Thursday 5 January 2012

एचआईवी के खिलाफ एक गांव की जंग



कोल्हापुर से लौटकर अन्नू आनंद

कोल्हापुर का नाम कोल्हापुरीे जूतियों के लिए जाना जाता है। व्यापारी जगत में यह चीनी की मिलों के लिए भी मशहूर है। फिल्मों में रूचि रखने वाले इसेे पद्मिनी कोल्हापुरी के नाम से भी पहचानते हंै। लेकिन महाराष्ट्र के कोल्हापुर नाम का यह जिला अब जन-भागीदारी के अनूठे प्रयास के लिए समूचे देश में एक नई मिसाल कायम कर रहा है। एचआईवी के खिलाफ जंग मंे विभिन्न समुदायों ने मिलकर  यहां ऐसे प्रयासों की शुरूआात की है कि देश के अन्य उच्च एचआईवी दर वाले राज्यों में भी कोल्हापुर के माॅडल को अपनाया जा रहा है। साल 2007 में इस जिले को नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गेनाइजेशन) ‘ए’ श्रेणी में रखा था जिसका मतलब था कि कोल्हापुर में एचआईवी पाॅजिटिव लोगांे की गिनती कुल जिले की कुल जनसंख्या के 1 प्रतिशत से भी अधिक है। इससे साफ था कि जिले का नंबर महाराष्ट्र के सबसे अधिक तीन एचआईवी ग्रस्त जिलों के बाद चैथे नंबर पर आता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक इसका मुख्य कारण जिले में चीनी और पाॅवर लूम उधोग हैं जिनके चलते कर्नाटक और महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों से मौसमी और अस्थायी आवागमन बना रहता है। इसके अलावा कर्नाटक आंध्रप्रदेश से जुड़े नेशनल हाईवे से गुजरने वाले ट्रक डाइवरों के चलते इस इलाके में एचआईवी का खतरा हमेशा अधिक रहा है।

पिछले कुछ सालों में जिले के विभिन्न गांवों में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही थी जो एचआईवी पाॅजिटिव होने के कारण गुमनामी का जीवन जी रहे थे। एड्स से जुड़े भ्रम, अज्ञानता और कलंकित होने के भय के चलते अधिकतर लोग पाॅजिटिव होने की बात को छिपाते और टेस्ट कराने से कतरातेे। साल 2009 में इसी जिले के लोन्जे गांव में एक ऐसी घटना घटी जिसने एचआईवी के खिलाफ काम करने वाले सभी लोगों को चेताने का काम किया। दरअसल गांव में एक आंगनवाड़ी कार्यकत्र्ता को उस समय नौकरी से निकाल कर उसे गांव से बेदखल कर दिया जब उसके खून की जांच में एचआईवी पाॅजिटिव के लक्षण पाए गए। उस कार्यकत्र्ता के साथ हुए अपमान और घृणा के चलते चारों तरफ निराशा फैल गई। इस खबर से पाॅजिटिव लोगांे में विश्वास जगाने के मिशन को एक बड़ा धक्का लगा। इलाके के लोगों को अहसास हुआ कि सरकारी योजनाओं के माध्यम से परीक्षण कराना और एड्स व्यक्ति की इलाज में मदद करना ही समस्या का हल नहीं बल्कि मुख्य समस्या एचआईवी को लेकर आम लोगों में बैठा डर और पाॅजिटिव व्यक्ति के साथ उनका भेदभाव पूर्ण रवैया है। इस सोच को बदलने के लिए जरूरी था कि आम आदमी समस्या के खिलाफ एकजुट होकर खड़ा हो।
जिले के 30 हजार जनसंख्या वाले सबसे बड़े गांव कोडोली में जहां एचआईवी का प्रकोप अपेक्षाकृत अधिक था। लागों ने इस चुनौती का सामना किया। जनभागीदारी के कई अनूठे प्रयासों को एकसाथ शुरू कर गांव के हर व्यक्ति को एचआईवी की हकीकत का ऐसा पाठ पढ़ाया कि आज यहां के करीब हर बच्चे के लिए पाॅजिटिव होना न तो कोई बड़ा हौवा है और न ही शर्म। यहां किसी भी एचआईवी से ग्रस्त व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेदभाव किया जाता है। गांव का सामान्य व्यक्ति भी अब यहां टेस्ट कराने में हिचक महसूस नहीं करता।

ऐसा माहौल बनाने के लिए इस गांव के सभी प्रबुद्व व्यक्तियों ने सेंटर फाॅर एडवोकेसी एण्ड रिसर्च संस्था की मदद से गांव के अलग अलग आयु वर्ग के समूहों को एचआईवी जागरूकता अभियान में शामिल करने की पहल की। इसके लिए सब से पहले गांव के कोल्हापुर स्थित मास्टर आॅफ सोशल वर्क में पढ़ने वाले छात्रों ने एक मंच बनाया इसमें इस गांव की कई युवा लड़कियों को भी शामिल किया गया। युवा मंच ने एड्स के कारणों, लक्षणों और इससे जुड़े भ्रमों को दूर करने के लिए गांव के हर हिस्से में नुक्कड़ नाटक किए।  इन नाटकांे में शामिल कुछ लड़कियां के मां-बाप  गरीब अशिक्षित और खेती का काम कर अपना गुजारा करते हैं। उनके लिए अपनी बेटियों का सड़क पर यौन संबंधों पर खुलेआम चर्चा करना और कंडोम की बात करना गवारा नहीं था। लेकिन इन युवा लड़कियों ने अपने मां बाप को कईं दिनों तक बातचीत के जरिए यह समझाया कि एचआईवी कोई छूत की बीमारी नहीं। युवा मंच से जुड़ी कृषक परिवार की सोनाली ने बताया, ‘‘उसके लिए मां बाप को तैयार करना आसान नहीं था। लेकिन जब वे मान गए तोे पहले हमने विभिन्न खेलों के माध्यम से गांववालों को एचआईवी की सही जानकारी दी। पाॅजिटिव लोगों के संबंध में फैले भ्रमों को दूर करने के लिए लगातार डाक्टरों और विशेषज्ञों से उनके बीच संवाद बनाया फिर आमजन को टेस्ट कराने के लिए प्रेरित किया।’’


जब ब इन युवाओं के नाटकों से गांव में एचआईवी के प्रति जागरूकता का माहौल पैदा हुआ उसकेबाद गांव की महिलाओं को इस प्रयास में शामिल करने की कवायद शुरू हुई। इसके लिए सेंटर की मदद से गांव में 500 महिलाओं के लिए एक प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया गया। गांव के स्वास्थ्य में अहम भूमिका निभाने वाली 70 आंगनवाड़ी महिला कार्यकर्ताओं ने इस कार्यशाला में हिस्सा लिया। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ताई मतसागर का कहती हंै,‘‘हमारा गांव की महिलाओं के साथ नजदीकी रिश्ता है। हमने महिलाओं को मातृत्व स्वास्थ्य की जानकारी देने के साथ गर्भवती महिलाओं को एचआईवी का प्रशिक्षण कराने के लिए भी प्रेरित करना शुरू किया। इसके लिए 10 महिलाओं का एक सखी मंच बनाया गया जो घर घर जाकर जिन महिलाओं को टेस्ट कराने में हिचक होती उनके भ्रमों को दूर करता। मंच की सखी दिलशाद नजीर बताती है कि हमने कभी अपने घरों में भी यौन संबंधों के बारे मे बात नहीं की लेकिन हमने पहले अपने मन से इस झिझक को खत्म किया फिर दूसरी महिलाओं के मन से इसे खत्म करने की कोशिश की। सखी मंच ने जब महिलाओं को समझाया कि महिलाओं को एचआईवी का खतरा अधिक है और इसका असर गर्भवती महिला के बच्चे पर भी पड़ सकता है। एक घर में सखी मंच के जाने के बाद उस घर की महिला ने आंगनवाड़ी में आकर स्वीकार किया वह पाॅजिटिव है और वह दवाई लेने के लिए सांगली जाती है जोकि उसके गांव से बहुत दूर है। बाद हमने उसे नजदीक के कोल्हापुर के केंद्र में रजिस्ट्रेशन कराने की हिदायत दी।  


 लेकिन गांववालों ने इन कोशिशों पर यहीं पर ही रोक नहीं लगााई। किसी भी पाॅजिटिव व्यक्ति के साथ छूआछूत और उसके साथ भेदभाव के बर्ताव पर अभी पूरी तरह रोक लगााना बाकी था। गांववालों ने एक अनोखा तरीका अपनाया। गांव की सरपंच मनीषा गाधव की मदद से ग्रामसभा का आयोजन कर एचआईवी से जुड़े कलंक को खत्म करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया।  तमिलनाडू के एक गांव के बाद यह देश दूसरा गांव है जिसने ऐसा प्रस्ताव पारित किया है। 6 महिला वार्ड पंचों और 11 पुरूषों वाली इस पंचायत ने सभी ग्रामसभा सदस्यों को शपथ दिलाई कि वे एचआईवी से संबंधित जानकारी को हर व्यक्ति तक पहुंचाएगें और किसी भी पाॅजिटिव व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेदभाव  नहीं करेंगे। सरपंच मनीषा गाधव के मुताबिक, ‘‘हमारा मकसद केवल प्रस्ताव पारित कराना ही नहीं था असली परीक्षा प्रस्ताव पारित करने के बाद की थी। हमने ग्रामसभा में मौजूद हर व्यक्ति को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह इस बात का खास ध्यान रखे कि गांव का कोई भी व्यक्ति टेस्ट कराने या फिर किसी पाॅजिटिव से उपेक्षा का बर्ताव न करे।’’ इसके लिए जिला के पाॅजिटिव नेटवर्क के सदस्यों को अभियान के साथ जोड़ा गया।

 जिला के स्थानीय अधिकारियों के मुताबिक प्रस्ताव पारित होने के बाद टेस्ट कराने वाले लोगों की गिनती बढ़ने लगी। साल 2011 में टेस्ट कराने वालों की संख्या पूरे जिले में बढ़कर 2133 हो गई  जबकि इससे  पहले साल 2009-10 में यह गिनती 1251 ही थी। अब गांव में एड्स के खिलाफ ऐसा माहौल बना कि गांव के गणेश मंदिर ने भी जन-जागरण अभियान में हिस्सेदारी शुरू करू दी। मंदिर के अंदर सभी दीवारें एड्स से लेकर बेटी -बचाओ आदोलन के पोस्टरों से भरी पड़ी है। मंिदर के उपाध्यक्ष संतोष राजाराय हुजरे के मुताबिक, ‘‘उनका युवा गणेश तरूण मंडल कईं सालों से स्वास्थ्य और समाज सुधार के कामों में लगा हुआ है। अगली गणेश चतुर्थी पर एड्स के प्रति जागरण अभियान ही मंडल का मुख्य मुद्धा होगा।’’ पिछली बार इस मंडल ने कन्या भू्रण हत्या के खिलाफ बेटी बचाओ को फोकस करते हुए जिन परिवारों में पहली लड़की है उन महिलाओं से गणेश विर्सजन कराया था।
गांववालों की कोशिशें अभी थमी नहीं। एडवोकेसी सेंटर की अध्यक्ष अखिला शिवदास मानती है कि एचआईवी के प्रति जागरूकता फैलाने में और पाजिॅटिव लोगों के साथ समानता के बर्ताव में गांव ने पूरी तरह सफलता हासिल कर ली है। लेकिन अब गांव को एचआईवी मामलों की गिनती को कम कर उच्च खतरे वाली श्रेणी से बाहर  निकलने की तरफ भी ध्यान देना होगा। जिस गांव के मदिंर में पूजा अर्चना के साथ समुदाय की सामाजिक समस्याओं और बीमारियों की रोकथाम की पहल हो, जहां ग्रामसभा, आंगनवाड़ी, स्वास्थ्य संस्थाओं सहित युवा समूह भी एकजुट खड़ा हो क्या ऐसे माॅडल गांव के लिए यह मुश्किल है। कोडोली वासी तो ऐसा नहीं समझते।
  ( यह आलेख १ जनवरी को नई दुनिया में प्रकाशित हुआ है )
पत्ता
अन्नू आनंद
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