Monday 9 February 2009

तंग गलियों के विरूद्द


अन्नू आनंद
हाल ही में एक हिंदी के मीडिया पोर्टल में हमारी एक पत्रकार साथी ने पत्रकारिता के अनुभवों का वर्णन करते हुए लिखा कि पुरूष वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में लड़कियों के लिए पत्रकार होना एक गुनाह है। उनके निजी अनुभवों का सम्मान करने के बावजूद लेख के अंत में यह पढ़कर दुख और आश्चर्य हुआ कि उन्हें लगता है यह पेशा महिलाओं के लिए उचित नहीं। आज जब महिलाओं ने दुर्गम माने जाने वाले पेशों में भी अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया है हम पत्रकारिता की गलियों को तंग केवल इसलिए मान ले क्योंकि यहां पुरूषों की मानसिकता जंग खाई है।
ऐसा नहीं, गलियां तंग ही सही पर अभी भी उसमें ठंडे हवाओं के झोकें बहते हैं। इन तंग गलियों में कुछ साहसी मानवियों ने ऐसे झरोखे बनाए हैं कि गलियों के संकरे होने का अहसास ही नहीं होता। ऐसा केवल पत्रकारिता मंे नहीं कि महिलाओं को पुरूषों की तंग सोच का सामना करना पड़े। घर से बाहर कदम रखने वाली हर महिला हर कदम पर ऐसी संकुचित सोच को झेलती है। किसी भी व्यवसाय में ऐसे अनुभवों से महिलाओं को रूबरू होना पड़ता है। लेकिन महिलाओं ने पत्रकारिता सहित हर पेशे में इन तंग या बंद गलियों के विरूद्द मोर्चे खोल दिए हैं।
यह सब पढ़ कर तो मुझे दिल्ली के एक पत्रकारिता संस्थान में पढ़ने वाली उस लड़की का चेहरा याद आता है जिसके गांव में अभी भी बिजली की रोशनी नहीं पहुंची है और उसके गांव में लड़कियों को स्कूल भेजना अपराध से कम नहीं है। ऐसे में उसका दिल्ली जैसे महानगर में आकर पत्रकारिता की पढ़ाई करना और घर से शुरू हुई अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ना किसी अजूबे से कम नहीं। ऐसी बहुत सी लड़कियां पत्रकारिता में प्रवेश कर चुकी हैं जो प्रतिकूल वातावरण में पलने के बावजूद आज पत्रकारिता के गलियारों में अपने पुरूष साथियों से कहीं आगे निकल चुकी हैं। ‘‘पत्रकारिता की दुनिया में लड़की होना ऐसा गुनाह है जिसकी कोई सजा नहीं सिर्फ घुट घुट कर बर्दाश्त करने के’’ जैसा कि लेख में बताया गया है सही नहीं। ऐसा कहना उन बहुत सी युवा पत्रकारों के सपनों को धूमिल कर सकता है जो पत्रकारिता में नए आयाम बनाने की आकाक्षाएं रखती हैं। हम महिला पत्रकारों ने अपने हिस्से की धूप-छांव को बेहद शालीनता और सम्मानजनक तरीके से सहा है और आगे भी हम इसे स्वीकारेंगी।
मेरा तो मानना है कि हम शहरों में पढ़ी लिखी महिलाओं के लिए कार्यालयों और आस -पडोस के माहौल की छोटी सोच कोई चुनौती नहीं बल्कि ऐसी पंगडंडीे है जिस पर चलने और संभल कर चल अपनी मंजिल पाने की कला हम महिलाएं अपनी परवरिश के दौरान ही सीख लेती हैं। वास्तविक चुनौती तो हमारे लिए भी एक पत्रकार के रूप में बेहतर रिपोर्टर, कापी एडिटर या संपादक बनने के साथ घर परिवार की जिम्मेदारियां को उचित ढंग से निभाने की होती है और पत्रकारिता को तंग गली का नाम देने वाली लेखिका स्वयं इसे साबित कर चुकी है। फिर तंग गलियों की शिकायत क्यों? गलिया तंग ही नहीं बंद भी थीं और होंगी लेकिन इन बंद गलियों से रास्ते निकल चुके हैं। पत्रकारिता संस्थानों और अखबारों से लेकर चैनलों तक में छोटे छोटे शहरों और गांवो से आने वाली लड़कियों की बढ़ती संख्या इसकी गवाह है।
पेशा कोई भी हो पुरूषों द्वारा लड़कियों को काम में नाबराबर या कमतर आंकना, उनकी उनमुक्तता पर टिप्पणी करना या फिर उसके चरित्र पर आक्षेप लगाकर उसे आगे बढ़ने से रोकना अधिकतर कार्यालयों की प्रवृति बन चुका है। कईं बार तो महिलाएं भी पुरूष साथियों की ऐसी साजिशों का साथ देने लगतीं हैं। ऐसी मिसालों की कमी नहीं। लेकिन इस निराशाजनक चर्चाओं में मुझे उन महिलाओं के अनुभव बेहद बल देते है जो उस माहौल में पैदा होतीं है जहां लड़कियों के जन्म पर ढोल बजाकर या बंदूके चलाकर खुशी नहीं मनाई जाती। पैदाइश से लेकर वह बडे होने तक केवल लड़की होने की खिलाफत झेलती हैं। लेकिन आज वहीं महिलाएं कहीं पुरूषों की चैपाल में बैठकर, पंचायतों की सरपंच बनकर या फिर किसी संगठन का नेतृत्व कर पुरूषों की चैधराहट को खत्म कर रही हैं। इन में से कईयों ने कभी स्कूल के दर्शन भी नहीं किए लेकिन सबलता के मामले में वे किसी पढ़ी लिखी महिला से कम नहीं।इन्होंने साबित कर दिया है कि लड़की होना कोई गुनाह नहीं है। हर प्रकार की विपरीत परिस्थिति का सामना कर अपनी सबलता को मिसाल बनाने वाली ये महिलाएं हमें यही सबक देती है कि गली तंग नहीं।

Saturday 7 February 2009

मीडिया-उपभोक्ता के हितों की खातिर


अन्नू आनंद
लिखने, बोलने, देखने और सुनने की आज़ादी हर व्यक्ति को प्रिय है। अभिव्यक्ति की यही आजादी किसी भी लोकतंत्र को मजबूत बनाती है। इसी बात की दुहाई देकर हम लंबे समय से इस आजादी का जश्न मनाते आए हैं। यह सही है कि सच्चा लोकतंत्र लोगों को केवल जानने का अधिकार नहीं देता बल्कि विभिन्न प्रकार के विचारों को सुनने और उसके प्रति अपनी निजी राय रखने का अधिकार भी देता है।
लेकिन आजादी के उन्माद में अक्सर यह भुला दिया जाता है कि यह निरंकुश और परम स्वतंत्र नहीं है। अभिव्यक्ति की यह आज़ादी दायित्व, जवाबदेही, आत्मनियमन और संवेदनशीलता की मांग भी करती है। जब अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस्तेमाल इन दायित्वों के बोध के बिना होता है तो वह किसी भी समाज या लोकतंत्र के लिए खतरे का कारण बनता है। पैगंबर मोहम्मद के गैर मुनासिब कार्टून छापने वाले भी शायद यह भूल गए कि किसी भी समाज में असहिष्णुता जितनी भयंकर है, उतनी ही घातक जानबूझकर किसी भी धार्मिक भावनाओं या संवेदनशीलता पर प्रहार करना है ।
अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर मिली प्रेस की स्वतंत्रता पर हम वर्षों से गर्व करते आए हैं। हमारे लिए यह गौरव की बात रही है कि हमारे देश में प्रेस पूरी तरह आजाद है इसलिए इसे लोकतंत्र के चैथे स्तंभ की संज्ञा भी दी गई है। इस आज़ादी ने मीडिया को अभी तक ताकतवर बनाने का काम किया है लेकिन पिछले एक दशक में हुए मीडिया में अनियमित और अनियोजित विस्तार ने मीडिया को बेलगाम बना दिया है।
चैनलों की बढ़ती संख्या, समाचारपत्रों के नित नए संस्करणों के चलते मीडिया में ‘संख्या बढ़ाने’ की चाहे वह पाठकों की हो, दर्शकों या श्रोताओं की एक अद्भुत होड़ चल पड़ी है। समाज और लोगों के हितों को ध्यान में रखने के उद्देश्य का निर्वहन करने वाले ‘स्वतंत्र मीडिया’ में अपने हित सर्वोप्रिय होते जा रहे हैं। इसलिए प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया मंे खबरों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना, मसालेदार, सनसनीखे़ज बनाना, मीडिया ट्रायल और खबरों का आयोजन करना जैसी घटनाएं भी आम होती जा रही हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की शुरूआत के पश्चात् इन प्रवृत्तियों को और भी बढ़ावा मिला है।
दरअसल इन प्रवृतियों के पीछे मुख्य उद्देश्य अधिक मुनाफ़ा कमाना है। क्योंकि ‘अधिक संख्या,’ ‘अधिक आगे’ और ‘अधिक तेज़’ का मतलब है अधिक विज्ञापन और अधिक लाभ। जाहिर है मीडिया भी किसी शैंपू, साबुन या टुथपेस्ट बेचने वाले बनियों की तरह केवल उत्पाद बेच रहा है और मीडिया का प्रोडक्ट है खबरें जिसे वह हर उस ढंग से बेचना चाहता है जिससे उसकी बिक्री अधिक हो। जैसे साबुन या सर्फ बेचने वाली कंपनियां थोड़े-थोड़े समय के बाद अपने प्रोडक्ट को कभी ‘सुपर’, कभी ‘न्यू सुपर फास्ट’ या ‘न्यू’ जैसे नाम देकर बेचती है उसी प्रकार मीडिया भी इन दिनों समाचारों को ‘बे्रंकिग न्यूज’, ‘एक्सक्लू0सिव’, ‘केवल इसी पत्र/पत्रिका या चैनल पर’, जैसी संज्ञाएं देकर बेचने में लगा है। ऐसे में प्रेस की आजादी का दुरुपयोग भी स्वाभाविक है। अभी तक मीडिया से यह अपेक्षा की जाती रही है कि वह किसी भी प्रकार के बाहरी अंकुश के बिना आत्मनियमन का रास्ता अपनाए।
लेकिन मीडिया की बेसिरपैर की दौड़ ने अब यह जरूरी कर दिया है कि उसकी जवाबदेही तय की जाए और उसमें पारदर्शिता लाई जाए। इस दिशा में पहल हो चुकी है। अब पाठकों के हितों की सुरक्षा के लिए रीडर्स एडिटर (खबरपाल) जैसी संस्था की शुरूआत की गई है। ‘हिंदू’ और ‘सकाल’ ने इन खबरपालों की नियुक्ति की घोषणा कर निजी संस्थाओं के रूप में मीडिया में आत्मनियंत्रण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि यह खबरपाल न केवल खबरों की गुणवत्ता पर ध्यान देगा बल्कि पाठकों के हितों को भी ध्यान में रखेगा।
आर्थिक मुनाफे की खातिर पत्र-पत्रिकाओं को पोस्टरों में बदलने वाले प्रबंधक मालिक अक्सर यह तर्क देते हैं कि उनके पाठकों की यही मांग है और पाठकों को ध्यान में रखते हुए ऐसे बदलाव किए जा रहे हैं। जबकि हकीकत कुछ दूसरी ही होती है। लेकिन ऐसे खबरपाल पाठकों की वास्तविक अपेक्षाओं को संपादकों तक पहुंचाने का काम कर सकेंगे। पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों के हितों के साथ पत्रकारिता की साख को गिरने से बचाए। यह प्रक्रिया मीडिया-उपभोक्ता के हितों की रक्षा करेगी। उम्मीद है कि यह खबरपाल मीडिया संस्था और जनता के बीच सेतु का काम करेगा। क्या खबरपाल अपने इस उद्देश्य में सफल हो पाएगा, वह पाठकों के हितों की रक्षा कर पाएगा या वह भी संपादकों के हितों के आगे झुकने को मजबूर होगा। अभी यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल है।
लेकिन संतोष की बात यह है इससे पाठकों और संपादकों के बीच जिम्मेदार संबंध बनने की कवायद शुरू होगी।
(यह लेख मार्च 2006 में विदुर के अंक में प्रकाशित हुआ है)

लेकिन आज करीब तीन सालों के बाद भी देखने में आया है की खबरपाल भी पत्रकारिता के मूल्यों को बचाने में अहम भूमिका नहीं निभा सका। सब से बड़ी बात तो यह है की यह केवल कुछ मीडिया संस्थाओं का ही शगूफा बन कर रह गया। ऐसे में सवाल यह उठता है की पत्रकारिता के मूल्यों को बचाने के लिए मीडिया को नियंत्रित कैसे किया जाए। किसी भी प्रकार का सरकारी नियंत्रण हमें मंजूर नहीं। लेकिन स्व- अंकुश की दुहाई देने के बावजूद उस पर मीडिया खरा नहीं उतरा। मुंबई हमलों की कवरेज इस की गवाह है। ऐसे में वह कौन सा समाधान उचित है जिस से अभिव्यक्ति की आज़ादी भी कायम रहे और पत्रकारिता मजाक बनने से भी बच सके?

इस पर चिंतन ज़रूरी है ? क्या मीडिया चिंतकों के अलावा अभिव्यक्ति पर अंकुश के विरोधी इस मुद्दे पर कुछ कहना चाहेंगे? उनकी राय ही शायद भटके हुए समाचार मीडिया को कोई सही दिशा देखा सके। इसलिए अपनी राय ज़रूर लिखें ।