Saturday 1 September 2012

गांवों में लड़कियों के बदल रहे हैं बदल रहे हैं रोल मॉडल




अन्नू आनंद

शहरों में रहने वाली किशोर लड़कियों के रोल मॉडल भले ही फिल्म जगत, बिजनेस, खेल, या राजनीति में नाम कमाने वाली महिलाएं जैसे एश्वर्या राय, इन्द्रा नूई, सानिया मिर्ज़ा या हिलेरी क्लिंटन हो. लेकिन गांवों में रहने वाली वाली किशोरियों के रोल मॉडल बदल रहे हैं. पहले की तरह अब उनकी बड़े शहरों की शिक्षित और ऊँचे ओहदों पर विराजमान बड़ी हस्तियाँ या फ़िल्मी हीरोईन और मिस इंडिया बनने वाली महिलाएं प्रेरणास्त्रोत नहीं हैं. किरण बेदी, सोनिया गाँधी या सुषमा स्वराज की बजाय अब गांवों की लाखों युवा लड़कियां पढ़ने लिखने के बाद पंचायतों में सरपंच, पंच या वार्ड मेंबर के रूप में प्रभावी भूमिका निभाने वाली महिलाओं को अपना वास्तविक रोल मॉडल मानती हैं. देश के लाखों गांवों में महिला नेतृत्व के रूप में उभरने वाली कई दबंग, सबल और प्राशसनिक कार्यों में दखल रखने वाली ‘कुशल पंचायत लीडर’ में वे अपनी छवि तलाशती हैं. स्कूलों में पढ़ने वाली बहुत सी लड़कियां के लिए स्थानीय सत्ता के कार्यों में हाथ बांटने, स्थानीय मुद्दों पर अपनी राय देने, हक के लिए अपनी आवाज़ उठाने, और अशिक्षित तथा पिछड़ी महिलाओं को जागरूक बनाने वाली स्थानीय ‘महिला लीडर’ उनकी असली रोल मॉडल हैं.

पंचायतों में महिलाओं की बदती तादाद के कारण स्कूलों में लड़कियों की भर्ती  बढ़ने लगी है. ग्रामीण माँ बाप जो कभी केवल परिवार के लड़के को स्कूल भेजने को प्राथमिकता देते थे उनका नजरिया बदल गया है. अब वे छोटी उमर की लड़कियों को भी स्कूल में भर्ती करने को प्रोत्साहित हो रहे हैं. संविधान के 73वें संशोधन से वर्ष 1992-1993 में पंचायतों में महिलायों को मिले एक तिहाई आरक्षण (बाद में पचास प्रतिशत) से यह बदलाव संभव हुआ है.


लड़का स्कूल में पढ़ेगा और लड़की चूल्हा चौका संभालेगी की सोच रखने वाले ग्रामीण समाज के समक्ष अब ऐसी लाखों महिलाएं खड़ी हैं जो घर के कामों के कामों के साथ सत्ता के गलियारों में पहुँच रखती हैं और पुरुषों के समान या उनसे बेहतर राजनैतिक कामों को अंजाम देने में समर्थ हैं.
हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय प्रमुख शोध पत्रिका ‘साइंस’ में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर  में भारत के सन्दर्भ में इन तथ्यों की जानकारी दी गई है. नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी द्वारा की गई इस सर्वे में बताया गया है कि लोकतंत्र के सबसे निचले स्तर पर यानी पंचायतों में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के कानून का सीधा असर गांवों के रोल मॉडल पर पड़ा है. इससे ग्रामीण लड़कियों और उनके माता पिता की महिला नेतृत्व की भूमिका के प्रति सोच बदल रही है. यही नहीं इसने किशोर लड़कियों की करियर और शिक्षा के प्रति उनकी आकांक्षाओं को बढ़ाने का काम किया है. जिस प्रकार से हिलेरी क्लिंटन ने ग्लास सीलिंग तोड़ कर 18 मिलियन महिलाओं को राजनीति में शामिल कर लोगों की सोच को बदलने का काम किया है, सर्वे का मानना है कि भारत में भी महिलाओं के प्रति कानून में हुए साकारात्मक बदलाव का ठीक वही नतीजा निकल रहा है. सर्वे के मुताबिक कानून द्वारा पंचायतों में महिलाओं की संख्या बढ़ने से लोगों में राजनीति में आने वाली महिलायों के प्रति नजरिया बदल गया है. सर्वे का दावा है कि राजनीति के सबसे निचले स्तर पर महिलाओं के स्थान आरक्षित करने के परिणाम दीर्घकालीन होंगे.

यह सर्वे देश के पश्चिम बंगाल राज्य के 495 गांवों के 8,453 किशोरों और किशोरियों और उनके माता पिता के बीच वर्ष 2006-2007 के दौरान की गई. इस क्षेत्र में 1998 में महिला आरक्षण का कानून लागू हुआ था. सर्वे टीम की एक लेखक लोरी बामन के मुताबिक भारत निश्चित रूप से एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ महिलाओं के लिए सीमित अवसर उपलब्ध हैं. इस कानून ने भारतीय महिलाओं को ग्रामीण स्तर पर स्वयं को सक्षम नेता साबित करने का अवसर प्रदान किया है.  
सर्वे के परिणाम इस विचार का समर्थन करते हैं कि राजनीति में महिलाओं के  कम प्रतिनिधित्व को खत्म करने के लिया आरक्षण साकारत्मक कार्रवाई है और शायद अन्य क्षेत्रों जैसे विज्ञान या कॉर्पोरेट, बोर्ड रूम में ऐसे निर्णय बेहतर साबित हो सकते हैं. क्योंकि ऐसे फैसले प्रभावी रोल मॉडल बनाते हैं और लंबे समय में ऐसे प्रयास अधिक फायदा पहुंचाते हैं. सर्वे में आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि जिन गांव में महिलाओं के लिए आरक्षण नहीं था उन गांव की अपेक्षा जहाँ आरक्षण लागू था उन गांवों के माता -पिता के बीच में बच्चों की शिक्षा को लेकर जेंडर अंतर 25 प्रतिशत और किशोरों में 32 फीसदी जेंडर अंतर कम हुआ था. जिन गांवों में महिलायों के लिए सीटें आरक्षित थी वहाँ अधिक लड़कियां स्कूलों में मौजूद थी और कम समय घर के कामों में बिताती थी.   
·        राजनीति में महिलाओं के प्रति नजरिया बदला है .
·        स्कूलों में लड़कियों की भर्ती बड़ी है .
·        आरक्षित क्षेत्रों में जेंडर अंतर कम हुआ है
·        सकारत्मक कानूनों से प्रभावी रोल मॉडल बनाये जा सकते हैं. इसलिए ऐसे प्रयासों को बढ़ावा मिलना चाहिए. 



सर्वे के परिणाम इस बात की और इशारा करते हैं कि ग्रामीण स्तर पर लड़किया अपने बीच में से ही निकली महिला लीडर को अपने अधिक नजदीक पाती हैं और उनके जैसा बनने का सपना उन्हें अधिक पूरा होने के करीब दीखता है इसलिए वे उन्हें अपना रोल मॉडल मानना अधिक संभव मानती हैं.
भले ही यह सर्वे केवल पचिम बंगाल में की गई हों लेकिन देश के दूसरे हिस्सों से भी ऐसे ही अनुभव सुनने को मिल रहे हैं. रूरल गवर्नंस पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों कि महिलाओं को प्रशिक्षण देने वाली नयना चौधरी के मुताबिक, ‘’गांव की महिला लीडरों और किशोरियों के बीच एक प्रकार का स्वाभाविक संबंध है.  जब ये महिलाएं शोषण के खिलाफ बोलते हुए कहती हैं कि अब हमारी बहुओं या बेटियों के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए तो उनमें महिला नेताओं के प्रति सम्मान बढ़ता है और वे भी बढ़ी होकर इन मुद्दों के खिलाफ खड़ी होने को प्रेरित होती हैं.” वह बताती है कि गाजीपुर जिले की नसीमा बानो ने जब दहेज के कारण एक महिला को मारकर गांव में लटका देने वाले परिवार के खिलाफ बेहद दबंग तरीके से लड़ाई लड़ते हुए दोषी परिवार को गिरफ्तार कराया तो वह गांव की बहुत सी किशोरियों के लिए एक रोल मॉडल के रूप में उभरी.   

उत्तर प्रदेश के अम्बेदकर नगर की २८ वर्षीय अनुपम सिंह ने बीए तक पढ़ाई की है. वह अपने इलाके की महिला लीडर कहलाती है. अनुपम हर रोज अलग अलग पंचायतों में जाकर बैठक करती है और महिलाओं को उनके क़ानूनी हकों के बारे जैसे राशन और काम हासिल करने की जानकारी देती है. अभी तक वह अपने जिला के कई लोगों को मनरेगा के तहत काम दिला चुकी है. अनुपम के इलाके की बहुत सी लड़किया पढ़ाई पूरी करने के बाद उसके जैसा बनाना चाहती है. अनुपम बताती है, ”जब मैं गांवों की महिलाओं से बात करती हैं तो बहुत सी युवा लड़कियां भी आकर मुझे ध्यान से सुनती है और कहती हैं कि वे भी बड़ी होकर गांव से अज्ञानता को दूर करेंगी और लोगों को मेरी तरह जागरूक बनाने का काम करेंगी.’’
वर्ष 2009 से पचास प्रतिशत के आरक्षण का प्रस्ताव लागू होने के बाद से   करीब 14 लाख महिलायें पंचायतों के राज-काज में हिस्सेदारी कर रही हैं.  निस्संदेह इनमें बहुत सी महिला लीडर अपने अधिकारों के प्रति जानकारी रखने  में और सता की पेचीदगियों को समझने और समझाने में किसी भी महिला नेता को टक्कर दे सकती हैं. 1993 में पंचायतों में आने वाली महिलाओं के लिए ‘सरपंच पति’ और ‘रबड़ स्टेम्प’ जैसे आक्षेपों से शुरू हुआ सफर बेहद संघर्ष भरे पड़ावों से जूझता रहा है. लेकिन सभी प्रकार की चुनौतियों के बावजूद महिला ताकत के रूप में उभरी यह महिलाएं अगर आज गांवों की लड़कियों को प्रेरित करने में समर्थ हैं और उनकी रोल मॉडल बन रही है तो निश्चित ही यह ग्रामीण महिलाओं के संघर्ष की बहुत बड़ी जीत है.
 (  नवभारत टाइम्स में 24 सितम्बर  2012 को प्रकाशित आलेख)