Tuesday, 15 December 2009

युवा माँ के स्वास्थ्य के लिए



अन्नू आनंद (उदयपुर, राजस्थान)


उदयपुर से कोई 55 किलोमीटर दूर आदिवासी क्षेत्र के गांव डूंगरीकलां की प्रतापी छोटी सी झुग्गी में अपनी एक माह की बेटी के साथ खेल रही थी। प्रतापी की यह चैथी संतान है। पिछले तीन बच्चों को जन्म देने के समय उसे कई प्रकार की तकलीफों को झेलना पड़ा था। पहले तीनों बच्चों का प्रसव घर पर ही हुआ था। उसे लगता नहीं था कि वह इस बार बच पाएगी। पति भी खेतों में मजदूरी करने चला जाता था। उसकी हालत बेहद गंभीर थी। प्रतापी को डर था कि इस बार वह भी आसपास के गांवों में प्रसूति के समय मरने वाली महिलाओं में से एक होगी। लेकिन पास के गांव कड़िया में शुरू हुए नए केंद्र से समय पर मिली डाक्टरी सहायता की बदौलत उसका नाम राज्य की बढ़ती मातृत्व मृत्यु दर के आकड़ों में शामिल नहीं हुआ। इसी गांव की केसकी का पहला प्रसव था लेकिन प्रसव के समय उसकी हालत काफी बिगड़ गई। उसका प्लेंस्टा नहीं गिरा था। गांव कुंचोली स्थित सेफमदरहुड केंद्र की दो नर्सों ने उसे केंद्र की गाड़ी से उदयपुर जिले के रेफ्रेल अस्पताल पहुंचाया। उसका मामला काफी बिगड़ चुका था लेकिन समय पर अस्पताल पहुंच जाने के कारण किसी प्रकार से उसकी जान तो बचा ली गई पर उसका बच्चा बच नहीं पाया। प्रतापी और केसकी की तरह उदयपुर और राजसमंद जिले के करीबन 42 गांवों की महिलाएं अब प्रसव के लिए पारंपरिक दाइयों या सगे संबंधियों पर निर्भर नहीं। उदयपुर जिले के छितरे हुए आदिवासी इलाके में 80 प्रतिशत प्रसव घरों में होते हैं। यहां के सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोग प्रसव के लिए पारंपरिक दाइयों या सगे संबंधियों पर निर्भर रहते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में और प्रसव के दौरान या बाद में उचित देखभाल न मिलने के कारण इन इलाकों में बहुत सी महिलाएं प्रसूति के समय या बाद में होने वाली गड़बड़ियों के कारण मरती हैं। उदयपुर में 75 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है लेकिन केवल चार केंद्रों में ही डिलीवरी की सुविधा उपलब्ध है। प्रसव पश्चात या प्रसव पूर्व या गंभीर प्रसव मामले को देखने के लिए कोई सुविधा उपलब्ध नहीं थीं। स्वास्थ्य केंद्रों की नर्सों पर प्रजनन स्वास्थ्य के अलावा भी अन्य कईं प्रकार की प्रशासनिक जिम्मेदारियां है कि वे चाह कर भी गर्भवती महिलाओं तक नहीं पहुंच पातीं। 1997 में कुंभलगढ़ ब्लाक के दक्षिण क्षेत्र में की गई सर्वे में पाया गया कि केवल चार प्रतिशत डिलीवरी नर्सों या एएनएम ने की थीं। राजस्थान की मातृत्व मृत्यु दर का आंकड़ा 670 है जबकि राष्ट्रीय दर 407 प्रति लाख है। उदयपुर स्थित स्वास्थ्य संस्था ‘अर्थ’ यानि एक्शन रिसर्च एण्ड ट्रेंनिग फाॅर हेल्थ ने क्षेत्र की इस बढ़ती मातृत्व मृत्यु दर पर काबू पाने के लिए अनोखा प्रयास किया। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से अलग हटकर संस्था ने 24 घंटे की प्रसूति सुविधा वाले दो सेफमदरहुड केंद्रों की शुरूआत की। इन केंद्रों का मुख्य मकसद दूरदराज़ के गावों में रहने वाली गरीब और अनपढ़ महिलाओं को प्रसव एक से पहले और प्रसव के बाद कुशल स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना है। संस्था अर्थ’ की संस्थापक कीर्ति आयंगर के मुताबिक, ‘‘पांच वर्ष पहले जब उन्होंने इस इलाके में अपना प्रोजेक्ट शुरू किया था उस समय 95 प्रतिशत डिलीवरी घरों में होती थीं। इसलिए इन केंद्रों का लक्ष्य प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी अधिक से अधिक सेवाएं प्रदान करना है।’’ ये केंद्र आसपास गांवों की करीब 50 हज़ार जनसंख्या को प्रजनन स्वास्थ्य और नवजात शिशु की देखभाल डाक्टरों और प्रशिक्षित मिडवाइफों के जरिए मुहैया करा रहे हैं। ‘अर्थ’ ने पहला केंद्र वर्ष 1999 में दक्षिण राजस्थान के राजसमंद जिले के कुभंलगढ़ ब्लाक के कंुचोली गांव में खोला। फिर दूसरा केंद्र वर्ष 2000 में उदयपुर जिले के कड़िया गांव में खोला गया। चारों और छितरे हुए छोटे छोटे गावों से घिरे इन केंद्रों में 24 घंटे डिलीवरी की समूची सुविधा उपलब्घ है। केंद्र में कुल पांच नर्स (तीन जीएनएमस, दो एएनएम) रहती हैं। सप्ताह में दो बार स़्त्री रोग विशेषज्ञ यहां आकर एएनसी / पीएनसी, (प्रसवपूर्व और प्रवोपरान्त) गर्भपात और अन्य स्त्री रोगों का इलाज करती हैं। जबकि सप्ताह में एक बार बालरोग विशेषज्ञ भी आता है। जो कुपोषण, संक्रमण और अन्य बीमारियों का इलाज करता है। केंद्र में बच्चों के टीकाकरण की भी सुविधाएं उपलब्ध हैं। दो नर्सें यहां रात-दिन रहती हैं। नर्स मिडवाइफ को गर्भपात, रिप्रोडेक्टिव ट्रैक इंफेक्शन जैसे मामलों को देखने का प्रशिक्षण भी दिया गया है। जैसे ही केंद्र को किसी गर्भवती महिला को देखने के लिए बुलाया जाता है एक नर्स मिडवाइफ और एक पुरुष फील्ड सुपरवाइजर महिला के गांव मोटरसाइकल पर पहुंचते है। वे अपने साथ जरूरी दवाएं और संयंत्र लेकर जाते हैं। किसी भी प्रकार की गड़बड़ी पर पहले उसे केंद्र के डाक्टर के पास लेजाया जाता है। अगर मामला अधिक गंभीर हो तो उसे उदयपुर स्थित रेफ्रल अस्पताल पहुंचाने की जिम्मेदारी भी केंद्र निभाता है। इसके लिए केंद्र रियायती दर पर वाहन की व्यवस्था भी करता है। गर्भवती महिला को अस्पताल में दाखिल कराने के बाद केंद्र का स्वास्थ्य कार्यकर्ता मरीज के परिवार और अस्पताल से संपर्क में रहता है। श्रीमती आंयगर ने बताया कि केंद्र में की जाने वाली डिलीवरी के लिए आदिवासी महिलाओं से 100 रूपया ओर गैर आदिवासी महिला से 300 रूपया फीस ली जाती है। इंमरजेंसी वाले मामले में केंद्र 1500 रूपए तक की वित्तीय सहायता देता है। केंद्र की मिडवाइफ प्रोजेक्ट के 42 गांवों में निर्धारित दिन पर जाकर ‘फील्ड क्लीनिक’ लगाने का काम भी करती हैं। केंद्र की डाॅक्टर रिचा कपूर के मुताबिक इन फील्ड क्लीनिक के माध्यम से गांवों की महिलाओं को प्रसव के दौरान और प्रसव के बाद स्वास्थय की देखभाल करने की जानकारी दी जाती है। गर्भवती महिला को भी इन फील्ड क्लीनिकों के दौरान नर्सों से संपर्क कर अपनी डिलीवरी की योजना बनाने का समय मिलता है। इस के अलावा उन्हें नवजात शिशु की देखभाल तथा बच्चों के टीकाकरण की जानकारी और सेवाएं भी दी जाती हैं। स्वास्थ्य सेवाओं में लोगों की भागीदारी बढ़ाने और जागरुकता फैलाने के लिए केंद्र गावों में ‘स्वास्थ्य सखी’ बनाने का काम भी कर रहा है। केंद्र के सोशल एनीमेटर(सामाजिक प्रोत्साहक) गांवों का दौरा कर गांव की सक्रिय महिलाओं की पहचान कर उन्हें ‘स्वास्थ्य सखी’ बनाने का काम करते हैं। कुंचोली स्थित केंद्र की सोशल एनीमेटर लीला कुमार का काम तीन पंचायतों के गांवों को देखने का है वह इन गांवों में महिलाओं को डिलीवरी घर पर न कराने और गर्भनिरोधकों की जानकारी देती है। लीला कुमार के मुताबिक अभी तक वह 20 ‘स्वास्थ्य सखियां’ बना चुकी हंै। ये ‘स्वास्थ्य सखियां’ गांव की गर्भवती महिलाआंे को क्लीनिक में डिलीवरी करने के लिए प्रेरित करती हैं। इस के अलावा वह केंद्र की नर्सों को गर्भवती महिलाओं की जानकारीेेे भी देतीं हैं। गावों में गर्भनिरोधक बांटने में भी इनकी मदद ली जाती है। अर्थ के सेफमदरहुड केंद्रों की अन्य बड़ी विशेषता यह है कि यह प्रजनन स्वास्थ्य और गर्भावस्था में पुरुषों की भागीदारी को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसके लिए पुरूषों से भिन्न भिन्न तरीकों से संपर्क किया जाता है। केंद्र का पुरूष कार्यकर्ता गर्भवती महिला के पति को प्रसव से जुड़ी देखभाल की जानकारी देता है। प्रति माह 250 पतियों को प्रशिक्षित किया जाता है। नवजात शिशुओं के पिताओं को परिवार नियोजन और बच्चे की देखभाल की जानकारी दी जाती है। तीन से दस के करीब समूह में युवा पुरुषों को किशोरवास्था में गर्भ ठहरने के खतरों और सुरक्षित गर्भपात के साथ पुरूषों के प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में प्रशिक्षित किया जाता है। पंचायतों को भी इसमें भागीदार बनाया गया है। पंचायत सदस्यों को मातृ और नवजात शिशु की देखभाल के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। पंचायत आधारित मातृ स्वास्थ्य कार्ड भी तैयार किया गया है जिसे महिलाएं गर्भावस्था के दौरान अपने पास रखतीं हैं। इस कार्ड को सेवाप्रदाता द्दारा भरा जाना होता है। श्रीमती आयंगर का कहना है, ‘‘केंद्रों की शुरुआत के बाद से क्षेत्र में संस्थागत डिलीवरियों में बढ़ोेतरी हुई है। केंद्रों की शुरुआत के पांच सालों में यहां पर 687 डिलीवरियां हुई जिसमें प्रसूति के समय मातृत्व मृत्यु शून्य और जीवित बच्चों की संख्या 643 थीं।’’ अगस्त माह की 20 तारीख तक यहां 17 डिलीवरी हो चुकीं थीं। बहुत से परिवार खासकर आदिवासी और पिछड़े समुदाय के परिवार रेफ्रल सेवाओं के लिए भी शहरी अस्पताल में जाने को तैयार नहीं होते लेकिन वितीय सहायता मिल जाने के कारण और केंद्र की नर्स का साथ मिलने से अब बहुत से इंमरजेंसी वाले मामले अस्पताल जाने में संकोच नहीं करतेे। ‘अर्थ’ के प्रयास से भले ही मातृत्व मृत्यु के ग्राफ में कोई स्पष्ट बदलाव न आया हो लेकिन प्रतापी और केसकी जैसी क्षेत्र की बहुत सी महिलाएं बेमौत मरने से जरूर बच रहीं हैं।

1 comment:

शरद कोकास said...

देश के अधिकांश गाँवों मे अभी भी यह स्थिति है ।