Tuesday 27 October 2009

ताकि महिलाओं का सफर हो सुरक्षित

अन्नू आनंद

आखिर कामकाजी महिलाओं को घर और दफ्तर की जद्दोजहद से थोड़ी राहत मिली। बड़े शहरों और उसके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं के लिए घर से बाहर निकलने के बाद सबसे बड़ी चुनौती ट्रेन या बस में यात्रा करने की होती है। इन भीड़ भरी बसों में किसी भी महिला के लिए सफर करना किसी यातना से कम नहीं होता। लेकिन हाल ही में रेल मंत्रालय ने दिल्ली सहित चार बड़े शहरों मुंबई, कोलकाता और चेन्नई से आठ ‘लेडिज स्पेशल’ ट्रेनों की शुरूआत कर महिलाओं की लंबे समय से चली आ रही सुखद और सुरक्षित यात्रा की मांग को कुछ हद तक पूरा करने का काम किया है। अगस्त माह से शुरू होने वाली इन रेलगाड़ियों का मकसद इन महानगरों में काम करने वाली महिलाओं की यात्रा को सरल और सुरक्षित कर महिलाओं के प्रति निरंतर बढ़ते अपराधों को कम करना है। राजधानी दिल्ली के लिए हरियाणा के पलवल शहर से ऐसी ही एक ट्रेन सुबह चलाई गई है जो शाम को वापस पलवल जाती है। पीले और नीले चटख रंग की इन ट्रेनों का अधिकतर इस्तेमाल इन शहरांे के आसपास बसे छोटे शहरों से महानगरों के कालेजों में पढ़ने वाली लड़कियों और दफ्तरों में काम करने वाली महिलाओं द्वारा किया जा रहा है। इन ट्रेनों में महिलाओं के बैठने के लिए गद्दे वाली सीट के साथ बेहतर बिजली के पंखे और साफ सफाई का खास ख्याल रखा गया है। दस रूपए की टिकट में भीड़भाड़ और धक्कामुक्की से हटकर सीट पर बैठकर गंतव्य तक पहुंचाने वाली ये ट्रेने महिलाओं में काफी लोकप्रिय हो रही हैं। इसके अलावा इन ट्रेनों में महिला टिकट क्लेक्टर और महिला सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी इन्हें पूरी तरह ‘लेडिज-फेंड्रली’ बनाती है। देश के विभिन्न शहरों में काम करने वाली महिलाओं को घर से निकलते ही सबसे बड़ी चिंता सही-सलामत अपनी मंजिल तक पहुंचने की होती है। इसके लिए उपलब्ध रेल या बस जैसे सार्वजनिक परिवहनों में पुरूषों की भीड़ से जूझते हुए उसमें सफर करना किसी महिला के लिए कोई आसान काम नहीं। हांलाकि पिछले कुछ समय में भीड़ को कम करने के लिए ट्रेनों की संख्या काफी बढ़ाई गई है लेकिन इसके बावजूद अधिकतर कामकाजी महिलाओं को महज टेªन में चढ़ने के लिए मर्दों के साथ धक्कामुक्की का सामना करना पड़ता है। सीट मिलना तो दूर की बात है, महज इन टेªेनों में खड़े होने के लिए जगह बनाने के लिए भी उसे कम मशक्कत नहीं करने पड़ती। खड़े होने की जगह मिल गई तो फिर मर्दो की घूरती निगाहों से बचना, जानबूझकर छूने की कोशिशों को नाकाम करना और उन की गंदी टिप्पणियों को अनसुना करने की कोशिशें भी काफी तकलीफदायक होती हैं। अधिकतर महिलाओं को शिकायत रहती है कि घर और दफ्तर के कार्यों से कहीं अधिक थकाऊ इन टेªनों का सफर होता है। कभी बैठने की सीट मिल भी गई तो अपराधी तत्वों द्वारा पर्स छीनने या फिर छेड़खानी की आशंका हमेशा बनी रहती है। इन समस्याओं पर काबू पाने के मकसद से हांलाकि सामान्य ट्रेनों में एक या दो महिला कोच महिलाओं के लिए आरक्षित रखे जाते हैं। लेकिन आर्थिक सबलता के लिए घर से बाहर निकलने वाली महिलाओं की बढ़ती तादाद के लिए ये एक या दो कोच कभी भी पर्याप्त साबित नहीं हुए। इसके अलावा इन गाड़ियों में यात्रा करने वाली महिलाओं का मानना है कि महिला कोच भी अक्सर पुरूषों से भरे रहते हैं क्योंकि महिला कोचों में बैठने वाले पुरूषों का अक्सर तर्क रहता है कि जब महिलाएं परूषों के डिब्बों में यात्रा कर सकतीं हैं तो फिर पुरूष महिलाओं के कंपार्टमेंट में क्यों नहीं। ट्रेनों में महिलाओं के खिलाफ बढ़ती छेड़खानी की घटनाओं को देखते हुए वर्ष 1992 में सबसे पहले मुंबई में दो ‘लेडिज स्पेशल’ टेªेनों की शुरूआत की गई थी लेकिन ये दो टेªेने यहां की कामकाजी महिलाओं की बढ़ती संख्या के लिए पर्याप्त नहीं थीं। इसके बाद भारी मांग के बावजूद भी यहां पिछले सत्रह सालों में ऐसी रेलगाड़ियों की गिनती में अभी तक बढोत्तरी नहीं हो पाई थी। अन्य बढ़े शहरों में इस मांग के बावजूद महिला आरक्षण विरोधी रहे लालू प्रसाद जी को ‘लेडिज़ स्पेशल’ का सुझाव कभी नहीं सुहाया । लेकिन ममता बनर्जी ने जब रेल मंत्रालय का कार्यभार संभाला तो उन्होंने अपने पहले रेल बजट में महिलाओं के लिए आठ स्पेशल ट्रेने चलाने का ऐलान किया। भले ही सरकार के इस प्रयास से बहुत सी कामकाजी महिलाओं को राहत पहुंची हो लेकिन केवल ‘स्पेशल रेलगाडियां’ हर महिला को आरामदायक और चिंतामुक्त सफर करने का अधिकार प्रदान नहीं करता। महिला हकों की पक्षधर बहुत सी महिलाओं का यह भी मानना है कि महिलाओं के लिए सुरक्षा की व्यवस्था केवल लेडिज स्पेशल में ही नही ंबल्कि हर टेªेन में होनी चाहिए। अपने पुरूष रिश्तेदारों के साथ सामान्य रेलगाड़ियों में यात्रा करने वाली महिलाओं को भी सुखद और आरामदायक यात्रा करने का पूरा अधिकार है। यह सही है कि पिछले एक दशक में महिलाओं की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सुरक्षित ट्रांसपोर्ट प्रदान करने के उद्देश्य से विभिन्न देशों में कई स्पेशल बसों और ट्रेनों को शुरू किया गया है। मैक्सिको में असुरक्षित परिवहन प्रणाली को रोकने के लिए वर्ष 2008 में ‘केवल महिला बसों’ की शुरूआत की गई थी। लेकिन अब इसे आगे बढ़ाते हुए वहां अनुचित छूने को अवैध मानने के अभियान के साथ वहां की सरकार एक ऐसा अध्यादेश लाने का प्रयास कर रही है जिससे महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर तंग करने वालों को सजा दी जा सके। भारत में भी महिलाओं को घर से बाहर रेल बस या कार्यालय में अपराध मुक्त सुरक्षित वातावरण प्रदान करने के लिए ऐसे कई प्रयासों की जरूरत है। शुरूआत उनकी सुखद यात्रा से ही सही।

(यह लेख 21 अक्तूबर को अमर उजाला में प्रकाशित हुआ है)

Friday 23 October 2009

विश्वास नहीं होता इन आंकडों पर

अन्नू आनंद

दिल्ली सरकार का दावा है कि दिल्ली में लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक हो गई है। सरकार के मुताबिक दिल्ली में लड़कियों के अनुपात का आंकड़ा 1004 यानी 1000 लड़कों के पीछे लड़कियों की संख्या 1004 हो गई है। जबकि वर्ष 2007 में यह संख्या 848 थी। महज एक साल के भीतर आंकडों में आए इस ‘चमत्कारी’ बदलाव को भुनाने की सरकार पूरी कोशिश कर रही है। इसके लिए दिल्ली सरकार के विभिन्न मंत्री अपनी पीठ थपथपाते हुए इसका श्रेय सरकार द्वारा शुरू की गई बहुप्रचारित ‘लाडली’ योजना को दे रहे हैं। लड़कियों के स्तर में सुधार लाने के लिए मार्च 2008 में सरकार ने लाडली योजना शुरू की थी। योजना के मुताबिक एक लाख रूपए तक की वार्षिक आमदन वाले परिवारों को जनवरी 2008 के बाद पैदा होने वाली लड़कियों की शिक्षा में मदद के लिए सरकार 18 वर्ष तक की आयु तक एक लाख रूपए की आर्थिक मदद देगी। लेकिन महज एक साल के अंतराल में योजना शहर के लैंगिक अनुपात में ऐसा सकारात्मक बदलाव लाएगी इसकी कल्पना योजना निर्माताओं ने भी नहीं की होगी। दिल्ली सरकार के रजिस्ट्रार (जन्म और मृत्यु) की वार्षिक रिपोर्ट 2008 को जारी करते हुए वित और शहरी विकास मंत्री ने इस बात को बढा़ -चढ़ा कर प्रचारित किया कि लाड़ली योजना के चलते इस साल लड़कियों के रजिस्ट्रेशन में बढ़ोतरी हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2007 में लड़कियों की गिनती 1।48 लाख थी जबकि साल 2008 में यह बढ़कर 1.67 लाख पहुंच गई है। दिल्ली में कुल रजिस्टर्ड जन्मों में 49.89 फीसदी लड़कों और 50.11 फीसदी लड़कियों की संख्या है। इन आंकडों जरिए यह बात साबित करने की कोशिश की जा रही है कि राजधानी में लड़कियों के गिरते अनुपात पर काबू पाने मे सरकार सफल हो गई है और एक साल के भीतर ही सरकार ने औसत आंकड़े 848 को बढा़ कर 1004 पर पहुंचा दिया है। लेकिन इन आंकड़ो के हवाले से यह साबित करना कि लड़कियों के अनुपात में बढ़ोतरी का कारण लड़कियों के प्रति बदली सोच या शहर में कन्या भू्रण हत्याओं में कमी है, बेहद भ्रामक है। इसके लिए इन आंकडों के पीछे की हकीकत को समझने की जरूरत है। लेकिन सरकार जानबूझकर इन तथ्यों से आखें मूंदकर आंकडों का राजनैतिक लाभ उठाने की फिराक में है। दरअसल योजना में लड़कियों के जन्म के पंजीकरण पर प्रोत्साहन का प्रावधान है इसलिए लड़कियों के पंजीकृत जन्मों में बढ़ोतरी स्वाभविक थी लेकिन लड़के के जन्म को रजिस्टर्ड कराने में ऐसे किसी आर्थिक प्रोत्साहन के अभाव में उनके रजिस्ट्रेशन में कमी होना भी स्वाभाविक है। इसके अलावा आर्थिक योजना का लाभ पाने के लिए कुछ जाली नामों के पंजीकरण से भी इनकार नहीं किया जा सकता। इनमें बहुत से ऐसे लोग भी शामिल हो सकते हैं जो दिल्ली के आसपास के इलाकों में रहते हुए भी योजना का लाभ लेना चाह रहें हैं। रिपोर्ट में 1000 लड़कों पर संस्थागत लड़कियों के जन्मों की संख्या 915 बताई गई है लेकिन घरों में पैदा हुई लड़कियों की गिनती 1303 जो कि आश्चर्यजनक है। यूं भी दिल्ली में लडकियों के कम अनुपात का दोषी केवल गरीब तबका नहीं हैं दक्षिण-पश्चिमी जैसे संपन्न इलाके में लड़कियों का अनुपात 2001 की जनगणना के मुताबिक 845 है। संपन्न इलाकों के अधिकतर लोग लाडली योजना से बाहर हैं। ऐसे में समूचे शहर के अनुपात का यह आकडा़ संशय पैदा करता है। शहर में इस साल पैदा हुए लडकों की गिनती 1.66 लाख बताई गई है जबकि 2007 में यह 1.74 लाख थी। लड़को की संख्या में अचानक आई यह कमी भी कई सवाल खड़े करती है। लड़की को बोझ समझने की प्रवृति किन्ही आर्थिक खंाचों में बंधी हुई नहीं है जिसे सरकार के आर्थिक सहायता के प्रलोभन से खत्म किया जा सके। महज आंकडों के छलावे से यह भ्रम पालना कि लड़कियों के प्रति शहर की सोच बदल गई है गलत होगा। फिलहाल जरूरत बहुस्तरीय प्रयासों की है जिसमें सबसे अहम प्रयास लड़की के प्रति जंग खाई मानसिकता को बदलना है।

(यह लेख ८ अक्टूबर को दैनिक भास्कर में प्रकशित हुआ है )