Thursday, 23 February 2012

सिंगल है तो क्या हुआ अकेली क्यों रहे




अन्नू आनंद 
इन दिनों टीवी चैनल पर एक नए सीरियल कीशुरूआत हुई है। सीरियल की कहानी एक ऐसीसिंगल यानी एकल महिला के इर्द 
 गिर्द घूमती हैजो अपने पति की मृत्यु के बाद अपने दो छोटेबच्चों की परवरिश के लिए ससुराल पड़ोस औरसमाज के अन्य लोगों के तानों और उलाहनों काशिकार रहती है। परिवार और समाज अक्सर उसेशक की नजर से देखता है। सीरियल की कहानीकाफी हद तक इस युवा सिंगल महिला के प्रेम -प्रसंगों पर फोकस है जो अपनी आकांक्षाओं को पूराकरने के साथ अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बचाएरखने की भी जद्दोजहद से जूझती है। लेकिन इसकेसाथ ही यह सीरियल एक शिक्षित समाज में एक सिंगल महिला के संघर्ष की ओर इशारा कर ऐसीमहिलाओं की समस्याओं पर विचार करने और समाज की तंग सोच को बदलने की ओर भीध्यान आकर्षित करता है।

दस फीसदी का सवाल 
भारत में कुल महिला आबादी का दस फीसदी हिस्सा सिंगल महिलाओं का है। इनमें अविवाहित 
,विधवा तलाकशुदा और परित्यक्ता महिलाएं शामिल हैं। ये अपनी इच्छा से या इच्छा के विपरीतया किसी हादसे के कारण अकेले जीवन जी रही हैं लेकिन अफसोस की बात है कि दिनोंदिनउन्नत आधुनिक और शिक्षित होता हमारा समाज आज भी उन्हें समानता के साथ सामान्यजीवन जीने का अधिकार नहीं दे पाया है। बच्चों की परवरिश से लेकर अपनी हर छोटी बड़ीआंकाक्षा को पूरी करने के लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ता है।

हैरत की बात है कि आर्थिक रूप से संपन्न महिला भी पुरुष साथी का साथ छूटने के बाद एकसहज जीवन की कल्पना नहीं कर पाती। कुछ समय पहले पुणे में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरतपल्लवी का पति संदीप बनर्जी उसे छोड़कर चला गया। पढ़ी 
लिखी होने के बावजूद पल्लवी कोलगा जैसे संदीप के बिना उसका कोई काम पूरा नहीं हो पाएगा। पति के धोखे से उबरना बच्चोंका लालन पालन और मानसिक यातनाओं से लड़ना उसके लिए आसान  था। पल्लवी जैसी नजाने कितनी संपन्न और योग्य महिलाएं सिंगल होने पर अपने को ऐसी समस्याओं से घिरा पातीहैं।

सिंड्रेला सिंड्रोम 
इसका एक बड़ा कारण 
सिंड्रेला सिंड्रोम है। भारत में हर किशोरी की यही कल्पना होती है किजैसे ही उसके सपनों का राजकुमार उसे मिलेगा उसके जीवन की हर परेशानी दूर हो जाएगी।वह एक ऐसे राजकुमार की चाहत लिए बड़ी होती है जो उसे दुनिया के सारे दुखों से छुटकारादिलाए। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब इस युवती के सपनों का राजकुमार किसी कारण सेउसे छोड़कर चला जाता है या उसकी समस्याओं को दूर करने की बजाए स्वयं उसके लिएसमस्या बन जाता है।

शहरों में रहने वाली पढ़ी 
लिखी एकल महिलाओं के लिए जहां महानगरों का एकाकीपन असुरक्षाकी भावना मानसिक यातनाएं बच्चों की परवरिश और अपनों का उपेक्षापूर्ण रवैया अधिकयातनाओं का कारण बनता है वहीं छोटे कस्बों और गांवों में रहने वाली सिंगल महिलाओं कोआर्थिक तंगी सामाजिक परंपराओं और समाज के शंकालु नजरिए जैसी समस्याओं से गुजरनापड़ता है।

हाल ही में नेशनल फोरम फॉर सिंगल विमिन राइट्स ने देश के छह राज्यों में कम आय वालीएकल महिलाओं पर एक सर्वे कराया। इससे पता चला कि 
2002 की जनगणना में इन महिलाओंकी गिनती करीब चार करोड़ थी। अभी यह मानकर चला जाता है कि सिंगल महिलाओं में विधवाया बूढ़ी महिलाओं की गिनती अधिक है। लेकिन सर्वे में पाया गया कि बहुत सी युवा महिलाएं भीसिंगल रह कर चुनौतीपूर्ण स्थितियों में जीवन गुजारती है। सर्वे के मुताबिक इन महिलाओं कोटूटा विवाह वैधव्य बीमारी बच्चों को अकेले पालना कहीं जाने की जगह  होना हिंसा ,शारीरिक  मानसिक उत्पीड़न कम शिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है।युवा महिलाएं यह दबाव भी झेलती हैं कि उन्हें मदद की क्या जरूरत वे अपनी और अपने बच्चोंकी देखरेख खुद कर सकती हैं।

फोरम की अध्यक्ष जिन्नी श्रीवास्तव के मुताबिक सरकार को आर्थिक अभाव से ग्रस्त एकलमहिलाओं तक अपनी पहुंच बनाने के लिए पर्याप्त बजट रखना चाहिए। जब तक केंद्र सरकार ऐसेप्रावधान अपने बजट में शामिल नहीं करती 
निचले स्तर पर अकेला जीवन जीने वाली महिलाओंकी मुश्किलें कम नहीं होंगी। सामाजिक सुरक्षा पेंशन में एकल महिलाओं को शामिल कर उनकीदिक्कतों को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। देखने में आया है कि तलाकशुदा औरपरित्यक्त महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता। सर्वेमें पाया गया कि ये महिलाएं अब केवल परिवार या समाज पर निर्भर रहने के लिए तैयार नहींहैं।

अनुराधा और सोनाली 
संपन्न परिवार की जिन महिलाओं को आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना पड़ता 
उनके लिए भीएकल होने का दर्द कम नहीं है। बच्चों के लिए मां और बाप दोनों की भूमिका निभाने के साथपड़ोसियों और परिवार द्वारा शक की नजर से देखा जाना और असुरक्षा का माहौल अपनी इच्छासे जीने के उनके अधिकार में बड़ी बाधा बनते हैं। अपनों की उपेक्षा और जीवन भर एकाकी रहनेकी आशंका कितनी भयावह हो सकती है यह हम पिछले साल नोएडा में रहने वाली दो बहनोंअनुराधा और सोनाली बहल के स्वयं को घर में कैद कर खुद को भूखों मरने के लिए छोड़ देनेकी घटना में देख चुके हैं।

भाई के छोड़ जाने के बाद उन्होंने केवल इसलिए स्वयं को अलग कर लिया था कि उन्हें लगताथा 
उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। आर्थिक अभाव को तो सरकारी योजनाओं केमाध्यम से दूर किया जा सकता है लेकिन एकल महिलाओं के प्रति अपना तंग नजरिया बदलनेके लिए समाज को ही कुछ करना होगा। समाज से इन महिलाओं की कोई बड़ी अपेक्षा नहीं है।जरूरत उन्हें सिर्फ यह एहसास दिलाने की है कि उनका होना बाकी दुनिया के लिए भी महत्वपूर्णहै।

पत्रकार और टिप्पणीकार 
सिंगल है तो क्या हुआ अकेली क्यों रहे

अन्नू आनंद 
इन दिनों टीवी चैनल पर एक नए सीरियल कीशुरूआत हुई है। सीरियल की कहानी एक ऐसीसिंगल यानी एकल महिला के इर्द 
 गिर्द घूमती हैजो अपने पति की मृत्यु के बाद अपने दो छोटेबच्चों की परवरिश के लिए ससुराल पड़ोस औरसमाज के अन्य लोगों के तानों और उलाहनों काशिकार रहती है। परिवार और समाज अक्सर उसेशक की नजर से देखता है। सीरियल की कहानीकाफी हद तक इस युवा सिंगल महिला के प्रेम -प्रसंगों पर फोकस है जो अपनी आकांक्षाओं को पूराकरने के साथ अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बचाएरखने की भी जद्दोजहद से जूझती है। लेकिन इसकेसाथ ही यह सीरियल एक शिक्षित समाज में एक सिंगल महिला के संघर्ष की ओर इशारा कर ऐसीमहिलाओं की समस्याओं पर विचार करने और समाज की तंग सोच को बदलने की ओर भीध्यान आकर्षित करता है।

दस फीसदी का सवाल 
भारत में कुल महिला आबादी का दस फीसदी हिस्सा सिंगल महिलाओं का है। इनमें अविवाहित 
,विधवा तलाकशुदा और परित्यक्ता महिलाएं शामिल हैं। ये अपनी इच्छा से या इच्छा के विपरीतया किसी हादसे के कारण अकेले जीवन जी रही हैं लेकिन अफसोस की बात है कि दिनोंदिनउन्नत आधुनिक और शिक्षित होता हमारा समाज आज भी उन्हें समानता के साथ सामान्यजीवन जीने का अधिकार नहीं दे पाया है। बच्चों की परवरिश से लेकर अपनी हर छोटी बड़ीआंकाक्षा को पूरी करने के लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ता है।

हैरत की बात है कि आर्थिक रूप से संपन्न महिला भी पुरुष साथी का साथ छूटने के बाद एकसहज जीवन की कल्पना नहीं कर पाती। कुछ समय पहले पुणे में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरतपल्लवी का पति संदीप बनर्जी उसे छोड़कर चला गया। पढ़ी 
लिखी होने के बावजूद पल्लवी कोलगा जैसे संदीप के बिना उसका कोई काम पूरा नहीं हो पाएगा। पति के धोखे से उबरना बच्चोंका लालन पालन और मानसिक यातनाओं से लड़ना उसके लिए आसान  था। पल्लवी जैसी नजाने कितनी संपन्न और योग्य महिलाएं सिंगल होने पर अपने को ऐसी समस्याओं से घिरा पातीहैं।

सिंड्रेला सिंड्रोम 
इसका एक बड़ा कारण 
सिंड्रेला सिंड्रोम है। भारत में हर किशोरी की यही कल्पना होती है किजैसे ही उसके सपनों का राजकुमार उसे मिलेगा उसके जीवन की हर परेशानी दूर हो जाएगी।वह एक ऐसे राजकुमार की चाहत लिए बड़ी होती है जो उसे दुनिया के सारे दुखों से छुटकारादिलाए। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब इस युवती के सपनों का राजकुमार किसी कारण सेउसे छोड़कर चला जाता है या उसकी समस्याओं को दूर करने की बजाए स्वयं उसके लिएसमस्या बन जाता है।

शहरों में रहने वाली पढ़ी 
लिखी एकल महिलाओं के लिए जहां महानगरों का एकाकीपन असुरक्षाकी भावना मानसिक यातनाएं बच्चों की परवरिश और अपनों का उपेक्षापूर्ण रवैया अधिकयातनाओं का कारण बनता है वहीं छोटे कस्बों और गांवों में रहने वाली सिंगल महिलाओं कोआर्थिक तंगी सामाजिक परंपराओं और समाज के शंकालु नजरिए जैसी समस्याओं से गुजरनापड़ता है।

हाल ही में नेशनल फोरम फॉर सिंगल विमिन राइट्स ने देश के छह राज्यों में कम आय वालीएकल महिलाओं पर एक सर्वे कराया। इससे पता चला कि 
2002 की जनगणना में इन महिलाओंकी गिनती करीब चार करोड़ थी। अभी यह मानकर चला जाता है कि सिंगल महिलाओं में विधवाया बूढ़ी महिलाओं की गिनती अधिक है। लेकिन सर्वे में पाया गया कि बहुत सी युवा महिलाएं भीसिंगल रह कर चुनौतीपूर्ण स्थितियों में जीवन गुजारती है। सर्वे के मुताबिक इन महिलाओं कोटूटा विवाह वैधव्य बीमारी बच्चों को अकेले पालना कहीं जाने की जगह  होना हिंसा ,शारीरिक  मानसिक उत्पीड़न कम शिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है।युवा महिलाएं यह दबाव भी झेलती हैं कि उन्हें मदद की क्या जरूरत वे अपनी और अपने बच्चोंकी देखरेख खुद कर सकती हैं।

फोरम की अध्यक्ष जिन्नी श्रीवास्तव के मुताबिक सरकार को आर्थिक अभाव से ग्रस्त एकलमहिलाओं तक अपनी पहुंच बनाने के लिए पर्याप्त बजट रखना चाहिए। जब तक केंद्र सरकार ऐसेप्रावधान अपने बजट में शामिल नहीं करती 
निचले स्तर पर अकेला जीवन जीने वाली महिलाओंकी मुश्किलें कम नहीं होंगी। सामाजिक सुरक्षा पेंशन में एकल महिलाओं को शामिल कर उनकीदिक्कतों को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। देखने में आया है कि तलाकशुदा औरपरित्यक्त महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता। सर्वेमें पाया गया कि ये महिलाएं अब केवल परिवार या समाज पर निर्भर रहने के लिए तैयार नहींहैं।

अनुराधा और सोनाली 
संपन्न परिवार की जिन महिलाओं को आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना पड़ता 
उनके लिए भीएकल होने का दर्द कम नहीं है। बच्चों के लिए मां और बाप दोनों की भूमिका निभाने के साथपड़ोसियों और परिवार द्वारा शक की नजर से देखा जाना और असुरक्षा का माहौल अपनी इच्छासे जीने के उनके अधिकार में बड़ी बाधा बनते हैं। अपनों की उपेक्षा और जीवन भर एकाकी रहनेकी आशंका कितनी भयावह हो सकती है यह हम पिछले साल नोएडा में रहने वाली दो बहनोंअनुराधा और सोनाली बहल के स्वयं को घर में कैद कर खुद को भूखों मरने के लिए छोड़ देनेकी घटना में देख चुके हैं।

भाई के छोड़ जाने के बाद उन्होंने केवल इसलिए स्वयं को अलग कर लिया था कि उन्हें लगताथा 
उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। आर्थिक अभाव को तो सरकारी योजनाओं केमाध्यम से दूर किया जा सकता है लेकिन एकल महिलाओं के प्रति अपना तंग नजरिया बदलनेके लिए समाज को ही कुछ करना होगा। समाज से इन महिलाओं की कोई बड़ी अपेक्षा नहीं है।जरूरत उन्हें सिर्फ यह एहसास दिलाने की है कि उनका होना बाकी दुनिया के लिए भी महत्वपूर्णहै।
 नवभारत टाइम्स में  28 जनवरी 2012 को प्रकाशित  

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