Saturday, 19 December 2009

क्या कोपेनहेगन समझेगा आधी दुनिया का दर्द

अन्नू आनंद

जलवायु बदलाव के गहराते संकट से निपटने के लिए कोपेनहेगन में शिखर वार्ता शुरू हो चुकी है। सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन को लेकर विभिन्न देशों की उचित जिम्मेदारी तय करने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। क्या सम्मेलन में किसी तार्किक फैसलों पर सहमति बन पाएगी या नहीं यह तो कुछ दिनों में स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन सम्मेलन की वार्ताओं में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की सबसे अधिक और क्रूर मार झेलने वाली आधी दुनिया यानी महिलाओं के दर्द को में ध्यान में रखा जाएगा या नहीं इस को लेकर चिंता जरूर बनती है। हांलाकि इस महा-पंचायत में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व नीति और निर्णय प्रक्रियाओं की अन्य पंचायतों के समान कम है। लेकिन फिर भी उम्मीद की जा रही है कि जलवायु बदलाव के महिलाओं पर पड़ने वाले असर को ध्यान में रखते हुए किसी भी फैसले मंे महिला नजरिए को नजरदांज नहीं किया जाएगा। मौसम में हुए बदलाव के चलते पिछले कुछ सालों में अकाल, बाढ़ और उत्पादक मौसम की अवधि कम होने के कारण खाधान्न की आपूर्ति कम होने की कईं रिपोर्टें आईं। विश्व के कुल खाद्यान्न उत्पादन का आधा से अधिक खाद्यान्न महिलाएं पैदा करती हैं। मिसाल के तौर पर दक्षिण अफ्रीका में 75 फीसदी खाद्यान्न उत्पादन महिलाओं द्वारा किया जाता है। उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर महिलाओं को मौसम के मिजाज की मार सहने के अलावा खाद्यान्न संकट से पैदा हुई भूख की समस्या को भी झेलना पड़ता है। परिवार मे पसरी भूख की मार भी महिलाओं पर अधिक असर डालती है। कृषि और खाद्य विशेषज्ञ डा। स्वामीनाथन ने पिछले दिनों बताया कि एक डिर्गी तापमान बढ़ने से गेहूं का उत्पादन 70 लाख टन कम हो जाएगा। विश्व की 70 फीसदी गरीब संख्या लड़कियों और महिलाओं की है तो जाहिर है कि इसका असर भी उन पर अधिक पड़ेगा। विश्व के गरीब कुल कार्बन का 3फीसदी उत्सर्जन करते हैं लेकिन फिर भी उत्सर्जन से होने वाले दुष्परिणामों का कहर सबसे अधिक उन्हें झेलना पड़ता है। खासकर गरीब महिलाओं को क्योंकि इन परिवारों में घर परिवार संभालने, पानी, चारा और ईंधन के इंतजाम की जिम्मेदारी भी महिलाओं पर रहती है। लेकिन इन चीजों को उपलब्ध कराने वाले पर्यावरणीय संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन के मामले में महिलाओं की सोच और फैसले मायने नहीं रखते। जेंडर एण्ड इन्वायरमेंट की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि गुजरात राज्य में महिलाओं को घर का ईंधन लाने में रोज चार से पांच घंटे का समय बिताना पड़ता है जबकि करीब एक दशक पहले ये काम चार या पांच दिनों में एक बार करना पड़ता था। प्राकुतिक आपदा का सामना भी पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं को अधिक करना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक असमानता और भेदभाव के कारण महिलाओं को चक्रवात और बाढ़ का अधिक नुकसान उठाना पड़ता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 141 देशों में कराई गई एक सर्वे के मुताबिक किसी भी आपदा में महिलाएं आर्थिक और सामाजिक असामनता के चलते पुरूषों की अपेक्षा 14 गुणा अधिक मरती हैं। 1991 में बंगला देश मे आए चक्रवात और बाढ़ के कारण महिलाओं की मौत चार गुणा अधिक हुई थी। पिछले माह जारी हुई संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि जलवायु परिवर्तन केवल उर्जा उपलब्धता या औधोगिक उत्सर्जन का मुद्दा नहीं बल्कि मुख्य मसला किसी भी देश की कम या अधिक जनसंख्या, गरीबी और महिला समानता का है। वीमेन इन्वायरमेंट डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन ने सरकारों को जलवायु बदलाव में होने वाले प्रयासों में महिला समानता पर ध्यान देने की सिफारिश की है। संगठन के मुताबिक जलवायु बदलाव का सबसे अधिक असर महिलाओं पर पड़ता है इसलिए इससे संबंधित फैसलों में उनकी पहुंच और भागीदारी भी अधिक होनी चाहिए। कोपेनहेगन में होने वाले हर फैसले का हर व्यक्ति पर असर पड़ेगा लेकिन याद रहे यहां होने वाले हर अनुचित फैसले की चुभन महिलाओं को अधिक महसूस होगी। पर सवाल यह है कि क्या कोपेनहेगन महिलाओं के इस दर्द को समझेगा ?

(यह लेख 15 दिसंबर को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है)

4 comments:

IRFAN said...

Bahut achchha aur maarmik lekh hai Anuji.Aadhi duniya ka dard ko sabhi ko samajhna chahiye.

सुभाष चन्द्र said...

लेख, काफी अच्छा है।
बहरहाल, आपका सवाल मौजूं है। विकसित देश कभी भी विकासशील और गरीब देश का दर्द नहीं समझ पाएंगे? जैसे, महानगरों में आम इनसान की नहीं होती।

दृष्टिकोण said...

It is a new angle regarding the issue, no body has raised this before. Thanks for improving our understanding.

Drishtikon
www.drishtikon2009.blogspot.com

www.SAMWAAD.com said...

काश, ऐसा होता।


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जल में रह कर भी बेचारा प्यासा सा रह जाता है।
जिसपर हमको है नाज़, उसका जन्मदिवस है आज।