Thursday 9 October 2008

पंचायतों में घुमंतू महिलायें


अन्नू आनंद
(अलवर, राजस्थान)वह समाज के सबसे पिछड़े समुदाय से हैं और समाज केसबसे निचले पायदान पर खड़ी हैं। उनके समुदाय के अधिकतरलोगों को वोट देने जैसे बुनियादी अधिकार भी हासिल नहीं।लेकिन वे अब लोकतंत्र की पहली सीढ़ी पर बेहद मजबूती केसाथ अपने कदम रख चुकी हैं। अपने समुदाय के विकास के लिएउन्होंने स्थानीय शासन का हिस्सा बनकर अपने संघर्ष की शुरूआतकर दी है।ये हैं पिछले वर्ष पहली बार राजस्थान की पंचायतों में नियुक्तहुई नट, बंजारा, बावरिया, भोपा जैसे घुमंतु समुदायों की उत्साही,उद्यमी महिलाएं।32 वर्षीय सावड़ी सूकड़ गांव की विमला पिलखुड़ी पंचायतकी उपसरपंच है। वह घुमंतु समाज के नट समुदाय से है औरकाफी समय से नट समाज की मुखिया रह चुकी है। विमला औरउसके परिवार की अन्य महिलाएं दौसा, भरतपुर और अलवर केग्रामीण इलाकों में नाच, तमाशा और नौटंकी कर अपनी जीविकाचलाते हैं। दिल्ली-जयपुर हाईवे से कुछ किलोमीटर की दूरी परबसी सावड़ी बस्ती में सात-आठ सौ परिवार रहते हैं। कच्चे-पक्केघरों में रहने वाले अधिकतर लोग नट समुदाय के हैं। गांव केकालूराम नट बताते हैं, ‘‘हमारे परिवारों में महिलाएं नाचती हैं यातमाशा करती है और पुरुष ढोलक आदि बजाने का काम करतेहैं। हम दीवाली के समय घरों से निकलते हैं और होली पर वापसघर लौटते हैं।’’ कुछ लोगों ने अब इस काम को छोड़कर अन्यछोटे-मोटे व्यवसायों को अपनाया है लेकिन जीविका के अभाव मेंउन्हें अपने पारंपरिक काम को ही करना पड़ता है। लेकिन अबउन्होंने निरंतर घुमंतु जीवन को छोड़कर पिछले कई वर्षों से यहींअपना स्थायी ठिकाना बना लिया है।विमला ने जब उपसरपंच के लिए अपना नामांकन भरा तोउसे कई गांवों का विरोध सहना पड़ा। विमला बताती है, ‘‘गांव केदूसरी जाति के लोगों ने स्पष्ट कह दिया कि हम नटिनी को बड़ापद नहीं देंगें। हमारा रास्ता भी रोक लिया गया। लेकिन नटसमुदाय के सहयोग से मैंने चुनाव लड़ा और 17 वोटों से जीतगई।’’उपसरपंच के रूप में विमला ने सबसे पहले गांव में पानी कीसमस्या को दूर करने के लिए नल लगाने का काम किया। गांवमें मौजूद दो पम्प गांववालों की पानी की जरूरतें पूरी करने केलिए काफी नहीं थे। उसने पंचायत में मामला उठाया और फिरएक नया पम्प लग गया। लेकिन उसकी मुख्य चिंता गांव की ओरजाने वाले रास्ते को पक्का बनाने की है।विमला पंचायत की हर बैठक में जाती है। पंचायत प्रतिनिधिबनने के बाद उसने बाहर गांवों में जाने का अपना काम भी कमकर दिया है ताकि विकास के कामों में अधिक रूचि ले सके।विमला के मुताबिक गांव में 40-50 बीघा जमीन एनीकट बनाने केलिए पड़ी है। लेकिन एनीकट न बनने के कारण बरसात के दिनोंमें इसमें पानी भर जाता है जिससे पूरे गांव में कीचड़ और गंदगीफैल जाती है। इसलिए उसकी मुख्य चिंता यहां एनीकट बनाने कीहै। विमला जिस उत्साह से पंचायत कार्यों में दिलचस्पी ले रही हैउसको देखकर लगता है कि वह बहुत जल्द नट समुदाय केविकास में एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित होगी।पारंपरिक लहंगा, ओढ़नी चांदी के गहने और बाजूओं परगोदने के बड़े बड़े निशान-- यह है गांव राढ़ी की 45वर्षीय मूमलबंजारन, जो बामनवास कांकड़ पंचायत से निर्विरोध वार्ड पंचनियुक्त हुई है। अलवर से 20-25 किलोमीटर की दूरी के बादएक किलोमीटर तक पक्की चट्टानों का रास्ता तय करने के बादयह बस्ती आती है। मूमल और उसके गांव के अधिकतर लोगबेवाड़ी, अलवर और राजस्थान के अन्य गांवों में नमक औरमुलतानी मिट्टी बेचकर गुजारा करते हैं। यह जानकर किसी को भीहैरत हो सकती है कि हमारे यहां आज भी वस्तुओं की अदला-बदलीप्रचलित है।मूमल बताती है कि एक मुट्ठी गेहूं के बदले चार मुट्ठी नमकदेना पड़ता है। गेहूं को बनिए को बेचकर वे लोग अपनी जरूरतोंको पूरा करते हैं। यह उनका पारंपरिक व्यवसाय है। अब वे कईअन्य छोटे-मोटे काम भी करते हैं लेकिन उसके समुदाय की मुख्यआय का साधन गांवों में गधों पर लादकर नमक और मुलतानीमिट्टी ही बेचना है।वार्ड पंच के रूप में उसकी मुख्य समस्या गांव में बिजली कीव्यवस्था करना है। उसने बताया कि गांव के पास की सड़क तकलाईट आती है लेकिन उनकी बस्ती को कनेक्शन नहीं दिया जारहा क्योंकि बस्ती के लोगों के पास पट्टे नहीं हैं। मूमल केमुताबिक, ‘‘पहले हम लोग एक जगह पर नहीं रहते थे लेकिनपिछले कई सालों से हमने अपना यहां स्थायी ठिकाना बना लियाहै लेकिन आज दो-तीन दशक बिताने के बाद भी हमें जमीन केपंचंचंचायतों ें में ें गूंजूंजूंजी घुमुमुमंतंतंतुअुअुओं ें की आवाज़अन्नू आनंदंदंदपट्टे नहीं मिले हैं। उसने बताया कि पंचायत में उसने बिजली औरसड़क को पक्का बनाने का मुद्दा उठाया है लेकिन उसे अन्यसदस्यों का सहयोग नहीं मिल रहा।मूमल के मुताबिक, ‘‘हमने पंचायत में जगह तो बना ली है औरहम अपनी बात रखने में समर्थ हैं लेकिन वहां अभी भी हमारे साथभेदभाव किया जाता है। विकास की सारी बहस गुज्जरों केसुझावों पर ही होती है। हमें अपनी बात मनवाने में अभी और समयलगेगा’’।किशोरी पंचायत की शारदा बंजारन का भी यही मानना है।वह कहती है कि मुलतानी मिट्टी और नमक बेचकर वह जो भीकमाती है वह भी बीडीओ के पास चक्कर लगाने में खर्च हो जाताहै। लेकिन वह पंचायत की हर बैठक में उपस्थित रहना चाहती हैताकि वह जान सके कि विकास कार्यों का पैसा कहां खर्च हो रहाहै। पृथ्वीपुरा पंचायत की सुआ बंजारन भी अपने गांव में पानी कानल लगाने के लिए संघर्ष कर रही है। वह शिकायत करती है,‘‘पंचायत बैठक में वह मेरी हर मांग लिखते हैं लेकिन जब मैंबीडीओ के पास जाकर पूछती हूं कि क्या हुआ है तो मुझे जवाबमिलता है कि यह प्रस्ताव तो आया ही नहीं।’’गेंदी बावरिया विराटनगर से केवल दो किलोमीटर की दूरी परबसे गोपीपुरा बस्ती से सोठाना ग्राम पंच नियुक्त हुई है। बावरियासमुदाय के लोग लंबे समय से जंगली जानवरों का शिकार करतेआए हैं। लेकिन 1972 में जानवरों के शिकार पर प्रतिबंध लगने केबाद से वे खेतों की जानवरों से रखवाली या पशुओं को चराने काकाम कर अपनी जीविका चलाते रहे हैं। 1871 में लागू एक्ट केतहत उन्हें आपराधिक जाति दबाव अधिनियम में शामिल कर लियागया था। इसी प्रकार भारत सरकार ने 1952 में इस अधिनियम कोखत्म कर इन पर आदतन अपराधी अधिनियम लागू कर दिया।जिसकी वजह से वे नागरिकों, पुलिस और दूसरे कानून लागू करनेवाली एजेंसियों के शोषण का शिकार हो रहे हैं।गेंदी बाई सहित उसके गांव के करीब पांच सौ परिवारों नेपिछले 14 वर्षों से घुमंतु जीवन छोड़कर राजस्थान की इस बस्तीमें अपना स्थायी ठिकाना बना लिया है। गेंदी बाई बताती है, ‘‘इतनेसालों के बाद भी हमें न तो जमीन के पट्टे मिले हैं और न ही उन्हेंकहीं और बसाया गया है। बस्ती में सबसे बड़ी दिक्कत पानी कीहै। गांव से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर लगे एक नल सेसमूची बस्ती पानी की जरूरतों को पूरा कर रही है। पंचायत मेंहमारी सुनवाई नहीं होती। सरपंच ब्राह्मण जाति का है इसलिएबैठक में हमारी कोई नहीं सुनता।’’ गेंदी और उसकी बस्ती केलोग जिस बस्ती में रह रहे हैं वह वन क्षेत्र की जमीन घोषित हैइसलिए उसे और उसके परिवार वालों को अक्सर वन अधिकारियोंकी प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है।’’ गेंदी बताती है, ‘‘हमारेघर में एक लकड़ी के टुकड़े को देखते ही जुर्माने की परची कटजाती है।’’इन सब समस्याओं के बावजूद पंचायत बैठक में वह अपनीबात रखने में संकोच नहीं करती। वह अभी पंचायत की बैठक सेलौटी है जिसमें विधवा पेंशन और बीपीएल कार्ड से संबंधित कुछफैसले लिए गए। गेंदी कहती है, ‘‘आज नहीं तो कल उन्हें हमारीसमस्याओं को सुनना ही पड़ेगा आखिर कब तक वे हमें खामोशरख पाएंगे।’’भोपा समुदाय की शीला केसरोली ग्राम पंचायत की वार्ड पंचनिर्वाचित हुई हैं। 45 वर्षीय शीला 120 भोपा परिवारों के साथपिछले तीन वर्षों से रामगढ़ गांव (भोपावास) में स्थायी रूप से रहरही है। भोपा समुदाय के लोग गाकर और पुरानी चित्रकलाओं कीकहानियां सुनाकर अपना पेट भरते आए हैं। शीला और उसकेपति आज भी गांव के लोगों का सारंगी बजाकर मनोरंजन करतेहैं। शीला ने सारंगी बजाना अपने घर के बड़े-बूढ़ों से सीखा है।शीला की बस्ती में 40-50 घर हैं। घास-फूस और मिट्टी के बनेइन घरों के पट्टे किसी के पास नहीं। गांव के सभी बच्चे खुले मेंपढ़ते हैं। पानी का भी कोई प्रबंध नहीं है।शीला के मुताबिक वह हर पंचायत की बैठक में बस्ती में पानीऔर बिजली की समस्या के बारे में बताती है। लेकिन पंचायत केलोग हमसे लिखवा तो लेते हैं पर उसका समाधान नहीं होता। वहबताती है, ‘‘लेकिन मैं चुप नहीं बैठूंगी। मैं अपनी मांगें तब तकरखती रहूंगी जब तक कि वे पूरी नहीं हो जातीं।’’पंचातयों में निर्वाचित घुमंतु समाज की इन महिलाओं कीसमस्या पंचायत बैठकों में न बोल पाना या पंच/सरपंच पति नहींहै। जिस बड़ी समस्या का सामना इन्हें करना पड़ा है वह हैविभिन्न जातियों के लोगों द्वारा इनकी स्वीकृति। इनके अस्तित्वको स्वीकारना और उनके साथ समान बर्ताव करना।घुमंतु समुदाय के विकास के लिए कार्यरत मुक्ति धारा संस्थाके संस्थापक रतन कात्यायनी के मुताबिक, ‘‘ये महिलाएं जागरूकहैं और स्थानीय प्रशासनिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए आगे आरही हैं। वे पंचायत बैठकों में बोलने से नहीं डरती लेकिन समाजउनके प्रति भेदभाव करता है। लेकिन समय के साथ और इनमहिलाओं की क्षमता से उसमें बदलाव आएगा।’’ कात्यायनी कोपूरी उम्मीद है कि ये घुमंतु महिलाएं अपने संकल्प में आखिरसफल होंगी। मुक्तिधारा पहली बार पंचायतों में चुनकर आने वालीइन महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए एक हजार रुपए प्रतिमाह की फेलोशिप दे रहा है।

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