अन्नू आनंद
भारतीय पत्रकारिता में अंग्रेजी की चैधराहट अब अधिक समय नहीं चलेगी। राष्ट्रीय पाठक सर्वे2006 ने स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय भाषायी समाचारपत्र अंग्रेजी पत्रों से कहीं आगे है। इस वर्षभारतीय भाषाओं के पाठकों की संख्या पिछले वर्ष के मुकाबले एक करोड़ 36 लाख बढ़ी है जबकिअंग्रेजी के पाठकों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई। अंग्रेजी के पाठक आज भी दो करोड़ दसलाख ही हैं जबकि भाषायी पाठकों की संख्या 20 करोड़ 36 लाख है। पाठकों की संख्या में जोबढ़ोतरी हो रही है वह केवल हिंदी या अन्य भाषाओं के पाठकों की है।पिछले लंबे समय से मीडिया जगत के लंबरदार अंग्रेजी अखबार ही बने हुए हंै। जबकि देश केसबसे अधिक पढ़े जाने वाले पहले दस अखबार हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के हैं। सर्वे के मुताबिकअंग्रेजी का एक ही अखबार 11वें नंबर पर है।
राष्ट्रीय राजधानी से निकलने वाले अंग्रेजी के इन अखबारों ने ऐसा भ्रम बना रखा है कि वे ही देशकी अधिकतर जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। देश की राजधानी से निकलने के कारण इनसमाचारपत्रों की पहुंच राजनेताओं और अफसरशाहों तक अधिक है। अंग्रेजी राज की मानसिकता सेग्रस्त केंद्रीय मंत्री भी वही पढ़ता, समझता और सच मानता है जो दिल्ली से निकलने वाले अंग्रेजीके मुख्य अखबार छापते हैं। विज्ञापनों के जरिए इन अखबारों ने ‘नंबर वन’ होने का ऐसा मायाजालफैला रखा है कि नेता से लेकर अभिनेता तक इन्हीं अखबारों को जनता का ‘आईना’ समझता है।जबकि हकीकत यह है कि मात्र 75 लाख की पाठक संख्या के साथ अंग्रेजी का ‘टाइम्स आॅफइंडिया’ अखबार 11वें स्थान पर है। पहले दो नंबर पर आने वाले हिंदी के पाठकों की संख्या दोकरोड़ से ऊपर है। अब आम जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है यह सिर्फ अंग्रेजीअखबार के मालिकों को ही नहीं बल्कि नीति निर्माताओं और राजनेताओं के लिए समझना जरूरीहै। क्योंकि किसी भी मुद्दे पर कार्रवाई की उम्मीद तब तक नहीं की जाती जब तक उसकी खबरइन अंगे्रजी समाचारपत्रों में नहीं छपती।
बड़ा अखबार केवल अधिक विज्ञापनों की संख्या से नहीं बल्कि अधिक पाठकों की संख्या सेपहचाना जाना चाहिए। इसके लिए मुख्यधारा के मीडिया को पुनर्परिभाषित करना होगा। निजीचैनलों के बढ़ते वर्चस्व में अखबारों के पाठकों की यह वृद्धि एक सुखद आश्चर्य है।टीवी के दर्शकों में भी वृद्धि हुई है। लेकिन जैसी कि आशंका जताई जा रही थी कि आने वालेसमय में टीवी से स्पर्धा में अखबार बेहद पीछे छूट जाएंगे या टीवी माध्यम अखबारों का विकल्प बनकर उभरेगा, सर्वे के परिणामों से साबित होता है कि यह आशंकाएं निराधार हैं। टीवी के दर्शकोंकी संख्या आज यदि 23 करोड़ तक पहुंच गई है तो 22 करोड़ 20 लाख लोग आज भी अखबारपढ़ते हैं। साक्षरता दर में वृद्धि के साथ-साथ यह संख्या और भी बढ़ेगी। यूं भी निजी चैनल आगेनिकलने की जिस बेलगाम दौड़ में शामिल हो चुके हैं उसको देखकर तो यही लगता है कि आनेवाले समय में लोगों के बीच समाचारपत्रों की विश्वसनीयता और बढ़ेगी।
दूसरी ओर सरकार ने चैनलों की विषय-सामग्री को सुधारने के बहाने उन पर नकेल डालने केलिए प्रसारण विधेयक लाने का मन बना लिया है। टीवी चैनलों की ओर से इसका पुरजोर विरोधकिया जा रहा है। यह बात सही है कि टीवी चैनलों ने किसी भी नियमन के अभाव में अपनीमनमानी करते हुए लोगों के समक्ष धर्म, मनोरंजन, अपराध का ऐसा तिलिस्म बना दिया है कि इसतिलिस्म को तोड़ना अब आसान बात नहीं है। लेकिन चैनलों के कंटेंट को सुधारने का समाधानसरकारी अंकुश नहीं। भले ही सरकार यह दावा करे कि प्रसारण विधेयक के माध्यम से वह चैनलोंकी विषय-वस्तु के नियमन की कोशिश कर रही है लेकिन हमारे पिछले अनुभव बताते हंै कि जबभी मीडिया को सुधारने की आड़ में कोई भी सरकारी प्रयास किया गया वह सेंसर या अंकुश केरूप में ही सामने आया।
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। यह स्वतंत्रता देश का गर्वहै। विधेयक के कई प्रावधान ऐसे हैं जो स्पष्ट करते हैं कि यदि यह विधेयक लागू हुआ तोसरकारी अफसरों को मनमानी करने की छूट मिल जाएगी और इसका दुरुपयोग होना स्वाभाविकहै।
चैनलों की अराजकता पर रोक जरूरी है इस से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यह रोकस्व-निर्मित होनी चाहिए। किसी प्राधिकरण का गठन भी समस्या का हल नहीं। क्योंकि कोई भीप्राधिकरण या परिषद् ‘सरकारी आशीर्वाद’ के बिना नहीं बनता। प्रेस के मामलों को देखने के लिएबनी प्रेस परिषद् भी अधिकारों के अभाव में अपनी सार्थकता साबित नहीं कर सकी।
सबसे बड़ा नियमन या तो चैनलों के अपने हाथ में है या इनको देखने वाले दर्शकों के हाथ में।जागरूक दर्शक ही चैनलों के कंटेंट को बदल सकते हैं क्योंकि अंतिम उपभोक्ता वही हैं। प्रसारणमीडिया को उपभोक्ता फोरम बनाने चाहिए। उनके साथ मिलकर उन्हें स्वयं अपनी आचार संहिताबनानी होगी।
यह तय है कि चैनल हों या अखबार लंबे समय तक वही टिक पाएगा जो आम आदमी काप्रतिनिधित्व करेगा, फिलहाल यह आम आदमी केवल भारतीय भाषाओं से ही जुड़ा हुआ है।
(यह लेख जुलाई -सितम्बर २००६ के विदुर अंक में प्रकशित हुआ है )
2 comments:
यह खुशी की बात है कि भारत का सबसे बड़ा अखबार भी पहले दस अखबारों में जगह नहीं रखता। लेकिन असली खुशी तब होगी जब इनको सरकारी विज्ञापन देना बन्द कर दिया जाता और जो भाषायी अखबार अपने दम पर लोकप्रिय हैं उन्हें और प्रोत्साहन दिया जाता। यदि ऐसा हो तो इन सभी अंग्रेजी अखबारों के बन्द होने की नौबत आ जाती और भारतीय भाषाओं के लिये वह स्वर्णिम दिन होता।
बहुत अच्छी जानकारी। यह आपके लिए सूचना कि मंदी का भी इन्ही के लिए ज्यादा है। इन्होंने अपना लोकल नेटवर्क नही बनाया। जबकि भाषाई अखवार अपना लोकल नेटवर्क बनाकर स्थानीय स्तर पर आय अर्जन में लगे है।
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