Thursday, 22 January 2009

मीडिया पर हावी ‘खास आदमी’

अन्नू आनंद
मीडिया में आम आदमी से जुड़ी ख़बरें सिकुड़ती जा रही हैं क्योंकि ‘खास आदमी’ आज मीडिया में हावी है। यह खास आदमी नेता, अभिनेता और ग्लैमर की दुनिया से लेकर अपराध जगत का कोई भी व्यक्ति हो सकता है।
लेकिन जब आम आदमी की बात की जाती है तो उसका अभिप्राय उस व्यक्ति से होता है जो देश के 70 प्रतिशत क्षेत्र में निवास करता है, जिसकी समस्या दो वक्त की रोटी जुटाने से लेकर एक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की हो सकती है। यह व्यक्ति शहरों में झुग्गियों या अन्य छोटी-मोटी बस्तियों और गांवों में रहता है। ऐसे व्यक्तियों की संख्या भले ही देश की जनसंख्या का एक तिहाई हो लेकिन मीडिया में इनसे संबंधित ख़बरों का प्रतिशत पांच से अधिक नहीं मिलेगा। इन की खबरें या तो अपवाद के रूप में छपती/प्रसारित होती हैं या फिर वे तब समाचार बनते हैं जब इनके साथ कोई सनसनीखेज़ घटना घटित हो।
अधिकतर समाचारपत्रों के पन्ने खास व्यक्तियों की ख़बरों से अटे पड़े मिलेंगे। अगर यह ‘खास’ व्यक्ति ग्लैमर या अपराध की दुनिया से है तो फिर तो उसके जीवन की पूरी गाथा जानने के लिए भी अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ती। पिछले दिनों प्रकाशन और प्रसारण मीडिया ने यह बताने के लिए कि देश का शातिर अपराधी अपनी पत्नी से कैसे व्यवहार करता है कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके लिए न्यूयार्क में अपराधी की पत्नी को खोज निकाला गया और फिर बड़े जोर-शोर के साथ इस बात का प्रचार किया गया कि उक्त अपराधी अपनी पत्नी को पीटता था और उसके साथ बदसलूकी करता था जबकि यह बात बेहद स्वाभाविक है कि देश का सबसे बड़ा अपराधी जिस पर सैकड़ों बच्चों को अनाथ बनाने का अभियोग चल रहा हो वह अपने परिवार के साथ कैसा व्यवहार करेगा। लेकिन सोचने की बात यह है कि जिन अख़बारों ने अपना बहुमूल्य न्यूज़ पिं्रंट केवल यह बताने पर खर्च किया कि अपराधी का अपने संबंधियों के साथ रिश्ता कैसे था या जिन चैनलों ने विशेषतः अपना रिपोर्टर न्यूयार्क भेजकर सुबह से शाम तक अपराधी की पत्नी का रोना रोया वह मीडिया अपने संवाददाताओं को देश के दूरदराज़ इलाकों में बसे उन लोगों की सुध लेने की कितनी कोशिश करता हैं जो जल, जंगल या ज़मीन और रोजी-रोटी के सवालों से जूझते रहते हैं और जिनकी मुख्य समस्या अपने क्षे़त्र का विकास है।
मीडिया के इस उपेक्षित रवैये को देखते हुए ग्रासरूट मुद्दों पर काम करने वाले करीब 30 कार्यकत्र्ताओं ने पिछले दिनों मीडिया तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए स्वयं कलम उठाने की शपथ ली। इन लेखकों ने राजस्थान के लूणकरनसर में एकत्रित होकर पांच दिवसीय लेखन शैली प्रशिक्षण कार्यशाला में भाग लिया। इनमें अधिकतर राजस्थान के दूरदराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों में जमीनी मुद्दों से जुड़े कार्यकत्र्ता थे जो अपने लेखन की क्षमता को सुधारना चाहते थे। इसमें फ़लौदी जिले की इमरती थी जो अपने गांव में अशिक्षा के खिलाफ लड़ाई लड़ रही है। वह अपने क्षेत्र में अशिक्षा की समस्या को खत्म करने के लिए और प्रशासन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए अख़बारों में लिखना चाहती है। इमरती की तरह नागौर जिले की कमला अपने क्षेत्र में होने वाले बाल विवाहों के खिलाफ जागरूकता पैदा करना चाहती है। कार्यशाला में हिस्सा लेने वाले सभी कार्यकत्र्ताओं की आम राय थी कि मीडिया को ग्रामीण क्षेत्र से जोड़ने के लिए जरूरी है कि वे अपने क्षेत्र की समस्याओं पर स्वयं लिखें। उनका मानना था कि मीडिया में ये मुद्दे मौसमी रूप से उजागर होते हैं।
हालांकि यह आसान नहीं है और न ही विकास के मुद्दों को मीडिया के एजेंडे में लाने का कोई ‘क्विक फिक्स सोल्यूशन’ हैैै। लेकिन एक सार्थक शुरूआत अवश्य है। ऐसे प्रयास राजस्थान के अलावा छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में भी हुए हैं। मीडिया को अब इन लोगों के सरोकारों की ओर भी ध्यान देना होगा। भले ही कुछ अख़बार और चैनल इस बात का दावा करें कि वे आम आदमी से जुड़ी ख़बरों को भी पर्याप्त जगह देते हैं लेकिन हकीकत यह है कि इनका अनुपात राजनीति, बिजनेस और जीवन शैली जैसे विषयों से अपेक्षाकृत बहुत ही कम है।
मीडिया अभी भी खास व्यक्तियों की गिरफ्त में जकड़ा हुआ है। शहरों की मुट्ठी भर महिलाओं की सेक्स समस्याओं पर कवर स्टोरी निकालने वाली पत्रिकाओं को असली भारत के इन नुमाइंदों की भी आवाज सुननी होगी जो मीडिया की उपेक्षा के कारण स्वयं कलम उठाकर अपनी आवाज़ जनता तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर मुख्यधारा के इस मीडिया ने अभी भी इनकी आवाज़ न सुनी तो संभव है कि आने वाले समय में इन वैकल्पिक संवाददाताओं को अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए वैकल्पिक मीडिया का निर्माण करना पडे़। ध्यान रहे कि यह वैकल्पिक मीडिया चुनिंदा वर्गों के नहीं बल्कि देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या यानी असली भारत का प्रतिनिधित्व करेगा। यह लेख अक्तूबर 2005 में विदुर में प्रकाषित हुआ है

4 comments:

Anonymous said...

बहुत ही सुंदर और अहम पोस्ट. हमें कभी कभी लगता है कि उन मीडीया वालों की पिटाई की जाए.

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छी पोस्‍ट.....बिल्‍कुल सहमत हूं आपसे।

Annu Anand अन्नू आनंद said...

मेरे विचार से पिटाई से बेहतर तरीका यह है के की हम अपने रिमोट पर कंट्रोल रखें और उन सभी न्यूज़ प्रोग्राम को न देखें जो वास्तिवकता से दूर नजर आते हैं. इसे प्रकार उन समाचारपत्रों का भी बहिष्कार होना चाहिये जो 'असली भारत' से दूर हैं. असली पॉवर पाठकों और श्रोताओं के हाथ में है. और मुझे पुरा भोरासा है की ज़ल्द ही मीडिया मेनेजेर्स को यह बात समझ में आ जायेगी .

amiteshwar said...

accha lekh hai.
is tarah ke lekh se sahmati to banti hai, lekin grass root par iske liye kaam karna kaphi muskil hai