Thursday 8 January 2009

कहां है गांरटी रोजगार की




अन्नू आनंद
करोड़ो रुपए की आर्थिक योजना और वह भी अगर देश के सबसे गरीब तबके से जुड़ी हो तो उसका श्रेय कौन नहीं उठाना चाहेगा। खासकर जब इस श्रेय को वोटों में बदला जा सके तो कोई भी राजनैतिक पार्टी ऐसे अवसर को भुनाने से नहीं चूकेगी। यही कारण है कि पिछले दिनों यूपीए सरकार ने आनन-फानन में समूचे देष में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून को लागू करने की घोषणा कर डाली। अभी तक यह योजना देश के 330 जिलों में ही लागू है। गत अप्रैल 2007 को ही दूसरे चरण के तहत 200 जिलों से बढ़ाकर इसे 330 जिलों में लागू किया गया था और अगले तीन वर्शों में चरणबद्ध तरीके से इसे बाकी जिलों में लागू किया जाना था। लेकिन इस घोशणा के साथ अब यह अप्रैल 2008 से देश के 593 जिलों में लागू की जाएगी और इस पर 20 हजार करोड़ रुपए का खर्च आएगा। हालांकि इस घोषणा से अगर देश के हर गरीब व्यक्ति को रोजगार मिलने की संभावना बनती है तो उसका स्वागत होना चाहिए लेकिन जिस अफरा-तफरी में समय से पूर्व यानी तीन साल पहले ही इसे समूचे देश में लागू करने की घोषणा की गई है उसमंे आम आदमी का फायदा कम चुनावी राजनीति की बू अधिक आती है। ‘गरीबों का मसीहा’ की छवि बनाने के जुगत में सरकार ने समूचे देष में इसे लागू करने की घोशणा तो कर डाली लेकिन इस घोषणा से पहले सरकार को यह तो पता लगा लेना चाहिए था कि अभी तक जिन हिस्सों में इसे लागू किया गया है वहां की जमीनी हकीकत क्या है? जिन 330 जिलों में योजना के तहत गरीब परिवार के व्यस्क को 100 दिनों तक का काम देने की कवायद शुरू हो चुकी है वहां कितने लोगों को इसका लाभ पहुंचा है और कितने लोग कितने दिनों के लिए ‘गारंटी रोजगार’ के हकदार बने हैंै।
वास्तविकता तो यह है कि वर्श 2006-2007 यानी पिछले एक वर्ष में इस योजना के तहत छह प्रतिशत से भी कम परिवारों को सौ दिनों तक का रोजगार हासिल हो सका है। पिछले दो वर्षों में देश के जिन हिस्सों में यह योजना लागू हुई है वहां अनियमितताओं, भ्रष्टाचार, अफसरशाही और कुव्यवस्था के चलते कम लोगों को ही इसका फायदा मिला है।
कानून में योजना को लागू करने की जिम्मेदारी पंचायतों पर है। लेकिन विभिन्न राज्यों में इसके क्रियान्वयन में उनकी भूमिका अभी भी प्रभावी नहीं बन पाई है क्योंकि पंचायतों के पास पर्याप्त तकनीकी और प्रशासकीय स्टाफ नहीं है। नतीजतन निर्धारित समय के भीतर काम का आवंटन न हो पाना, कम मजदूरी और समय सीमा के अंदर मजदूरी न मिलने जैसी गंभीर समस्याएं सभी राज्यों मंे देखने को मिल रही हैं।
पंचायती राज पर कार्य करने वाली संस्था ‘प्रिया’ ने 14 राज्यों के 21 जिलों में अप्रैल 2006 से मार्च 2007 तक योजना के अमलीकरण पर सर्वे कर इसी हफ्ते एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सर्वे किए गए 530 गांवों में केवल 45 प्रतिषत रजिस्टर्ड परिवारों ने काम की मांग की और मांग करने वाले इन परिवारों में से केवल 27 प्रतिषत परिवारों को ही काम की पर्ची दी गई। सर्वे के मुताबिक केवल 44 प्रतिषत परिवारों को ही निर्धारित 15 दिनों के भीतर काम मिला। सेंपल में सभी परिवारों ने बताया कि उन्हें 15 दिन के भीतर काम नहीं मिला। कानून के मुताबिक जिन लोगों को निर्धारित समय पर काम नहीं मिलता उन्हें रोजगार भत्ता मिलना चाहिए लेकिन सर्वे में कोई भी ऐसा परिवार नहीं था जिसे रोजगार भत्ता मिला हो।
सर्वे के मुताबिक अधिकतर राज्यों में कुल योजना का 81 प्रतिषत काम पंचायतों के तहत लागू किया जा रहा है लेकिन उन्हें पर्याप्त स्टाफ या फंड न दिए जाने की वजह से पंचायतों पर दबाव बढ़ रहा है। प्रषासनिक स्तर पर योजना को सुचारू रूप से चलाने के लिए केंद्रीय योजना में रोजगार सहायक की नियुक्ति का निर्देष है लेकिन उत्तराखंड, पष्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेष और बिहार में रोजगार सहायकों की नियुक्ति अधिकतर गावों में नहीं हुई है। इन राज्यों मे स्टाफ की कमी के कारण पंचायतंे सक्रिय नहीं हो पा रहीं जिसका लाभ गलत और स्वार्थी तत्व उठा रहे हैं। इसी वजह से इन क्षेत्रों में भ्रश्टाचार के मामले अधिक बढ़े हैं।
न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दिए जाने की जानकारी सभी राज्यों से मिली। सर्वे में 42 प्रतिषत परिवारों ने राज्य में लागू न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी मिलने की षिकायत की। कई उत्तरदाताओं ने बताया कि कम मजदूरी मिलने के कारण बहुत से ग्रामीण रोजगार परियोजना के तहत काम करना पसंद नहीं करते। सभी राज्य सरकारों को कार्य, समय एवं गति के आधार पर मजदूरी का निर्धारण करना है लेकिन कई राज्यों में जिला दर सूची (डीएसआर) अभी तक नहीं बनी है। अतः राज्य में लागू न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी दी जा रही है।
कानून के मुताबिक हर दस ग्राम पंचायत पर जूनियर इंजीनियर उपलब्ध होना चाहिए जो कि किए गए काम को मापने की जिम्मेदारी संभालता है। लेकिन अधिकतर क्षेत्रों में ब्लाॅक स्तर पर भी जूनियर इंजीनियर उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए किए गए काम का सही आकलन न होने के कारण मजदूरी देर से मिलना या कम मिलना आम बात है। हालांकि कानून के मुताबिक काम करने वाले हर मजदूर को निर्धारित मजदूरी का भुगतान साप्ताहिक या फिर पंद्रह दिनों के भीतर हो जाना चाहिए लेकिन सर्वे के मुताबिक 54 प्रतिषत परिवारों ने बताया कि उन्हें 15 दिनों के भीतर मजदूरी नहीं मिली। बिहार, उत्तरप्रदेष छत्तीसगढ़ राजस्थान और केरल तथा झारखंड में ऐसी षिकायतें अधिक थीं।
नई दिल्ली की एक अन्य संस्था सेंटर फाॅर इन्वायरमेंट एण्ड फूड सिक्योरिटी द्वारा हाल ही में कराई गई एक सर्वे के मुताबिक उड़ीसा में रोजगार गारंटी योजना पर खर्च की गई 75 प्रतिषत राषि लाभार्थियों तक नहीं पहुंची। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सरकार औसतन हर जरूरतमंद परिवार के लिए पांच दिन का काम उपलब्ध करा सकी जबकि आधिकारिक आंकड़ों में 57 दिनों का काम दिए जाने का दावा किया गया था। यही नहीं उड़ीसा में तो केंद्रीय योजना लागू होने के एक वर्श तक राज्य में योजना की अधिसूचना जारी ही नहीं हुई थी।
समूची योजना के अमल में राज्य रोजगार गारंटी परिशद् का महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन सर्वे के दौरान पाया गया कि बिहार, गुजरात, हरियाणा और उड़ीसा में परिशदों का गठन ही नहीं हुआ है जबकि हकीकत तो यह है कि ये परिशदें् रोजगार योजना से संबंधित हर विशय जैसे कार्यो का निर्धारण असके अमलीकरण और संचालन प्रक्रिया पर ध्यान देती है। इसके अलावा कानून के प्रति आम लोगों में जागरूकता फैलाने का जिम्मा भी इन पर है लेकिन इन राज्यों मेें परिशदों के अभाव में योजना किस प्रकार चल रही होगी इसकी महज कल्पना की जा सकती है।
रोजगार के मामले में महिलाएं अधिकतर राज्यों में हाषिये पर ही दिखाई पड़ती हैं। कानून की धारा 6 के मुताबिक रजिस्टर्ड किए गए लोगों में से महिलाओं को प्राथमिकता मिलनी चाहिए ताकि एक तिहाई महिलाओं को काम मिल सके। लेकिन सर्वे किए गए अधिकतर जिलों में पुरुशों की अपेक्षा महिलाओं की भागीदारी बहुत कम थी। यह भागीदारी दक्षिण चैबीस परगना (पष्चिम बंगाल) में 1.01 प्रतिषत, सीतापुर (उत्तर प्रदेष) मंे 2.57 प्रतिषत, सिरमौर (हिमाचल प्रदेष) में 3.9 प्रतिषत थी। महिलाओं को कम काम देने का कारण अधिकतर घरों में घर के मुखिया के रूप में पुरुश का नाम दर्ज कराया जाना है। यही नहीं अधिकतर क्षेत्रों में ठेकेदार महिलाओं को षारीरिक मजदूरी करने के लिए उपयुक्त नहीं मानते और वे उन्हें केवल उन्हें तभी काम देना पसंद करते हंै जब वे कम मजदूरी लेने के लिए तैयार होती हैं।
इन तथ्यों के मदूदेनजर अधिकतर राज्यों से आने वाली अनियेिमतताओं की ऐसी रिपोर्टें यह तस्दीक करती है कि जरूरत मौजूदा परियोजना ढांचे को सुदृढ़ और सषक्त बनाने की है। योजना का विस्तार तभी सार्थक साबित हो पाएगा जबकि यह मौजूदा जिलों में हर गरीब व्यक्ति को रोजगार की गांरटी दे सके और लाभदायक सामुदायिक परिसंपतियां बनाने के लक्ष्य को हासिल कर सके। लेकिन सरकार की मंषा तत्काल राजनैतिक लाभ लूटने की है इसलिए वह मौजूदा ढांचे को मजबूत बनाकर हर गरीब को गांरटी रोजगार देने की बजाय राजनीति की गोटियां फिट करने मे अधिक मषगूल है।
यह लेख दैनिक भास्कर में अक्तूबर 2007 को प्रकाषित हुआ हैकहां है गांरटी रोजगार की
अन्नू आनंद
करोड़ो रुपए की आर्थिक योजना और वह भी अगर देश के सबसे गरीब तबके से जुड़ी हो तो उसका श्रेय कौन नहीं उठाना चाहेगा। खासकर जब इस श्रेय को वोटों में बदला जा सके तो कोई भी राजनैतिक पार्टी ऐसे अवसर को भुनाने से नहीं चूकेगी। यही कारण है कि पिछले दिनों यूपीए सरकार ने आनन-फानन में समूचे देष में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून को लागू करने की घोषणा कर डाली। अभी तक यह योजना देश के 330 जिलों में ही लागू है। गत अप्रैल 2007 को ही दूसरे चरण के तहत 200 जिलों से बढ़ाकर इसे 330 जिलों में लागू किया गया था और अगले तीन वर्शों में चरणबद्ध तरीके से इसे बाकी जिलों में लागू किया जाना था। लेकिन इस घोशणा के साथ अब यह अप्रैल 2008 से देश के 593 जिलों में लागू की जाएगी और इस पर 20 हजार करोड़ रुपए का खर्च आएगा। हालांकि इस घोषणा से अगर देश के हर गरीब व्यक्ति को रोजगार मिलने की संभावना बनती है तो उसका स्वागत होना चाहिए लेकिन जिस अफरा-तफरी में समय से पूर्व यानी तीन साल पहले ही इसे समूचे देश में लागू करने की घोषणा की गई है उसमंे आम आदमी का फायदा कम चुनावी राजनीति की बू अधिक आती है। ‘गरीबों का मसीहा’ की छवि बनाने के जुगत में सरकार ने समूचे देष में इसे लागू करने की घोशणा तो कर डाली लेकिन इस घोषणा से पहले सरकार को यह तो पता लगा लेना चाहिए था कि अभी तक जिन हिस्सों में इसे लागू किया गया है वहां की जमीनी हकीकत क्या है? जिन 330 जिलों में योजना के तहत गरीब परिवार के व्यस्क को 100 दिनों तक का काम देने की कवायद शुरू हो चुकी है वहां कितने लोगों को इसका लाभ पहुंचा है और कितने लोग कितने दिनों के लिए ‘गारंटी रोजगार’ के हकदार बने हैंै।
वास्तविकता तो यह है कि वर्श 2006-2007 यानी पिछले एक वर्ष में इस योजना के तहत छह प्रतिशत से भी कम परिवारों को सौ दिनों तक का रोजगार हासिल हो सका है। पिछले दो वर्षों में देश के जिन हिस्सों में यह योजना लागू हुई है वहां अनियमितताओं, भ्रष्टाचार, अफसरशाही और कुव्यवस्था के चलते कम लोगों को ही इसका फायदा मिला है।
कानून में योजना को लागू करने की जिम्मेदारी पंचायतों पर है। लेकिन विभिन्न राज्यों में इसके क्रियान्वयन में उनकी भूमिका अभी भी प्रभावी नहीं बन पाई है क्योंकि पंचायतों के पास पर्याप्त तकनीकी और प्रशासकीय स्टाफ नहीं है। नतीजतन निर्धारित समय के भीतर काम का आवंटन न हो पाना, कम मजदूरी और समय सीमा के अंदर मजदूरी न मिलने जैसी गंभीर समस्याएं सभी राज्यों मंे देखने को मिल रही हैं।
पंचायती राज पर कार्य करने वाली संस्था ‘प्रिया’ ने 14 राज्यों के 21 जिलों में अप्रैल 2006 से मार्च 2007 तक योजना के अमलीकरण पर सर्वे कर इसी हफ्ते एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सर्वे किए गए 530 गांवों में केवल 45 प्रतिषत रजिस्टर्ड परिवारों ने काम की मांग की और मांग करने वाले इन परिवारों में से केवल 27 प्रतिषत परिवारों को ही काम की पर्ची दी गई। सर्वे के मुताबिक केवल 44 प्रतिषत परिवारों को ही निर्धारित 15 दिनों के भीतर काम मिला। सेंपल में सभी परिवारों ने बताया कि उन्हें 15 दिन के भीतर काम नहीं मिला। कानून के मुताबिक जिन लोगों को निर्धारित समय पर काम नहीं मिलता उन्हें रोजगार भत्ता मिलना चाहिए लेकिन सर्वे में कोई भी ऐसा परिवार नहीं था जिसे रोजगार भत्ता मिला हो।
सर्वे के मुताबिक अधिकतर राज्यों में कुल योजना का 81 प्रतिषत काम पंचायतों के तहत लागू किया जा रहा है लेकिन उन्हें पर्याप्त स्टाफ या फंड न दिए जाने की वजह से पंचायतों पर दबाव बढ़ रहा है। प्रषासनिक स्तर पर योजना को सुचारू रूप से चलाने के लिए केंद्रीय योजना में रोजगार सहायक की नियुक्ति का निर्देष है लेकिन उत्तराखंड, पष्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेष और बिहार में रोजगार सहायकों की नियुक्ति अधिकतर गावों में नहीं हुई है। इन राज्यों मे स्टाफ की कमी के कारण पंचायतंे सक्रिय नहीं हो पा रहीं जिसका लाभ गलत और स्वार्थी तत्व उठा रहे हैं। इसी वजह से इन क्षेत्रों में भ्रश्टाचार के मामले अधिक बढ़े हैं।
न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दिए जाने की जानकारी सभी राज्यों से मिली। सर्वे में 42 प्रतिषत परिवारों ने राज्य में लागू न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी मिलने की षिकायत की। कई उत्तरदाताओं ने बताया कि कम मजदूरी मिलने के कारण बहुत से ग्रामीण रोजगार परियोजना के तहत काम करना पसंद नहीं करते। सभी राज्य सरकारों को कार्य, समय एवं गति के आधार पर मजदूरी का निर्धारण करना है लेकिन कई राज्यों में जिला दर सूची (डीएसआर) अभी तक नहीं बनी है। अतः राज्य में लागू न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी दी जा रही है।
कानून के मुताबिक हर दस ग्राम पंचायत पर जूनियर इंजीनियर उपलब्ध होना चाहिए जो कि किए गए काम को मापने की जिम्मेदारी संभालता है। लेकिन अधिकतर क्षेत्रों में ब्लाॅक स्तर पर भी जूनियर इंजीनियर उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए किए गए काम का सही आकलन न होने के कारण मजदूरी देर से मिलना या कम मिलना आम बात है। हालांकि कानून के मुताबिक काम करने वाले हर मजदूर को निर्धारित मजदूरी का भुगतान साप्ताहिक या फिर पंद्रह दिनों के भीतर हो जाना चाहिए लेकिन सर्वे के मुताबिक 54 प्रतिषत परिवारों ने बताया कि उन्हें 15 दिनों के भीतर मजदूरी नहीं मिली। बिहार, उत्तरप्रदेष छत्तीसगढ़ राजस्थान और केरल तथा झारखंड में ऐसी षिकायतें अधिक थीं।
नई दिल्ली की एक अन्य संस्था सेंटर फाॅर इन्वायरमेंट एण्ड फूड सिक्योरिटी द्वारा हाल ही में कराई गई एक सर्वे के मुताबिक उड़ीसा में रोजगार गारंटी योजना पर खर्च की गई 75 प्रतिषत राषि लाभार्थियों तक नहीं पहुंची। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सरकार औसतन हर जरूरतमंद परिवार के लिए पांच दिन का काम उपलब्ध करा सकी जबकि आधिकारिक आंकड़ों में 57 दिनों का काम दिए जाने का दावा किया गया था। यही नहीं उड़ीसा में तो केंद्रीय योजना लागू होने के एक वर्श तक राज्य में योजना की अधिसूचना जारी ही नहीं हुई थी।
समूची योजना के अमल में राज्य रोजगार गारंटी परिशद् का महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन सर्वे के दौरान पाया गया कि बिहार, गुजरात, हरियाणा और उड़ीसा में परिशदों का गठन ही नहीं हुआ है जबकि हकीकत तो यह है कि ये परिशदें् रोजगार योजना से संबंधित हर विशय जैसे कार्यो का निर्धारण असके अमलीकरण और संचालन प्रक्रिया पर ध्यान देती है। इसके अलावा कानून के प्रति आम लोगों में जागरूकता फैलाने का जिम्मा भी इन पर है लेकिन इन राज्यों मेें परिशदों के अभाव में योजना किस प्रकार चल रही होगी इसकी महज कल्पना की जा सकती है।
रोजगार के मामले में महिलाएं अधिकतर राज्यों में हाषिये पर ही दिखाई पड़ती हैं। कानून की धारा 6 के मुताबिक रजिस्टर्ड किए गए लोगों में से महिलाओं को प्राथमिकता मिलनी चाहिए ताकि एक तिहाई महिलाओं को काम मिल सके। लेकिन सर्वे किए गए अधिकतर जिलों में पुरुशों की अपेक्षा महिलाओं की भागीदारी बहुत कम थी। यह भागीदारी दक्षिण चैबीस परगना (पष्चिम बंगाल) में 1.01 प्रतिषत, सीतापुर (उत्तर प्रदेष) मंे 2.57 प्रतिषत, सिरमौर (हिमाचल प्रदेष) में 3.9 प्रतिषत थी। महिलाओं को कम काम देने का कारण अधिकतर घरों में घर के मुखिया के रूप में पुरुश का नाम दर्ज कराया जाना है। यही नहीं अधिकतर क्षेत्रों में ठेकेदार महिलाओं को षारीरिक मजदूरी करने के लिए उपयुक्त नहीं मानते और वे उन्हें केवल उन्हें तभी काम देना पसंद करते हंै जब वे कम मजदूरी लेने के लिए तैयार होती हैं।
इन तथ्यों के मदूदेनजर अधिकतर राज्यों से आने वाली अनियेिमतताओं की ऐसी रिपोर्टें यह तस्दीक करती है कि जरूरत मौजूदा परियोजना ढांचे को सुदृढ़ और सषक्त बनाने की है। योजना का विस्तार तभी सार्थक साबित हो पाएगा जबकि यह मौजूदा जिलों में हर गरीब व्यक्ति को रोजगार की गांरटी दे सके और लाभदायक सामुदायिक परिसंपतियां बनाने के लक्ष्य को हासिल कर सके। लेकिन सरकार की मंषा तत्काल राजनैतिक लाभ लूटने की है इसलिए वह मौजूदा ढांचे को मजबूत बनाकर हर गरीब को गांरटी रोजगार देने की बजाय राजनीति की गोटियां फिट करने मे अधिक मषगूल है।
(यह लेख दैनिक भास्कर में अक्तूबर 2007 को प्रकाशित हुआ है)

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