Friday 26 September 2008

सामुदायिक पुलिस व्यवस्था से गावों में सुधार

(रायपुर, छत्तीसगढ़)

अन्नू आनंद

धनेली गांव की 19 वर्षीया रानी साहू की आखों में खुशी साफदेखी जा सकती थी। अपने बाएं हाथ की बैसाखी को संभालते हुए,बड़े-बड़े कदमों के साथ गांव की तंग गलियों से गुजरते हुए वहबड़े उत्साह के साथ उन घरों की ओर इशारा करती जा रही थीजहां पहले या तो अवैध शराब की भट्ठी चलती थी या अवैध शराबबिकती थी। लेकिन अब यहां भट्ठी का कोई नामो-निशान नहीं है।रानी का कहना है, ‘‘अब आपको गांव में अवैध शराब की कोई भट्ठीनहीं मिलेगी। हमारे गांव में अब शांति है। शराब के कारण अबगांव में कोई दंगा नहीं होता। अगर कोई बाहर से लाकर भी यहांशराब बेचने की कोशिश करता है तो ग्रामीणों के साथ होने वालीमासिक बैठक में उसे उठाया जाता है और दोषी व्यक्ति केखिलाफ कार्रवाई की जाती है।’’ अपनी बड़ी-बड़ी आखों को औरबड़ा करते हुए बड़े गर्व के साथ बताती है कि बहुत सालों के बादइस बार होली गांव में शांतिपूर्वक बीती। ‘‘न कोई लड़ाई-झगड़ाहुआ और न ही किसी के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज हुई। अबतो हमारा गांव काफी सुधर चुका है।’’रानी की बातों में सचाई थी। 1200 की जनसंख्या वाले रायपुरजिले के इस गांव में सुधार की छाया साफ दिखाई दे रही थी।गांव की जो महिलाएं पति या घर के अन्य सदस्यों के शराब पीनेके कारण परेशान रहती थीं, अब महिला समूह के माध्यम से गांवके बेकार पड़े तालाब को खरीद कर उसमें मछली पालन काव्यवसाय शुरू करने की योजना बना रही हैं। कुछ समय पहलेतक पति की मारपीट को चुपचाप सहन करने वाली यहां की अध्िाकतर महिलाएं अब जानती हैं कि उन्हें ऐसी स्थिति में क्या करनाहै। गांव के प्राथमिक स्कूल में बच्चों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़रही है। गांववाले गांव में होने वाले किसी भी प्रकार के लड़ाई-झगड़ेकी सूचना के अलावा पानी, सिंचाई या स्कूल से संबंधित शिकायतको समुदाय संपर्क समूह यानी कम्युनिटी लेसन ग्रुप (सीएलजी) केसदस्य को देते हैं। संपर्क समूह का यह सदस्य उसे बाद में गांवमें होने वाली पुलिस अधिकारियों के साथ सामुदायिक कानूनव्यवस्था की बैठक में उठाता है।धनेली गांव में ऐसे संपर्क समूह के 12 सदस्य हैं जो गांव मेंकानून व्यवस्था कायम रखने तथा ग्रामीणों को उनके अधिकारों केप्रति सचेत करने का काम कर रहे हैं। रानी भी ऐसे ही एक संपर्कसमूह की सदस्य है और वह गांव की किसी प्रकार की समस्या कोसुलझाने में हमेशा उत्सुक रहती है।जिले के अन्य गांव टेमरी की महिला बुकय्या साहू जब गांवकी सरपंच बनी तो वह यहां के पुरुषों की शराब की लत से बेहददुखी थी। सरपंच बनने के बाद उसके लिए सबसे बड़ी चुनौतीगांव में चलने वाली अवैध शराब की भट्ठी को बंद कराना था। वहबताती है कि पंचायत के पुरूष सदस्यों का मानना था कि जब वेपंचायत की बैठक में पीकर आते हैं तभी बाघ बन पाते हैं। वे हंसतेहुए कहती है, ‘‘लेकिन पिछले करीब एक साल से सभी ‘बाघ’बकरी बन चुके हैं क्योंकि अब गांव के अधिकतर पुरुष न तो शराबपीते हैं और न ही लड़ाई-झगड़ा कर सकते हैं क्योंकि वे जानतेहैं कि इसकी तुरंत रिपोर्ट पुलिस थाने में हो जाएगी। इसलिएहमारी पंचायत में अब काम होने लगा है।’’रानी और बुकय्या साहू अपने गांवों में आए इस बदलाव कापूरा श्रेय ‘सामुदायिक पुलिस व्यवस्था’ को देते हैं। मानव अधिकारोंपर कार्य करने वाली दिल्ली स्थित गैर सरकारी संस्था ‘कामनवेल्थह्यूमन राइटस इनिशिएटिव’ और राज्य मानव अधिकार आयोग केसहयोग से वर्ष 2004 से पाॅयलट प्रोजेक्ट के रूप में यह योजनारायपुर जिले के माना पुलिस स्टेशन से चल रही है। योजना कामुख्य उद्देश्य पुलिस और समुदाय के परस्पर संबंधों को बेहतरबनाकर गांवों में कानून व्यवस्था कायम करना और ग्रामीणों कोउनके कानूनी अधिकारों के प्रति सचेत कर उन्हें सबल बनाना है।अपनी तरह के इस अनोखे माॅडल को माना पुलिस स्टेशन से 12गांवों की 33 हजार जनसंख्या पर चलाया जा रहा है।आदिवासियों से घिरे इस क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या अवैधशराब, सट्टा, जुआ और गैर सामाजिक तत्व है। अधिकतर गांवों मंेअवैध शराब के कारण समूचा सामाजिक ताना-बाना बिखरा हुआथा। देश की अधिकतर जनसंख्या की तरह यहां के गांवों के भीभोले-भाले ग्रामीणों ने पुलिस को कभी अपनी समस्याओं केसमाधान के रूप में नहीं देखा था। अवैध शराब के अधिक प्रचलनके कारण यहां कानून और व्यवस्था की समस्या अक्सर रहती थी।दो साल साल पहले तक गांववालों ने कभी सोचा भी नहीं था किपुलिसकर्मी उनकी किसी भी समस्या को सुलझा सकते हैं। लेकिनअब वे केवल कानून-व्यवस्था के अलावा पानी और स्कूल जैेसीबुनियादी जरूरतों के लिए भी पुलिस की मदद लेते हैं।सीएचआरआई की योजना निदेशक डोयल मुखर्जी के मुताबिक,‘‘1861 का पुलिस एक्ट पुलिस और समुदाय के संबंधों के प्रतिखामोश है। इस एक्ट में विकेंद्रीकृत पुलिस व्यवस्था या निजीपुलिस व्यवस्था का कोई वर्णन नहीं है। अतः आमतौर पर लोगस्वयं को पुलिस से अलग रखते हैं और समाज और पुलिस कीभूमिकाएं विपरीत रहती हैं। माना पुलिस स्टेशन के प्रयोग में हमनेपुलिस और समुदाय को जोड़ कर उनमें संवाद बनाने की प्रक्रियास्थापित की जिसका परिणाम बेहद सार्थक रहा।’’ग्रामीण पुलिस व्यवस्था और सामुदायिक पुलिस व्यवस्था केइस मुद्दे पर राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिर्पोटों में भी चर्चा होतीरही है। आयोग की सिफारिश थी कि प्रभावी कानून के लिएव्यवस्था पंचायतों और सब-डिवीजन पुलिस अधिकारियों के बीचनिकट संबंध होने चाहिए। कुछ राज्यों मंे पुलिस मैन्यूएल में ग्रामीणसमुदायों के साथ बेहतर संबंधों, और सामुदायिक पुलिस व्यवस्थाके सहायक के रूप में ग्रामीण सुरक्षा समितियों के गठन का जिक्रभी है। केरल के तिरुअनंतपुरम में ‘कम्बाइन्ड एक्शन अगेंस्टथीव्स, चीट्स एण्ड होलीगन्स (कैच) नाम की सामुदायिक पुलिसव्यवस्था चल रही है।लेकिन स्थानीय पुलिस को इस प्रकार की व्यवस्था के लिएतैयार करना हमेशा एक चुनौती रहा है। माना में सीएचआरआई नेइस प्रयोग को शुरू करने से पहले छत्तीसगढ़ सरकार, राज्य मानवअधिकार आयोग और गैर सरकारी संगठनों से लंबा संवाद किया।लेकिन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती पुलिसकर्मियों को तैयारकरना था। डोयल के मुताबिक सबसे पहले माना के पुलिस अध्िाकारियों के साथ प्रशिक्षण कार्यक्रम किए गए जिनमें उन्हें समुदायको संसाधन के रूप में इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण दिया गया।उनके मनोवृति को परिवर्तित करने के लिए प्रशिक्षण में कई प्रकारके तकनीकों का इस्तेमाल किया गया। गांवों में किए गए सर्वे सेपता चला कि लोग ऐसी पुलिस व्यवस्था चाहते हैं जो दिखाई पड़ेऔर जिसमें तत्काल कार्रवाई के साथ जवाबदेही बने।योजना के तहत माना थाना क्षेत्र के 12 गांवों को चार बीटों मेंबांटा गया है। हर बीट की जिम्मेदारी एक सब इंस्पेक्टर और दोकांस्टेबल पर है। ये बीट अधिकारी अपने बीट क्षेत्र की समस्याओंको चिन्हित करते हैं। हर बीट में चार ग्रामीण सदस्यों वालेसमुदाय संपर्क समूह (सीएलजी) यानी कम्युनिटी लेसन ग्रुप बनाएगए हैं। इन समूहों के सदस्य गांव में कानून व्यवस्था कायम करनेऔर कानूनी साक्षरता के अलावा लोगों को उनके अधिकारों केप्रति जागृत करने में सहायता करते हैं। हर बीट अधिकारी कीअपने क्षेत्र के लोगों के साथ माह में एक बैठक होती है जिसमेंआम ग्रामीण अपनी समस्याएं रखते हैं। इन समस्याओं को रजिस्टरमें नोट किया जाता है और क्या कार्रवाई की जाएगी उसके प्रतिनोट लिखा जाता है। अगली बैठक में फिर इस बात की समीक्षाकी जाती है कि क्या कार्रवाई हुई और नहीं तो क्यों?जो समस्याएं इस बैठक में हल नहीं हो पाती उन्हें फिर हरमाह पुलिस स्टेशन में संपर्क समूहों के साथ मुख्य पुलिस अधिकारीके साथ होने वाली बैठक में उठाया जाता है। समुदाय के साथकाम करने वाले प्रोजेक्ट सहायक अंशुमन झा के मुताबिक, ‘‘इसबैठक में संपर्क समूहों के सदस्य स्कूली शिक्षा में अनियमितताएं,सिंचाई और तालाब की व्यवस्था करने जैसी समस्याओं पर भीचर्चा की जाती है। फिर संबंधित अधिकारियों को इसके प्रतिलिखा जाता है। दहेज या बाल विवाह जैसी सामाजिक समस्याओंके खिलाफ गांवों में अभियान चलाने के लिए संपर्क समूह केसदस्यों को तैयार किया गया है। स्थानीय संगठनों, पंचायतों औरपुलिस की मदद से संपर्क समूहों के माध्यम से समय-समय परगांवों में जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं।माना पुलिस स्टेशन के एसएचओ जेपी दुबे का कहना है, ‘‘इसप्रयोग के कारण अब जनता और पुलिस की दूरी कम हुई है। गांवके लोग अपनी पंचायतों के काम न करने की शिकायतें भी लेकरआते हैं और अब वे आपसी झगड़े भी पुलिस के माध्यम सेनिपटाना चाहते हैं। सामुदायिक पुलिस व्यवस्था के चलते गांवोंकी पंचायतें सक्रिय हुई हैं क्योंकि उन्हें आशंका रहती है कि गांवके किसी भी विकास कार्य में गड़बड़ी होने या कुछ कार्य न होनेकी शिकायत सामुदायिक बैठकों में हो जाएगी।’’श्री दुबे के मुताबिक इस प्रोजेक्ट के तहत जब गांव में कामशुरू हुआ तो हमें पता चला कि 12 पंचायतों में से आठ पंचायतोंके सरपंच निष्क्रिय हैं। ग्रामीणों के साथ होने वाली बैठकों मेंउनकी शिकायतें आने लगी।’’बड़ौदा गांव के सरपंच द्वारा एकाउंट न देने पर संपर्क समूह(सीएलजी) के सदस्यों ने जब उसकी शिकायत थाने में की तो वहतुरंत एकाउंट देने को तैयार हो गया। इस प्रकार गांव डूमरतराईमें एक केमिकल फैक्टरी के प्रदूषण से परेशान लोगों ने सीएलजीके माध्यम से फैक्टरी मालिक के खिलाफ थाने में शिकायत दर्जकी। इस गांव के संपर्क समूह के सदस्य लीलाराम साहू ने बतायाकि पुलिस ने फैक्टरी से नमूना लेकर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डको भेजा। बाद में राज्य मानव अधिकार आयोग में मामला उठायागया। परिणामस्वरूप जांच से घबराकर फैक्टरी के मालिक नेजांच शुरू होने से पहले ही स्वयं ही गांव से फैक्टरी को स्थानांतरितकर दिया।इन शिकायतों को बेहतर मंच प्रदान करने के लिए प्रोजेक्ट केतहत माना पुलिस स्टेशन से एक त्रैमासिक न्यूज लेटर की भीशुरूआत की गई है। जनता पुलिस संबंधों पर आधारित इसपत्रिका ‘सहयोग माना’ में पुलिस सुधार के लेखों के अलावापंचायतों के सदस्य अपनी मूलभूत समस्याओं को रखते हैं। पत्रिकाके संपादक ग्रामीण कृष्णकांत ठाकुर का मानना है कि पत्रिका केमाध्यम से लोग स्वयं को प्रशासन से जुड़ा हुआ मानते हैं। यहपत्रिका उनके और प्रशासन के बीच संवाद की एक बेहतर कड़ीका काम करती है।कभी पुलिसकर्मियों को अपना विरोधी मानने वाले ग्रामीणकेवल अपनी समस्याओं के प्रति ही अब चिंतित नहीं बल्कि अब वेपुलिसकर्मियों की सीमाओं और सरोकारों को समझने लगे हैं।वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ एक बैठक में इन ग्रामीणों नेमाना पुलिस स्टेशन के लिए एक छोटी जीप प्रदान करने की मांगरखी, ताकि गांवों में उनकी पेट्रोलिंग बढ़ सके। आखिर पुलिसस्टेशन को गाड़ी मिल गई।अपने प्रकार का यह अनूठा माॅडल इन गांवों में कानून व्यवस्थाकायम करने के अलावा गांववासियों को सशक्त बनाने का भीकाम कर रहा है। इसकी सफलता को देखते हुए अब इसेछत्तीसगढ़ के अन्य जिलों में भी अपनाने की कवायद चल रही है।जैसा कि सुश्री डोयल कहती है कि निजी स्तर पर सामुदायिकपुलिस व्यवस्था के कुछ प्रयोग तो हुए हैं लेकिन ग्रामीण क्षे़त्र मेंसंस्थागत स्तर पर अपनी तरह का यह पहला प्रयोग है।छत्तीसगढ़ पुलिस महानिदेशक श्री ओपी राठौर इस प्रयोग सेबेहद आश्वस्त हैं वह कहते हैं, इस प्रयोग से थाने में दर्ज होनेवाले मामलों की गिनती बड़ी है। अब महिलाएं भी अधिक संख्यामें शिकायतें लेकर आती हैं। इस प्रयोग की सफलता से खुशहोकर राज्य पुलिस विभाग राज्य के अन्य जिलों में भी इसे शुरूकरने की योजना बना रहा है।सुविधाओं के अभाव में पुलिसकर्मियों के लिए ऐसा प्रयोगचलाना सरल नहीं। बिना किसी विशेष प्रोत्साहन के उन परअतिरिक्त जिम्मेदारियां डालना एक मुश्किल ही नहीं कठिन चुनौतीहै, जैसा कि अंशुमन कहते हैं, ‘‘लेकिन इससे गांववालों के दिलोंमें पुलिस वालों का आदर भाव बढ़ा है, अब वे उन्हें अपना दोस्तऔर मानव अधिकारों के रक्षक मानते हैं।’’ आखिर यह एक बहुतबड़ी उपलब्धि है।

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