Saturday 19 December 2009

क्या कोपेनहेगन समझेगा आधी दुनिया का दर्द

अन्नू आनंद

जलवायु बदलाव के गहराते संकट से निपटने के लिए कोपेनहेगन में शिखर वार्ता शुरू हो चुकी है। सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन को लेकर विभिन्न देशों की उचित जिम्मेदारी तय करने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। क्या सम्मेलन में किसी तार्किक फैसलों पर सहमति बन पाएगी या नहीं यह तो कुछ दिनों में स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन सम्मेलन की वार्ताओं में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की सबसे अधिक और क्रूर मार झेलने वाली आधी दुनिया यानी महिलाओं के दर्द को में ध्यान में रखा जाएगा या नहीं इस को लेकर चिंता जरूर बनती है। हांलाकि इस महा-पंचायत में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व नीति और निर्णय प्रक्रियाओं की अन्य पंचायतों के समान कम है। लेकिन फिर भी उम्मीद की जा रही है कि जलवायु बदलाव के महिलाओं पर पड़ने वाले असर को ध्यान में रखते हुए किसी भी फैसले मंे महिला नजरिए को नजरदांज नहीं किया जाएगा। मौसम में हुए बदलाव के चलते पिछले कुछ सालों में अकाल, बाढ़ और उत्पादक मौसम की अवधि कम होने के कारण खाधान्न की आपूर्ति कम होने की कईं रिपोर्टें आईं। विश्व के कुल खाद्यान्न उत्पादन का आधा से अधिक खाद्यान्न महिलाएं पैदा करती हैं। मिसाल के तौर पर दक्षिण अफ्रीका में 75 फीसदी खाद्यान्न उत्पादन महिलाओं द्वारा किया जाता है। उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर महिलाओं को मौसम के मिजाज की मार सहने के अलावा खाद्यान्न संकट से पैदा हुई भूख की समस्या को भी झेलना पड़ता है। परिवार मे पसरी भूख की मार भी महिलाओं पर अधिक असर डालती है। कृषि और खाद्य विशेषज्ञ डा। स्वामीनाथन ने पिछले दिनों बताया कि एक डिर्गी तापमान बढ़ने से गेहूं का उत्पादन 70 लाख टन कम हो जाएगा। विश्व की 70 फीसदी गरीब संख्या लड़कियों और महिलाओं की है तो जाहिर है कि इसका असर भी उन पर अधिक पड़ेगा। विश्व के गरीब कुल कार्बन का 3फीसदी उत्सर्जन करते हैं लेकिन फिर भी उत्सर्जन से होने वाले दुष्परिणामों का कहर सबसे अधिक उन्हें झेलना पड़ता है। खासकर गरीब महिलाओं को क्योंकि इन परिवारों में घर परिवार संभालने, पानी, चारा और ईंधन के इंतजाम की जिम्मेदारी भी महिलाओं पर रहती है। लेकिन इन चीजों को उपलब्ध कराने वाले पर्यावरणीय संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन के मामले में महिलाओं की सोच और फैसले मायने नहीं रखते। जेंडर एण्ड इन्वायरमेंट की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि गुजरात राज्य में महिलाओं को घर का ईंधन लाने में रोज चार से पांच घंटे का समय बिताना पड़ता है जबकि करीब एक दशक पहले ये काम चार या पांच दिनों में एक बार करना पड़ता था। प्राकुतिक आपदा का सामना भी पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं को अधिक करना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक असमानता और भेदभाव के कारण महिलाओं को चक्रवात और बाढ़ का अधिक नुकसान उठाना पड़ता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 141 देशों में कराई गई एक सर्वे के मुताबिक किसी भी आपदा में महिलाएं आर्थिक और सामाजिक असामनता के चलते पुरूषों की अपेक्षा 14 गुणा अधिक मरती हैं। 1991 में बंगला देश मे आए चक्रवात और बाढ़ के कारण महिलाओं की मौत चार गुणा अधिक हुई थी। पिछले माह जारी हुई संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि जलवायु परिवर्तन केवल उर्जा उपलब्धता या औधोगिक उत्सर्जन का मुद्दा नहीं बल्कि मुख्य मसला किसी भी देश की कम या अधिक जनसंख्या, गरीबी और महिला समानता का है। वीमेन इन्वायरमेंट डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन ने सरकारों को जलवायु बदलाव में होने वाले प्रयासों में महिला समानता पर ध्यान देने की सिफारिश की है। संगठन के मुताबिक जलवायु बदलाव का सबसे अधिक असर महिलाओं पर पड़ता है इसलिए इससे संबंधित फैसलों में उनकी पहुंच और भागीदारी भी अधिक होनी चाहिए। कोपेनहेगन में होने वाले हर फैसले का हर व्यक्ति पर असर पड़ेगा लेकिन याद रहे यहां होने वाले हर अनुचित फैसले की चुभन महिलाओं को अधिक महसूस होगी। पर सवाल यह है कि क्या कोपेनहेगन महिलाओं के इस दर्द को समझेगा ?

(यह लेख 15 दिसंबर को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है)

Wednesday 16 December 2009

मेवात की पहली महिला पंचायत

अन्नू आनंद

फिरोजपुर झिरका, हरियााणा

हरियाणा में मेवात क्षेत्र के सबसे पिछड़े गांवों में से एक गांव नीमखेड़ा। दो-चार जमींदारों के घरों को छोड़कर गांव में सामुदायिक विकास का कोई प्रमुख ंिचन्ह नजर नहीं आता। मेव जाति के इस गांव में अधिकतर लोग अनपढ़ हैं। गांव के प्रत्येक घर में औसत बच्चों की संख्या सात है। यहां के अधिकतर युवा लड़के और लड़कियां खेती और जंगल में जानवर चराने का काम करते हैैं। विकास से अछूते इस गांव की दशा बदलने के लिए यहां की अगूंठा छाप महिलाओं ने एक अनूठी मिसाल कायम की है। उन्होंने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में लेते हुए हरियाणा में पहली महिला पंचायत का गठन किया है। पंचायत में गांव के सभी नौ वार्डों पर महिलाओं को वार्ड पंच बनाया गया है। दिलचस्प बात यह है कि गांव ने ब्लाक समिति और जिला परिषद् समिति में भी महिला सदस्य को ही नियुक्त किया है। पंचायत के सभी सदस्यों ने मिलकर गांव के राजनैतिक घराने से संबंधित आसूबी बेगम को सरपंच बनाया है। हरियाणा में अप्रैल माह में हुए पंचायत चुनावों से कुछ समय पहले गांव के लोगों ने एक बैठक में फैसला किया कि इस बार पंचायत की जिम्मेदारी महिलाओं को सौंपी जाए। गांववालों के मुताबिक इसका एक बड़ा कारण यह है कि पिछले 17-18 सालों से गांव की पंचायत पर पुरुषों का वर्चस्व था। इस दौरान गांव में विकास का कोई बड़ा काम नहीं हुआ। इसलिए गांववालों ने मिलकर बिना चुनाव कराए हर वार्ड से र्निविरोध एक सक्रिय महिला को वार्ड सदस्य नियुक्त कर लिया। सरपंच बनी 60 वर्षीय आसूबी बेगम महिला पंचायत के औचित्य को स्पष्ट करते हुए कहती हैं, ‘‘पिछले 17 सालों से गांव में पुरुषों ने राज किया लेकिन गांव की समस्याओं की सुध नहीं ली। क्योंकि उन्हें इन समस्याओं से जूझना नहीं पड़ता।’’ इसकी वजह बताते हुए वह कहती है, ‘‘गांव के अधिकतर पुरुष जुआ खेलने और गांव से बाहर जाकर घूमने में समय बिताते हैं। जो गांव के बाहर नहीं जाते वे किसी भी चाय की दुकान पर बैठकर गप्पे मारने में पूरा दिन बताते हैं जबकि यहां की सभी महिलाएं घर के सारे कामों के अलावा खेतों और पशुओं की देखभाल का काम भी संभालती हैं। इन कामों को पूरा करने में उन्हें कई प्रकार की दिक्कतें आती हैं। वे जब पशुओं को चराने जंगल जाती हैं तो उन्हें घर में पानी की व्यवस्था करने की चिंता भी रहती है। पानी भरने के लिए उन्हें गांव से एक किलोमीटर दूर लगे नल से पानी लाना पड़ता है। इस तरह उनका काफी समय पानी भरने में ही बीत जाता है।’’ गांव से कुछ दूरी पर लगे नल पर महिलाओं की भीड़ देखकर पानी की तंगी का अंदाजा लग जाता है। फिरोजपुर झिरका ब्लाॅक का यह गांव हरियाणा के मेवात क्षेत्र का सबसे आखिरी गांव है। सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से हरियाणा का यह सब से पिछड़ा इलाका है। इसी पिछड़े इलाके के इस गांव की आबादी तीन हज़ार के करीब है। यहां के मुस्लिम परिवारों में परिवार नियोजन न अपनाने के कारण अधिकतर परिवारों में बच्चों की संख्या सात या आठ है। गांव में मिडिल तक का स्कूल है लेकिन यहां कोई मास्टर नहीं आता। महिला शिक्षिका न होने के कारण भी गांव की लड़कियां को स्कूल नहीं भेजा जाता। इसलिए, यहां मां-बाप उन्हें स्कूल भेजने की बजाए खेती-बाड़ी, पशुओं की देखभाल या घर के कामों में लगा देते हैं। 60 वर्षीय वार्ड पंच सकुरण कहती है, ‘‘स्कूल भेजकर भी क्या करें। स्कूल भेजें भी तो वह केवल पांचवी तक ही पढ़ पाएगी। वह भी अगर मास्टर रोज आए। आगे पढ़ने के लिए तो फिर उन्हें शहर भेजना पड़ेगा। हाई स्कूल यहां से 15 किलोमीटर दूर पुन्हाना में है। लड़कियां इतनी दूर रोज पढ़ने के लिए कैसे जाएं।’’ सकुरण के साथ पंचायत की सभी सदस्य गांव में स्कूल की समस्या को लेकर काफी चिंतित है। 18 वर्षीय फ़रज़ाना पांचवी तक पढ़ी है वह आगे पढ़ना चाहती है लेकिन उसके घरवालों को उसे दूर भेजना मंजूर नहीं। पिछड़ी जाति के लिए सुरक्षित सीट पर मेमुना को वार्ड पंच बनाया गया है। मेमुना के सात बच्चे हैं उसके पति खेती में मजदूरी करते हैं। वह अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती है इसलिए वह इस बात के लिए दृढ़संकल्प है कि पंचायत के माध्यम से सबसे पहले गांव में स्कूल खोलने की कार्यवाही की जाएगी। गांव की अधिकतर महिलाएं पुरुषों से पर्दा करती हैं। वे उनके सामने बोलती नहीं। इसलिए अभी तक गांव पंचायत में उनका प्रतिनिधित्व कम ही रहा। 18 साल पहले आसूबी बेगम की सास सरपंच बनी थी। गांव की कुछ महिलाओं का मानना है कि उस समय कुछ काम हुए थे। लेकिन बाद में पुरुष बने सरपंचों और पंचों ने गांव की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इस दौरान आसूबी बेगम के पति भी सरपंच पद पर रह चुके है लेकिन आसूबी साफ कहती हैं कि उनकी सास के अलावा किसी सरपंच के कार्यकाल में गांव के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया गया। गांव में विकास की धीमी प्रक्रिया के कारणों का खुलासा करते हुए मेवात सोशल एजूकेशनल डेवलपमेंट सोसायटी के महासचिव डाक्टर ए। अजीज के कहते हैं, ‘‘यही गांव नहीं समूचे मेवात में विकास की गति धीमी चल रही है इसका एक बड़ा कारण यहां के लोगों की सोच है। यहां के लोगों का नज़रिया नकारात्मक है। अभी भी वे पुरानी रूढ़ियों में जकड़े हैं। उनकी यह सोच विकास के किसी भी काम में बाधा बनती है।’’ डाक्टर अज़ीज ने बताया कि मेवात में निर्वाचित पंचायतों से अधिक जाति, गोत्र और धर्म पंचायतों का अधिक दबदबा है। इन पंचायतों की यहां अधिक चलती है। कुछ समय पहले मेवात क्षेत्र के ही नूह ब्लाॅक में एक दंपति को जात से बाहर शादी करने के कारण जात पंचायत ने बेहद कड़ी सजा दी थी। करीब पिछले 20 सालों से मेवात क्षेत्र पर कार्य कर रहे डाक्टर अज़ीज ने बताया, ‘‘जब उन्होंने इस क्षेत्र में स्वयं सहायता समूह बनाकर महिलाओं को आर्थिक सामाजिक रूप से सबल बनाने का काम शुरू किया तो यहां फतवा जारी कर दिया गया कि मेव महिला के लिए ब्याज लेना और घर से बाहर निकलना हराम है। जागरूकता की कमी के कारण इस प्रकार के फतवे क्षेत्र के विकास में बाधा बनते हैं। पहली महिला पंचायत पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘पुरुषों के सामने महिलाएं बोलती नहीं लेकिन संभव है कि महिलाएं आपस में बैठकर अधिक अच्छे से विचार-विमर्श कर सकें लेकिन इसके लिए जरूरी है कि ‘पति’ उनको सकारात्मक सहयोग दें।’’ 40 वर्षीय वार्ड पंच सेमुना पुरुषों से पर्दा करती है। वह अपने वार्ड पंच बनने से खुश है और उसका कहना है कि उसके पति भी इस बात पर खुश हैं। सरपंच आसूबी बेगम सहित सभी वार्ड पंचों को कहना था कि वे अपने पतियों के सहयोग से ही यह कदम उठा सकीं हैं। आसूबी के मुताबिक, ‘‘उन्हें प्रशासनिक प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए पुरुषों का सहयोग लेना पड़ेगा। लेकिन वह विश्वास के साथ कहती है, बी डी ओ (ब्लाॅक डेवलपमेंट आफिसर) से बातचीत करने या उससे प्रशासनिक जानकारी के लिए भले ही हम पतियों से सहयोग लें लेकिन फैसला हम महिलाओं का ही होगा।’’ वार्ड पंच महमूदी से जब पूछा गया कि गांव की सबसे बड़ी समस्या क्या है तो वह एकदम उत्तेजित होते हुए बोली, ‘‘यह पूछिए कि क्या समस्या नहीं है।’’ वह कटाक्ष करते हुए कहती है, ‘‘शहरी औरतों के लिए यह समझना बेहद मुश्किल है। मैं सुबह रसोई में चूल्हा फूंकती हूं। दिन में जंगल में पशुओं को चराती हूं। फिर खेत में मशीन से गेहूं और ज्वार काटने का काम करना पड़ता है। इन सब कामों के साथ दूर से पानी भरकर भी लाना पड़ता है। गांव की सभी महिलाओं की यही दिनचर्या है। इस हिसाब से देखा जाए तो हमें गांव में गोबर गैस प्लांट चाहिए। पानी की सप्लाई चाहिए ताकि पानी भरकर लाने से हमें निज़ात मिले।’’ नवनिर्वाचित महिलाओं की पंचायत ने पिछले दिनों गांव में आए विधानसभा के उपाध्यक्ष को दरखास्त देकर गांव के छोटे से नाले में पानी की सप्लाई तो शुरू करवा दी है। गांववालों के मुताबिक इस नाले का पानी खेतों में सिंचाई के काम आता है। महमूदी के मुताबिक लेकिन घर के कामों और पीने के पानी की अभी भी यहां कोई सप्लाई नहीं। पानी और स्कूल के अलावा गांव की दूसरी बड़ी समस्या स्वास्थ्य केंद्र की है। सबसे निकटतम स्वास्थ्य केंद्र पुन्हाना में है। यहां कोई जच्चा-बच्चा अस्पताल भी नहीं है। 99 प्रतिशत प्रसव अप्रशिक्षित दाइयों के हाथों से होते हैं जिसकी वजह से प्रसव में महिलाएं कई प्रकार की बीमारियों की शिकार हो जाती हैं। वार्ड पंच सेमुना ने बताया, ‘‘गांव में न तो कोई एएनएम आती है और नहीं कोई सरकारी डाक्टर। प्रसव में किसी भी प्रकार की दिक्कत होने पर भी महिलाओं को दूर शहर की ओर भागना पड़ता है।’’ सेमुना बताती हैं, ‘‘प्रसव में गड़बड़ी के कारण कई बार महिला या तो मर जाती है या उसे कोई न कोई बीमारी घेर लेती है।’’ वार्ड पंच आशिमी स्वास्थ्य केंद्र खुलाने के साथ गांव में सभी घरों में शौचालय न होने पर चिंता प्रकट करती है। वह बताती है कि अधिकतर घरों में शौचालय नहीं। महिलाओं को दूर जंगल में जाने में कठिनाई होती है खासकर बड़ी और बूढ़ी महिलाओं को। इसलिए वह चाहती है कि गांव में गरीबों और दलितों के घरों मंे भी शौचालय बनाए जाएं। पंचायत की ये सभी महिला सदस्य बखूबी जानती हैं कि गांव की जरूरतें क्या हैं लेकिन इन जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें बेहतर सहयोग और प्रशिक्षण की जरूरत है। सभी सदस्यों की मांग है कि पंचायत के कार्यों को पूरा करने के लिए पंचायत मंे सचिव भी महिला होनी चाहिए। क्योंकि उनका मानना है कि महिला सचिव होने से उनके लिए काम करना अधिक सरल होगा। पंचायत की इन महिलाओं को शपथ लेने के दिन का इंतजार है। शपथ लेेने के बाद वह सबसे पहले गांव मंे पंचायत कार्यालय खोलेंगी इसके लिए जगह ढूंढी जा रही है। गांव की इन जुझारू महिलाओं ने अब गांव की काया कल्प करने की ठान ली है। गांव की इन वीरांगनाओं के लिए न तो उनका घूंघट रूकावट बनेगा न ही उनकी अनपढ़ता क्योंकि विपरीत परिस्थितियों के अनुभवों ने उनको सबल बनना सिखा दिया है। हरियाणा जैसे प्रदेश में जहां की पंचायतों ने अपने तानाशाही हुक्मों से महिलाओं का जीना हराम कर दिया है, वहां महिला पंचायत की परंपरा शुभ संकेत माना जा सकता है।

यह स्टोरी मई २००५ में कवर की गई थी और ग्रासरूट सहारा समय , फिनासिअल
वर्ल्ड , ट्रिबुन सहित कई समाचारपत्रों में प्रकशित हुई

Tuesday 15 December 2009

गांवों में उजाला करतीं महिला सौर इंजीनियर



अन्नू आनंद


राजस्थान के अजमेर जिले के तिहारी गांव की कमला देवी दिखने में किसी भी देहाती महिला से भिन्न नहीं। सिर पर पल्लू; नाक में बड़ी सी नथ और हाथ पावों में चांदी के चमकते गहने। लेकिन वह साधारण महिलाओं की तरह खाना बनान या सिलाई बुनाई की बातों की बजाए आपको बताएगी कि किस प्रकार तारों सक्रिट चार्ज कंट्रोलर और पैनलों को जोड़कर सौर लालेटन बनाई जाती हैं। उसके द्वारा बनाए सौर लालटेन राजस्थान के गांवों के र्कइं अधेरे घरों और स्कूलों में प्रकाष फैला रहे हैं। कमला राजस्थान की पहली बेयरफुट महिला सौर इंजीनियर है। कमला की तरह देष के आठ राज्यों सिक्किम, आसम, बिहार, राजस्थान केरल, उत्तरांचल, हिमाचल प्रदेष और आंध्र प्रदेष के विभिन्न गांवों की महिलाएं तिलोनिया गांव के सोषल वर्कस रिसर्च सेंटर (एसडब्लयू आर सी) के बेयरफुट कालेज में प्रषिक्षण ले रहीं हंै। छह महीने के प्रषिक्षण के बाद ये महिलाएं सौर लैंप बनाने और उसकी मरम्मत करने में दक्ष हो जाती हैं उसके बाद अधिकतर महिलाएं अपने क्षेत्र के गांवों में जहां बिजली की कमी है या बिजली बिल्कुल नहीं होती सौर उर्जा प्रणाली का इस्तेमाल करतीं हंै। तिलोनिया के बेयरफुट कालेज में महिलाओं को सोलर इंजीनियर का प्रषिक्षण देने का काम 1995 में षुरू किया था। आज 75 ग्रामीण महिलाएं सोलर फोटोवोल्टिक इंकाइयों और सौर लालटेन बनाने; लगाने और उसकी मरम्मत और देखभाल करने में प्रषिक्षित हो चुकी हंै। किसी इलेक्ट्राॅनिक और सौर इंजीनियर की तकनीकी सहायता के बिना कमला और उसकी अन्य बेयरफुट इंजीनियर महिला साथियों ने दस सौर पाॅवर प्लांट; पांच हजार स्थिर घरेलू बिजली प्रणाली, तीन सौर पंप और 37 सौर पानी के हीटर लगाने और बनाने का कार्य किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि इनमें से अधिकतर महिलाएं अषिक्षित या अर्द्ध षिक्षित हैं लेकिन उन्होंने अपनी केवल खेतों में काम करने या घरेलु ढर्रे की भूमिका के अलावा वे किस प्रकार से बेहतर और परिश्कृत तकनीक को भी हैंडल कर सकती हैं। 23 वर्शीय कमला जब 12 वर्श की आयु में अपने ससुराल सिरोंज गांव में आई तो उसने कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखा था। वह अपनी चारों बहनों की तरह ही बिल्कुल अनपढ़ थी। उसके घर में स्कूल जाने का अवसर केवल उसके भाइयों को ही मिला। उसका काम अपनी बहनों की देखभाल करना, खाना बनाना और पानी ढोना और पषु चराना था। सिरांेज गांव में जब उसने समाज कार्य अनुसंधान केंद्र के बिजनवाड़ा के रात्रि स्कूल के बारे में सुना तो उसके मन में भी पढ़ने की इच्छा जागृत हुई। उसे लगा कि वह दिन भर घर के सारे काम खत्म कर भी स्कूल जा सकती है। लेकिन उसके पति सास इस बात के लिए तैयार नहीं थे। आखिर उसके ससुर ने उसका साथ दिया और उसने रात्रि स्कूल में पांचवी कक्षा तक पढ़ाई की। रात्रि स्कूल में पढ़ते हुए वह रात के अंधेरे में जलने वाले सौर लैंप से बेहद प्रभावित हुई क्योंकि गैर बिजलीकृत के क्षेत्र में इन लैंपों का अच्छा इस्तेमाल हो सकता है। यही सोच उसे केंद्र के ‘सोलर लाईट’ प्रषिक्षण कोर्स ले गई। इससे पहले गांव की किसी भी महिला ने सौर इंजीनियर का प्रषिक्षण नहीं लिया था। केवल पुरुश ही इसमें दाखिल होते थे। अपने प्रषिक्षण के बाद उसने वर्श 1997 में बिजनवाड़ा की छह महिलाओं को भी सौर उर्जा लैंप बनाने का प्रषिक्षिण दिया। इसके पष्चात कमला के पदचिन्हों पर चलते हुए कईं महिलाओं ने ‘बेयरफुट’ सोलर इंजीनियर बनने का रास्ता अपनाया। कमला के मुताबिक, ‘‘अगर मेरे ससुर ने मुझे प्रोत्साहित न किया होता तो मैं खेतों और घर के कामों से कभी बाहर न निकल पातीं। लेकिन बाद में मेरे पति और मेरी सास भी सहमत हो गए। अब मुझे इस काम में बेहद मजा आता है इसने मेरे जीवन में भी उजाला भर दिया है’’। कमला की तरह सिरंजो गांव की लाडा और डाडिया गांव की दापू भी पहले बैच की महिला सौर इंजीनियर है। किसान परिवार की लाडा कमला से ही प्रोत्साहित हुई और उसने भी प्रषिक्षण हासिल किया लेकिन कुछ ही समय बाद पति की असहमति के कारण वह प्रषिक्षण बीच में ही छोड़ने को मजबूर हो गई। उसे परिवार से प्रोत्साहन देने वाला कोई नहीं था। दापू लोहार जाति के आदिवासी परिवार से संबंधित थी और अपने समुदाय की पहली महिला है जिसने सेकेंडरी स्कूल तक पढ़ने के बाद इस क्षेत्र में पांव रखा था। राजस्थान में करीब 150 रात्रि स्कूल चलते हैं जो बच्चे घर के काम-काज के कारण दिन में स्कूल नहीं जा सकते उनके लिए समाजकार्य अनुसंधान केंद्र ने ये स्कूल खोले हैं इन स्कूलों में रात को सौर लालटेन से ही रोषनी होती है। तीन हजार से अधिक चारवाहे लड़के और लड़कियां इन स्कूलों में जाते हैं। सौर लालटेन मिट्टी के तेल के लालटेनों से अधिक उपयुक्त हैं। समाज अनुसंधान केंद्र अभी तक सौर विद्युतीकरण की प्रक्रिया को आठ राज्यों के कई गैर-बिजलीकृत गांवों में लागू कर चुका है। केंद्र ने यूरोपियन यूनियन और यूएनडीपी द्वारा मिलने वाले फंड की सहायता से कुछ बेहद पिछड़े राज्यों के दूर दराज गांवों को चिन्हित किया है। वर्श 2002 तक करीबन 531 गांवों के करीब 80 हजार लोगों को सौर उर्जा प्रणाली का लाभ मिल रहा है। केंद्र के अध्यक्ष बंकर राय के मुताबिक, ‘‘इस विचार का उद्देष्य यह है कि यदि बेहद साधारण और अषिक्षित ग्रामीण लोग सौर इंकाइयों की परिश्कृत तकनीक को बनाने; लगाने, मरम्मत करने और उसके रखरखाव का कार्य करने में प्रषिक्षित किए जा सकते है तो सोैर ऊर्जा की प्रक्रिया को समूचे विष्व में अपनाया जा सकता है। क्या इसे सफल कहानी कहा जा सकता है? केंद्र के एक कार्यकर्ता का जवाब था, ‘‘उससे भी बढ़कर। यह तो षुरूआत है जहां भी ग्रामीण महिलाएं ये कार्य करती हैं वहां उनकी कीर्ति के चर्चे होते हैं। परिवार में वे अपनी पहचान बना पा रही हैं। यह बात सही है कि अगर पति और परिवार सहमत नहीं होते तो वे निर्णय नहीं ले पातीं या कभी कभी उन्हें बीच में ही प्रषिक्षण छोड़ना पड़ता है। लेकिन कम से कम पहला प्रयास षुरू हो चुका है। ग्रासरूट फीचर्स

युवा माँ के स्वास्थ्य के लिए



अन्नू आनंद (उदयपुर, राजस्थान)


उदयपुर से कोई 55 किलोमीटर दूर आदिवासी क्षेत्र के गांव डूंगरीकलां की प्रतापी छोटी सी झुग्गी में अपनी एक माह की बेटी के साथ खेल रही थी। प्रतापी की यह चैथी संतान है। पिछले तीन बच्चों को जन्म देने के समय उसे कई प्रकार की तकलीफों को झेलना पड़ा था। पहले तीनों बच्चों का प्रसव घर पर ही हुआ था। उसे लगता नहीं था कि वह इस बार बच पाएगी। पति भी खेतों में मजदूरी करने चला जाता था। उसकी हालत बेहद गंभीर थी। प्रतापी को डर था कि इस बार वह भी आसपास के गांवों में प्रसूति के समय मरने वाली महिलाओं में से एक होगी। लेकिन पास के गांव कड़िया में शुरू हुए नए केंद्र से समय पर मिली डाक्टरी सहायता की बदौलत उसका नाम राज्य की बढ़ती मातृत्व मृत्यु दर के आकड़ों में शामिल नहीं हुआ। इसी गांव की केसकी का पहला प्रसव था लेकिन प्रसव के समय उसकी हालत काफी बिगड़ गई। उसका प्लेंस्टा नहीं गिरा था। गांव कुंचोली स्थित सेफमदरहुड केंद्र की दो नर्सों ने उसे केंद्र की गाड़ी से उदयपुर जिले के रेफ्रेल अस्पताल पहुंचाया। उसका मामला काफी बिगड़ चुका था लेकिन समय पर अस्पताल पहुंच जाने के कारण किसी प्रकार से उसकी जान तो बचा ली गई पर उसका बच्चा बच नहीं पाया। प्रतापी और केसकी की तरह उदयपुर और राजसमंद जिले के करीबन 42 गांवों की महिलाएं अब प्रसव के लिए पारंपरिक दाइयों या सगे संबंधियों पर निर्भर नहीं। उदयपुर जिले के छितरे हुए आदिवासी इलाके में 80 प्रतिशत प्रसव घरों में होते हैं। यहां के सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोग प्रसव के लिए पारंपरिक दाइयों या सगे संबंधियों पर निर्भर रहते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में और प्रसव के दौरान या बाद में उचित देखभाल न मिलने के कारण इन इलाकों में बहुत सी महिलाएं प्रसूति के समय या बाद में होने वाली गड़बड़ियों के कारण मरती हैं। उदयपुर में 75 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है लेकिन केवल चार केंद्रों में ही डिलीवरी की सुविधा उपलब्ध है। प्रसव पश्चात या प्रसव पूर्व या गंभीर प्रसव मामले को देखने के लिए कोई सुविधा उपलब्ध नहीं थीं। स्वास्थ्य केंद्रों की नर्सों पर प्रजनन स्वास्थ्य के अलावा भी अन्य कईं प्रकार की प्रशासनिक जिम्मेदारियां है कि वे चाह कर भी गर्भवती महिलाओं तक नहीं पहुंच पातीं। 1997 में कुंभलगढ़ ब्लाक के दक्षिण क्षेत्र में की गई सर्वे में पाया गया कि केवल चार प्रतिशत डिलीवरी नर्सों या एएनएम ने की थीं। राजस्थान की मातृत्व मृत्यु दर का आंकड़ा 670 है जबकि राष्ट्रीय दर 407 प्रति लाख है। उदयपुर स्थित स्वास्थ्य संस्था ‘अर्थ’ यानि एक्शन रिसर्च एण्ड ट्रेंनिग फाॅर हेल्थ ने क्षेत्र की इस बढ़ती मातृत्व मृत्यु दर पर काबू पाने के लिए अनोखा प्रयास किया। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से अलग हटकर संस्था ने 24 घंटे की प्रसूति सुविधा वाले दो सेफमदरहुड केंद्रों की शुरूआत की। इन केंद्रों का मुख्य मकसद दूरदराज़ के गावों में रहने वाली गरीब और अनपढ़ महिलाओं को प्रसव एक से पहले और प्रसव के बाद कुशल स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना है। संस्था अर्थ’ की संस्थापक कीर्ति आयंगर के मुताबिक, ‘‘पांच वर्ष पहले जब उन्होंने इस इलाके में अपना प्रोजेक्ट शुरू किया था उस समय 95 प्रतिशत डिलीवरी घरों में होती थीं। इसलिए इन केंद्रों का लक्ष्य प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी अधिक से अधिक सेवाएं प्रदान करना है।’’ ये केंद्र आसपास गांवों की करीब 50 हज़ार जनसंख्या को प्रजनन स्वास्थ्य और नवजात शिशु की देखभाल डाक्टरों और प्रशिक्षित मिडवाइफों के जरिए मुहैया करा रहे हैं। ‘अर्थ’ ने पहला केंद्र वर्ष 1999 में दक्षिण राजस्थान के राजसमंद जिले के कुभंलगढ़ ब्लाक के कंुचोली गांव में खोला। फिर दूसरा केंद्र वर्ष 2000 में उदयपुर जिले के कड़िया गांव में खोला गया। चारों और छितरे हुए छोटे छोटे गावों से घिरे इन केंद्रों में 24 घंटे डिलीवरी की समूची सुविधा उपलब्घ है। केंद्र में कुल पांच नर्स (तीन जीएनएमस, दो एएनएम) रहती हैं। सप्ताह में दो बार स़्त्री रोग विशेषज्ञ यहां आकर एएनसी / पीएनसी, (प्रसवपूर्व और प्रवोपरान्त) गर्भपात और अन्य स्त्री रोगों का इलाज करती हैं। जबकि सप्ताह में एक बार बालरोग विशेषज्ञ भी आता है। जो कुपोषण, संक्रमण और अन्य बीमारियों का इलाज करता है। केंद्र में बच्चों के टीकाकरण की भी सुविधाएं उपलब्ध हैं। दो नर्सें यहां रात-दिन रहती हैं। नर्स मिडवाइफ को गर्भपात, रिप्रोडेक्टिव ट्रैक इंफेक्शन जैसे मामलों को देखने का प्रशिक्षण भी दिया गया है। जैसे ही केंद्र को किसी गर्भवती महिला को देखने के लिए बुलाया जाता है एक नर्स मिडवाइफ और एक पुरुष फील्ड सुपरवाइजर महिला के गांव मोटरसाइकल पर पहुंचते है। वे अपने साथ जरूरी दवाएं और संयंत्र लेकर जाते हैं। किसी भी प्रकार की गड़बड़ी पर पहले उसे केंद्र के डाक्टर के पास लेजाया जाता है। अगर मामला अधिक गंभीर हो तो उसे उदयपुर स्थित रेफ्रल अस्पताल पहुंचाने की जिम्मेदारी भी केंद्र निभाता है। इसके लिए केंद्र रियायती दर पर वाहन की व्यवस्था भी करता है। गर्भवती महिला को अस्पताल में दाखिल कराने के बाद केंद्र का स्वास्थ्य कार्यकर्ता मरीज के परिवार और अस्पताल से संपर्क में रहता है। श्रीमती आंयगर ने बताया कि केंद्र में की जाने वाली डिलीवरी के लिए आदिवासी महिलाओं से 100 रूपया ओर गैर आदिवासी महिला से 300 रूपया फीस ली जाती है। इंमरजेंसी वाले मामले में केंद्र 1500 रूपए तक की वित्तीय सहायता देता है। केंद्र की मिडवाइफ प्रोजेक्ट के 42 गांवों में निर्धारित दिन पर जाकर ‘फील्ड क्लीनिक’ लगाने का काम भी करती हैं। केंद्र की डाॅक्टर रिचा कपूर के मुताबिक इन फील्ड क्लीनिक के माध्यम से गांवों की महिलाओं को प्रसव के दौरान और प्रसव के बाद स्वास्थय की देखभाल करने की जानकारी दी जाती है। गर्भवती महिला को भी इन फील्ड क्लीनिकों के दौरान नर्सों से संपर्क कर अपनी डिलीवरी की योजना बनाने का समय मिलता है। इस के अलावा उन्हें नवजात शिशु की देखभाल तथा बच्चों के टीकाकरण की जानकारी और सेवाएं भी दी जाती हैं। स्वास्थ्य सेवाओं में लोगों की भागीदारी बढ़ाने और जागरुकता फैलाने के लिए केंद्र गावों में ‘स्वास्थ्य सखी’ बनाने का काम भी कर रहा है। केंद्र के सोशल एनीमेटर(सामाजिक प्रोत्साहक) गांवों का दौरा कर गांव की सक्रिय महिलाओं की पहचान कर उन्हें ‘स्वास्थ्य सखी’ बनाने का काम करते हैं। कुंचोली स्थित केंद्र की सोशल एनीमेटर लीला कुमार का काम तीन पंचायतों के गांवों को देखने का है वह इन गांवों में महिलाओं को डिलीवरी घर पर न कराने और गर्भनिरोधकों की जानकारी देती है। लीला कुमार के मुताबिक अभी तक वह 20 ‘स्वास्थ्य सखियां’ बना चुकी हंै। ये ‘स्वास्थ्य सखियां’ गांव की गर्भवती महिलाआंे को क्लीनिक में डिलीवरी करने के लिए प्रेरित करती हैं। इस के अलावा वह केंद्र की नर्सों को गर्भवती महिलाओं की जानकारीेेे भी देतीं हैं। गावों में गर्भनिरोधक बांटने में भी इनकी मदद ली जाती है। अर्थ के सेफमदरहुड केंद्रों की अन्य बड़ी विशेषता यह है कि यह प्रजनन स्वास्थ्य और गर्भावस्था में पुरुषों की भागीदारी को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसके लिए पुरूषों से भिन्न भिन्न तरीकों से संपर्क किया जाता है। केंद्र का पुरूष कार्यकर्ता गर्भवती महिला के पति को प्रसव से जुड़ी देखभाल की जानकारी देता है। प्रति माह 250 पतियों को प्रशिक्षित किया जाता है। नवजात शिशुओं के पिताओं को परिवार नियोजन और बच्चे की देखभाल की जानकारी दी जाती है। तीन से दस के करीब समूह में युवा पुरुषों को किशोरवास्था में गर्भ ठहरने के खतरों और सुरक्षित गर्भपात के साथ पुरूषों के प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में प्रशिक्षित किया जाता है। पंचायतों को भी इसमें भागीदार बनाया गया है। पंचायत सदस्यों को मातृ और नवजात शिशु की देखभाल के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। पंचायत आधारित मातृ स्वास्थ्य कार्ड भी तैयार किया गया है जिसे महिलाएं गर्भावस्था के दौरान अपने पास रखतीं हैं। इस कार्ड को सेवाप्रदाता द्दारा भरा जाना होता है। श्रीमती आयंगर का कहना है, ‘‘केंद्रों की शुरुआत के बाद से क्षेत्र में संस्थागत डिलीवरियों में बढ़ोेतरी हुई है। केंद्रों की शुरुआत के पांच सालों में यहां पर 687 डिलीवरियां हुई जिसमें प्रसूति के समय मातृत्व मृत्यु शून्य और जीवित बच्चों की संख्या 643 थीं।’’ अगस्त माह की 20 तारीख तक यहां 17 डिलीवरी हो चुकीं थीं। बहुत से परिवार खासकर आदिवासी और पिछड़े समुदाय के परिवार रेफ्रल सेवाओं के लिए भी शहरी अस्पताल में जाने को तैयार नहीं होते लेकिन वितीय सहायता मिल जाने के कारण और केंद्र की नर्स का साथ मिलने से अब बहुत से इंमरजेंसी वाले मामले अस्पताल जाने में संकोच नहीं करतेे। ‘अर्थ’ के प्रयास से भले ही मातृत्व मृत्यु के ग्राफ में कोई स्पष्ट बदलाव न आया हो लेकिन प्रतापी और केसकी जैसी क्षेत्र की बहुत सी महिलाएं बेमौत मरने से जरूर बच रहीं हैं।

Monday 14 December 2009

बिहार की क्रांतिकारी ग्रामीण महिलाएं

अन्नू आनंद

मुज़फ्फरपुर, बिहार

तीस वर्षीय चंद्रा देवी चार साल पहले तक कभी घर से बाहर नहीं निकली थी। घर के चूल्हे चौके और अन्य खेती के कामों में खटने के बाद उसे घर के छोटे-मोटे खर्च को पूरा करने के लिए तरसना पड़ता था। उस का पति खेती का काम करता लेकिन उसकी आमदन इतनी नहीं थी कि घर की जरूरतें पूरी हो जाएं। उस समय चंद्रा ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन वह न केवल अपनी जरूरतों को खुद पूरा करेगी बल्कि घर की आमदनी का बड़ा हिस्सा कमाने लगेगी। लेकिन वर्ष 2001 में स्वयं सहायता समूह की सदस्य बनने के बाद उसके जीवन की दिशा ही बदल गई। बिहार के जिला मुजफ्फरपुर के गांव अदिगोपालपुर की रहने वाली चंद्रा के लिए समूह का सदस्य बनना भी आसान न था। वह बताती है कि जब वह सहेलियों से मिली जानकारी के मुताबिक ‘स्व-शक्ति स्वयं सहायता समूह परियोजना’ के संचालक के साथ गांव में बनने वाले नर्गिस समूह की सदस्य बनने की औपचारिकताएं पूरी करने के लिए गई तो गांव के कुछ लोगों ने उसके पति को गलत बता दिया जिसकी वजह से दस दिन तक उसका पति से झगड़ा होता रहा। उस पर सदस्य न बनने का दबाव डाला गया। लेकिन चंद्रा ने हार नहीं मानी और समूह नहीं छोड़ा। आज उसी समूह की बदौलत पति भी उसकी इज्जत करता है और जरूरत पड़ने पर समूह की बैठक के लिए उसे छोड़ने भी जाता है। बंदाई(ओरांई) गांव की जातरान देवी स्वयं सहायता समूह का सदस्य बनने से पहले केवल इतना ही जानती थी कि उसे प्रति माह 20 रूपए जमा करने हांेगे और बदले में जरूरत पड़ने पर वह दो रूपए के ब्याज पर कर्ज ले सकेगी। लेकिन समूह से जुड़ने के बाद केवल तीन सालों में उसमें इतना बदलाव आया कि आज वह न केवल 50 समूहों का कामकाज देख रही है ब्लकि स्वयं कमाई भी कर रही है। जातरान देवी कहती है,‘‘ मैं सत्तू, चिप्स के पैकेट बनाकर दुकान में भेजती हूं इससे मुझे अच्छी कमाई हो जाती है।’’ जातरान के मुताबिक उनके समूह की 30 हजार रूपए की राशि बैंेक में जमा है। पुरूषोतमपुर गांव के स्वयं सहायता समूह की 28 वर्षीय अमृता देवी प्रति माह 30 रूपए समूह में जमा करती है। दस सदस्यों का उनका समूह प्रति माह कुल 300 रूपए जमा करता है। उसके हनुमान प्रसाद समूह को बैंक से मिलने वाली आर्थिक सहायता की पहली दस हजार रूपए की किश्त भी मिल चुकी है। वह बताती है कि समूह को मिले प्रशिक्षण के बाद उनके समूह की सभी महिलाएं समूह से कर्ज लेकर पशुपालन, हाट बाजार या मछलीपालन का काम कर रहीं हैं। रसूलपुर गांव की शैमु निशा कुछ साल पहले तक बीड़ी मजदूर का काम करती थी लेकिन आज वह खुद बीड़ी बनाने के धंधे की मालकिन है। यमुना शक्ति समूह की सुनीता पूरी तरह जानती है कि मुखिया के पास विकास का कितना फंड आता है और कौन सी सरकारी योजनाएं उसके क्षे़त्र में लागू हैंै। वह महिलाओं को पंचायती राज के अलावा सरकारी योजनाओं की जानकारी देने का काम कर रही है। मैदापुर पंचायत के ‘आरती स्व-शक्ति समूह’ की धर्मशीला चैधरी 22 समूहों की अध्यक्ष है। 8 से 11 तक के समूहों का एक कलस्टर होता है। धर्मशीला ने समूह का सदस्य बनने के बाद पंचायती राज और अन्य समाजिक समस्याओं की जानकारी हासिल की और अब वह समूह की सदस्यों को दहेज और दूसरी समस्याओं के प्रति जागरूक बनाने का काम करती है। महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाने में स्वयं सहायता समूह पूरे देश में काम कर रहे हैं। लेकिन बिहार में शुरू हुए ‘स्व-शक्ति स्वयं सहायता समूह’ (एसएचजी) परियोजना विशिष्ट है। इसकी खास विशेषता यह है कि इसमें बचत और आय अर्जन कार्यकलापों के अलावा समूह की महिलाओं को पूरी तरह सबल बनाने के लिए पंचायती राज और विकास संबंधी सरकारी योजनाओं की जानकारियां उपलब्ध कराने का प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। कईं प्रकार के सरकारी और गैर सरकारी हस्तक्षेपों के माध्यम से यहां की ग्रामीण महिलाएं सामुदायिक स्तर की जरूरतें पूरी करने के निर्णयों में भागीदार बन रही हैं। बिहार राज्य महिला विकास निगम द्वारा विश्व बैंक और आईएफएडी की मदद से देश के सात राज्यों के लिए प्रस्तावित इस ‘स्व-शक्ति परियोजना’ की शुरूआत वर्ष 2001 मुजफ्फरपुर जिले के 5 ब्लाकों में की गई। इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी रेखा से नीचे की महिलाओं की स्थिति सुधारना है। इसलिए जिले के सीमांत और छोटे किसान परिवारों या भूमिहीन परिवारों की महिलाओं को लक्ष्य बनाया जा रहा है। जिला स्व-शक्ति योजना के संचालक अविनाश कुमार बताते हैं, ‘‘महिलाओं की सामाजिक और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बनाने के लिए और सामुदायिक संपतियां जैसे पेयजल, शौचालय और डे- केयर सेंटर बनाने जैसे कार्यों की जिम्मेदारी भी इन समूहों पर डाली जा रही है और महिलाएं इन्हें बखूबी निभा रही हैं’’। मैदापुर पंचायत यमुना शक्ति स्वयं सहायता समूह से जुड़ी सुनीता राय ग्रामीण महिलाओं को इंदिरा आवास योजना, वृद्दा पेंशन योजना और मातृत्व लाभ की जानकारी देती है। सैफुद्दीनपुर पंचायत के गांव इतबारपुर की अनीता देवी तीन कलस्टर संगम बेधा की अध्यक्ष है। इन तीन कलस्टरों में 18 समूह हैं। अनीता सभी समूहों के खाते और लेजर बुक लिखने का काम करती है। यहां के समूह की अधिकतर सदस्यों ने अपने बूते पर सामाजिक समस्याओं पर निर्णय लेकर उसे लागू करने की शुरआत भी कर दी है। ऐसे कई मामले देखने को मिल रहे हैं जहां गांव में होने वाले छोटे-मोटे झगड़ांे का निपटान समूह की मदद से किया गया हो। कासीरामपुर गांव के पार्वती शक्ति समूह की पूनम देवी ने अपने गांव में दूसरे के खेत में बकरी जाने से पैदा हुए झगड़े का निपटान सूमह के सदस्यों की मदद से किया। वह बताती है, ‘‘गांव की एक महिला की बकरी दूसरे के खेत में चली गई तो उस खेत के मालिक ने उसे अपनी बताकर महिला को थप्पड़ मारा। हमने कलस्टर समूह की बैठक बुलाई और फैसला किया कि आरोपी पुरूष महिला से माफी मांगे। महिलाओं की बैठक के बारे में सुनकर वह पुरूष घर से बाहर नहीं निकला और बाद में मैदापुर की 400 महिलाओं के सामने उसने गलती स्वीकार की।’’ मोतीपुर प्रखण्ड के जसौली गांव में दीपा समूह ने गांव में बच्चों के पढ़ने की समस्या को देखते हुए सूमह की सहायता से गांव में ‘स्व-शक्ति दीप बाल केंद्र’ स्कूल का निर्माण किया। कलस्टर की बैठक में दीपा समूह के सदस्यों ने गांव में स्कूल न होने की समस्या पर चर्चा की फिर अन्य चार समूहों की सहायता से स्कूल की शुरूआत हुई। समूह ने तय किया कि स्कूल के शि़़क्षक को वेतन देने के लिए प्रत्येक छात्र से 10 रूपए की फीस ली जाए। आज इस स्कूल में 45 से अधिक बच्चे पढ़ रहे हैं। इसी प्रकार अदिगोपालपुर पंचायत की जागृति समूह की अध्यक्ष शाहदुल्हन गांव में खुले स्कूल में निरक्षर महिलाओं को पढ़ाती है। इसके लिए गांव की पढ़ी लिखी महिलाओं की मदद भी ली जाती है। दिल्ली की प्रिया संस्था की मदद से एसएचजी की महिलाओं में नेतृत्व की भावना पैदा करने के लिए ‘सिटिजन लीडर’ नाम का कार्यक्रम तैयार किया गया है। इस कार्यक्रम के तहत महिलाओं की पंचायती राज में भागीदारी बढ़ाने के लिए उन्हें प्रेरित किया जाता है। इसके लिए विभिन्न समूहों की सबसे काबिल महिला को प्रेरक बनाया जाता है। इस कार्यक्रम को स्वशक्ति सोजना के तहत लागू किया जा रहा है। मुजफ्फरपुर जिला बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र है इसके 16 ब्लाकों मंे से 11 ब्लाक अक्सर बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। जिले की जनसंख्या का अधिकतर प्रतिशत जीविका के लिए कृषी पर निर्भर है इसलिए महिलाओं को खेती के उन्नत तकनीकों का प्रशिक्षण देने के लिए किसान क्लब बनाए जा रहे हैं। इन क्लबों में पुरूषों को भी सदस्य बनाया जा रहा है। मुजफ्फरपुर स्थित सेंटर फाॅर कम्युनिकेशन रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट अर्थात् संसर्ग संस्था इन क्लबों को गठित करने में मदद कर रहा है। क्लब के मकसद को स्पष्ट करते हुए वरूण कहते हैं,‘‘किसान क्लब के माध्यम से विभिन्न क्षेत्र के किसान कृषी के उन्नत तकनीक, आधुनिक यंत्रों का प्रयोग, मार्केटिंग और बैंक के साथ जुड़ाव आदि के तरीकों को मिल बैठकर तय करते हैं। इन क्लबों की मदद से खेती में महिलाओं और पुरूषों के संयुक्त प्रयास को बढ़ावा मिल रहा है। जिले में स्वयं सहायता समूहों के विस्तार और इसकी सफलता को देखते हुए अब इन समूहों का एक फेडरेशन बनाने की शुरूआत हो रही है। संसर्ग के जिला समन्वयक जितेंद्र प्रसाद सिंह के मुताबिक इस संगठन में गांव, पंचायत, ब्लाक और जिला स्तर के करीब 5000 समूहों को शामिल किया जाएगा। संगठन का मुख्य मकसद समूहों की बैंकों से लिकिंग बढ़ाना और और उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ प्रदान करना है। लोक सेवा संगठन के तहत इन समूहों को एकत्रित करने का मकसद समूहों को सशक्त बनाना और राष्ट्रीय स्तर पर इनकी पहचान कायम करना है। स्वयं सहायता समूहों ने गांव में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए गावों में युवा समूह बनाए हैं। जो गांवों में लोगों को गुटखा और पराग इस्तेमाल करने से रोकते हैं। किशोर लड़कियों के लिए संसर्ग ने किशोरी पंचायतें बनाई हैं। ये किशोरियां कम उमर की शादियों को रोकने में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। जिस बिहार की बात अक्सर पिछड़ेपन, गरीबी और भ्रष्टाचार के लिए की जाती है उसी बिहार के गावों की हजारों महिलाएं केवल विकास की बात करती या समझती हैं। स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से सबलता की मिसाल बनी ये सभी महिलाएं उन लाखों करोड़ो शहरी महिलाओं के लिए सबक हैं जिनका अधिकतर समय सास बहू के सीरियल देखने और उस पर चर्चा करने में बीतता है। बिहार की इन क्रंातिकारी महिलाओं को मिलने और उनकी घर गांव और समुदाय की जरूरतों के प्रति सजगता को जानने के बाद मेरा यह विश्वास और भी दढ़ हो गया है कि ये ग्रामीण महिलाएं उन मध्यवर्गीय पढ़ी लिखी शहरी महिलाओं से कहीं अधिक सबल हैं जो हर प्रकार के अधिकारों के प्रति जागरूक होने के बावजूद भी अपना एक फैसला खुद नहीं ले पातीं।

बदलाव की डगर पर

बज्जू राजस्थान

नीले रंग का घाघरा, चेाली और सिर को आगे तक ढकती लंबी चैढ़ी ओढ़नी, माथे पर बड़ा सा बोर (टीका), सफेद चूड़ियों से आधी से अधिक भरी दोनों बाजू। राजस्थान के छोटे से गांव बज्जू की 36 वर्शीय धापू बाई ने कभी सोचा भी न था कि निरंतर सूखे से जूझती उसकी जिंदगी में ऐसा बदलाव भी आएगा कि एक दिन देष की राजधानी में सभ्रांत लोगों, प्रेस और कैमरों की भीड़ में वह अपनी कला के लिए सराही जाएगी। सात लड़कियों, एक लड़के की मां धापू बाई का जीवन अभी तक खेती में मजदूरी करने या ढोर डंगर चराने में ही बीता। लेकिन पिछले कुछ सालों से राजस्थान में पड़ने वाले निरंतर सूखे ने जब उससे कमाई का यह साधन भी छीन लिया तो उसे अपने बच्चों को दो वक्त खाना खिलाने के भी लाले पड़ गए। इसी संकट के समय में उसका सहारा बना ‘उरमूल संगठन’। धापू कढ़ाई करना तो जानती थी लेकिन अपने अंदर छिपी इस कला को उभारने और उसका व्यावसायिक इस्तेमाल करने का अवसर दिया उरमूल ट्रस्ट ने। बीकानेर जिले के बज्जू क्षेत्र में इंदिरा गांधी नहर के पास बनी बस्तियों में रहने वाले अधिकतर घरों की महिलाएं यह काम कर रही हैं। 1971 में पाकिस्तान से भारत आए षरणार्थियों में कई परिवारों को इस क्षेत्र में रहने के लिए जमीन दी गई। इन परिवारों की महिलाएं जियोमेट्रिकल आकार में, कपड़े के एक एक धागे की गिनती के आधार पर कढ़ाई करने में पारगंत थी। लेकिन बाड़मेर, जैसलमेर और उसके बाद बीकानेर की यह कला केवल छोटे व्यापारियों में ही मान्य थी। कम मजदूरी, अनियमित काम के कारण महिलाओं को अपनी कला को निखारने का बहुत कम अवसर मिला। आखिर ‘उरमूल’ ने इन जरूरतों को पूरा करने के लिए कढ़ाई की ‘सीमांत-परियोजना’ षुरू की। कढ़ाई की पारंपरिक कला को नए-नए उत्पादों में इस्तेमाल करने के लिए महिलाओं को प्रोत्साहित किया गया। उनकी कला में और सुधार लाने के लिए प्रषिक्षण की वयवस्था की गई। कुषन कवर और बैग के अलावा विभिन्न प्रकार की साज-सजावट के उत्पादों पर भी कढ़ाई का इस्तेमाल षुरू किया गया। कला में रूचि रखने वाली अन्य महिलाओं को भी कढ़ाई का प्रषिक्षण दिया गया। बीच के दलाल को हटाकर ट्रस्ट ने इन महिलाओं को अपने उत्पादों की मार्किटिंग करने के लिए विभिन्न जगहों पर जाकर उन्हें प्रदर्षित करने का रास्ता दिखाया। दो एडी गांव की मनबी कढ़ाई करने वाली विभिन्न समूहों की ‘क्वालिटी कंट्रोलर’ है। भले ही बड़ी - बड़ी कंपनियों में नियुक्त ‘क्वालिटी कंट्रोलर’ की तरह उसके पास कोई बड़ी डिग्री नहीं। लेकिन पूरी तरह देहाती यह महिला कढ़ाई में सफाई कैसे बरतें और माल को दाग धब्बे रहित बनाए रखने की कला बखूबी जानती है। मनबी बताती है कि वह महिलाओं को धागा देने के अलावा अपने काम में सफाई कैसे बनाएं इसकी जानकारी देती है। मनबी इस काम के अलावा खेती और पषुपालन का काम भी करती है। उसे एक माह में पांच सौ से एक हजार रुपए के बीच की राषि मिलती है। इस समूचे कार्य की संयोजक राजकुमारी के मुताबिक कुष्नों, कुर्तों पर कढ़ाई करने वाली महिलाओं को काम के हिसाब से पैसा दिया जाता है। अधिकतर महिलाएं 35 से 40 रुपए एक दिन में कमा लेती हैं। काम भी केवल 2-3 घंटे ही करती हैं बाकी समय मे पषु चराने का काम करती है। कढ़ाई इत्यादि होने के बाद दर्जी इसकी सिलाई करते हैं। एक दर्जी को पांच कुर्तों के लिए 100 से 150 रुपए मिलते हैं। ‘उरमूल ग्रामीण स्वास्थ्य अनुसंधान और विकास ट्रस्ट’ ने 1986 में बीकानेर जिले के लूणकरणसर में अपना काम षुरू किया। भंयकर सूखे से त्रस्त महिलाओं को रोजी रोटी चलाने के लिए धागा कातने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसी के बाद बीकानेर जिले के अलावा जोधपुर जैसलमेर और सीकर जैसे जिलों में इस धागे के इस्तेमाल के लिए रोजगार अवसरों की षुरूआत हुई। एक समय में 500 से भी अधिक महिलाएं धागा कातने का काम कर रही थीं। लेकिन इस धागे को खरीदने के लिए खरीददार नहीं थे। धागे के इस्तेमाल के लिए जोधपुर जिले के फलौदी ब्लाक और जैसलमेर जिले के पोकरण ब्लाक के पारंपरिक बुनकर की मदद लेने की षुरूआत हुई। इस प्रयास ने ‘दलाल’ की ऊपर की निर्भरता को खत्म किया। दो सालों के अंदर बुनकरों ने मर्किटिंग, रंगने, स्टाक रखने और हिसाब किताब रखने में महारत हासिल कर ली। कला के विकास से मार्किट की मांग में भी विस्तार हुआ और इन लोगों को अपने ही समुदाय का लाभ बढ़ाने की इच्छा जागृत हुई। इसी इच्छा ने ‘उरमूल मरूस्थली बुनकर विकास समिति’ की स्थापना की दिषा दिखाई। पष्चिमी राजस्थान के ‘मेघवाल’ समुदाय के अधिकतर बुनकर इस समिति के सदस्य है। लंबे समय के उत्पीड़न ने इस जाति को सामाजिक और आर्थिक रूप से काफी कमजोर बना दिया था। लेकिन उरमूल समिति के कारण 170 परिवारों को सम्मान के साथ जीने का अवसर दिया। पारंपरिक डिजाईनों, रंगों और उत्पादों के निंरतर प्रदर्षन से अच्छा प्रोत्साहन मिला। अब समिति के 50 प्रतिषत उत्पादों का जापान और न्यूजीलैंड में निर्यात किया जाता है। अब किसी मेघवाल बुनकर को ‘बड़े आदमी’ के घर के सामने से निकलने के लिए अपने जूते उतारकर हाथों में नहीं पकड़ने पड़ते। लूणकरणसर जहां से इस कला की विकास की कहानी षुरू हुई थी, वर्श 1992 में बुनकरों, दर्जियों और कातनेवालों को स्थायी रोजगार प्रदान करने के लिए ‘वसुंधरा ग्रामोत्थान समिति’ बनाई गई। पारंपरिक बुनकरों की स्थिति भी काफी खराब थी। उनके पास कोई भी स्थायी रोजगार नहीं था। वसुंधरा ने उन लोगों को भी नए डिजाईन के पीढ़ा चारपाई और स्टूल बनाने का प्रषिक्षण दिया। अभी तक यहां षादी विवाह में इस्तेमाल किए जाने वाले पंारपरिक पीढ़े और स्टूल बनाने का प्रचलन था। लेकिन जल्द ही इन लोगों ने ऐसे फर्नीचर बनाने षुरू कर दिए जिसमें बुनाई का काम अधिक रहता है। फर्नीचर के अलावा महिलाओं और पुरूशों के लिए हाथ से बुनी उनी षाल और जैकेट भी बनने लगे। समिति के हस्तक्षेप की वजह से बुनकरों को अब बाजार की तलाष में भटकना नहीं पड़ता। वे समिति के प्रबंधकों केे जरिए फलोदी स्थित समिति के मुख्य कार्यालय से जुड़े हैं। जो इन्हें धागा डिजाइन और आर्डर सप्लाई करते हैं और हर महीने के आखिर में तैनात तैयार माल फलोदी लाते हैं। यहां दो दिन तक इसकी क्वालिटी की जांच की जाती है। खारिज माल की कीमत बुनकरों की सलाह से तय की जाती है। समिति ने बुनकरों का जीवन बीमा भी कर रखा है। साल के आखिर में समिति को जो लाभ होता है वह सभी बुनकरों में बोनस के रूप में बांटा जाता है। लबें समय से अभाव की जिंदगी जी रहे इन लोगों ने अपनी ही पारंपरिक कला में जीने के नए मायने ढूंढ लिए हैं। महिलाओं ने सूखे को अपनी नियती मानकर उसका रोना रोने और सरकारी सहायता की बाट जोहने की बजाय अपनी कला को महानगरों के संभ्रात घरों की षोभा बनाकर आर्थिक रूप से सबल होने का रास्ता ढूंढ लिया है। अन्नू आनंद एसोसिएट एडिटर ग्रासरूट ए-65 परवाना अर्पाटमेंटस मयूर विहार, फेज 1 एक्सटेंषन नई दिल्ली 110091

पेन और बैग रहित

अन्नू आनंद

(उदयपुर, राजस्थान )

दक्षिण राजस्थान के आदिवासी अचंल उदयपुर में स्थित सेंट्रल पब्लिक सीनियर सैकेण्डरी स्कूल (सीपीएम) की सांतवी कक्षा का अजीब नजारा था। कक्षा में मौजूद सभी 40 छात्र अपने-अपने कंप्यूटर पर भूगोल विशय के अध्याय ‘पृथ्वी और चट्टानों’ का अभ्यास कर रहे थे। इस अध्याय की पूरी जानकारी उन्हें कंप्यूटर स्क्रीन पर उपलब्ध थी। सभी छात्र-छात्राएं कंप्यूटर के माऊस से इस अध्याय के हर पहलू को जांचने और समझने में व्यस्त थे। बाहर से आने वाले किसी व्यक्ति को भी यह दृश्य देखकर भम्र होगा कि यह उनकी कंप्यूटर कक्षा चल रही है। लेकिन नहीं ये छात्र गणित से लेकर हिन्दी, सामाजिक ज्ञान जैसे अपने सभी विशय कंप्यूटर पर ही पढ़ते हैं। अन्य कक्षाओं का भी यही दृश्य था। है। नर्सरी के बच्चे भी कंप्यूटर पर उभरती तस्वीरों और आवाज के माध्यम से ए से ऐपल और एन्ट सीख रहे थे। स्क्रीन पर उभरते चित्रों को देखते ही बच्चे जोर से चिल्लाते। 1989 में षुरू हुआ यह 1200 छात्रों वाला पब्लिक स्कूल पहला पेन लेस (पेन रहित) और बैग रहित स्कूल बनने की राह पर है। यहां की प्रिंसीपल और संस्थापक अलका षर्मा ने स्कूल की षुरूआत के साथ ही यह सोचना षुरू कर दिया था कि किस प्रकार वह स्कूल के छात्रों को बस्ते के बोझ और पेन से मुक्ति दिलाए। इसके लिए उन्होंने कंप्यूटर को माध्यम बनाया क्योंकि उन्हे लगा कि आने वाले समय में कंप्यूटरीकृत षिक्षा प्रणाली में बेहद संभावनाएं हैं। इसी सोच ने उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। सबसे पहले नए साॅफ्टवेयर की मदद से सभी विशयों की विशयवस्तु को साॅफ्ट कापी यानि कंप्यूटर फार्म में बदला गया। किसी भी विशय के हर अध्याय को पहले एलसीडी और प्रोजेक्टर की मदद से पूरी कक्षा को पढ़ाया जाता है। विशय से संबंधित षिक्षक रिकार्डिड आवाज से अध्याय की पूरी जानकारी छात्रों को देते हैं फिर छात्र कंप्यूटर पर उसका अभ्यास करते हैं। होमवर्क और अभ्यास के लिए छात्रों को बारी-बारी घर पर कंप्यूटर भी दिया जाता है। स्कूल के कंप्यूटर विभाग के प्रमुख सुनील बाबेल के मुताबिक स्कूल का तकनीकी स्टाफ ‘करो करो’ जैसे र्कइं साॅफ्टवेयर की मदद से प्रष्नपत्र तैयार करता है। हर प्रष्न को चेक भी कंप्यूटरीकृत तरीके से ही किया जाता है और बच्चों को परिणाम भी तुरंत मिल जाता है। स्कूल की दूसरी से लेकर बारहंवी तक की सभी कक्षाओं के बच्चे स्कूल के इम्तहान कंप्यूटर पर देते है। अलका षर्मा के मुताबिक उनकी यह अभिलाशा है कि बारहंवी की परीक्षा भी कंप्यूटर पर हो लेकिन अभी माता-पिता इसके लिए तैयार नहीं फिर बोर्ड को भी इसके लिए तैयार होना होगा। लेकिन फिलहाल उनके स्कूल की हर कक्षा के 50 प्रतिषत इम्तहान कंप्यूटर पर ही लिए जा रहे हैं षेश 50 प्रतिषत पारंपरिक तरीके से। गत वर्श स्कूल को कंप्यूटर षिक्षा में उत्कृश्ट कार्य के लिए राश्ट्रपति अब्दुल कलाम ने स्कूल की प्रिंसीपल अलका षर्मा को द्वितीय कंप्यूटर उतमत्ता पुरस्कार 2003 प्रदान किया था। श्रीमती षर्मा बताती हैं कि ‘‘पहले जब मैं ‘पेन लेस’ स्कूल की बात करती थी जो लोगों को आष्चर्य होता था लेकिन अब मेरे सपने ने आकार लेना षुरू कर दिया है। इस पुरुस्कार के बाद बच्चों के माता पिता भी उत्साहित हैं और वे भी परीक्षाओं को पूरी तरह कंप्यूटरीकृत करने में साथ दे रहें हैं।’’ स्कूल के अधिकतर बच्चे कंप्यूटर माध्यम से षिक्षा प्राप्त करने से बेहद खुष और संतुश्ट थे। संातवी कक्षा के मयंक स्क्रीन पर चट्टानों के विभिनन आकारों को दिखाते हुए बताते हैं कि इससे किसी भी विशय को हर प्रकार से परखा जा सकता है और इससे अधिक व्यावहारिक जानकारी के साथ अपनी सृजनात्मकता दिखाने की गुंजाइष अधिक रहती हैं। इसी कक्षा की र्कीति जैन के मुताबिक,‘‘हम पाॅवर प्वांइट प्रेसन्टेषन बनाकर किसी भी मुष्किल विशय को सरल बना सकते हैं। अधिक समय तक कंप्यूटर पर कार्य करने वाले सभी बच्चों को यहां प्राणायाम योगा भी सिखाए जाते हैं। इसके अलावा एक्यूपे्रषर की भी सुविधा उपलब्ध है। हर कक्षा में एक कंप्यूटर मोबाइल ट्राली पर रखा गया है जिसे जरूरत के मुताबिक एक स्थान से दूसरे स्थान लेजाया जाता है। स्कूल की ई-लाइब्रेररी और वीडियो लाइब्रेररी में हर विशय से संबंधित जानकारी की अतिरिक्त सीडी उपलब्ध है। जैसा कि प्रिंसीपल का कहना है कि स्कूल पूरी तरह तैयार है अब जरूरत है सरकार से हरी झंडी मिलने का। षिक्षा विभाग की अनुमति के बाद ही हम इसे पूरी तरह कंप्यूटरीकृत बना अतिंम परीक्षाएं भी कंप्यूटर पर ले सकते हैं।

यह लेख ग्रासरूट में प्रकाशित हुआ है

आदिवासी बच्चों के भविष्य की उम्मीद

आदिवासी बच्चों के भविष्य की उम्मीद

अन्नू आनंद

(कठिवारा (झाबुआ) मध्य प्रदेश)

मध्य प्रदेश के आदिवासी जिले झाबुआ में कठिवाड़ा एक विषेश प्रकार का गांव है। कस्बों की गहमागहमी से दूर, विकास से अछूता यह गांव चारों तरफ से पहाड़ियों और जंगलों से घिरा है। सुबह छह बजे का समय है। चारों तरफ फैला सन्नाटे में अचानक प्रार्थना के स्वर गंूजने लगते हैं। यह आवाज बच्चों की है। आवाज की पीछा करने पर पता चलता है कि इस प्रार्थना के स्वर एक खुले से आश्रय के प्रागण में से आ रहे हैं। यहां खाकी निकर और सफेद कमीज पहने दो सौ के करीब बच्चे बंद आखों और जुड़े हाथों से प्रार्थना करने में तल्लीन थे। सुबह की प्रार्थना खत्म होते ही बच्चे टोलियों में बंट जाते हैं। एक टोली कमरे साफ करने लग जाती है। दूसरी रसोई में पड़े धान की सफाई और सब्जियां काटने में जुट जाती है एक अन्य टोली पौधों को पानी देने और बगीचे की साफ-सफाई कर रही है। ये युवा बच्चे अपने काम में इस तरह मग्न थे कि उन्हें इस बात का अहसास भी नहीं हुआ कि बाहर से आकर कोई अजनबी उनके बीच खड़े हैं। आदिवासी लड़कों में बचपन से ही अनुसासनबद्ध तरीके से सामूहिक नेतृत्व की भावना पैदा कर उन्हें अक्षर ज्ञान के अतिरिक्त जीवन के विभिन्न उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने का प्रषिक्षण देने वाला यह आश्रम है गुजरात राज्य की सीमा पर स्थित कट्ठिवाडा का ‘राजेंद्र आश्रम’। यह स्कूल आश्रम पद्धति के स्कूलों में अनूठी मिसाल है। क्योंकि यह स्कूल इन इलाकों के आदिवासी बच्चों को प्रषिक्षिति कर रहा है जिन के लिए सामान्य स्कूल भी कल्पना मात्र है। झाबुआ जिले की 87 फीसदी जनसंख्या आदिवासियों की है। इन में साक्षरता केवल 13 प्रतिषत है। ये आदिवासी सूदूर जंगलों में बसे हुए हैं। अधिकतर आदिवासियों का मुख्य धंधा खेतबाड़ी हैै। ये आदिवासी सामूहिक बस्तियों में न रह कर अलग टप्पर बना कर निवास करते हैं। इस तरह हर गांव अलग-अलग फलियों (मोहल्लों) में बंटा प्रषासन द्वारा हर गांव में स्कूल का प्रावधान है। लेकिन अधिकतर स्कूल कागजों पर चल रहे हैं। इस की एक वजह यह भी है कि इन सूदूर बस्तियों में षिक्षक आना नहीं चाहते। जिन की नियुक्ति होती भी है तो वे लंबे अवकाष पर चले जाते हैं। इसलिए इन गांवों के सरकारी स्कूल या तो बंद पड़े रहते हैं या षिक्षकों की अनुपस्थिति में बच्चे आना बंद कर देते हैं। अषिक्षा, अज्ञानता और विकास से दूर अधिकतर आदिवासी षराब पीकर अपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं। जिस का असर बच्चों पर भी पड़ता है। इस लिए यहां आर्थिक सामाजिक सुधार के लिए केवल किताबी षिक्षा ही नहीं पर्याप्त बहुमुखी प्रसिक्षण की जरूरत है। राजेंद्र आश्रम इस दिषा में मील की पत्थर कहा जा सकता है। यहां बच्चे छात्रावास में रह कर कृशि, बागवानी, सामाजिक वानिकी के साथ-साथ छोटे मोटे उद्योगों का प्रषिक्षण भी प्राप्त करते हैं। यहां इस समय छात्रावास में रह कर 250 के करीब लड़के षिक्षा पा रहे हैं। आदिवासियों के जीवन की जरूरतों को ध्यान में रख कर विभिन्न क्रियाकलापों में प्रषिक्षण का प्रावधान रखा गया है। आदिवासी बच्चे आश्रम में रह कर अपने मूल पेषे खेती से दूर न हो जांए इस के लिए आश्रम में 25 एकड़ की ज़मीन पर बेहतर तकनीक से फसल उगाने, बागवानी, सामाजिक वानिकी, पषुपालन इत्यादि का व्यावहारिक प्रषिक्षण दिया जाता है। आश्रम में ही ‘राजेंद्र फ्लोर’ मिल (आटा चक्की) पर छात्र चक्की चलाने का काम सीखते हैं। इस के अलावा छोटे मोटे दूसरे गृह उद्योगों की षिक्षा दी जाती है। पषु पालन कार्य की षिक्षा के लिए मधुबन गोषाला है। सुबह की दिनचर्या सुबह पांच बजे से षुरू होती है। आधे घंटे के स्वाध्याय के बाद छह बजे प्रार्थना होती है। उस के बाद विभिन्न टोलियां अपनी-अपनी ड्यूटी का निर्धारित काम करती हैं। इसके लिए सफाई, कृशि, बगीचा, रसोई, संडास और सामान्य टोलियां बनी हुई हैं। हर टोली का एक नायक और एक उपनायक है। जो काम का संचालन करने के साथ-साथ षाम को प्रार्थना के समय समूचे दिन की रिपोर्ट पेष कर करता है। हर सप्ताह इन टोलियों का कार्य बदल जाता है। आठ बजे के करीब सभी बच्चे एक साथ बैठ कर दलिया, मूंग या पोहे इत्यादि का नाष्ता करते हैं। नाष्ते के बाद का समय होम वर्क का होता है। फिर नहाना धोना। साढ़े दस बजे भोजन। और साढ़े ग्यारह से साढ़े चार बजे तक का समय स्कूल। पांच से छह बजे का समय खेल कूद का रहता है। षाम सात-साढ़े सात बजे सर्वधर्म प्रार्थना। प्रार्थना के बाद एक षिक्षक कहानी के माध्यम से कोई नया विचार बच्चों को बताताहै। फिर रात के खाने के बाद छात्र ढोलक, हारमोनियम इत्यादि वाद यंत्रों के साथ संगीत का अभ्यास करते हैं। स्कूल का काम खत्म करने के बाद दस बजे का समय सोने का होता है। रविवार और अवकाष के दिनों में खेती बाड़ी और कटाई बुआई के अलावा दूसरे गृह उद्योगों के कार्य सिखाए जाते हैं। रोजा गांव तहसील अलिराजपुर का रहने वाला छठी कक्षा का छात्र अरविंद की आज ड्यूटी अपनी टोली के साथ सब को खाना परोसने की है। परोसने के बाद वह खाना खाते हुए बताता है कि उसे यहां रहना बहुत अच्छा लगता है। घर में तीन भाई बहन हैं। भाई भी इसी आश्रम में पढ़ता है। वह केवल दीवाली के दिन घर जाता है। अरविंद बड़ा होकर इंस्पेक्टर बनना चाहता है। पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले चांदपुर गांव के सुरेष (परिवर्तित नाम) ने बताया कि उस के मां-बाप नहीं। उस के घर में भाई बहन काका हैं लेकिन उसे आश्रम में रहना पंसद है। उसे पढ़ने का खास षौक है। आश्रम की षिक्षिका सुमित्रा वाखला के मुताबिक सुरेष के पिता हत्या के जुर्म में जेल में हैं। मां ने बच्चों को छोड़ कर दूसरी जगह षादी कर ली। तब से वह आश्रम में रह कर अपनी पढ़ाई कर रहा है। सुरेष बड़ा होकर पुलिस में भर्ती होना चाहता है। ताकि गांव को अपराधों से मुक्त कर सके। नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले योगेंद्र भिंडे के माता-पिता उस की छोटी उमर में ही किसी बीमारी में चल बसे। जब वह पांच साल का था उसे उसके काका आश्रम में लाए थे। इसी आश्रम में उसे मां की ममता और पिता का प्यार मिला। आज वह आश्रम में रहते हुए खुष है। वह बड़ा होकर डाक्टर बनना चाहता है। छात्र अवकाष के दिन आसपास के गांवों में आदिवासियों को प्रषासनिक योजनाओं की जानकारी देने दूसरे जन जागृति के अभियान में भी हिस्सा लेते हैं। प्रधानाध्यापक नाहर सिंह वाखला के मुताबिक जब ये छात्र अपने फलियों में जाकर ताड़ी और षराब पीने के खिलाफ अभियान चलाते हैं तो भले ही उन के अभियान का कोई प्रभाव पड़े या न पड़े लेकिन यह आषा जरूर बंधती है कि बड़े होकर ये बच्चे षराब या ताड़ी को नहीं छुएंगे। इस तरह आने वाली पीढ़ी का आदिवासी समाज जरूर षराबबंदी को मानेगा। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से यहां के छात्र आदिवासी समाज में फैली रूढ़िवादिता और कुरीतियों पर प्रहार करते हैं। तीन से पांचवीं की करीब 150 लड़कियों के लिए अलग कन्या छात्रावास और कन्या विद्यालय भी है। तीन से पांच साल तक के बच्चों के लिए बालवाड़ी भी संचालित की जा रही है। सूदूर आदिवासी क्षेत्र में बहुमुखी प्रतिभा का विकास करने वाले इस आश्रम की षुरूआत की कहानी भी रोचक है। राजेंद्र आश्रम की स्थापना गुजरात के प्रसिद्ध समाज सेवी चुन्नीलाल महाराज ने नवंबर 1962 में की थी। चुन्नीलाल लंबे समय से कच्छ क्षेत्र में समाज सेवा का काम करते रहे। जब उन को झाबुआ के आदिवासियों के पिछड़ेपन की जानकारी मिली तो वे इस इलाके में आए। यहां आदिवासियों में काम करने के बाद वे कट्ठीवाड़ा आए। कट्ठीवाड़ा रियासत के महाराज से उन्होंने बच्चों के लिए एक आश्रम की षुरूआत करने के लिए ज़मीन मांगी। उस समय के रियासत महाराज ओंकार सिंह ने ज़मीन देने के लिए एक षर्त रखी। उन्होंने चुन्नीलाल जी से कहा कि वे पंद्रह मिनट की समयावधि में नदी के किनारे की जितनी ज़मीन दौड़ कर कवर की महाराज ने उसी समय वे आश्रम के लिए स्थानांतरित कर दी। तब दस बच्चों से इस आश्रम की षुरूआत हुई। बाद में बिल्ंिडग का निर्माण 1987 में हुआ। आज यह आश्रम मध्य प्रदेष के आदिम जाति कल्याण विभाग की ओर से मिलने वाले अनुदान पर चल रहा है। हर बच्चे पर 300 रुपए प्रति मासिक और षिक्षकों और अन्य कर्मचारियों का वेतन। लेकिन यहां के षिक्षक केंद्रीय वेतनमान के मुताबिक वेतन न मिलने की वजह से असंतुश्ट हैं। वेतन भी छह माह नौ माह और बाहर माह की तीन किष्तों मे मिलता है। आदिवासियों तक षिक्षा का ज्ञान पहुंचाने में विषेश व्याकुल रहने वाली सरकार की यह नीति दूरस्थ आदिवासी इलाकों में कार्यरत षिक्षण संस्थाओं के याथ भेदभाव के रवैये को उजागर करती है। जब कि आदिवासी इलाकों के बच्चों में किताबी ज्ञान के अलावा अच्छे संस्कारों का विकास करने और बहुआयामी प्रषिक्षण प्रदान करने वाले राजेंद्र आश्रम जैसी संस्थाओं को विषेश प्रोत्साहित करने की जरूरत है। (ग्रासरूट फीचर्स)

जंग अभी भी जारी है

अन्नू आनंद
आजादी के राष्ट्रीय संघर्ष में महिलाओं की भूमिका केवल अहिंसक सत्याग्रह आंदोलन तक सीमित नहीं थी उन्होंने उस दौरान भी हथियारबंद क्रांति और समाजिक परिवर्तन में बढ-चढ़ कर हिस्सा लिया था। स्वदेशी आंदोलन में डा। सरोजिनी नायडू, श्रीमती उर्मिला देवी, दुर्गाबाई देशमुख और मद्रास की श्रीमती एस अम्बुजा और कृष्णाबाई रामदास का नाम आता है तो लतिका घोष (महिला राष्ट्रीय संघ), वीणा दास, कमला दास गुप्ता, कल्याणी दास और सुर्या सेन जैसी महिलाओं की कमी नहीं जो क्रांतिकारी समूहों का हिस्सा बनीं। इसके अलावा राष्ट्रीयकार्यकर्ता एनी बेसेंट, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, राजकुमारी अमृतकौर, बेगम हामिद अली, रेणुका रे आदि ने महिलाआंे के उत्थान के लिए काम किया। देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाली महिलाओं की फेहरिस्त काफी प्रभावी है ओर ये महिलाएं केवल आजादी की खातिर नहीं बल्कि महिलाओं के हितों को प्रोत्साहित करने के लिए भी संघर्ष कर रहीं थीं। आजादी के 60 वर्ष बाद आज भी महिलाएं खासकर ग्रामीण और समाज के निचले स्तर की महिलाएं देश के दूर-दराज के इलाकों में हर स्तर पर अपने हक के लिए हर चुनौती का सामना कर रही हैं। अपने मकसद को हासिल करने और समाज में अपनी पहचान कायम करने के लिए वह पूरे दम खम के साथ संघर्षरत है। लड़ाई अपने आत्मसम्मान की हो या आर्थिक संबलता की। सामाजिक न्याय की हो या फिर शासकीय सत्ता में अपनी क्षमता साबित करने की। गरीब, अनपढ़ और पिछड़े समाज की महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि वे किसी की गुलामी और अन्याय को अब सहन नहीं करेंगी। उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाके बुंदेलखंड में इन दिनों ‘गुलाबी गिरोह’ नामक पांच सौ महिलाओं के एक समूह ने क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़कर प्रशासन की नींद उड़ा दी है। वर्ष 2006 में बना यह गिरोह मुख्यतः भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ रहा है। गिरोह उन सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन न होने पर ध्यान केंद्रित करता है जो सरकार ने कमजोर और गरीब वर्गों के लिए बनाई जाती हैं। भ्रष्टाचार के चलते इन सरकारी योजनाओं का गरीबों को लाभ नहीं मिल रहा। गुलाबी गिरोह की मुखिया एक गरीब और अर्धशिक्षित 45 वर्षीया संपत देवी पाल है। इस गिरोह को बांदा और चित्रकूट जिले में कोटे का राशन काला बाजार में पहुंचने से रोकने में सबसे बड़ी उपलब्धि हासिल हुई है। इन जिलों का अभी तक 70 फीसदी राशन काला बाजार में पहुंच जाता था। कुछ लोग संपत देवी की तुलना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से करते हैं। इस गिरोह की समर्थक महिलाओं की संख्या दस हजार से कम नहीं है। अपने सदस्यों को अलग पहचान देने के लिए गिरोह ने एक ही रंग के कपड़े पहनना तय किया। गुलाबी रंग, क्योंकि किसी भी राजनैतिक पार्टी से जुड़ा नहीं इसलिए गिरोह इस रंग का इस्तेमाल करता है। भारतीय दंड संहिता के तहत इस गिरोह पर गैरकानूनी सभा, दंगा, सरकारी अधिकारी पर हमला और सरकारी कर्मचारियों का अपना काम करने से रोकने के आरोप लग चुके है। लेकिन स्थानीय स्तर पर ‘गुलाबी गिरोह’ को मिल रहे भारी समर्थन और उनकी मजबूत इच्छा शक्ति के चलते उन पर अकुंश लगाना संभव नहीं होगा। गिरोह की मुखिया संपत देवी कहती है, ‘‘देश ऐसे ही थोड़े ही आजाद हुआ है। अरे जान तो एक बार जाएगी। दस खलनायक हमें परेशान करे तो क्या पूरा बंुदेलखंड हमारे साथ है।’’ देश के करीब सभी राज्यों में महिलाओं ने स्वयं सहायता समूहों के जरिए छोटी-छोटी बचतों से आर्थिक आत्मनिर्भरता की एक क्रांति खड़ी कर दी है। महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाने में स्वयं सहायता समूह पूरे देश में सक्रिय है। देश के पिछड़े राज्यों में से एक माने जाने वाले छत्तीसगढ़ गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली दस लाख से भी अधिक आदिवासी, दलित तथा अन्य पिछड़े वर्गों की महिलाएं, 76 हजार स्वयं सहायता समूहों की सदस्य हैं और इन सभी समूहों की कुल मिलाकर परिसंपत्तियां 13 करोड़ रुपए से भी अधिक है। आमतौर पर ये अनपढ़ महिलाएं, खदानें, मछली का कारोबार, खेतिहर जमीनों और साप्ताहिक हाट बाजार चला रही हैं। इन्हीं बाजारों में आदिवासियों के सभी बड़े आर्थिक कारोबार चलते हंै। कोई भी चुनौती उनके लिए मुश्किल नहीं रही है। चूना पत्थर और पत्थर की खदानों के ठेकों का काम यहां अभी तक पुरुष किया करते थे लेकिन अब महिलाओं ने इस क्षेत्र में भी दखल बना लिया है और वे विशाल निर्माण प्रोजेक्टों के भी ठेके ले रही हैं। राजनांद गांव में ‘मां बम्बलेश्वरी’ स्वयं सहायता समूह की तेजतर्रार सुकुलाया का कहना है, ‘‘बाजार चलाने के शुरूआती चार महीनों में ही हमने न केवल बैंक से उधार ली कुल राशि में से 35 हजार रुपए लौटा दिए बल्कि मुनाफा कमाने में भी हम कामयाब रहे। यहां की महिलाओं का सबसे अधिक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट चार साल पहले चार हजार एकड़ से भी अधिक जमीन पर फसल उगाने के लिए पांच लाख रुपए की बोली लगाना था। पहले तो भारतीय स्टेट बैंक के अधिकारियों ने भी इतना बड़ा कर्जा देने से इंकार कर दिया लेकिन बाद में महिलाओं ने जब संगठित होकर दबाव बनाया तो उन्हें कर्जा मिल गया। इस महत्वाकांक्षी परियोजना में उन्हें न केवल सफलता मिली, बल्कि इन्होंने अपने सदस्यों को अपने गांव में चावल बैंक बनाने के लिए राजी किया और शर्त यह रखी कि स्थानीय व्यापारियों को अपनी फसल बेचने से पहले वे अपनी जरूरतों के लिए इन बैंकों में बफर स्टाक बनाएंगे। इसी प्रकार देश के सात अन्य राज्यों में ‘स्वशक्ति’ स्वयं सहायता समूह के जरिए महिलाओं की ऋण पर निर्भरता कम हो रही है। बिहार में स्वशक्ति आंदोलन का रूप ले चुका है। यहां के मुज्जफरपुर जिले की महिलाएं इस ‘स्वशक्ति’ समूहों के जरिए बचत और आमदनी के कार्यकलापों के अलावा विकास संबंधी सरकारी योजनाओं और पंचायती राज की जानकारियां हासिल कर सामुदायिक स्तर की जरूरतें पूरी करने के निर्णयों में भागीदार बन रही हैं। स्वशक्ति स्वयं सहायता समूह की सदस्य बनकर वे स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बनाने और सामुदायिक संपत्तियों जैसे पेयजल, शौचालय और डे-केयर जैसे केंद्र बनाने जैसे कार्यों की जिम्मेदारी संभाल रही हैं। जम्मू कश्मीर में महिलाओं ने आंतकवादियांे से अपनी रक्षा की खातिर हथियार उठा लिए हैं। जम्मू कश्मीर की हिलकाका पवर्तमाला में आतंकवादियों से लड़ने के लिए महिलाओं ने ‘‘आवामी फौज’’ नामक दल का गठन किया है। मार्च 2004 में मुस्लिम महिलाओं का रक्षा दल बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाली मुनीरा बेगम के मुताबिक आतंकवादी हमें शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं। वे हमें खाने-ठहरने की सुविधा देने के लिए मजबूर करते हैं। जब महिलाओं ने विरोध किया तो उनके साथ बलात्कार हुआ या उन्हें बदनाम किया गया उनके परिवार के सदस्यों की हत्या कर दी गई। इसका एक ही तरीका था कि हम यह सीख लें कि बंदूकों और हथगोलों से अपनी रक्षा कैसे की जाए।’’ हर महीने ये महिलाएं सेना के पास के शिविर में हथियारों की संभाल रखने और शूटिंग का प्रशिक्षण लेने के लिए जाती हैं। नब्बे के दशक में उत्तरांचल से निकला महिलाओं का शराब विरोधी आंदोलन अब झारखंड से लेकर मध्य प्रदेश तक पहुंच चुका है। झारखंड के पेसरा बड़ीयारी गांव में कुछ समय पहले तक उतने घर नहीं थे जितनी शराब की दुकानें। यहां भी महिलाएं अपने आदमियों की नशाखोरी की आदत और इसके कारण बर्बाद होते घरों को लेकर अरसे से परेशान थीं। आज गांव में एक भी ऐसी दुकान नहीं है। यहां की दलित महिलाओं ने शराबखोरी के खिलाफ प्रदर्शन और दुकानों की तोड़फोड़ कर पुरुषों को धमकाने का काम किया। झारखंड के गिरिडीह जिले के नौ गांवों में यही कहानी दुहराई गई है। गांव से हटकर मध्य प्रदेश की शहरी इलकों में भी महिलाओं ने शराब की सैकड़ों दुकानों को बंद करने का काम किया। खासकर आदिवासी इलाकों में यह आंदोलन और भी जोर पकड़ता जा रहा है। कुछ समय पहले उड़ीसा की आदिवासी महिलाओं ने शराब बनाने और बेचने पर रोक की मांग करते हुए आंदोलन किया था। आंध्र प्रदेश में औरतों ने शराबबंदी की मांग को लेकर लाखों लीटर अर्क नष्ट कर दिया था। हरियाणा के मोहम्मदपुरा माजरा गांव में उन्होंने आंदोलन चलाते हुए यह धमकी दी थी कि अगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ठेके नहीं हटाए गए तो वे शराबियों को पीटेंगी। विदेशी हुकूमतों से भले ही आजादी मिल गई हो लेकिन आतंकवाद और समाज में पनप रही विभेदकारी ताकतों के खिलाफ महिलाओं की लड़ाई अभी भी जारी है।
यह लेख अमर उजाला में मार्च 2007 में प्रकाशित हुआ है

Monday 7 December 2009

बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार की खातिर

अन्नू आनंद
पिछले दिनों महिला बाल विकास मंत्रालय ने कुपोषण पर काबू पाने के लिए कई कार्यक्रमों का आयोजन किया। इसके लिए मीडिया में बड़े-बड़े विज्ञापनों के माध्यम से बच्चों को स्वस्थ बनाने के लिए शुरू की गई योजनाओं का प्रचार किया गया। महिला बाल विकास मंत्री ने कुपोषण पर काबू पाने के लिए किशोरियों के लिए राजीव गांधी ‘सबला’ योजना और इंंिदरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना शुरू करने भी घोषणा की। इस मौके पर लंबे अरसे से बच्चों को उचित पोषण प्रदान करने के लिए चल रही एकीकृत बाल विकास योजना सप्ताह भी मनाया गया। इन आयोजनों के मात्र एक सप्ताह के बाद यूनीसेफ ने विश्व के बच्चों की स्थिति पर रिपोर्ट में बताया कि भारत में प्रतिदिन पांच साल से कम आयु के पांच हजार बच्चे मर रहे हैं। यह शर्मनाक आंकड़ा चैंक्काने के साथ बच्चों के प्रति सरकार की नीतियों की पोल खोलता है। एक दिन मे पांच हजार बच्चों की मौत महज सोचने का ही नहीं गहन समीक्षा का विषय है। हमारे देश में बच्चों के पोषण से जुड़ी सबसे बड़ी योजना एकीकृत बाल विकास सेवाएं 1975 से चल रही हैं। पिछले 34 सालों में कई बार इस योजना का विस्तार कर उसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने की नीतियां बनी। लेकिन आज भी लक्षित लोगों को इसका लाभ नहीं मिल रहा। योजना का मुख्य फोकस अनुसुचित जाति और जनजाति होने के बावजूद अभी भी कुपोषण के कारण मरने वाले दलित और आदिवासी बच्चों की संख्या अधिक है। कुछ समय पहले केंद्र सरकार ने योजना के बजट में चार गुणा बढ़ोतरी की थी। लेकिन फिर भी स्थिति यह है कि अभी भी विश्व के एक तिहाई कुपोषित बच्चे भारत में है। 6500 करोड़ से भी अधिक का बजट, लंबी अवधि तथा कईं संशोधनों के बावजूद यदि एकीकृत बाल विकास सेवाएं जरूरतमंद बच्चों तक नहीं पहुंच रही तो सुराख इन सेवाओं के अमलीकरण में है।। योजना के तहत देश के सभी जरूरतमंद बच्चों तक पोषित भोजन पहुंचाने के लिए चार लाख के करीब आगनवाड़ियां बनाई गई हैं। लेकिन दूरदराज के गांवों में कई आंगनवाड़ियंा ऐसी जगह स्थित हैं जहां नवजात शिशुओं या गर्भवती माओं के लिए पहुंचना संभव नहीं। अधिकतर आंगनवाड़ियो में कार्यकर्ताओं की भारी कमी है। मिनी आंगनवाड़ी में एक और बड़ी में दो कार्यकर्ताओं को रखने का प्रावधान है। इस लेखिका ने पिछले साल राजस्थान, छतीसगढ़,झारख्ंाड के दूरदराज के इलाकों में स्थित कईं आंगनवाड़ियों के दौरे में पाया कि कार्यकर्ताओं की कमी के चलते बहुत से जरूरतमंद बच्चों को पोषित भोजन नहीं मिल पा रहा। थ्जन आंगनवाड़ियों में कार्यकर्ता मौजूद हैं वहां भी उनके पास महिलाओं को फोलिक एसिड, नवजात शिशुओं को विटामिन और पोषित आहार देने के अलावा मिड डे मील में सहायता करने और अन्य सरकारी कामों को बोझ इतना अधिक है कि वे चाह कर भी लक्षित बच्चों तक नहीं पहुंच पातीं। लेकिन जमीनी हकीकत से अनजान मंत्री महोदया ने बालदिवस पर जिन दो नई योजनाओ की घोषणा की उसको लागू करने का काम भी आंगनवाड़ियों को ही सौंपा है। यही नहीं पिछले दिनों उन्होंने राज्य सरकारों को आंगनवाड़ियों मंे गर्म खाना और एक से अधिक बार खाना देने की हिदायत भी दी है। पहले से ही विभिन्न सरकारी मंत्रालयों की योजनाओं को पूरा करने के कामों में जुटे कार्यकर्ताओं पर और योजनाओं का बोझ लादना क्या उचित है? मंत्री महोदया का तर्क है कि हाल ही में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताआंे के मेहनताने में बढ़ोतरी की गई है ताकि वे बच्चों के प्रति अधिक समर्पित भाव से कार्य कर सकें। लेकिन वेतन की बढ़ोतरी क्या उनके बहुउद्देश्यीय कार्य बोझ को कम कर पाएगा ताकि वे लक्षित बच्चे तक पहुंचने के लिए अधिक समय निकाल सकें। कार्यकर्ताओं की कमी, आंगनवाड़ियों की जर्जर स्थिति और सेवाओं को लागू करने की बुनियादी जरूरतों की तरफ ध्यान देना नई योजनाएं लागू करने से भी अधिक अहम है। कुपोषित बच्चों के स्वास्थ्य को सुधारने में वांछित परिणामों को हासिल करने के लिए एकीकृत बाल विकास जैसी पुरानी योजना के गहन मूल्यांकन के अलावा सोशल आॅडिट करा यह जानना अधिक जरूरी है कि खामियां कहां है। इस आॅडिट से सरकार को जमीनी स्तर पर अमलीकरण के कई नए सबक मिलेंगे। केवल योजनाओं का उत्सव मनाकर बच्चों का स्वास्थ्य नहीं सुधारा जा सकता।
(यह लेख 4 दिसंबर 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है)