Saturday 28 March 2009

चुनावों में हुई भूखों की चिंता

अन्नू आनंद
कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में सबके लिए अनाज का कानून देने का वादा किया है। घोषणा पत्र में सभी लोगों को खासकर समाज के कमजोर तबके को पर्याप्त भोजन देने देने का वादा किया गया है। पार्टी ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले हर परिवार को कानूनन हर महीने 25 किलो गेंहू या चावल तीन रुपए में मुहैया कराने का वादा किया है। पार्टी की घोषणा लुभावनी लगने के साथ हैरत भी पैदा करती है कि अचानक कांग्रेस को देश के भूखों की चिंता कैसे हो गई। अभी तक पार्टी मंदी में भी आर्थिक वृद्दि के आंकड़ों को संतुलित रखने और औसत आय बढ़ने पर इतरा रही थी। जबकि हकीकत में देश के ग्रामीण इलाकों में भूख और कुपोषण की स्थिति पिछले कुछ समय से लगातार बिगड़ने की तथ्यपरक रिपोर्टें आ रही हैं। लेकिन चुनावों को देखते हुए केंद्र सरकार सहित सभी राज्य सरकारों द्वारा ‘खुशफहमी’ का माहौल पेश करने की कोशिश चल रही है।पिछले माह इस ‘फील-गुड’ वातावरण को शर्मसार करने वाली और देश में अनाज के अभाव में भूख और कुपोषण की असली हकीकत को उजागर करती विश्व खाद्य कार्यक्रम और एम एस स्वामीनाथन फाउंडेशन ने अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में देश में खाद्य असुरक्षा के प्रति चांैक्काने वाले तथ्यों को प्रस्तुत कर सरकार को खबरदार करने की कोशिश की गई लेकिन उस समय यूपीए सरकार सहित राज्य सरकारों ने भी इसलिए अनदेखा कर दिया गया ताकि चुनावों से पहले विभ्न्नि राज्यों में चल रहे विकास के राग की पोल न खुल जाए। लेकिन लगता है अब जब राहुल गांधी ने एमएस स्वामीनाथन को पार्टी से जोड़ने की कोशिश की तो उनके सुझाव पर ही कांग्रेस ने चुनावी घोषणाओं में ‘सबको अनाज’ देने को प्राथमिकता के तौर पर लिया।
यह रिपोर्ट इस बात की ओर स्पष्ट हिदायत देती है कि केंद्रीय और राज्य सरकारों के लिए अभी सबसे बड़ी जरूरत देश के लोगों को दो वक्त पोषित भोजन उपलब्ध कराने की है ताकि भारत में सब से अधिक भूख और कुपोषण होने का कलंक मिटाया जा सके। रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के सभी देशों में भारत में भूखे रहने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है। भारत विश्व के भूख चार्ट में पहले नंबर पर है। ‘ग्रामीण भारत में खाद्य असुरक्षा’ की स्थिति पर जारी इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में सबसे अधिक 23 करोड़ लोग अल्प-पोषित हैं। विभिन्न राज्यों के गावों में की गई इस सर्वे में 19 में से 11 राज्यों मंे 80 प्रतिशत से अधिक बच्चे एनीमिया के शिकार पाए गए और एनीमिया के अनुपात में पिछले छह सालों में 6 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्शायी गई है। केवल यही नहीं रिपोर्ट में भारत में पांच वर्ष से कम उमर वाले कुपोषित बच्चों की संख्या भी सबसे अधिक 47 फीसदी बताई गई है जो कि सब-सहारा अफ्रीका की 28 प्रतिशत से भी अधिक है। पांच से कम आयु वाले अविकसित बच्चों का प्रतिशत भी 48 है जो कि विश्व में सबसे अधिक है।इन तथ्यों से जाहिर होता है कि सबसे अधिक खाद्य उत्पादक होने वाले इस देश में निचले स्तर पर भूख और कुपोषण की ऐसी भंयकर स्थिति का एक बड़ा कारण खाद्य कुप्रबंधन है। यूपीए सरकार के तहत वर्ष 2007-08 में देश में 32 मिलियन टन खाद्य उत्पादन में वृद्दि हुई लेकिन इनकी कीमतों में 6 प्रतिशत सालाना बढ़ोतरी के चलते और अनाज की उपलब्धता में कमी के कारण गरीबों की थाली खाली रही। ग्रामीण गरीबों में भूख और कुपोषण के ग्राफ बढ़ने का अन्य कारण अनाज का उचित वितरण न हो पाना है।
रिपोर्ट में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणानी(पीडीएस) पर प्रहार करते हुए कहा गया है कि देश के इस सबसे बड़े कार्यक्रम ने गरीबों में खाद्य असुरक्षा बढ़ाने का काम किया है। दरअसल सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार, अकुशलता और गरीबों के आकलन की गलत प्रणाली के कारण जरुरतमंदों का उचित आकलन नहीं हो पा रहा। परिवार की पात्रता का निर्धारण सही नहीं हो पाने के कारण पीडीएस का यह कार्यक्रम अपने उदेदश्य को पूरा करने में समर्थ नहीं हो पा रहा। रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया गया हैे कि सरकार की ओर से किए जाने वाले गरीबों के आकलन में बीपीएल में दर्ज नहीं होने वाले लोगों में क्लोरी की कमी का मूल्यांकन नहीं किया जाता। जिसके कारण बहुत से लोग क्लोरी की कमी के कारण कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। लेकिन आकलन में केवल गरीबी के आधार पर लोगों को लक्षित किया जाता है। इसमे कुपोषण को शामिल नहीं किया जाता जबकि हकीकत यह है कि कुपोषण के शिकार व्यक्ति का विकास रूक जाता है और वह प्राय कई प्रकार की बीमारियों का शिकार हो जाता है आखिर यही बीमारियां उसकी मौत का कारण भी बनती है। प्रति व्यक्ति क्लोरी उपभोग में कमी की प्रवृति समूचे भारत में देखने को मिलती है इसलिए कुपोषण के कारण होने वाली मौतों को रोकने के लिए क्लोरी का आकलन जरूरी है।
मध्यप्रदेश जहां चुनाव में विकास अहम् मुद्दा बनता है वहां भूख कुपोषण की हालत सबसे चिंताजनक है क्यांेकि मध्य प्रदेश भूख और कुपोषण की सूची में सभी राज्यों में पहले स्थान पर है और विश्व में तीसरे नंबर पर आता हैं। पिछले साल अक्तूबर माह में इंटरनेशनल फूड और पालिसी रिसर्च की राज्यवार रिपोर्ट में मध्य प्रदेश भूख की सूची में ‘अति खतरनाक’ श्रेणी में पाया गया। यह रिपोर्ट अक्तूबर 2008 में जारी की गई थी इसमें मध्य प्रदेश का नंबर इथोपिया और चैड के बीच पाया गया। सर्वे के मुताबिक राज्य में कुपोषण 60 फीसदी है। जो भारत में सबसे अधिक है। रिपोर्ट जारी होने से केवल तीन माह पहले यानी जुलाई से सितंबर 2008 में मध्यप्रदेश के सतना जिले में 150 गावों में कुपोषण के कारण 42 मौतें हुई। इन मौतों को देखते हुए विधानसभा चुनावों में इन गावों के बहुत से लोगों ने चुनाव का बहिष्कार भी किया। लेकिन राज्य सरकार यह मानने को तैयार नहीं थी कि ये मौतें भूख से हुई हैं वे इन्हें मौसमी बीमारी का नाम देकर अपनी जिम्मेदारी से बचती रही।
मध्य प्रदेश में हांलाकि बाल संजीवनी अभियान, बाल शक्ति योजना और शक्तिमान जैसी बच्चों को पोषित करने की कईं योजनाएं चल रहीं हैं। लेकिन इसका असर जमीनी स्तर पर दिखाई नहीं दे रहा।
भूख की राज्यवार रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कोई भी राज्य ‘कम भूख’ या ‘संतुलित भूख’ की श्रेणी में नहीं आता। 12 राज्य जैसे आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक सहित गुजरात और पश्चिम बंगाल ‘खतरनाक’ श्रेणी में है। इन रिपोर्टों में भूख को मापनेेे के लिए तीन प्रमुख सूचकों -कुपोषण का प्रचलन, बच्चों की मृत्यु दर और क्लोरी की कमी को मापा गया है।
यह सही है कि गरीब राज्यों में खुशहाल राज्यों की अपेक्षा भूख का स्तर भले ही अधिक है लेकिन यह भी एक सचाई है कि तेज आर्थिक वृद्दि का असर निम्न भूख स्तर पर नही पड़ रहा। हाल ही में उच्च आर्थिक वृद्दि दिखाने वाले राज्यों जैसे गुजरात,छतीसगढ़ महाराष्ट्र में भूख का स्तर उच्च पाया गया। जबकि तुलनात्मक धीमी आर्थिक वृद्दि दिखाने वाले राज्य जैसे पंजाब में भूख का स्तर कम था।
वास्तव में हैरत की बात यह है कि अनाज की बहुलता के देश में भूखों की संख्या भी बढ़ रही है लेकिन उसकी चिंता न तो राज्य स्तर पर दिखाई दे रही है और न ही राष्ट्रीय स्तर पर। विख्यात अर्थशास्त्री अमृत्यसेन का मानना है कि यह शर्म की बात है कि भूख अभी भी हमारे देश में राजनैतिक प्राथमिकता नहीं बन पा रही है।
कांग्रेस पार्टी की अनाज को हर जन तक पहुंचाने की घोषणा ने उम्मीद बंधाई है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बच्चों को पोषित करने वाली मिड-डे मील कार्यक्रम बेहतर होते हुए भी प्रत्याशित परिणाम नहीं दे पाया। इसका एक बड़ा कारण कार्यक्रम को लेकर योजना आयोग और महिला और बाल विकास मंलात्रय के बीच चल रही तनातनी है। इसी प्रकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली का भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था भूखे तक नहीं पहुंच पाई। ऐसे में सबके लिए अनाज के कानून से महज आशा की जा सकती है कि वह राजनैतिक और आर्थिक सुपरपावर वाले इस देश में हर भूखे तक रोटी पहुंचा सके। वरिष्ठ विकास पत्रकार

( दैनिक भास्कर में 27 मार्च 2009 को प्रकाशित)

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