Monday, 14 December 2009

आदिवासी बच्चों के भविष्य की उम्मीद

आदिवासी बच्चों के भविष्य की उम्मीद

अन्नू आनंद

(कठिवारा (झाबुआ) मध्य प्रदेश)

मध्य प्रदेश के आदिवासी जिले झाबुआ में कठिवाड़ा एक विषेश प्रकार का गांव है। कस्बों की गहमागहमी से दूर, विकास से अछूता यह गांव चारों तरफ से पहाड़ियों और जंगलों से घिरा है। सुबह छह बजे का समय है। चारों तरफ फैला सन्नाटे में अचानक प्रार्थना के स्वर गंूजने लगते हैं। यह आवाज बच्चों की है। आवाज की पीछा करने पर पता चलता है कि इस प्रार्थना के स्वर एक खुले से आश्रय के प्रागण में से आ रहे हैं। यहां खाकी निकर और सफेद कमीज पहने दो सौ के करीब बच्चे बंद आखों और जुड़े हाथों से प्रार्थना करने में तल्लीन थे। सुबह की प्रार्थना खत्म होते ही बच्चे टोलियों में बंट जाते हैं। एक टोली कमरे साफ करने लग जाती है। दूसरी रसोई में पड़े धान की सफाई और सब्जियां काटने में जुट जाती है एक अन्य टोली पौधों को पानी देने और बगीचे की साफ-सफाई कर रही है। ये युवा बच्चे अपने काम में इस तरह मग्न थे कि उन्हें इस बात का अहसास भी नहीं हुआ कि बाहर से आकर कोई अजनबी उनके बीच खड़े हैं। आदिवासी लड़कों में बचपन से ही अनुसासनबद्ध तरीके से सामूहिक नेतृत्व की भावना पैदा कर उन्हें अक्षर ज्ञान के अतिरिक्त जीवन के विभिन्न उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने का प्रषिक्षण देने वाला यह आश्रम है गुजरात राज्य की सीमा पर स्थित कट्ठिवाडा का ‘राजेंद्र आश्रम’। यह स्कूल आश्रम पद्धति के स्कूलों में अनूठी मिसाल है। क्योंकि यह स्कूल इन इलाकों के आदिवासी बच्चों को प्रषिक्षिति कर रहा है जिन के लिए सामान्य स्कूल भी कल्पना मात्र है। झाबुआ जिले की 87 फीसदी जनसंख्या आदिवासियों की है। इन में साक्षरता केवल 13 प्रतिषत है। ये आदिवासी सूदूर जंगलों में बसे हुए हैं। अधिकतर आदिवासियों का मुख्य धंधा खेतबाड़ी हैै। ये आदिवासी सामूहिक बस्तियों में न रह कर अलग टप्पर बना कर निवास करते हैं। इस तरह हर गांव अलग-अलग फलियों (मोहल्लों) में बंटा प्रषासन द्वारा हर गांव में स्कूल का प्रावधान है। लेकिन अधिकतर स्कूल कागजों पर चल रहे हैं। इस की एक वजह यह भी है कि इन सूदूर बस्तियों में षिक्षक आना नहीं चाहते। जिन की नियुक्ति होती भी है तो वे लंबे अवकाष पर चले जाते हैं। इसलिए इन गांवों के सरकारी स्कूल या तो बंद पड़े रहते हैं या षिक्षकों की अनुपस्थिति में बच्चे आना बंद कर देते हैं। अषिक्षा, अज्ञानता और विकास से दूर अधिकतर आदिवासी षराब पीकर अपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं। जिस का असर बच्चों पर भी पड़ता है। इस लिए यहां आर्थिक सामाजिक सुधार के लिए केवल किताबी षिक्षा ही नहीं पर्याप्त बहुमुखी प्रसिक्षण की जरूरत है। राजेंद्र आश्रम इस दिषा में मील की पत्थर कहा जा सकता है। यहां बच्चे छात्रावास में रह कर कृशि, बागवानी, सामाजिक वानिकी के साथ-साथ छोटे मोटे उद्योगों का प्रषिक्षण भी प्राप्त करते हैं। यहां इस समय छात्रावास में रह कर 250 के करीब लड़के षिक्षा पा रहे हैं। आदिवासियों के जीवन की जरूरतों को ध्यान में रख कर विभिन्न क्रियाकलापों में प्रषिक्षण का प्रावधान रखा गया है। आदिवासी बच्चे आश्रम में रह कर अपने मूल पेषे खेती से दूर न हो जांए इस के लिए आश्रम में 25 एकड़ की ज़मीन पर बेहतर तकनीक से फसल उगाने, बागवानी, सामाजिक वानिकी, पषुपालन इत्यादि का व्यावहारिक प्रषिक्षण दिया जाता है। आश्रम में ही ‘राजेंद्र फ्लोर’ मिल (आटा चक्की) पर छात्र चक्की चलाने का काम सीखते हैं। इस के अलावा छोटे मोटे दूसरे गृह उद्योगों की षिक्षा दी जाती है। पषु पालन कार्य की षिक्षा के लिए मधुबन गोषाला है। सुबह की दिनचर्या सुबह पांच बजे से षुरू होती है। आधे घंटे के स्वाध्याय के बाद छह बजे प्रार्थना होती है। उस के बाद विभिन्न टोलियां अपनी-अपनी ड्यूटी का निर्धारित काम करती हैं। इसके लिए सफाई, कृशि, बगीचा, रसोई, संडास और सामान्य टोलियां बनी हुई हैं। हर टोली का एक नायक और एक उपनायक है। जो काम का संचालन करने के साथ-साथ षाम को प्रार्थना के समय समूचे दिन की रिपोर्ट पेष कर करता है। हर सप्ताह इन टोलियों का कार्य बदल जाता है। आठ बजे के करीब सभी बच्चे एक साथ बैठ कर दलिया, मूंग या पोहे इत्यादि का नाष्ता करते हैं। नाष्ते के बाद का समय होम वर्क का होता है। फिर नहाना धोना। साढ़े दस बजे भोजन। और साढ़े ग्यारह से साढ़े चार बजे तक का समय स्कूल। पांच से छह बजे का समय खेल कूद का रहता है। षाम सात-साढ़े सात बजे सर्वधर्म प्रार्थना। प्रार्थना के बाद एक षिक्षक कहानी के माध्यम से कोई नया विचार बच्चों को बताताहै। फिर रात के खाने के बाद छात्र ढोलक, हारमोनियम इत्यादि वाद यंत्रों के साथ संगीत का अभ्यास करते हैं। स्कूल का काम खत्म करने के बाद दस बजे का समय सोने का होता है। रविवार और अवकाष के दिनों में खेती बाड़ी और कटाई बुआई के अलावा दूसरे गृह उद्योगों के कार्य सिखाए जाते हैं। रोजा गांव तहसील अलिराजपुर का रहने वाला छठी कक्षा का छात्र अरविंद की आज ड्यूटी अपनी टोली के साथ सब को खाना परोसने की है। परोसने के बाद वह खाना खाते हुए बताता है कि उसे यहां रहना बहुत अच्छा लगता है। घर में तीन भाई बहन हैं। भाई भी इसी आश्रम में पढ़ता है। वह केवल दीवाली के दिन घर जाता है। अरविंद बड़ा होकर इंस्पेक्टर बनना चाहता है। पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले चांदपुर गांव के सुरेष (परिवर्तित नाम) ने बताया कि उस के मां-बाप नहीं। उस के घर में भाई बहन काका हैं लेकिन उसे आश्रम में रहना पंसद है। उसे पढ़ने का खास षौक है। आश्रम की षिक्षिका सुमित्रा वाखला के मुताबिक सुरेष के पिता हत्या के जुर्म में जेल में हैं। मां ने बच्चों को छोड़ कर दूसरी जगह षादी कर ली। तब से वह आश्रम में रह कर अपनी पढ़ाई कर रहा है। सुरेष बड़ा होकर पुलिस में भर्ती होना चाहता है। ताकि गांव को अपराधों से मुक्त कर सके। नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले योगेंद्र भिंडे के माता-पिता उस की छोटी उमर में ही किसी बीमारी में चल बसे। जब वह पांच साल का था उसे उसके काका आश्रम में लाए थे। इसी आश्रम में उसे मां की ममता और पिता का प्यार मिला। आज वह आश्रम में रहते हुए खुष है। वह बड़ा होकर डाक्टर बनना चाहता है। छात्र अवकाष के दिन आसपास के गांवों में आदिवासियों को प्रषासनिक योजनाओं की जानकारी देने दूसरे जन जागृति के अभियान में भी हिस्सा लेते हैं। प्रधानाध्यापक नाहर सिंह वाखला के मुताबिक जब ये छात्र अपने फलियों में जाकर ताड़ी और षराब पीने के खिलाफ अभियान चलाते हैं तो भले ही उन के अभियान का कोई प्रभाव पड़े या न पड़े लेकिन यह आषा जरूर बंधती है कि बड़े होकर ये बच्चे षराब या ताड़ी को नहीं छुएंगे। इस तरह आने वाली पीढ़ी का आदिवासी समाज जरूर षराबबंदी को मानेगा। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से यहां के छात्र आदिवासी समाज में फैली रूढ़िवादिता और कुरीतियों पर प्रहार करते हैं। तीन से पांचवीं की करीब 150 लड़कियों के लिए अलग कन्या छात्रावास और कन्या विद्यालय भी है। तीन से पांच साल तक के बच्चों के लिए बालवाड़ी भी संचालित की जा रही है। सूदूर आदिवासी क्षेत्र में बहुमुखी प्रतिभा का विकास करने वाले इस आश्रम की षुरूआत की कहानी भी रोचक है। राजेंद्र आश्रम की स्थापना गुजरात के प्रसिद्ध समाज सेवी चुन्नीलाल महाराज ने नवंबर 1962 में की थी। चुन्नीलाल लंबे समय से कच्छ क्षेत्र में समाज सेवा का काम करते रहे। जब उन को झाबुआ के आदिवासियों के पिछड़ेपन की जानकारी मिली तो वे इस इलाके में आए। यहां आदिवासियों में काम करने के बाद वे कट्ठीवाड़ा आए। कट्ठीवाड़ा रियासत के महाराज से उन्होंने बच्चों के लिए एक आश्रम की षुरूआत करने के लिए ज़मीन मांगी। उस समय के रियासत महाराज ओंकार सिंह ने ज़मीन देने के लिए एक षर्त रखी। उन्होंने चुन्नीलाल जी से कहा कि वे पंद्रह मिनट की समयावधि में नदी के किनारे की जितनी ज़मीन दौड़ कर कवर की महाराज ने उसी समय वे आश्रम के लिए स्थानांतरित कर दी। तब दस बच्चों से इस आश्रम की षुरूआत हुई। बाद में बिल्ंिडग का निर्माण 1987 में हुआ। आज यह आश्रम मध्य प्रदेष के आदिम जाति कल्याण विभाग की ओर से मिलने वाले अनुदान पर चल रहा है। हर बच्चे पर 300 रुपए प्रति मासिक और षिक्षकों और अन्य कर्मचारियों का वेतन। लेकिन यहां के षिक्षक केंद्रीय वेतनमान के मुताबिक वेतन न मिलने की वजह से असंतुश्ट हैं। वेतन भी छह माह नौ माह और बाहर माह की तीन किष्तों मे मिलता है। आदिवासियों तक षिक्षा का ज्ञान पहुंचाने में विषेश व्याकुल रहने वाली सरकार की यह नीति दूरस्थ आदिवासी इलाकों में कार्यरत षिक्षण संस्थाओं के याथ भेदभाव के रवैये को उजागर करती है। जब कि आदिवासी इलाकों के बच्चों में किताबी ज्ञान के अलावा अच्छे संस्कारों का विकास करने और बहुआयामी प्रषिक्षण प्रदान करने वाले राजेंद्र आश्रम जैसी संस्थाओं को विषेश प्रोत्साहित करने की जरूरत है। (ग्रासरूट फीचर्स)

No comments: