तकनीकी दुनिया का चेहरा नोरती बाई
अन्नू आनंद
पिछले दिनों उसे भारतीय उधोग परिसंघ यानी सीआईआई ने वर्ष 2007 के लिए भारती पुरस्कार के लिए चुना। यह जानकर बेहद खुशी हुई कि आखिर नोरती की महानू उपलब्धि को पहचान मिली। लेकिन इस खुशी के साथ यह मलाल भी था कि उसकी इस कामयाबी की खबर केवल एक दो अखबारों में छोटी सी खबर बन पाई जबकि इसी दिन टवन्टी टवन्टी क्रिकेट मैच में धूनी के छक्कों की खबर सभी अखबारों के पहले पन्नों पर थी। अनपढ़ गरीब और देहाती होते हुए नोरती के लिए इस मुकाम तक पहुंचना धूनी के अच्छे किक्रेट खेलने से आसान नहीं था।
मेरी मुलाकात नोरती बाई से राजस्थान के एक गांव तिलोनिया में स्थित समाज कल्याण अनुसंधान केंद्र में आयोजित एक समारोह के दौरान हुई। समारोह के बाद रात को मैंने नोरती को बाहर से आए सभी मेहमानों के रहने की दौड़ भागकर व्यवस्था करते हुए देखा। घाघरा चोली सिर पर ओढ़नी और माथे पर बड़े से बोर के अलावा पैरांे और बाजुओं में मोटे कंगन पहने करीब 60 वर्षीय नोरती पहली नजर में मुझे एक आम देहाती महिला दिखी। वह सबके खाने पीने और सोने की व्यवस्था बेहद गंभीरता से कर रही थी। सुबह उठने पर चाय पीने के वक्त मुझे नोरती कहीं दिखाई नहीं पड़ी। मैंने जब उसके बारे मे पूछा तो पता चला कि वह कम्प्यूटर रूम में है। मैंने सोचा कि मेहमानों की सेवादारी के सिलसिले में वह वहां गई होगीै जब काफी देर तक नोरती नजर नहीं आई तो मैं उससे मिलने कम्प्यूटर रूम की ओर चल पड़ी।
लेकिन वहां पहुंचने पर यह देख कर मैं अवाक रह गई कि नोरती कम्प्यूटर के सामने बैठकर हाथों में माऊस लिए मिन्टों में टेढ़ी-मेढ़ी लाइनें खींच कर आसपास के गांवों में पानी के संसाधनों का नक्शा खींचने मे तल्लीन थी। पहले मुझेे सहज विश्वास नहीं हुआ। लेकिन फिर घटों उसके पास बैठ कर जो जाना तो पता चला कि हकीकत में नोरती तकनीकी दुनिया का वह चेहरा है जो सूचना तकनीक को गांवों तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभा रहा है। किसी भी ब्लाक में कुओं; नलकूपों और तालाबों की कितनी संख्या है वह कुछ ही पलों में कम्प्यूटर पर पूरी बानगी बना सकती है। खुद कभी स्कूल न जाकर पंचायतों के कंप्यूटर रिकार्ड रखना और गांव से जुड़े हर आंकड़े को कम्प्यूटर में फीड करने के अलावा इस शिक्षा को आसपास के गावों की लड़कियों को सिखाना, यह सभी काम आज नोरती बेहद सहजता से करती है। लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने का सफर कोई आसान न था।
राजस्थान के हरमड़ा गांव में जन्मी नोरती बचपन में कभी स्कूल नहीं गई। शादी होने के बाद मजदूरिन के रूप में काम करते हुए उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मजदूरी करते और घर गृहस्थी संभालते हुए एक दिन ऐसा भी आएगा जब वह न केवल स्वयं अक्षर ज्ञान हासिल करेगी ब्लकि गांव के अन्य बच्चों को पढ़ाते और महिलाओं को जागरूक बनाते हुए खुद सूचना तकनीक के नवीनतम उपकरण कम्प्यूटर में भी दक्षता हासिल कर लेगी।
35 वर्ष की उमर में नोरती के जीवन में बदलाव का मोड़ उस समय आया जब वर्ष 1981 में एक सड़क निर्माण में मजदूरिन के रूप में काम करते हुए उसे पता चला कि उसे निर्धारित मजदूरी सात रुपए की बजाय केवल 3.50 पैसे प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी अदा की जा रही है। नोरती को यह अन्याय मंजूर नहीं था। उसने काम करना बंद कर दिया और मजदूरी का पैसा नहीं लिया। उसी दौरान नोरती को मजदूर किसान शक्ति संगठन के मजदूरों के हक के लिए चल रहे अभियान का पता चला। वह उनकी बैठक में गई उसने वहां एकत्रित 300 महिलाओं के समक्ष निर्धारित मजदूरी से कम मजदूरी मिलने की बात बताई। इस सड़क निर्माण में सात गावों के करीब 700 मजदूर काम कर रहे थे। नोरती की बात का असर यह हुआ कि बहुत से मजदूरों ने कम मजदूरी लेने से इंकार कर दिया।
लेकिन इस घटना के बाद नोरती को घर, पति और गांववालों के जोरदार विरोध का सामना करना पड़ा। उस पर गांव की बातों और भेद को बाहरवालों के बताने का आरोप लगाया गया। यही नहीं गांव के प्रभावशाली लोगों ने नोरती के पति से झगड़ा किया फिर उसे दारू देकर कर नोरती के खिलाफ कर दिया गया। लेकिन नोरती ने हिम्मत नहीं हारी। उसने कम मजदूरी के खिलाफ अदालत में जाने की ठान ली। आखिर उसने मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ मिलकर आदालत में लिखित याचिका दर्ज की। वर्ष 83 में संगठन ने यह मामला जीत लिया। बीडीओ को निष्कासित कर सरपंच को जेल भेज दिया। सरपंच को जेल होने के कारण गांव में तनाव बढ़ गया जिसके लिए नोरती को जिम्मेदार ठहराया गया। लेकिन मामले की जीत से नोरती का मनोबल बढ़ा और उसने खुद को और अन्य महिलाओं को जागरूक और सशक्त बनाने का मिशन बना लिया।
इस के लिए उसने तिलोनिया स्थित समाज कल्याण अनुसंधान केंद्र (एस डबलयूआरसी) में साक्षरता के साथ मस्टर रोल, प्रवेश और काम से संबंधित कागजात को समझने का छह का प्रशिक्षण लिया। उसके बाद नोरती ने छह माह तक बर्तवान पंचायत समिति में 200 महिला मजदूरों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने का काम किया। नोरती ने शिक्षा हासिल करने के साथ-साथ शिक्षा फैलाने का काम भी जारी रखा। किसानों के जो बच्चे खेतों में मजदूरी करने के कारण दिन में स्कूल नहीं जा पाते थे नोरती ने उनके घर जाकर उन्हें आसपास के गावों में चल रहे रात के स्कूलों में भेजने के लिए प्रेरित किया। जब ये बच्चे इन स्कूलों में आने लगे तो नोरती उन्हें बलैकबोर्ड पर लिख कर 100 तक की गिनती और बाराखड़ी सिखाती। तीन साल तक लगातार रात्रि स्कूलों में काम करने के अलावा नोरती ने सरकार द्वारा चलाए जा रहे साथिन कार्यक्रम के तहत महिलाओं को छोटे-मोटे रोगों के लिए दवा देने का काम भी किया। नोरती के मुताबिक जब वह गांव की महिलाओं से उनके स्वास्थ्य की बात करतीं तो वे बड़े खुलकर उन्हें अपने प्रजनन रोगों के बारे में बतातीं।
साथिन के रूप में सात साल तक काम करने के बाद उसने मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ मिलकर सूचना के अधिकार के साथ जमीन पर अवैध कब्जे के खिलाफ प्रदर्शन धरना देकर लोगों को उन के हक दिलाने का काम किया। दस साल से बेकार पति की बीमारी को झेलती और दो पोतांे और दो पोतियों की जिम्मेदारी निभाती नोरती ने घर परिवार के संघर्ष को दूसरांे के लिए किए जा रहे संघर्ष पर हावी नहीं होने दिया। लेकिन जब उसके पति को टीबी का पीड़ित घोषित किया गया तो नोरती के लिए पति की देखभाल करने के लिए गांव-गांव जाकर काम करना मुश्किल हो गया। आर्थिक तंगी के कारण वह घर बैठना नहीं चाहती थी। लेकिन उसकी घर में उपस्थिति भी जरूरी थी इसलिए उसने समाज कल्याण केंद्र से दूसरा काम दिए जाने की गुजारिश की। केंद्र के अध्यक्ष बंकर राय ने जब उसे कम्प्यूटर पर काम करने के लिए कहा तो वह चैंक गई।
नोरती के मुताबिक पहले तो मुझे बेहद हैरानी हुई और मैंने उनसे कहा कि ‘‘मोहे डर लागे, मेहनत का कोइ भी काम मुझे बता दो लेकिन यह काम मुझसे नहीं होगा। लेकिन बंकर जी ने मुझे कुछ दिन के लिए प्रयास करने को कहा। पहले मैंने हिंदी का की बोर्ड सीखा। एक माह तो मुझे की बोर्ड माउस मोनीटर जैसी सामान्य जानकारी लेने में लगा।’’
नोरती बताती है,‘‘इसके लिए मैं हाथ में कीबोर्ड के अक्षर लिखकर रटती रही। रोटी बनाने के समय जब वे अक्षर मिट जाते तो मुझे उसे दुबारा लिखना पड़ता।’’ नोरती के लिए यह काम बेहद कठिन था। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी।
‘‘टाइपिंग आने के बाद मैंने कुछ समय तक संगठन की पिटारा पुस्तक के लिए मैटर फीड करने का काम किया। फिर दो माह तक संगठन के इंटरनेट ढाबा पर काम किया। फिर मैने नक्शे बनाने का काम सीखा।’’
कम्प्यूटर की विभिन्न विधाओं में दक्ष होने के बाद अब नोरती विकलांग लड़कियों को कम्प्यूटर प्रशिक्षण देने का काम करती है। इस समय वह समाज कल्याण अनुसंधान केंद्र - बेयरफुट कालेज द्वारा तैयार किए गए जल चित्र साफ्टवेयर की इंचार्ज है और विभिन्न गांवों की वाटर मैंपिग का काम देख रही है। माॅनीटर पर कुओं के चित्र बनाते हुए वह बताती है, ‘‘सीखने और पढ़ने की कोई आयु सीमा नहीं। मन में दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो अशिक्षित होते होकर भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है फिर थोड़ा हंसते हुए कहती है, ‘‘भले ही वह कोई भी नई टेक्नालाॅजी क्यों न हो।’’
इस महान् मानवी के साहस को सलाम।
2 comments:
मैं इसको सच्ची पत्रकारिता कहता हु. जिस तरह से आपने कॉवेरज की है वो सही मायनों मैं एक पत्रकार ही कर सकता है. हम सब को इसी तरह की खबरों को भी जानने. बहुत बहुत मुबारकबाद के साथ. इरशाद
dhanyavad.
annu
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