Monday 14 December 2009

जंग अभी भी जारी है

अन्नू आनंद
आजादी के राष्ट्रीय संघर्ष में महिलाओं की भूमिका केवल अहिंसक सत्याग्रह आंदोलन तक सीमित नहीं थी उन्होंने उस दौरान भी हथियारबंद क्रांति और समाजिक परिवर्तन में बढ-चढ़ कर हिस्सा लिया था। स्वदेशी आंदोलन में डा। सरोजिनी नायडू, श्रीमती उर्मिला देवी, दुर्गाबाई देशमुख और मद्रास की श्रीमती एस अम्बुजा और कृष्णाबाई रामदास का नाम आता है तो लतिका घोष (महिला राष्ट्रीय संघ), वीणा दास, कमला दास गुप्ता, कल्याणी दास और सुर्या सेन जैसी महिलाओं की कमी नहीं जो क्रांतिकारी समूहों का हिस्सा बनीं। इसके अलावा राष्ट्रीयकार्यकर्ता एनी बेसेंट, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, राजकुमारी अमृतकौर, बेगम हामिद अली, रेणुका रे आदि ने महिलाआंे के उत्थान के लिए काम किया। देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाली महिलाओं की फेहरिस्त काफी प्रभावी है ओर ये महिलाएं केवल आजादी की खातिर नहीं बल्कि महिलाओं के हितों को प्रोत्साहित करने के लिए भी संघर्ष कर रहीं थीं। आजादी के 60 वर्ष बाद आज भी महिलाएं खासकर ग्रामीण और समाज के निचले स्तर की महिलाएं देश के दूर-दराज के इलाकों में हर स्तर पर अपने हक के लिए हर चुनौती का सामना कर रही हैं। अपने मकसद को हासिल करने और समाज में अपनी पहचान कायम करने के लिए वह पूरे दम खम के साथ संघर्षरत है। लड़ाई अपने आत्मसम्मान की हो या आर्थिक संबलता की। सामाजिक न्याय की हो या फिर शासकीय सत्ता में अपनी क्षमता साबित करने की। गरीब, अनपढ़ और पिछड़े समाज की महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि वे किसी की गुलामी और अन्याय को अब सहन नहीं करेंगी। उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाके बुंदेलखंड में इन दिनों ‘गुलाबी गिरोह’ नामक पांच सौ महिलाओं के एक समूह ने क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़कर प्रशासन की नींद उड़ा दी है। वर्ष 2006 में बना यह गिरोह मुख्यतः भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ रहा है। गिरोह उन सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन न होने पर ध्यान केंद्रित करता है जो सरकार ने कमजोर और गरीब वर्गों के लिए बनाई जाती हैं। भ्रष्टाचार के चलते इन सरकारी योजनाओं का गरीबों को लाभ नहीं मिल रहा। गुलाबी गिरोह की मुखिया एक गरीब और अर्धशिक्षित 45 वर्षीया संपत देवी पाल है। इस गिरोह को बांदा और चित्रकूट जिले में कोटे का राशन काला बाजार में पहुंचने से रोकने में सबसे बड़ी उपलब्धि हासिल हुई है। इन जिलों का अभी तक 70 फीसदी राशन काला बाजार में पहुंच जाता था। कुछ लोग संपत देवी की तुलना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से करते हैं। इस गिरोह की समर्थक महिलाओं की संख्या दस हजार से कम नहीं है। अपने सदस्यों को अलग पहचान देने के लिए गिरोह ने एक ही रंग के कपड़े पहनना तय किया। गुलाबी रंग, क्योंकि किसी भी राजनैतिक पार्टी से जुड़ा नहीं इसलिए गिरोह इस रंग का इस्तेमाल करता है। भारतीय दंड संहिता के तहत इस गिरोह पर गैरकानूनी सभा, दंगा, सरकारी अधिकारी पर हमला और सरकारी कर्मचारियों का अपना काम करने से रोकने के आरोप लग चुके है। लेकिन स्थानीय स्तर पर ‘गुलाबी गिरोह’ को मिल रहे भारी समर्थन और उनकी मजबूत इच्छा शक्ति के चलते उन पर अकुंश लगाना संभव नहीं होगा। गिरोह की मुखिया संपत देवी कहती है, ‘‘देश ऐसे ही थोड़े ही आजाद हुआ है। अरे जान तो एक बार जाएगी। दस खलनायक हमें परेशान करे तो क्या पूरा बंुदेलखंड हमारे साथ है।’’ देश के करीब सभी राज्यों में महिलाओं ने स्वयं सहायता समूहों के जरिए छोटी-छोटी बचतों से आर्थिक आत्मनिर्भरता की एक क्रांति खड़ी कर दी है। महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाने में स्वयं सहायता समूह पूरे देश में सक्रिय है। देश के पिछड़े राज्यों में से एक माने जाने वाले छत्तीसगढ़ गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली दस लाख से भी अधिक आदिवासी, दलित तथा अन्य पिछड़े वर्गों की महिलाएं, 76 हजार स्वयं सहायता समूहों की सदस्य हैं और इन सभी समूहों की कुल मिलाकर परिसंपत्तियां 13 करोड़ रुपए से भी अधिक है। आमतौर पर ये अनपढ़ महिलाएं, खदानें, मछली का कारोबार, खेतिहर जमीनों और साप्ताहिक हाट बाजार चला रही हैं। इन्हीं बाजारों में आदिवासियों के सभी बड़े आर्थिक कारोबार चलते हंै। कोई भी चुनौती उनके लिए मुश्किल नहीं रही है। चूना पत्थर और पत्थर की खदानों के ठेकों का काम यहां अभी तक पुरुष किया करते थे लेकिन अब महिलाओं ने इस क्षेत्र में भी दखल बना लिया है और वे विशाल निर्माण प्रोजेक्टों के भी ठेके ले रही हैं। राजनांद गांव में ‘मां बम्बलेश्वरी’ स्वयं सहायता समूह की तेजतर्रार सुकुलाया का कहना है, ‘‘बाजार चलाने के शुरूआती चार महीनों में ही हमने न केवल बैंक से उधार ली कुल राशि में से 35 हजार रुपए लौटा दिए बल्कि मुनाफा कमाने में भी हम कामयाब रहे। यहां की महिलाओं का सबसे अधिक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट चार साल पहले चार हजार एकड़ से भी अधिक जमीन पर फसल उगाने के लिए पांच लाख रुपए की बोली लगाना था। पहले तो भारतीय स्टेट बैंक के अधिकारियों ने भी इतना बड़ा कर्जा देने से इंकार कर दिया लेकिन बाद में महिलाओं ने जब संगठित होकर दबाव बनाया तो उन्हें कर्जा मिल गया। इस महत्वाकांक्षी परियोजना में उन्हें न केवल सफलता मिली, बल्कि इन्होंने अपने सदस्यों को अपने गांव में चावल बैंक बनाने के लिए राजी किया और शर्त यह रखी कि स्थानीय व्यापारियों को अपनी फसल बेचने से पहले वे अपनी जरूरतों के लिए इन बैंकों में बफर स्टाक बनाएंगे। इसी प्रकार देश के सात अन्य राज्यों में ‘स्वशक्ति’ स्वयं सहायता समूह के जरिए महिलाओं की ऋण पर निर्भरता कम हो रही है। बिहार में स्वशक्ति आंदोलन का रूप ले चुका है। यहां के मुज्जफरपुर जिले की महिलाएं इस ‘स्वशक्ति’ समूहों के जरिए बचत और आमदनी के कार्यकलापों के अलावा विकास संबंधी सरकारी योजनाओं और पंचायती राज की जानकारियां हासिल कर सामुदायिक स्तर की जरूरतें पूरी करने के निर्णयों में भागीदार बन रही हैं। स्वशक्ति स्वयं सहायता समूह की सदस्य बनकर वे स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बनाने और सामुदायिक संपत्तियों जैसे पेयजल, शौचालय और डे-केयर जैसे केंद्र बनाने जैसे कार्यों की जिम्मेदारी संभाल रही हैं। जम्मू कश्मीर में महिलाओं ने आंतकवादियांे से अपनी रक्षा की खातिर हथियार उठा लिए हैं। जम्मू कश्मीर की हिलकाका पवर्तमाला में आतंकवादियों से लड़ने के लिए महिलाओं ने ‘‘आवामी फौज’’ नामक दल का गठन किया है। मार्च 2004 में मुस्लिम महिलाओं का रक्षा दल बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाली मुनीरा बेगम के मुताबिक आतंकवादी हमें शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं। वे हमें खाने-ठहरने की सुविधा देने के लिए मजबूर करते हैं। जब महिलाओं ने विरोध किया तो उनके साथ बलात्कार हुआ या उन्हें बदनाम किया गया उनके परिवार के सदस्यों की हत्या कर दी गई। इसका एक ही तरीका था कि हम यह सीख लें कि बंदूकों और हथगोलों से अपनी रक्षा कैसे की जाए।’’ हर महीने ये महिलाएं सेना के पास के शिविर में हथियारों की संभाल रखने और शूटिंग का प्रशिक्षण लेने के लिए जाती हैं। नब्बे के दशक में उत्तरांचल से निकला महिलाओं का शराब विरोधी आंदोलन अब झारखंड से लेकर मध्य प्रदेश तक पहुंच चुका है। झारखंड के पेसरा बड़ीयारी गांव में कुछ समय पहले तक उतने घर नहीं थे जितनी शराब की दुकानें। यहां भी महिलाएं अपने आदमियों की नशाखोरी की आदत और इसके कारण बर्बाद होते घरों को लेकर अरसे से परेशान थीं। आज गांव में एक भी ऐसी दुकान नहीं है। यहां की दलित महिलाओं ने शराबखोरी के खिलाफ प्रदर्शन और दुकानों की तोड़फोड़ कर पुरुषों को धमकाने का काम किया। झारखंड के गिरिडीह जिले के नौ गांवों में यही कहानी दुहराई गई है। गांव से हटकर मध्य प्रदेश की शहरी इलकों में भी महिलाओं ने शराब की सैकड़ों दुकानों को बंद करने का काम किया। खासकर आदिवासी इलाकों में यह आंदोलन और भी जोर पकड़ता जा रहा है। कुछ समय पहले उड़ीसा की आदिवासी महिलाओं ने शराब बनाने और बेचने पर रोक की मांग करते हुए आंदोलन किया था। आंध्र प्रदेश में औरतों ने शराबबंदी की मांग को लेकर लाखों लीटर अर्क नष्ट कर दिया था। हरियाणा के मोहम्मदपुरा माजरा गांव में उन्होंने आंदोलन चलाते हुए यह धमकी दी थी कि अगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ठेके नहीं हटाए गए तो वे शराबियों को पीटेंगी। विदेशी हुकूमतों से भले ही आजादी मिल गई हो लेकिन आतंकवाद और समाज में पनप रही विभेदकारी ताकतों के खिलाफ महिलाओं की लड़ाई अभी भी जारी है।
यह लेख अमर उजाला में मार्च 2007 में प्रकाशित हुआ है