Monday 7 December 2009

बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार की खातिर

अन्नू आनंद
पिछले दिनों महिला बाल विकास मंत्रालय ने कुपोषण पर काबू पाने के लिए कई कार्यक्रमों का आयोजन किया। इसके लिए मीडिया में बड़े-बड़े विज्ञापनों के माध्यम से बच्चों को स्वस्थ बनाने के लिए शुरू की गई योजनाओं का प्रचार किया गया। महिला बाल विकास मंत्री ने कुपोषण पर काबू पाने के लिए किशोरियों के लिए राजीव गांधी ‘सबला’ योजना और इंंिदरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना शुरू करने भी घोषणा की। इस मौके पर लंबे अरसे से बच्चों को उचित पोषण प्रदान करने के लिए चल रही एकीकृत बाल विकास योजना सप्ताह भी मनाया गया। इन आयोजनों के मात्र एक सप्ताह के बाद यूनीसेफ ने विश्व के बच्चों की स्थिति पर रिपोर्ट में बताया कि भारत में प्रतिदिन पांच साल से कम आयु के पांच हजार बच्चे मर रहे हैं। यह शर्मनाक आंकड़ा चैंक्काने के साथ बच्चों के प्रति सरकार की नीतियों की पोल खोलता है। एक दिन मे पांच हजार बच्चों की मौत महज सोचने का ही नहीं गहन समीक्षा का विषय है। हमारे देश में बच्चों के पोषण से जुड़ी सबसे बड़ी योजना एकीकृत बाल विकास सेवाएं 1975 से चल रही हैं। पिछले 34 सालों में कई बार इस योजना का विस्तार कर उसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने की नीतियां बनी। लेकिन आज भी लक्षित लोगों को इसका लाभ नहीं मिल रहा। योजना का मुख्य फोकस अनुसुचित जाति और जनजाति होने के बावजूद अभी भी कुपोषण के कारण मरने वाले दलित और आदिवासी बच्चों की संख्या अधिक है। कुछ समय पहले केंद्र सरकार ने योजना के बजट में चार गुणा बढ़ोतरी की थी। लेकिन फिर भी स्थिति यह है कि अभी भी विश्व के एक तिहाई कुपोषित बच्चे भारत में है। 6500 करोड़ से भी अधिक का बजट, लंबी अवधि तथा कईं संशोधनों के बावजूद यदि एकीकृत बाल विकास सेवाएं जरूरतमंद बच्चों तक नहीं पहुंच रही तो सुराख इन सेवाओं के अमलीकरण में है।। योजना के तहत देश के सभी जरूरतमंद बच्चों तक पोषित भोजन पहुंचाने के लिए चार लाख के करीब आगनवाड़ियां बनाई गई हैं। लेकिन दूरदराज के गांवों में कई आंगनवाड़ियंा ऐसी जगह स्थित हैं जहां नवजात शिशुओं या गर्भवती माओं के लिए पहुंचना संभव नहीं। अधिकतर आंगनवाड़ियो में कार्यकर्ताओं की भारी कमी है। मिनी आंगनवाड़ी में एक और बड़ी में दो कार्यकर्ताओं को रखने का प्रावधान है। इस लेखिका ने पिछले साल राजस्थान, छतीसगढ़,झारख्ंाड के दूरदराज के इलाकों में स्थित कईं आंगनवाड़ियों के दौरे में पाया कि कार्यकर्ताओं की कमी के चलते बहुत से जरूरतमंद बच्चों को पोषित भोजन नहीं मिल पा रहा। थ्जन आंगनवाड़ियों में कार्यकर्ता मौजूद हैं वहां भी उनके पास महिलाओं को फोलिक एसिड, नवजात शिशुओं को विटामिन और पोषित आहार देने के अलावा मिड डे मील में सहायता करने और अन्य सरकारी कामों को बोझ इतना अधिक है कि वे चाह कर भी लक्षित बच्चों तक नहीं पहुंच पातीं। लेकिन जमीनी हकीकत से अनजान मंत्री महोदया ने बालदिवस पर जिन दो नई योजनाओ की घोषणा की उसको लागू करने का काम भी आंगनवाड़ियों को ही सौंपा है। यही नहीं पिछले दिनों उन्होंने राज्य सरकारों को आंगनवाड़ियों मंे गर्म खाना और एक से अधिक बार खाना देने की हिदायत भी दी है। पहले से ही विभिन्न सरकारी मंत्रालयों की योजनाओं को पूरा करने के कामों में जुटे कार्यकर्ताओं पर और योजनाओं का बोझ लादना क्या उचित है? मंत्री महोदया का तर्क है कि हाल ही में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताआंे के मेहनताने में बढ़ोतरी की गई है ताकि वे बच्चों के प्रति अधिक समर्पित भाव से कार्य कर सकें। लेकिन वेतन की बढ़ोतरी क्या उनके बहुउद्देश्यीय कार्य बोझ को कम कर पाएगा ताकि वे लक्षित बच्चे तक पहुंचने के लिए अधिक समय निकाल सकें। कार्यकर्ताओं की कमी, आंगनवाड़ियों की जर्जर स्थिति और सेवाओं को लागू करने की बुनियादी जरूरतों की तरफ ध्यान देना नई योजनाएं लागू करने से भी अधिक अहम है। कुपोषित बच्चों के स्वास्थ्य को सुधारने में वांछित परिणामों को हासिल करने के लिए एकीकृत बाल विकास जैसी पुरानी योजना के गहन मूल्यांकन के अलावा सोशल आॅडिट करा यह जानना अधिक जरूरी है कि खामियां कहां है। इस आॅडिट से सरकार को जमीनी स्तर पर अमलीकरण के कई नए सबक मिलेंगे। केवल योजनाओं का उत्सव मनाकर बच्चों का स्वास्थ्य नहीं सुधारा जा सकता।
(यह लेख 4 दिसंबर 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है)

1 comment:

Udan Tashtari said...

आभार इस आलेख को प्रस्तुत करने का.