अन्नू आनंद
पिछले दिनों पत्रकारिता के कुछ छात्रों से जब यह पूछा गया कि समाचारों को जानने के लिए वेसंचार के कौन से माध्यम पर भरोसा करते हैं? तो अधिकतर ने जवाब में समाचारपत्रों का नामलिया। इस सवाल पर छात्रों से हुई बहस का निचोड़ यह था कि समाचार जानने का सबसेविश्वसनीय, निष्पक्ष और प्रामाणिक स्रोत वे अखबारों को ही मानते हैं। छात्रों का तर्क था कि टीवीमें भी वे समाचारों को सुनते हैं। लेकिन हड़बड़ी के इस माध्यम में उन्हें उतनी सटीक और गहनजानकारी नहीं मिलती। रेडियो में खबरें संक्षिप्त में होती हैं इसलिए इन समाचारों की अधिकजानकारी के लिए वे फिर अखबार पढ़ते हैं। इंटरनेट उतना सुविधाजनक माध्यम नहीं जितना किअखबार। इस बहस का लब्बोलुआब यही था कि समाचारों की दृष्टि से आज भी संचार के सभीमाध्यमों में से अखबारों को सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है।इस सवाल की व्यावहारिकता इसलिए भी समझ में आती है कि पिछले कुछ समय से विश्व स्तरपर अखबारों के अस्तित्व को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है। अंतरराष्ट्रीय मंचो पर भी अखबारों कोनकारने की आवाजें सुनने को मिल रही हैं। इसका एक कारण अमेरिका में अखबारों के स्तर मेंआई गिरावट है। जिसके कारण वहां पर समाचारों के लिए नेट पर निर्भरता बढ़ती जा रही है औरयह कहा जा रहा है कि सूचना क्रांति की वजह से संचार माध्यमों में होने वाली नई-नई खोजों केचलते समाचारपत्र कुछ समय में अतीत की बात हो जाएंगे। लेकिन हकीकत यह नहीं है। आकड़ोंकी बात करें तो विश्व स्तर पर वर्ष 2006 में अखबारों के प्रसार में 1.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कीगई। आज भी विश्व में विज्ञापनों के कुल हिस्से का 42.3 प्रतिशत अखबारों और पत्रिकाओं कोमिलता है। विश्व स्तर पर गत वर्ष समाचारपत्रों के विज्ञापनों के राजस्व में चार प्रतिशत वृद्धि दर्जकी गई है।ये तथ्य इस बात के साक्ष्य हैं कि अखबारों के अस्तित्व पर संकट की बात सही नहीं। पश्चिम मेंअखबारों के स्तर में आई गिरावट ने उनके अस्तित्व के संकट को जरूर थोड़ा बढ़ाने का कामकिया है लेकिन भारत के संबंध में यह बात नहीं कही जा सकती। भारत में अभी अखबारों काभविष्य चढ़ाव पर है। वर्ष 2006 में भारत में समाचारपत्रों के प्रसार में सबसे अधिक बढ़ोतरी देखीगई। कई नए अखबारों की शुरूआत हुई और विज्ञापनों से मिलने वाली आमदनी में वृद्धि दर्ज कीगई।यह बात सही है कि पिछले कुछ समय में अखबारों के लिए टीवी और इंटरनेट के साथ प्रतिस्पर्धाएक चुनौती बनती जा रही है। लेकिन अभी यहां के समाचार चैनल और नेट शैशवावस्था में हैं औरउन्हें प्रौढ़ होने में अभी लंबा समय लगेगा। उनकी तुलना सीएनएन और बीबीसी जैसे चैनलों औरवेबसाईटों से नहीें की जा सकती जिनसे कि पश्चिमी दशों के लोग अपनी खबरों की भूख को शांतकरते हैं। यह सही है कि पिछले कुछ समय में संख्या की दौड़ में भारत के अखबारों में भीपरिवर्तन हुए हैं जिससे उनकी विश्वसनीयता भी कम हो रही है लेकिन अभी यह स्थिति पश्चिमदेशों वाली नहीं हुई है।यह गनीमत है कि ऐसी स्थिति में ही हमारे यहां ‘उत्कृष्ट पत्रकारिता’ की बहस छिड़ पड़ी है औरयह सवाल भी उठाया जा रहा है कि श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिए जरूरी क्या है। मूल्य आधारितपत्रकारिता या फिर ‘पाॅपुलर’ पत्रकारिता। जिस प्रकार से समाचार चैनलों की अगंभीरता रोमांच औरसनसनी से भरे समाचारों की आलोचना और दर्शकों की प्रतिक्रियाएं मिल रहीं हैं उससे स्पष्ट हैकि प्रसार और टीआरपी की दौड़ में विश्वसनीयता और तथ्यपरकता को दाव पर नहीं लगाया जासकता। तुच्छ और सनसनी की खबरें कुछ समय के लिए तो चल सकती हंै लेकिन इन्हेंपाठक-श्रोता या दर्शक अधिक समय तक नहीं सहने वाले। भारत में समाचार चैनलों में होने वालीऐसी धृष्टताओं की आलोचना गंभीर रूप लेती जा रही है। हमें पश्चिम की गलतियों से सबक लेनाहोगा। भारत में भी आखिर वही माध्यम सफल होगा जो सत्य, सही, गंभीर और तथ्यात्मक समाचारप्रदान करेगा।
(यह लेख अप्रैल-जून २००७ के विदुर अंक में प्रकशित हुआ था )
1 comment:
आपका कहना बिल्कुल ठीक है. जब निष्पक्षता के साथ-साथ विश्वसनीयता की बात आती है तो अखबार को सबसे अच्छा माध्यम माना जा सकता है. परम्परागत पत्रकारिता अभी भी सबसे अच्छी पत्रकारिता है. कई बार ऐसा देखता हूँ कि टेलीविजन चैनल और इन्टरनेट साइट्स अपनी गलतियों पर खेद भी प्रकट नहीं करते. लेकिन अखबार आज भी अपनी गलतियों के प्रकाश में आनेपर खेद तो प्रकट करते हैं.
आपका यह कहना भी ठीक है कि भारतवर्ष में अखबारों के सर्कुलेशन में अभी विस्तार बाकी है. एक तरफ़ जहाँ टीवी न्यूज़ चैनल्स से लोगों का मोहभंग बढ़ता जा रहा है और बहुत बड़ी जनसंख्या के पास नेट की सुविधा नहीं है, समाचार माध्यम के रूप में अखबार का भविष्य उज्जवल है.
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