही कि क्या शालिनी को इस बात का अहसास है कि अपने घर परिवार की सेवा में वह अपनी वास्तविक अस्तित्व को होम कर चुकी है। शायद नहीं या फिर वह जानना नहीं चाहती। मीनू से मेरी पहली मुलाकात उससे उस समय हुई जब वह हमारे पड़ोस में अपने दो साल के बच्चे और पति के साथ रहने के लिए आई। मीनू का सारा दिन पति और बच्चे के इर्द-गिर्द उनकी इच्छाओं को पूरा करने में बीतता। कहीं घूमने जाना हो, बच्चों को कहीं घूमने लेजाना हो या मिलकर खाना खाने से लेकर बच्चों को कौन से स्कूल में डालें हर एक बात का उसके पास संक्षिप्त सा उतर होता ‘इनससे पूछकर बताऊंगी’। उसे साड़ी पहनना बहुत पसंद है। हमें भी वह साड़ी में बेहद अच्छी लगती लेकिन जब भी हम कहते तुम साड़ी क्यों नहीं पहनती तो उसका जवाब होता ‘इन्हे’ं मेरा सूट पहनना पसंद है। एक बार बातों बातों में उसने बताया कि जानती हो कभी कभी तो मेरा मन चाहता है कि मुझे पंख लग जाएं और मैं जी भरकर आकाश में उडं़ू। ऐसे ही एकबार जब मैं उसके घर में बैठी थी और वह घर की सफाई कर रही थी तो मेरी नजर एक फाइल पर पड़ी जिस पर लिखा था। डा।ममता त्रिवेदी। मैंने पूछ लिया यह डा. ममता त्रिवेदी कौन है? उसने बताया अरे मेरा ही नाम ममता है और मेैं संस्कृत में पीएचडी हूं इसलिए मैं डा.ममता त्रिवेदी हुई। उसी बातचीत में उसने बताया कि अव्वल दर्जे में पीएचडी करने के बाद उसे कालेज में पढ़ाने की नौकरी मिल रही थी। उसे लेक्चरर बनना बेहद पसंद भी है। लेकिन उसका कहना था बच्चे के साथ यह संभव कैसे होता। मैंने उससे समझाते हुए सवाल किया कि मेरी बेटी भी तो तुम्हारे बेटे जितनी है और हमारी पारिवारिक जिम्मेदारियां भी समान है, मैं भी तो नौकरी कर रही हूं। उसका जवाब था, ‘‘लेकिन ‘इन्हे’ं पसंद नहीं। इसलिए मैंने काम करने का विचार त्याग दिया। मेरी डिग्री भी बेकार गई पर क्या करूं। आखिर पति के ‘अगेंस्ट’ भी तो नहीं जाया जा सकता।’’ स्त्री पुरूष में विषमता की जड़े तो मुझे इस पढ़े लिखे वर्ग में भी कम होते दिखाई नहीं पड़ती। चुटकी से सिंदूर और मंगलसूत्र में लिपटी वह अपने को एक सधे सधाए खांचे में देखने और उस पर खरी उतरने में अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानती है। ऐसी महिलाओं का प्रतिशत कितना होगा जिनके नाम का बैंक में अपना या ज्वांइट एकाउंट होगा? कितनी प्रतिशत परिवारों में घर पति और पत्नी दोनों के नाम पर होता है? कितनी प्रतिशत महिलाएं बिना पति की आज्ञा के बैंक से पैसा निकाल पाती हैं? कुछ अपवादों को छोड़ दें तो मध्यम वर्ग की हर स्त्री अपने सामान्य परिवारिक अधिकारों को ही नहीं जानती। लेकिन इस सोच को हम चुनौती बहुत कम देते हैं। स्त्री को यौन सुख के अधिकार का पाठ पढ़ाने वालों के लिए जरूरी है कि वे पहले उसे अपने अस्तित्व को पहचानने की सीख दें। जब वह घरेलु हकों के साथ परिवार के आर्थिक- सामाजिक तथा अन्य छोटे बडे मसलों में फैसले लेने की हकदार बन जाएगी तो शारीरिक संबंधों में अपने सुख को तलाशने की परिपक्वता भी हासिल कर लेगी। (यह लेख 27 नवंबर को जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है।)

Saturday 14 November 2009

दलितों की थाली अलग क्यों ?








अन्नू आनंद

पिछले दिनों राहुल गांधी का दलित प्रेम उमड़ा तो उन्होंने उत्तर प्रदेश के कई गांवों का दौरा कर दलितों के घरों में जाकर उनकी समस्याओं को सुना और समझा। यही नहीं उन्होंने गरीब और दलितों के घर रात बिताने के बाद अपनी पार्टी के नेताओं को भी यही समानता का पाठ पढ़ाने की कोशिश की। उनकी हिदायत को मानते हुए गांधी जयंती पर सत्तारूढ़ पार्टी के कई मंत्री, सांसद, विधायक और क्षेत्रीय नेताओं ने भी अपने क्षेत्र के दलित बाहुल्य गांवो में जाकर दलितों के साथ चैपाल लगाई। उनके साथ अपनी थाली लगाकर ऐसा स्वांग रचा मानो उन्होंने ‘समानता’ की गंगा में डुबकी लगा ली हो।

अगर राहुल गांधी सहित इन मंत्री और नेताओं ने गावों में जाकर यह टोकन दलित-प्रेम दिखाने की बजाय गरीबों और दलितों के लिए चालू की गई सरकारी योजनाओं को चलाने वाले मुलाजिमांे के साथ बैठक कर उन्हें समानता की सीख दी होती तो देश के लाखों बच्चे स्कूलों में चल रही मिड डे मील योजना में अपनी अलग थाली लगाने की जिल्लत से बच जाते। संभव है कि सरकार की यह सीख मिड डे मील से वचिंत रहने वाले दलित बच्चों को बिना अपमान सहे एक समय का भोजन उपलब्ध कराने में सहायक साबित होती। अक्सर राजनेता चुनावी स्वार्थ को पूरा करने के लिए गरीबों और दलितों के प्रति ऐसी प्रतीकात्मक उदारता दिखाते हैं लेकिन जमीनी सचाई बेहद ही अलग है।

एक तरफ सरकार भोजन का अधिकार विधेयक लाने की तैयारी कर रही है और दूसरी और देश में भोजन की सुरक्षा से जुड़ी दो सबसे बड़ी योजनाओं मिड डे मील और जन वितरण प्रणाली(पीडीएस) का लाभ देश के लाखों दलितों को नहीं मिल पा रहा। इसका मुख्य कारण इन योजनाओं में जात के आधार पर बहिष्कार और भेदभाव का नजरिया है।

देश के पांच राज्यों के 531 गांवांे में मिड डे मील पर की गई सर्वे में पाया गया है कि अधिकतर सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों के साथ बहिष्करण और भेदभाव का रवैया अपनाया जाता है। दलित बच्चों को अन्य बच्चों से अलग बिठाकर भोजन परोसने, उन्हें भोजन देने से इंकार करने और उन्हें सबसे अंत में भोजन परोसने की घटनाएं आम देखने को मिली। इसके अलावा कई स्कूलों में दलित बच्चों को भोजन पहले परोसने की मांग पर सजा देने और उन्हें अन्य बच्चों से अलग हटकर घटिया और कम मात्रा में भोजन देने जैसी घटनाएं भी इन मंे शामिल हैं। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश मंे इंडियन इस्टीटयूट आॅफ दलित स्टडीज की सर्वे के मुताबिक हर तीन में से एक से अधिक स्कूल के मिड डे मील में और तीन में से एक राशन की दुकान पर दलितों के साथ भेदभाव किया जाता है। यह भेदभाव दलितों के भोजन के अधिकार में सबसे बड़ी बाधा है जिसे दूर किए बिना भोजन के अधिकार विधेयक को लागू करने का मकसद पूरा नहीं होगा।

अधिकतर गावों में किसी दलित व्यक्ति को भोजन बनाने के लिए नियुक्त करने के प्रति सबसे अधिक विरोध देखा गया। सर्वे के मुताबिक राजस्थान में केवल 8 फीसदी गावों में स्कूलों में दिया जाने वाला भोजन दलित व्यक्ति द्वारा बनाया जा रहा है। 88 फीसदी में उच्च जात के लोग ही खाना बनाने के काम में लगे हैं। इस प्रदेश में एक भी दलित आर्गेनाइजर यानी मिड डे मील का संचालक नहीं है। तमिलनाडू में 65 और आंध्र प्रदेश में 47 फीसदी गैर दलितों को खाना बनाने का काम सौंपा गया है। दलितों को खाना पकाने का काम न देने के पीछे दलील यह दी जाती है कि दलितों के खाना बनाने से दूसरे जात के लोग खाना नहीं खाएंगे और इससे जातिगत तनाव बढ़ेगा।
जिन स्कूलों में पहले दलित महिला या पुरूष खाना पकाने के काम में लगे थे वहां उच्च जात के लोगों ने स्थानीय प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए अपने बच्चों को स्कूल में भेजना बंद कर दिया। आखिर प्रशासन ने वहां भी गैर दलितों को ही खाना पकाने के काम में लगा दिया।

उत्तर प्रदेश और बिहार में देश के एक तिहाई दलित निवास करते हैं लेकिन इन राज्यों में स्कूलों में पका हुआ खाने की बजाय सूखा राशन माह में एक बार दिया जाता है लेकिन यहां भी भ्रष्टाचार और जात आधारित भेदभाव से ही राशन का वितरण होता है। ऐसेे भी उदाहरण देखने को मिले जहां दलित बच्चों को सूखा राशन भी नसीब नहीं होता। इन राज्यों में सूखा राशन स्कूलों में देने की बजाय 37 फीसदी राशन विक्रेता के घर या दुकान से दिया जाता है। जिन स्कूलों में यह योजना चल रही है वे अधिकतर उच्च जाति के कालोनियों मे स्थित है। उत्तर प्रदेश में मिड डे मील का 85 प्रतिशत सूखा राशन उच्च जात की कालोनियों में स्थित दुकानों या घरों से दिया जाता है।
राजस्थान में 12 फीसदी और तमिलनाडू में 19 फीसदी स्कूल हीं ऐसे हैं जो दलित कालोनियों में स्थित हैं। किसी भी राष्ट्र के लिए इस से शर्म की बात क्या हो सकती है कि देश की जनसंख्या का पांचवा हिस्सा होते हुए भी दलितों के साथ आज भी करीब सभी राज्यों में उच्च जात के लोगों द्वारा छूआछात का बर्ताव किया जाता है। गांव के कुंए से पानी भरन,े मंदिर में प्रवेश करने या यहां तक की दलित का कोई जानवर भी अगर उनके खेत या घर में गलती से चला जाए तो पूरे गांव में बवाल मच जाता है। ऐसे में उच्च जात की कालोनियों से चलाई जा रही इस मिड डे मील तक दलित बच्चों की पहुंच कितनी संभव है इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है।
सर्वे किए गए सभी गावों में औसतन 37 प्रतिशत गावों में जातिगत भेदभाव जैसे दलित बच्चों को अलग बिठाना उनकी थाली अलग परोसना, बाद मे खाना देना या आठ गावों में घटिया खाना और कम मात्रा में खाना देने के उदाहरण भी देखे गए। भोजन के अधिकार के मद्देनजर कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया था कि केंद्र सरकार को भोजन से संबंधित कोई भी योजना शुरू करते समय उसके अमलीकरण में जात आधारित भेदभाव और बहिष्करण को रोकने के प्रावधानों को शामिल करना होगा। जन वितरण प्रणाली यानी सरकारी राशन की दुकानों में भी दलितों के साथ भेदभाव का यही सिलसिला जारी है। हांलाकि इस योजना को शुरू हुए एक लंबा अरसा बीत चुका है लेकिन अभी भी सर्वे किए गए सभी गावों में इन दुकानो पर राशन का वितरण जात को देख कर किया जाता है। सभी राज्यों में पाया गया कि 40 प्रतिशत दलितों को पूरी लागत देने के बाद भी राशन कम मात्रा में दिया जाता है। बिहार में 66 फीसदी दलितों से राशन के वास्तविक मोल से अधिक लागत वसूली जाती है। यही नहीं यह राशन विक्रेता की अपनी जात पर भी निर्भर करता है कि वे किन लोगों को राष्श्न देने में प्राथमिकता दे। बिहार में सब से अधिक 86 प्रतिशत मामालों में राशन विक्रेता के द्वारा अपनी जात के लोगों को राशन वितरण करने में प्राथमिकता देने के मामले देखे गए।
सरकार के इन दो बड़े कार्यक्रमों में दलितों के साथ होने वाले भेदभावों का ही नतीजा है कि आज भी अन्य बच्चों के मुकाबले में दलित बच्चों की मृत्यु दर का आंकड़ा अधिक है। भोजन के अधिकार का मकसद हासिल करना है तो सबसे पहले गरीबों और दलितों के लिए बनी इन योजनाओं से छूआअूत के कीेड़े को खत्म करना होगा और यह तभी संभव है जब दलित भी इन योजनाओं के अमलीकरण में हिस्सेदार और भागीदार दोनों बनंेगे। वरना भोजन के अधिकार को लागू करने का मकसद कभी हासिल नहीं होगा।
यह लेख दैनिक भास्कर में १३ नवम्बर २००९ को प्रकाशित हुआ है