Tuesday, 28 February 2012

मॉडर्निटी क्या कोई थोपने की चीज है




भारत सरकार के विशेष दबाब के बावजूद भी नॉर्वे सरकार २३ मार्च तक ही बच्चों को उनके परिवार को सौपने के लिए तैयार हई है. आखिर आपने ही बच्चों कि कस्टडी पाने के लिए परिवार को धरने पर बैठना पड़ा है.  लेकिन नॉर्वे सरकार अभी भी बच्चों की उचित देखभाल के नाम पर उन्हें माँ बाप को सौंपने को तैयार नहीं, क्या  बच्चों को पारिवार से दूर,नए परिवेश, नयी भाषा और नए कल्चर में रखने से उनका  सही विकास संभव है ? क्या नॉर्वे की चाइल्ड वेल्फेयर एजेंसी इस का जवाब देगी. 

अन्नू  आनंद 
क्या भारतीयों का बच्चों को पालने का सामान्य तरीका बच्चों के विकास के लिए उचित नहीं है? बच्चों के पालन-पोषण की शैली क्या उन्हें विदेशों से सीखनी होगी? बच्चों की बेहतर परवरिश किसे कहेंगे? क्या देश बदलने के साथ जीवन शैली भी बदलना बच्चों के हित में है? क्या अपनी संस्कृति से जुड़े मूल्यों के मुताबिक बच्चों की देख-रेख करने में कोई बुराई है? इस तरह के कई सवाल इन दिनों चिंता का कारण बने हुए हैं। इसकी खास वजह है नॉर्वे में उन दो मासूम बच्चों को सरकारी स्तर पर उनके मां-बाप से अलग करने की घटना, जिसने देश और विदेशों में रहने वाले करोड़ों भारतीय परिवारों को असमंजस में डाल दिया है। इन सवालों पर बहस से पहले घटना को ठीक से जानना जरूरी है । 

साथ सुलाने का अपराध 
नार्वे के स्टावंगर शहर में रहने वाले अनुरूप और सागरिका भट्टाचार्य से उनके तीन साल के बेटे अभिज्ञान और एक साल से भी कम उमर की उनकी बेटी ऐश्वर्या को वहां की सरकारी एजेंसी ने कुछ समय पहले इस आधार पर अलग कर दिया कि वे बच्चों का पालन-पोषण सही ढंग से नहीं कर रहे। इस सिलसिले की शुरुआत तब हुई
 जब किंडरगार्टन में पढ़ने वाले अभिज्ञान के स्कूल को लगा कि वह कुछ चीजों को जल्दी नहीं समझ पा रहा है। उन्होंने इसकी जानकारी चाइल्ड प्रोटेक्टिव संस्था को दे दी। इसके बाद संस्था से जुड़े अधिकारी जांच के लिए उसके घर आने लगे। उनकी राय यह बनी कि बच्चों की परवरिश ठीक से नहीं हो रही। अधिकारियों को शिकायत थी कि दंपति बच्चों को हाथ से खाना खिलाते हैं और खाने में दही-चावल देते हैं। इसके अलावा वे बच्चों को अपने साथ बिस्तर पर सुलाते हैं। जो बातें हमारी दिनचर्या का आम हिस्सा हैं, वही भट्टाचार्य दंपति के लिए अपराध बन गईं। 

कोर्ट-कचहरी के चक्कर 
सरकारी अधिकारियों ने बच्चों के अधिकारों से संबंधित नार्वे के कड़े कानूनों का हवाला देते हुए दोनों बच्चों को मां-बाप से जबरन अलग कर बारनेवर्ने नार्वेजियन चाइल्ड वेलफेयर सर्विस सेंटर में भेज दिया। पिछले आठ माह से भट्टाचार्य दंपति अपने बच्चों की कस्टडी के लिए अदालत, सरकारी दफ्तरों और दूतावास के चक्कर काट रहे हैं। वहां की अदालत ने भी वेलफेयर सेंटर के पक्ष में फैसला देते हुए 18 साल तक बच्चों को अलग-अलग फोस्टर केयर में रखने और मां-बाप को साल में केवल दो बार बच्चों से मिलने की इजाजत दी। भारत सरकार के भारी दबाव के बाद नार्वे सरकार बच्चों को कोलकाता स्थित उनके चाचा के हवाले करने को तैयार हुई है। उम्मीद है कि बच्चे मार्च तक यहां पहुंच पाएंगे। 
 

नार्वे की इस घटना से उठा विवाद विदेशों में रहने वाले करीब तीन करोड़ भारतीयों के धार्मिक, सांस्कृतिक, और कानूनी अधिकारों पर सवालिया निशान लगाता है। विदेशी जमीन पर अपनी संस्कृति और जीवन शैली को भूलकर बाहरी कल्चर अपनाना और उसी के आधार पर बच्चों को ढालना आसान नहीं है। हर बच्चे को, चाहे वह कहीं भी रहे, अपने धार्मिक, सामाजिक, जातीय और भाषाई माहौल में पलने का हक है। कानून का डर दिखा कर उसका यह हक छीनना अन्याय है। नार्वे में बच्चों को हाथ से खिलाना अपराध है। वहां बच्चे को पैदा होते ही अलग सुलाने की रिवायत है। हमारी संस्कृति में बच्चों को हाथ से खिलाना आम बात है। 


दही-चावल हमारे रोजाना के भोजन का हिस्सा है। पांच साल तक बच्चों का मां-बाप के साथ सोना यहां सामान्य बात है। एक हद तक यह हमारी मजबूरी भी है। कम जगह के चलते अक्सर हमारे बच्चे मां-बाप के साथ या उनके कमरे में ही सोते हैं। बच्चों का मां-बाप की देख-रेख में रहना उनकी सुरक्षा तथा उनमें उचित मूल्यों के विकास के लिए भी बेहतर माना जाता है। भारत में लड़के शादी के बाद भी मां-बाप के साथ ही रहते हैं। हमारी इस रिवायत को पश्चिमी देशों में हैरत से देखा जाता है। इन देशों में बेटा अगर 21 साल की उमर के बाद माता-पिता के साथ रहे तो उन्हें इसे 'असामान्य प्रवृत्ति' समझा जाता है। 

यह संस्कृति का अंतर ही है कि हम आज भी बूढ़े मां-बाप को परिवार के साथ रखने में गर्व महसूस करते हैं, उन्हें ओल्ड एज होम या वेलफेयर सेंटर में नहीं रखते। ऐसा नहीं कि नार्वे या किसी और देश की संस्कृति खराब है, या उसे अपनाना गलत है। लेकिन इसे किसी पर थोपना ठीक नहीं है। सबसे ज्यादा हैरत की बात यह है कि नार्वे की अदालत ने भी फैसला दिया है कि दोनों बच्चे 18 साल की उम्र तक अलग-अलग फॉस्टर होम में रहेंगे और उनके मां-बाप साल में केवल एक बार उनसे मिल सकते हैं। अदालत के मुताबिक अगर पति-पत्नी अलग होते हैं तो बच्चे पिता को सौंपे जा सकते हैं। 

दूसरों को भी समझें 
इस फैसले से यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या भारत से बाहर रहने वाले भारतीयों को स्थानीय सिविल और क्रिमिनल लॉ के पालन के साथ अब अपने घरों में भी विदेशी कानूनों का पालन करना होगा? नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड जैसे यूरोपीय देशों में बच्चों के अधिकारों से जुड़े कानून इतने सख्त हैं कि बच्चों के हित के नाम पर उन्हें परिवारों से अलग रखने से भी गुरेज नहीं किया जाता। लेकिन इस मामले में भारतीय दंपति के पर्सनल लॉ को ताक पर रख कर नार्वे ने अपने देश के पालन-पोषण के नियमों को अधिक महत्वपूर्ण माना। 

यह मामला दूसरी संस्कृतियों के प्रति असंवेदनशीलता को भी दर्शाता है। जिस तरह वहां के कानून और कल्चर में बच्चे को हाथ से खिलाना 'फॉर्स्ड फीडिंग' है, उसी तरह मां का दूध पीने वाली आठ माह की बच्ची को मां से अलग करना भारतीय दृष्टि में बाल उत्पीड़न है। यूरोप को अपनी संस्कृति को उच्च मानने की प्रवृत्ति छोड़ कर दूसरे देशों की जीवन शैली को समझने का प्रयास भी करना चाहिए।

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