Monday, 26 January 2009

पंचायती राज में महिलाएं और मीडिया की भूमिका

अन्नू आनंद

वर्श 1993 में संविधान में किया गया 73वां और 74 वां संषोधन ग्रामीण महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण मोड़ था। क्योंकि इन संषोधनों ने पहली बार स्थानीय स्वषासन में 33 प्रतिषत महिलाओं को चूल्हे से निकाल कर चैपाल में पहुंचाने का काम किया। यह एक क्रांतिकारी कदम था जिसने भारत के दूरदराज गांवों की महिलाओं को निर्णय प्रक्रिया में भाग लेने का सुअवसर प्रदान किया। ग्रामीण स्तर की महिलाओं के स्थानीय षासन में भागीदारी का एक बड़ा लाभ यह भी हुआ कि इसने देष भर में विधानसभा और संसद में भी महिलाओं के आरक्षण की बहस षुरू कर दी। वर्श 1995 में इस संषोधन के लागू होने से हर पांच वर्श में करीब 25 हजार गांवों में दस लाख महिलाएं स्थानीय सत्ता में काबिज हो रही हैं।
लेकिन पंचायतों या स्थानीय निकायों में चुनी जाने वाली महिलाओं के समक्ष अपना साम्र्थय और सक्षमता साबित करने के लिए चुनौतियों की पुलिया लंबी है। पहले कार्यकाल के लिए चुनी गई महिला प्रतिनिधियों के समक्ष सब से बड़ी चुनौती ‘पुरुशसत्तात्मक सोच’ थी। जिसके तहत पुरूश सत्ता पर अपना एकाधिकार मानते हैं। राजनीति में महिलाओं की यह भागीदारी वह भी निचले स्तर पर उन्हें गंवारा नहीं थी क्योंकि इससे उन्हें अपनी सत्ता में सुराख होता नजर आया। इसलिए पंचायतों की महिला प्रतिनिधियों को कार्यकाल के आरभिंक वर्शों में ‘रबड़ स्टैम्प’ और उनके पतियों को ‘प्रधानपतियों’ की संज्ञा दी गई। उन्हें पढ़ी लिखी नहीं या पंचायत के कामकाज को समझने में असक्षम बताकर पंचायत का सारा कामकाज पंचायतकर्मी या उनके पति अथवा गांव के किसी प्रभावषाली व्यक्ति के हाथों केंद्रित रहता। षुरूआती दौर में यह आरोप भी अधिक सुनने में आया कि घूंघट या पर्दे के भीतर रहने वाली महिलाएं विकास के कार्यों को कैसे निपटाएगीं? सही भी था जिस समाज में वे घरेलु दायित्वों में फेेैसला लेने की हकदार नहीं बन र्पाइं वहां वह पंचायत के विस्तृत दायित्व को निभाने में हिचक महसूस कैसे न करतीं? उन्हें पहली बार विकास कार्यक्रमों को बनाने और लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी उन्हें यह जानकारी देने वाला कोई नहीं था कि अमुक कार्य करने के लिए क्या किया जाए। कुछ राज्यों ने प्रषिक्षण कार्यक्रम बनाए लेकिन उनको लागू करने मंे कई प्रकार की कमियां थीं। एक या दो कार्यक्रम महिलाओं को पंचायती राज की बुनियादी जानकारी, प्रस्तावित योजनाओं कोे लागू करने के तरीकों और पंचायती राज से जुड़े वित्तीय मामलों की जानकारी देने के लिए पर्याप्त नहीं थे।
आखिर कुछ सरकारी और कुछ गैरसरकारी संस्थाओं ने महिलाओं को पंचायती कामकाज का प्रषिक्षण देकर उन्हें उनके अधिकारों के प्रति सचेत किया तो स्थिति बदलने लगी। उत्तर प्रदेष में तो बकायदा प्रस्ताव पारित कर महिला प्रधानों की जगह पर उनके पतियों के बैठक में जाने पर रोक लगाई गई। अपने पहले कार्यकाल के केवल तीन सालों के बाद बहुत सी महिलाओं सदस्यों ने अपनी सक्षमता और अधिकारों को पहचानना षुरू कर दिया। उत्तर और मध्यप्रदेष की बहुत सी पंचायत सदस्यों ने अपने स्थान पर अपने पतियांे को बैठकों में भेजने का ही नहीं ब्लकि बैठकों में उनकी मौजूदगी का भी विरोध किया। लोकतंत्र की इस बुनियादी संरचना से महिलाओं को बाहर करने के लिए बहुत सी घटनाओं में ‘अविष्वास मत’ का सहारा भी लिया गया। अगस्त 1998 में यानि पंचायतों में महिलाओं के प्रवेष के पहले कार्यकाल के मात्र तीन वर्शों बाद अगस्त 1998 में अजमेर जिले के रसूलपुर गांव की सरपंच छग्गीबाई को ‘अविष्वास मत’ के द्वारा हटा दिया गया। इस घटना ने पंचायती राज के लिए काम कर रही संस्थाओं को चेताने का काम किया। दिल्ली और राजस्थान की कुछ संस्थाओं ने इस संदर्भ में सर्वे कराई तो उन्हें पता चला कि बहुत सी महिला सरपंचों को ‘विष्वास मत’ से बाहर किया जा रहा है। 1999 के मई माह में राजस्थान की दो संस्थाओं ने एक जनसुनवाई का आयोजन किया ताकि महिला प्रतिनिधियों के अनुभवों को जाना जा सके। जनसुनवाई में हिस्सा लेने वाले राजस्थान के छह जिलों में से 74 महिला सरपंचों में से 24 महिलाओं को अविष्वास मत के द्वारा बाहर निकालने की धमकी दी गई थी। जनसुनवाई में यह भी स्पश्ट हुआ कि अधिकतर मामलों में उपसरपंच जो अधिकतर कोई पुरुश होता है महिला सरपंचों के कार्यभार को देखता है और यह उपसरपंच प्रायः अन्य सरकारी कर्मचारी जैसे बीडीओ की मिलीभगत से पैसों की हेराफेरी में षामिल रहता है। महिला सरपंच उनके खिलाफ अगर कार्रवाई करना चाहती है तो अविष्वास मत की मार्फत सरपंच को ही निश्कासित करने की मुहिम षुरू हो जाती है। छग्गीबाई के मामले में उपसरपंच मोहन सिंह ने अपने षराब के व्यापार को बचाने के लिए उसके खिलाफ विष्वास मत लाकर उसे निश्कासित कर दिया। महिला पंचायत सदस्यों के लिए अविष्वास मत के इस हथियार से जूझना दूसरी बड़ी चुनौती है। अन्य मुख्य चुनौती मानसिक और अन्य कई तरह की यातनाओं की थी। आरंभ के वर्शों में षोशण की स्थिति अधिक रही। पिछले वर्श जब महिलाओं के कार्यकाल के पहले पांच सालों का आकलन किया गया तो पता चला कि इन पांच वर्शों के दौरान पंचायतों में काम कर रही बहुत सी महिलाओं को जाति और लिंग के आधार पर पक्षपात का रवैया झेलना पड़ा। नीची जाति की महिला को ऊंची जाति के लोगों के हाथों बार-बार अपमानित होना पड़ा। उन्हें पंच सदस्य, सरपंच या उपसरपंच के पद पर स्वीकृत करने की मानसिकता बहुत कम थी।
गुजरात के गांधीनगर जिले के कलोल तालुक में धेड़िया गांव की सरपंच षंकरीबेन गांव के उच्च और प्रभावी लोगों को इसलिए गंवारा नहीं थी क्योंकि वह सेमा (दलित) जाति की होते हुए भी गांव के विकासात्मक कार्यों को बड़ी सफलता से निभा रही थी। उसे अपदस्थ करने के लिए उन्होंने उस पर भ्रश्टाचार के आरोप लगाने षुरू कर दिए। महिलाओं को पंचायतों की राजनीति से बाहर रखने के लिए षारीरिक हमले या पुरुश साथियों द्वारा बेइज्जत होने जैसे भी बहुत से मामले सामने आए। मध्यप्रदेष में बैतूल जिले की 65 वर्शीय महिला सरपंच के साथ बलात्कार। दुर्ग जिले में एक महिला सरपंच की भरी सभा में साड़ी खींचकर बेइज्जत करना तथा होषगांबाद जिले के सोनासांवरी की सरपंच केसर बाई के घर पर बम से हमला जैसी घटनाएं इनके मुख्य उदाहरण है। सबसे दिल दहला देने वाली घटना मध्यप्रदेष के पत्थल गांव में हुई। यहां की 70 वर्शीय मोती बाई को डायन करार देकर इतना प्रताड़ित किया गया कि उसे स्वंय को आग के हवाले करना पड़ा। लेकिन इन उत्पीड़नों और अत्याचारों का मुख्यता कारण इनका ‘महिला’ होना ही नहीं था बल्कि महिला होने के बावजूद सत्ता पर एकाधिकार मानने वाली पुरुशवादी सोच को निरस्त कर इन महिलाओं ने पंचायत की विकास योजनाओं के नाम पर आने वाले पैसों में होने वाले भ्रश्टाचार को खत्म करने के प्रयास भी किए थे। बहुत से ऐसे उदाहरण भी देखने को मिले जिन्होंने इस बात की पुश्टि की कि महिला सरपंचों के दमन का मूल कारण उनका भ्रश्टाचार का विरोध करना था। लेकिन अब स्थिति बदल रही है औपचारिक षिक्षा से वंचित महिलाओं ने भी ग्राम पंचायतों में पुरुश के प्रभुत्व को सफलतापूर्वक चुनौती देनी षुरूकर दी है। दूसरे चुनाव के बाद इन महिलाओं से यह सुनने को मिल रहा है कि पहला चुनाव भले ही उन्होंने औरत होने की वजह से जीता हो लेकिन दूसरे चुनाव की जीत उनके कार्यों की जीत है। एक अच्छे सरपंच या पंच सदस्य की जीत है।
मीडिया की भूमिका पंचायती राज में मीडिया की भूमिका काफी सार्थक कही जा सकती है। खासकर महिलाओं के संदर्भ में । महिलाओं के पंचायतों में निर्वाचन केे बाद, पहले कार्यकाल में मीडिया ने महिलाओं के षुरूआती संघर्श को उजागर किया। उनकी समस्याओं, विफलताओं के बारे में कई रिपोतार्ज प्रकाषित हुईं। हांलाकि इससे पंचायतों में कार्य करने वाली महिलाओं की छवि ‘रबड़ स्टैम्प’ के रूप में भी उभरी। लेकिन दूसरे चुनाव तक पहुंचते-पहुंचते बहुत से ऐसी महिला सरपंचों के नाम सुनने को मिले जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए पंचायत के कामकाज और गांव की विकास योजनाओं का बेहतर ढंग से संचालन किया। इनमें साक्षरता, स्वास्थ्य, भूमि सुधार और महिला समता जैसे मुद्दे भी षामिल हैं। मीडिया की सार्थक भूमिका का ही परिणाम था कि जब मध्यप्रदेष में टीकमगढ़ जिले की पीपरा बिलारी ग्राम पंचायत की अनुसूचित जाति की सरपंच गंुदिया बाई को वहीं के कुछ प्रभावषाली लोगों ने स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने से रोक कर अपमानित किया तो समाचारपत्रों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में इस घटना को भरपूर प्रचारित किया गया। आखिर आगामी स्वतंत्रता दिवस पर मुख्यमंत्री ने स्वंय गुंदिया बाई के हाथों टीकमगढ़ जिला मुख्यालय पर झंडा फहराया।
इसके अलावा छग्गी बाई, जैसी महिलाओं के साथ होने वाले षोशण और अपमान की घटनाएं मीडिया के कारण ही प्रचारित हो रही हैं। इसका एक बड़ा कारण पिछले कुछ वर्शो में मीडिया मंे 30 से 40 प्रतिषत महिला पत्रकारों की बढ़ती संख्या है। इससे महिलाओं के मुद्दों को समाचारपत्रों मंे अधिक जगह मिलने लगी है। उनकी उपस्थिति ने समाचारपत्र के प्रबंधकों को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि महिला मुद्दे केवल फैषन, मेकअप, साजसजावट ही नहीं। इस बात में कोई दो राय नहीं कि 80 प्रतिषत समाचारपत्र अभी भी राजनैतिक समाचारों और विज्ञापनों से भरे होते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि विज्ञापनदाताओं को पंचायती राज या ग्रामीण लोगों से कोई विषेश मतलब नहीं क्योंकि इससे उन्हें अपने ‘कोक’ ‘पेप्सी’ या साज-सज्जा की वस्तुएं बेचने में कोई मदद नहीं मिलेगी। इसके अलावा ग्रासरूट मुद्दों को कवर कराने के लिए रिर्पोटरों को दूरदराज के गावों में भेजना होगा, पंचायतों के कामकाज को देखने के लिए गावों मे अधिक समय बिताना होगा जिस का सीधा सीधा अर्थ समाचारपत्र प्रबंधको के लिए समाचार संकलन के खर्च को बढ़ाना है।
हांलाकि कुछ अखबारों ने इन सब दिक्कतों के बावजूद मानवीय सरोकारों को खास कर पंचायती राज में महिलाओं की भूमिका को अहमियत देने का प्रयास किया है। कथित राश्ट्र समाचारपत्रों की अपेक्षा इस दिषा में अच्छा काम छोटे पत्र पत्रिकाओं का रहा। पंचायत के कार्यों को उजागर करने के लिए कई लघुपत्रिकाएं षुरू की गई है जैसे मध्यप्रदेष में देवास जिले से ‘एकलव्य’ नाम की संस्था ने ‘पंचतंत्र’ नाम की पत्रिका निकाली है। कई गैर सरकारी संगठन भी अपनी पत्र-पत्रिकाओं में इन मुद्दों को उजागर कर रहे हंै। आंचलिक समाचारपत्रों में इस संदर्भ की घटनाओं को बेहद बारीकी से देखा जा रहा है। ‘प्रेस इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया’ ने जमीन से जुड़े मुद्दों और मानवीय सरोकारों पर ‘ग्रासरूट’ की मासिक पत्रिका षुरू की है जिसमें एक पन्ना ‘पंचायत’ पर ही है। लेकिन ग्रामीण लोगों तक पंचायत में काम करने वाली महिलाओं की सफल मिसालें पहुंचाने के लिए लघु पत्रिकाओं की अधिक जरूरत है क्यों कि इनमें प्रकाषित पंचायतों से जुड़े महिलाओ के अनुभव बहुत से अन्य ग्रामीण महिलाओं के लिए दिषानिर्देष का काम करेगें।कुछ गैर सरकारी संगठन भी पंचायती राज में महिलाओं की भूमिका को मीडिया मे उजागर करने में लगे हैं। उदाहरण के लिए ‘हंगर प्रोजेक्ट’ पंचायती राज में महिलाओं की भागीदारी के लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए पत्रकारों को दो लाख रुपए का अवार्ड दे रहा है। राश्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में इस अवार्ड ने विकास और ग्रासरूट मुद्दों के लिए थोड़ी जगह बनानी षुरू की है भले ही दो तीन कालम में ही सही।
विजुअल मीडिया में ‘सरोकार’ जैसे कायक्रमों में कई मिसाल बनी महिला संरपचों के कार्य को दिखाया जाता है। बाजारवाद के चलते हांलाकि अधिकतर अंग्रेजी और हिंदी के राश्ट्रीय स्तर के समाचारपत्रों में प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक ‘लाइफ-स्टाइल’, ‘फिल्म’ और ‘टीवी’ को जगह देने की होड़ लगी रहती है लेकिन इन स्थितियो में भी अगर पंचायत में महिलाओं की सफल कहानियों को अधिक प्रचारित किया जाए तो नीति निर्धारकों पर सार्थक प्रभाव डाला जा सकता है। जहां तक सरकार की भूमिका का सवाल है तो सबसे अहम यह है कि पंचायती राज के कामकाज में पारदर्षिता बनाने का काम सरकार को करना होगा। विकास के कार्य में जनता को हर कदम की जानकारी होना जरूरी है। विकास कार्य की योजना बनाने से लेकर उसको लागू करने के प्रत्येक चरण की उन्हें जानकारी होनी चाहिए। सूचना के अभाव में लोग योजना बनाने से लेकर योजना लागू करने तक की स्थिति में कोई फैसला नहीं दे सकते। इसलिए उन्हें सूचना मिले इसके लिए सूचना के अधिकार कानून को लागू कर सरकार अहम भूमिका निभा सकती है। विकास के कार्यों में पारदर्षिता से भ्रश्टाचार खत्म होगा। इसके अलावा पंचायत में भ्रश्ट सरकारी कर्मचारी जैसे ग्राम सेवक (बीडीओ) इत्यादि के खिलाफ सख्त कार्रवाई स्थानीय प्रषासन को स्वच्छ बनाने का काम कर सकती है। लोकतंत्र के पाये मजबूत बने इसके लिए लोगों का सहयोग जरूरी है। मानव विकास की रिपोर्ट के मुताबिक किसी भी राश्ट्र की असली संपति उसके लोग होते हैं और विकास का उद्देष्य ऐसा अनुकूल वातावरण तैयार करना है जिसमें लोग दीर्घ समय तक स्वस्थ और रचनात्मक जीवन जी सकें। लेकिन यह वातावरण लोगों की भागीदारी के बिना संभव नहीं। किसी भी गांव में सड़क बनाने या अन्य किसी विकासात्मक काम की मंजूरी ग्रामसभा के आयोजन के बिना संभव नहीं होती। प्रायः ग्रामसभाओं के आयोजन के अभाव में बहुत से विकासात्मक कार्य षुरू नहीं हो पाते। इन सभाओं का आयोजन आम लोगों की सक्रियता या सहमति के बिना संभव नहीं। ग्रामवासियों को चाहिए कि अपने क्षेत्र में होने वाले विकास कार्य के प्रति सचेत रहे और इनके अभाव में अपनी सक्रिय भूमिका निभाएं ।
( यह लेख अक्टूबर २००१ में विदुर में प्रकाशित हुआ है )

Thursday, 22 January 2009

मीडिया पर हावी ‘खास आदमी’

अन्नू आनंद
मीडिया में आम आदमी से जुड़ी ख़बरें सिकुड़ती जा रही हैं क्योंकि ‘खास आदमी’ आज मीडिया में हावी है। यह खास आदमी नेता, अभिनेता और ग्लैमर की दुनिया से लेकर अपराध जगत का कोई भी व्यक्ति हो सकता है।
लेकिन जब आम आदमी की बात की जाती है तो उसका अभिप्राय उस व्यक्ति से होता है जो देश के 70 प्रतिशत क्षेत्र में निवास करता है, जिसकी समस्या दो वक्त की रोटी जुटाने से लेकर एक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की हो सकती है। यह व्यक्ति शहरों में झुग्गियों या अन्य छोटी-मोटी बस्तियों और गांवों में रहता है। ऐसे व्यक्तियों की संख्या भले ही देश की जनसंख्या का एक तिहाई हो लेकिन मीडिया में इनसे संबंधित ख़बरों का प्रतिशत पांच से अधिक नहीं मिलेगा। इन की खबरें या तो अपवाद के रूप में छपती/प्रसारित होती हैं या फिर वे तब समाचार बनते हैं जब इनके साथ कोई सनसनीखेज़ घटना घटित हो।
अधिकतर समाचारपत्रों के पन्ने खास व्यक्तियों की ख़बरों से अटे पड़े मिलेंगे। अगर यह ‘खास’ व्यक्ति ग्लैमर या अपराध की दुनिया से है तो फिर तो उसके जीवन की पूरी गाथा जानने के लिए भी अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ती। पिछले दिनों प्रकाशन और प्रसारण मीडिया ने यह बताने के लिए कि देश का शातिर अपराधी अपनी पत्नी से कैसे व्यवहार करता है कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके लिए न्यूयार्क में अपराधी की पत्नी को खोज निकाला गया और फिर बड़े जोर-शोर के साथ इस बात का प्रचार किया गया कि उक्त अपराधी अपनी पत्नी को पीटता था और उसके साथ बदसलूकी करता था जबकि यह बात बेहद स्वाभाविक है कि देश का सबसे बड़ा अपराधी जिस पर सैकड़ों बच्चों को अनाथ बनाने का अभियोग चल रहा हो वह अपने परिवार के साथ कैसा व्यवहार करेगा। लेकिन सोचने की बात यह है कि जिन अख़बारों ने अपना बहुमूल्य न्यूज़ पिं्रंट केवल यह बताने पर खर्च किया कि अपराधी का अपने संबंधियों के साथ रिश्ता कैसे था या जिन चैनलों ने विशेषतः अपना रिपोर्टर न्यूयार्क भेजकर सुबह से शाम तक अपराधी की पत्नी का रोना रोया वह मीडिया अपने संवाददाताओं को देश के दूरदराज़ इलाकों में बसे उन लोगों की सुध लेने की कितनी कोशिश करता हैं जो जल, जंगल या ज़मीन और रोजी-रोटी के सवालों से जूझते रहते हैं और जिनकी मुख्य समस्या अपने क्षे़त्र का विकास है।
मीडिया के इस उपेक्षित रवैये को देखते हुए ग्रासरूट मुद्दों पर काम करने वाले करीब 30 कार्यकत्र्ताओं ने पिछले दिनों मीडिया तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए स्वयं कलम उठाने की शपथ ली। इन लेखकों ने राजस्थान के लूणकरनसर में एकत्रित होकर पांच दिवसीय लेखन शैली प्रशिक्षण कार्यशाला में भाग लिया। इनमें अधिकतर राजस्थान के दूरदराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों में जमीनी मुद्दों से जुड़े कार्यकत्र्ता थे जो अपने लेखन की क्षमता को सुधारना चाहते थे। इसमें फ़लौदी जिले की इमरती थी जो अपने गांव में अशिक्षा के खिलाफ लड़ाई लड़ रही है। वह अपने क्षेत्र में अशिक्षा की समस्या को खत्म करने के लिए और प्रशासन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए अख़बारों में लिखना चाहती है। इमरती की तरह नागौर जिले की कमला अपने क्षेत्र में होने वाले बाल विवाहों के खिलाफ जागरूकता पैदा करना चाहती है। कार्यशाला में हिस्सा लेने वाले सभी कार्यकत्र्ताओं की आम राय थी कि मीडिया को ग्रामीण क्षेत्र से जोड़ने के लिए जरूरी है कि वे अपने क्षेत्र की समस्याओं पर स्वयं लिखें। उनका मानना था कि मीडिया में ये मुद्दे मौसमी रूप से उजागर होते हैं।
हालांकि यह आसान नहीं है और न ही विकास के मुद्दों को मीडिया के एजेंडे में लाने का कोई ‘क्विक फिक्स सोल्यूशन’ हैैै। लेकिन एक सार्थक शुरूआत अवश्य है। ऐसे प्रयास राजस्थान के अलावा छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में भी हुए हैं। मीडिया को अब इन लोगों के सरोकारों की ओर भी ध्यान देना होगा। भले ही कुछ अख़बार और चैनल इस बात का दावा करें कि वे आम आदमी से जुड़ी ख़बरों को भी पर्याप्त जगह देते हैं लेकिन हकीकत यह है कि इनका अनुपात राजनीति, बिजनेस और जीवन शैली जैसे विषयों से अपेक्षाकृत बहुत ही कम है।
मीडिया अभी भी खास व्यक्तियों की गिरफ्त में जकड़ा हुआ है। शहरों की मुट्ठी भर महिलाओं की सेक्स समस्याओं पर कवर स्टोरी निकालने वाली पत्रिकाओं को असली भारत के इन नुमाइंदों की भी आवाज सुननी होगी जो मीडिया की उपेक्षा के कारण स्वयं कलम उठाकर अपनी आवाज़ जनता तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर मुख्यधारा के इस मीडिया ने अभी भी इनकी आवाज़ न सुनी तो संभव है कि आने वाले समय में इन वैकल्पिक संवाददाताओं को अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए वैकल्पिक मीडिया का निर्माण करना पडे़। ध्यान रहे कि यह वैकल्पिक मीडिया चुनिंदा वर्गों के नहीं बल्कि देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या यानी असली भारत का प्रतिनिधित्व करेगा। यह लेख अक्तूबर 2005 में विदुर में प्रकाषित हुआ है

Monday, 19 January 2009

मीडिया में आम आदमी

अन्नू आनंद
पिछला दशक मीडिया के के लिए बदलाव का दशक था। इस दौरान प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। खासकर भाषायी पत्रकारिता में ऐसे बदलाव अधिक देखने को मिले। समाचारपत्रों का स्वरूप बदला। पन्नों की संख्या में बढ़ोतरी हुई। नए संस्करणों की शुरूआत हुई। कई क्षेत्रीय समाचारपत्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। दो हजार के दशक तक पहुंचते-पहुंचते सैटेललाइट संस्करणों के साथ मीडिया के स्थानीयकरण की प्रक्रिया भी शुरू हो गई। लेकिन मीडिया के विस्तार के साथ साथ मीडिया की सोच में भी परिवर्तन आने लगा। 90 दशक के अंत में अंग्रेजी समाचारपत्रों ने समाचारों को कमोडिटी (उत्पाद) की तरह बेचने का रवैया अपनाना शुरू कर दिया। समाचारों के उत्पादकरण की प्रक्रिया ने जन -सरोकारों को हाशिए पर धकेल दिया। मीडिया की प्राथमिकता आम आदमी को प्रभावित करने वाले मुद्दे नहीं रहे। यह महसूस किया जाने लगा कि गरीबी, बेरोजगारी और आवास की समस्याओं से फैशन, फिल्म, माडलिंग, खान-पान और जीवन शैली जैसे विषय अधिक अच्छी स्टोरी हैं क्योंकि वे अधिक बिकाऊ हैं। अंग्रेजी समाचारपत्रों के बाजारोन्मुखी होने के साथ भाषायी समाचारपत्रों ने भी मार्केट में जीवित रहने के लिए इस प्रवृत्ति को अपनाना शुरू कर दिया। अंततः मीडिया के विस्तृत स्वरूप में आम आदमी सिकुड़ता गया।
भारतीय मीडिया विश्व के सबसे जीवंत मीडिया में गिना जाता है। इसका मुख्य कारण प्रेस की स्वतंत्रता - अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं इसका बढ़ता स्वरूप भी है। आरएनआई की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2001 में भारत में कुल पत्र-पत्रिकाओं की संख्या 51960 है जबकि 2000 में इनकी संख्या 49145 थी जो कि करीब 105 भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। सैटेलाइट और केबल चैनलों की संख्या यहां 100 से अधिक है यानी अमेरिका के बाद सबसे अधिक चैनल भारत में है। सरकारी टीवी की पहुंच 89 प्रतिशत है तो केबल टीवी की पहुंच भी निरंतर बढ़ रही है। 1999 के आंकड़ों के मुताबिक शहरों में 42 लाख घरों तक टीवी पहुंच रहे हैं तो गांवों में इनकी संख्या 37 लाख है। निजी रेडियो स्टेशन पहले ही अपने पैर पसार चुका है।
मीडिया के इस विस्तृत स्वरूप के मद्देनजर भारतीय मीडिया की बेहद परिपक्व, उतरदायी और संवेदनशील तस्वीर उभरती है। लेकिन हकीकत यह है कि देश के 74 प्रतिशत लोग अभी भी इस विशाल मीडिया की चिंता का विषय नहीं बन पाए हैं। जिस अनुपात में मीडिया का विकास हो रहा है, आम आदमी और उससे जुड़े मुद्दे उस का हिस्सा नहीं बन पा रहे। आम आदमी की बात करें तो जो तत्काल मुद्दे ध्यान में आते हैं वे हैं आवास, स्वास्थ्य, रोजगार और भोजन। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि अखबारों में इन मुद्दों की खबरों को ढूढंना पड़ता है। ये आम लोग मीडिया में तब दिखाई पड़ते हैं जब वे किसी बड़ी त्रासदी के शिकार होते हैं। उड़ीसा के कालाहांडी में लोगों की भूख से मौतें होती है या तूफान और चक्रवात उन पर कहर बरपाते हैं या फिर दक्षिण भारत के इलाकों मंे सुनामी की लहरें जब असंख्य लोगों को अपनी चपेट में लेती हैं तो टीवी और अखबारों में रोते, बेबस, बिलखते-तड़पते हुए इन आम लोगों तस्वीरें दिखाई पड़ने लगती हैं। ऐसी-ऐसी कहानियां खोजकर निकाली जाती हंै जिसमें मेलोड्रामा हो, रोमांच हो या फिर सहानुभूति और दर्द का ज़ज्बा ताकि पाठक या श्रोता भावनात्मक रूप से उससे जुड़ सके। विभिन्न चैनलों और अखबारों में भावनात्मक स्तर पर जनता को एक प्रकार से ब्लैकमेल करने की एक अदभुत होड़ चल पड़ती हंै। लेेकिन सामान्य परिस्थितियों में इसी आम व्यक्ति से जुड़ी बुनियादी समस्याएं जैसे शिक्षा, आवास या रोजी-रोटी के मुद्दों पर जीवन शैली, सेक्स, मनोरंजन और पेज थ्री की खबरें हावी हो जाती हंै।
उड़ीसा की एक प्रतिष्ठित संस्था सेंटर फाॅर यूथ एंड सोशल डेवलपमेंट ने वर्ष 2001 में मुख्यधारा और क्षेत्रीय समाचारपत्रों में उपेक्षित, गरीब और आम आदमी से जुड़े मुद्दों का कवरेज़ जानने के उद्देश्य से एक अध्ययन कराया। इसके लिए पांच क्षेत्रीय (उड़िया) समाचारपत्रों और चार राष्ट्रीय अंग्रेजी समाचारपत्रों का चयन किया गया। उड़िया समाचारपत्रों में समाज, प्रजातंत्र, प्रगतिवादी, धारित्री, संवाद थे और अंग्रेजी समाचारपत्रों में द टाइम्स आॅफ इंडिया, द टेलीग्राफ, द एशियन एज और द न्यू इंडियन एक्सप्रेस थे। अध्ययन में गरीब और उपेक्षित लोगों से जुड़े मुद्दों पर प्रकाशित रिपोर्टों की संख्या और रिपोर्ट प्रस्तुति की शैली पर विस्तृत अध्ययन कर आंकड़े एकत्रित किए गए।
छह माह की अवधि के दौरान किए गए इस अध्ययन के परिणाम मीडिया के आम आदमी के प्रति नजरिए की पोल खोलते हंै। इन परिणामों के मुताबिक मुख्यधारा के मीडिया में गरीब और सामाजिक विकास के जो मुद्दे प्रकाशित होते हैं, उनका अनुपात खेल, व्यापार या मनोरंजन जैसे विषयों की तुलना में न के बराबर हैं। उड़िया समाचारपत्रों में चार प्रतिशत स्थान इन मुद्दों को मिला था जबकि अंग्रेजी समाचारपत्रों में केवल एक प्रतिशत स्थान सामाजिक सरोकारों को दिया गया था। उड़ीसा में 47 प्रतिशत लोगों की संख्या गरीबी रेखा से नीचे है, यहां आदिवासी और दलित जनसंख्या का अनुपात भी काफी बड़ा है। लेकिन मीडिया में इनकी स्थिति उतनी ही शोचनीय है जितनी कि सामाजिक व्यवस्था में। उड़ीसा की तरह अन्य राज्यों के प़्ात्र-पत्रिकाओं की स्थिति अधिक सुखद नहीं। बंेगलोर की एक संस्था ‘सेंटर फाॅर डेवलपमेंट एण्ड लर्निंग’ ने वर्ष 2000 में समाचारपत्रों में विकास के मुद्दों का कवरेज को जानने के लिए एक अध्ययन कराया। विकास कवरेज़ पर एक साल तक के आंकड़े इकट्ठे किए गए। यदि विकास समाचारों को ऐसी सूचनाएं माना जाए जिनका कोई सामाजिक महत्व हो तो समाचारपत्रों की प्राथमिकताएं चैकानें वाली हैं। अध्ययन के परिणामों के अनुसार टाइम्स आॅफ इंडिया के 24 पन्नों में से केवल 4 प्रतिशत कवरेज़ विकास समाचारों को दिया गया था।
80 के दशक में समाचारपत्रों के रविवार संस्करणों में सामाजिक मुद्दे उनकी खास पहचान थे। इन्हीं पन्नों से मीडिया ने कई बड़े-बड़े सामाजिक अभियान खड़े किए। महिला आंदोलन, माया त्यागी, मथुरा ब्लात्कार काण्ड, नर्मदा बचाओ, भंवरीदेवी काण्ड जैसे मुद्दों पर मीडिया के कवरेज़ ने घटनाओं का रुख मोड़ दिया था। लेकिन तब समाचारपत्रों के सबसे ऊंचे पद पर आर्थिक जोड़ घटाव करने वाला मालिक नहीं संपादक होता तो जो किसी भी खबर की अहमियत का निर्धारक होता था। वह खबर का मूल्यांकन पत्रकारिता के मूल्यों के आधार पर करता था। लेकिन आज खबर या रिपोर्ट का महत्व प्रबंध संपादकों या विज्ञापन और प्रसार अधिकारियों की कृपादृष्टि पर निर्भर करता है।
इसलिए आज अगर अखबारों के रविवारी संस्करण उठाकर उसमें गरीबी, भुखमरी, रोजगार या कृषि से जुड़े मुद्दों पर कवरेज़ का जायजा लें तो अन्य विषयों पर लिखे फीचर के मुकाबले इनका अनुपात नगण्य होगा। 30 जून के दो राष्ट्रीय और चार क्षेत्रीय (हिन्दी) समाचारपत्रों के विश्लेषण से कुछ ऐसी ही तस्वीर उभरी। एक क्षेत्रीय समाचारपत्र में इंटरनेट पर होने वाली अश्लीलता पर कवर स्टोरी थी। दूसरे में ईशा कोप्पिकर पर और इन चारों क्षेत्रीय समाचारपत्रों के अंदर के पृष्ठों पर घर सजाने की कला, पति से पत्नी की अपेक्षाओं और खान-पान पर लेख मौजूद थे। अंग्रेजी सहित इन छह समाचारपत्रों में मानवीय सरोकारों पर कोई भी लेख नहीं था।
आमतौर पर कहा जाता है मीडिया हमारी संस्कृति और हमारे समाज पर गहरा प्रभाव डालता है और समाज में किसी भी बदलाव की कल्पना मीडिया के सहयोग के बिना पूरी नहीं होती। यह मान्यता भी है कि गरीबी को खत्म करने और सामाजिक असमानता दूर करने में मीडिया की भूमिका जागरूकता फैलाने और लोगों को सूचित करने में महत्वपूर्ण है। लेकिन मौजूदा मीडिया इन अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। क्योंकि उसका मानना है कि मीडिया किसी भी प्रकार के सामाजिक दायित्व से नहीं बंधा। हाल में एक विचार गोष्ठी में मीडिया के कुछ प्रतिनिधियों ने ऐसे ही तर्क रखे। लेकिन बाजारवाद की आड़ में अखबारों के पहले पृष्ठ पर महिलाओं की अश्लील तस्वीरें छापना और अखबार के अधिकतर स्पेस को फिल्मी पोस्टरों में बदलना, मीडिया के किस दायित्व का बोध कराता है। यह बहस का मुद्दा हो सकता है। कुछ समाचारपत्र जैसे झारखंड का प्रभात खबर, छत्तीसगढ़ में देशबंधु, पंजाब का ट्रिब्यून, हिन्दू और जनसता जैसे पत्र भूमण्डलीकरण और बाजारवाद के दबावों के बावजूद अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। इन समाचारपत्रों में अन्य किन्हीं भी समाचारपत्रों की तुलना में विकास और सामाजिक मुद्दों को अहमियत दी जाती है। वरना मुख्यधारा के समाचारपत्रों के लिए आम आदमी गौण होता जा रहा है। अधिकतर अखबार इस हकीकत को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। सबसे अधिक प्रसार का दावा करने वाले हिंदी समाचारपत्र के कुछ प्रतिनिधियों का तर्क है कि उनके समाचारपत्र में स्वास्थ्य और मानव संसाधन ‘बीट’ हैं और रोजाना इस बीट के समाचारों को उनके अखबार में कवर किया जाता है लेकिन अगर इन अखबारों की रिर्पोटों का विश्लेषण किया जाए तो यह कवरेज़ कुछ सेंटीमीटरों की खबरों से अधिक नहीं होता और अधिकतर खबरेें या तो प्रेस ब्रींफिग पर आधरित होती हैं या सरकारी विज्ञप्ति और सरकारी घोषणाओं के आधार पर। लेकिन फिर भी इनका अनुपात राजनीति, अपराध और महानगरीय संस्कृति को दिए गए स्पेस की तुलना में न के बराबर होता है। अखबारों के इस चलन के प्रति एक दैनिक समाचारपत्र के प्रबंध संपादक कहते हैं कि समाचारपत्र समाज का आईना है और वे तो वही दिखाते हैं जो समाज में होता है और यही पत्रकारों का धर्म भी है। लेकिन मीडिया यह धर्म केवल एक विशिष्ट यानी ‘इलीट’ वर्ग के प्रति ही क्यों निभाता है। अगर मीडिया समाज का आइना होने का दावा करता है तो देश के 76 प्रतिशत लोगों के बात इसमें प्रतिबिंबित क्यों नहीं होती।
मीडिया पर बढ़ते बाजारवाद और उपभोक्तावाद के अलावा भी ऐसे बहुत से कारण हैं जो मीडिया में आम आदमी को हाशिये पर धकेलने के लिए जिम्मेदार है। संवाददाताओं में संवेदनशीलता की कमी और अखबारों के वरिष्ठ पदों पर बैठे व्यक्तियों की मानसिकता। आज हर संवाददाता ऐसी खबर की खोज में रहता है जिससे उसकी स्वयं या उसके प्रतिष्ठान की रेटिंग बढ़े। किसी विशेष हस्ती का इंटरव्यू या कोई सनसनीखेज खबर किसी भी चैनल या अखबार के लिए रामबाण माने जाते हैं। ऐसे में अधिकतर रिपोर्टर किसी गांव में पानी या शि़क्षा के अभाव से जूझते लोगों की व्यथाओं को कवर करने के बजाए ऐसी-वैसी खबरों की खोज में रहते हैं। यह भी सच है ंिक आम आदमी से जुड़े विकास के सवाल पर लिखने के लिए फील्ड रिपोर्ताज यानि ग्रामीण इलाकों मेेें जाने की जरूरत पड़ती है। हांलाकि छोटे समाचारपत्रों के लिए भले ही यह आर्थिक रूप से व्यावहारिक न हो लेकिन बड़े समाचारपत्रों के लिए यह संभव है। लेकिन इन पत्रों के शीर्ष पदों पर बैठने वालों को लगता है कि राजनीति, शहरी अपराध और सेलिब्रेटी सेे पन्ने भरना अधिक आसान है। हकीकत तो यह है ंिक मीडिया में पिछले एक दशक से संपादकों से मालिकों और प्रबंधकों को हुए सत्ता के स्थान्नांतरण ने मीडिया के एंजेडें को बदल कर रख दिया है। अब उसकी प्राथमिकता लाभ कमाना और सबसे आगे निकलना है। लेकिन जैसा कि टाइम्स लंदन के पूर्व संपादक हेनरी विकहम कहते हैं कि ‘‘आदर्श समाचारपत्र वही है जो कि पैसा बनाने के लिए पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता किए बिना अपनी रोजी-रोटी कमाए।’’लेखिका ग्रासरूट की संपादक है
यह लेख जनवरी २००५में प्रकशित हुआ है

Thursday, 8 January 2009

तकनीकी दुनिया का चेहरा नोरती बाई
अन्नू आनंद
पिछले दिनों उसे भारतीय उधोग परिसंघ यानी सीआईआई ने वर्ष 2007 के लिए भारती पुरस्कार के लिए चुना। यह जानकर बेहद खुशी हुई कि आखिर नोरती की महानू उपलब्धि को पहचान मिली। लेकिन इस खुशी के साथ यह मलाल भी था कि उसकी इस कामयाबी की खबर केवल एक दो अखबारों में छोटी सी खबर बन पाई जबकि इसी दिन टवन्टी टवन्टी क्रिकेट मैच में धूनी के छक्कों की खबर सभी अखबारों के पहले पन्नों पर थी। अनपढ़ गरीब और देहाती होते हुए नोरती के लिए इस मुकाम तक पहुंचना धूनी के अच्छे किक्रेट खेलने से आसान नहीं था।
मेरी मुलाकात नोरती बाई से राजस्थान के एक गांव तिलोनिया में स्थित समाज कल्याण अनुसंधान केंद्र में आयोजित एक समारोह के दौरान हुई। समारोह के बाद रात को मैंने नोरती को बाहर से आए सभी मेहमानों के रहने की दौड़ भागकर व्यवस्था करते हुए देखा। घाघरा चोली सिर पर ओढ़नी और माथे पर बड़े से बोर के अलावा पैरांे और बाजुओं में मोटे कंगन पहने करीब 60 वर्षीय नोरती पहली नजर में मुझे एक आम देहाती महिला दिखी। वह सबके खाने पीने और सोने की व्यवस्था बेहद गंभीरता से कर रही थी। सुबह उठने पर चाय पीने के वक्त मुझे नोरती कहीं दिखाई नहीं पड़ी। मैंने जब उसके बारे मे पूछा तो पता चला कि वह कम्प्यूटर रूम में है। मैंने सोचा कि मेहमानों की सेवादारी के सिलसिले में वह वहां गई होगीै जब काफी देर तक नोरती नजर नहीं आई तो मैं उससे मिलने कम्प्यूटर रूम की ओर चल पड़ी।
लेकिन वहां पहुंचने पर यह देख कर मैं अवाक रह गई कि नोरती कम्प्यूटर के सामने बैठकर हाथों में माऊस लिए मिन्टों में टेढ़ी-मेढ़ी लाइनें खींच कर आसपास के गांवों में पानी के संसाधनों का नक्शा खींचने मे तल्लीन थी। पहले मुझेे सहज विश्वास नहीं हुआ। लेकिन फिर घटों उसके पास बैठ कर जो जाना तो पता चला कि हकीकत में नोरती तकनीकी दुनिया का वह चेहरा है जो सूचना तकनीक को गांवों तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभा रहा है। किसी भी ब्लाक में कुओं; नलकूपों और तालाबों की कितनी संख्या है वह कुछ ही पलों में कम्प्यूटर पर पूरी बानगी बना सकती है। खुद कभी स्कूल न जाकर पंचायतों के कंप्यूटर रिकार्ड रखना और गांव से जुड़े हर आंकड़े को कम्प्यूटर में फीड करने के अलावा इस शिक्षा को आसपास के गावों की लड़कियों को सिखाना, यह सभी काम आज नोरती बेहद सहजता से करती है। लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने का सफर कोई आसान न था।
राजस्थान के हरमड़ा गांव में जन्मी नोरती बचपन में कभी स्कूल नहीं गई। शादी होने के बाद मजदूरिन के रूप में काम करते हुए उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मजदूरी करते और घर गृहस्थी संभालते हुए एक दिन ऐसा भी आएगा जब वह न केवल स्वयं अक्षर ज्ञान हासिल करेगी ब्लकि गांव के अन्य बच्चों को पढ़ाते और महिलाओं को जागरूक बनाते हुए खुद सूचना तकनीक के नवीनतम उपकरण कम्प्यूटर में भी दक्षता हासिल कर लेगी।
35 वर्ष की उमर में नोरती के जीवन में बदलाव का मोड़ उस समय आया जब वर्ष 1981 में एक सड़क निर्माण में मजदूरिन के रूप में काम करते हुए उसे पता चला कि उसे निर्धारित मजदूरी सात रुपए की बजाय केवल 3.50 पैसे प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी अदा की जा रही है। नोरती को यह अन्याय मंजूर नहीं था। उसने काम करना बंद कर दिया और मजदूरी का पैसा नहीं लिया। उसी दौरान नोरती को मजदूर किसान शक्ति संगठन के मजदूरों के हक के लिए चल रहे अभियान का पता चला। वह उनकी बैठक में गई उसने वहां एकत्रित 300 महिलाओं के समक्ष निर्धारित मजदूरी से कम मजदूरी मिलने की बात बताई। इस सड़क निर्माण में सात गावों के करीब 700 मजदूर काम कर रहे थे। नोरती की बात का असर यह हुआ कि बहुत से मजदूरों ने कम मजदूरी लेने से इंकार कर दिया।
लेकिन इस घटना के बाद नोरती को घर, पति और गांववालों के जोरदार विरोध का सामना करना पड़ा। उस पर गांव की बातों और भेद को बाहरवालों के बताने का आरोप लगाया गया। यही नहीं गांव के प्रभावशाली लोगों ने नोरती के पति से झगड़ा किया फिर उसे दारू देकर कर नोरती के खिलाफ कर दिया गया। लेकिन नोरती ने हिम्मत नहीं हारी। उसने कम मजदूरी के खिलाफ अदालत में जाने की ठान ली। आखिर उसने मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ मिलकर आदालत में लिखित याचिका दर्ज की। वर्ष 83 में संगठन ने यह मामला जीत लिया। बीडीओ को निष्कासित कर सरपंच को जेल भेज दिया। सरपंच को जेल होने के कारण गांव में तनाव बढ़ गया जिसके लिए नोरती को जिम्मेदार ठहराया गया। लेकिन मामले की जीत से नोरती का मनोबल बढ़ा और उसने खुद को और अन्य महिलाओं को जागरूक और सशक्त बनाने का मिशन बना लिया।
इस के लिए उसने तिलोनिया स्थित समाज कल्याण अनुसंधान केंद्र (एस डबलयूआरसी) में साक्षरता के साथ मस्टर रोल, प्रवेश और काम से संबंधित कागजात को समझने का छह का प्रशिक्षण लिया। उसके बाद नोरती ने छह माह तक बर्तवान पंचायत समिति में 200 महिला मजदूरों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने का काम किया। नोरती ने शिक्षा हासिल करने के साथ-साथ शिक्षा फैलाने का काम भी जारी रखा। किसानों के जो बच्चे खेतों में मजदूरी करने के कारण दिन में स्कूल नहीं जा पाते थे नोरती ने उनके घर जाकर उन्हें आसपास के गावों में चल रहे रात के स्कूलों में भेजने के लिए प्रेरित किया। जब ये बच्चे इन स्कूलों में आने लगे तो नोरती उन्हें बलैकबोर्ड पर लिख कर 100 तक की गिनती और बाराखड़ी सिखाती। तीन साल तक लगातार रात्रि स्कूलों में काम करने के अलावा नोरती ने सरकार द्वारा चलाए जा रहे साथिन कार्यक्रम के तहत महिलाओं को छोटे-मोटे रोगों के लिए दवा देने का काम भी किया। नोरती के मुताबिक जब वह गांव की महिलाओं से उनके स्वास्थ्य की बात करतीं तो वे बड़े खुलकर उन्हें अपने प्रजनन रोगों के बारे में बतातीं।
साथिन के रूप में सात साल तक काम करने के बाद उसने मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ मिलकर सूचना के अधिकार के साथ जमीन पर अवैध कब्जे के खिलाफ प्रदर्शन धरना देकर लोगों को उन के हक दिलाने का काम किया। दस साल से बेकार पति की बीमारी को झेलती और दो पोतांे और दो पोतियों की जिम्मेदारी निभाती नोरती ने घर परिवार के संघर्ष को दूसरांे के लिए किए जा रहे संघर्ष पर हावी नहीं होने दिया। लेकिन जब उसके पति को टीबी का पीड़ित घोषित किया गया तो नोरती के लिए पति की देखभाल करने के लिए गांव-गांव जाकर काम करना मुश्किल हो गया। आर्थिक तंगी के कारण वह घर बैठना नहीं चाहती थी। लेकिन उसकी घर में उपस्थिति भी जरूरी थी इसलिए उसने समाज कल्याण केंद्र से दूसरा काम दिए जाने की गुजारिश की। केंद्र के अध्यक्ष बंकर राय ने जब उसे कम्प्यूटर पर काम करने के लिए कहा तो वह चैंक गई।
नोरती के मुताबिक पहले तो मुझे बेहद हैरानी हुई और मैंने उनसे कहा कि ‘‘मोहे डर लागे, मेहनत का कोइ भी काम मुझे बता दो लेकिन यह काम मुझसे नहीं होगा। लेकिन बंकर जी ने मुझे कुछ दिन के लिए प्रयास करने को कहा। पहले मैंने हिंदी का की बोर्ड सीखा। एक माह तो मुझे की बोर्ड माउस मोनीटर जैसी सामान्य जानकारी लेने में लगा।’’
नोरती बताती है,‘‘इसके लिए मैं हाथ में कीबोर्ड के अक्षर लिखकर रटती रही। रोटी बनाने के समय जब वे अक्षर मिट जाते तो मुझे उसे दुबारा लिखना पड़ता।’’ नोरती के लिए यह काम बेहद कठिन था। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी।
‘‘टाइपिंग आने के बाद मैंने कुछ समय तक संगठन की पिटारा पुस्तक के लिए मैटर फीड करने का काम किया। फिर दो माह तक संगठन के इंटरनेट ढाबा पर काम किया। फिर मैने नक्शे बनाने का काम सीखा।’’
कम्प्यूटर की विभिन्न विधाओं में दक्ष होने के बाद अब नोरती विकलांग लड़कियों को कम्प्यूटर प्रशिक्षण देने का काम करती है। इस समय वह समाज कल्याण अनुसंधान केंद्र - बेयरफुट कालेज द्वारा तैयार किए गए जल चित्र साफ्टवेयर की इंचार्ज है और विभिन्न गांवों की वाटर मैंपिग का काम देख रही है। माॅनीटर पर कुओं के चित्र बनाते हुए वह बताती है, ‘‘सीखने और पढ़ने की कोई आयु सीमा नहीं। मन में दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो अशिक्षित होते होकर भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है फिर थोड़ा हंसते हुए कहती है, ‘‘भले ही वह कोई भी नई टेक्नालाॅजी क्यों न हो।’’
इस महान् मानवी के साहस को सलाम।

कहां है गांरटी रोजगार की




अन्नू आनंद
करोड़ो रुपए की आर्थिक योजना और वह भी अगर देश के सबसे गरीब तबके से जुड़ी हो तो उसका श्रेय कौन नहीं उठाना चाहेगा। खासकर जब इस श्रेय को वोटों में बदला जा सके तो कोई भी राजनैतिक पार्टी ऐसे अवसर को भुनाने से नहीं चूकेगी। यही कारण है कि पिछले दिनों यूपीए सरकार ने आनन-फानन में समूचे देष में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून को लागू करने की घोषणा कर डाली। अभी तक यह योजना देश के 330 जिलों में ही लागू है। गत अप्रैल 2007 को ही दूसरे चरण के तहत 200 जिलों से बढ़ाकर इसे 330 जिलों में लागू किया गया था और अगले तीन वर्शों में चरणबद्ध तरीके से इसे बाकी जिलों में लागू किया जाना था। लेकिन इस घोशणा के साथ अब यह अप्रैल 2008 से देश के 593 जिलों में लागू की जाएगी और इस पर 20 हजार करोड़ रुपए का खर्च आएगा। हालांकि इस घोषणा से अगर देश के हर गरीब व्यक्ति को रोजगार मिलने की संभावना बनती है तो उसका स्वागत होना चाहिए लेकिन जिस अफरा-तफरी में समय से पूर्व यानी तीन साल पहले ही इसे समूचे देश में लागू करने की घोषणा की गई है उसमंे आम आदमी का फायदा कम चुनावी राजनीति की बू अधिक आती है। ‘गरीबों का मसीहा’ की छवि बनाने के जुगत में सरकार ने समूचे देष में इसे लागू करने की घोशणा तो कर डाली लेकिन इस घोषणा से पहले सरकार को यह तो पता लगा लेना चाहिए था कि अभी तक जिन हिस्सों में इसे लागू किया गया है वहां की जमीनी हकीकत क्या है? जिन 330 जिलों में योजना के तहत गरीब परिवार के व्यस्क को 100 दिनों तक का काम देने की कवायद शुरू हो चुकी है वहां कितने लोगों को इसका लाभ पहुंचा है और कितने लोग कितने दिनों के लिए ‘गारंटी रोजगार’ के हकदार बने हैंै।
वास्तविकता तो यह है कि वर्श 2006-2007 यानी पिछले एक वर्ष में इस योजना के तहत छह प्रतिशत से भी कम परिवारों को सौ दिनों तक का रोजगार हासिल हो सका है। पिछले दो वर्षों में देश के जिन हिस्सों में यह योजना लागू हुई है वहां अनियमितताओं, भ्रष्टाचार, अफसरशाही और कुव्यवस्था के चलते कम लोगों को ही इसका फायदा मिला है।
कानून में योजना को लागू करने की जिम्मेदारी पंचायतों पर है। लेकिन विभिन्न राज्यों में इसके क्रियान्वयन में उनकी भूमिका अभी भी प्रभावी नहीं बन पाई है क्योंकि पंचायतों के पास पर्याप्त तकनीकी और प्रशासकीय स्टाफ नहीं है। नतीजतन निर्धारित समय के भीतर काम का आवंटन न हो पाना, कम मजदूरी और समय सीमा के अंदर मजदूरी न मिलने जैसी गंभीर समस्याएं सभी राज्यों मंे देखने को मिल रही हैं।
पंचायती राज पर कार्य करने वाली संस्था ‘प्रिया’ ने 14 राज्यों के 21 जिलों में अप्रैल 2006 से मार्च 2007 तक योजना के अमलीकरण पर सर्वे कर इसी हफ्ते एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सर्वे किए गए 530 गांवों में केवल 45 प्रतिषत रजिस्टर्ड परिवारों ने काम की मांग की और मांग करने वाले इन परिवारों में से केवल 27 प्रतिषत परिवारों को ही काम की पर्ची दी गई। सर्वे के मुताबिक केवल 44 प्रतिषत परिवारों को ही निर्धारित 15 दिनों के भीतर काम मिला। सेंपल में सभी परिवारों ने बताया कि उन्हें 15 दिन के भीतर काम नहीं मिला। कानून के मुताबिक जिन लोगों को निर्धारित समय पर काम नहीं मिलता उन्हें रोजगार भत्ता मिलना चाहिए लेकिन सर्वे में कोई भी ऐसा परिवार नहीं था जिसे रोजगार भत्ता मिला हो।
सर्वे के मुताबिक अधिकतर राज्यों में कुल योजना का 81 प्रतिषत काम पंचायतों के तहत लागू किया जा रहा है लेकिन उन्हें पर्याप्त स्टाफ या फंड न दिए जाने की वजह से पंचायतों पर दबाव बढ़ रहा है। प्रषासनिक स्तर पर योजना को सुचारू रूप से चलाने के लिए केंद्रीय योजना में रोजगार सहायक की नियुक्ति का निर्देष है लेकिन उत्तराखंड, पष्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेष और बिहार में रोजगार सहायकों की नियुक्ति अधिकतर गावों में नहीं हुई है। इन राज्यों मे स्टाफ की कमी के कारण पंचायतंे सक्रिय नहीं हो पा रहीं जिसका लाभ गलत और स्वार्थी तत्व उठा रहे हैं। इसी वजह से इन क्षेत्रों में भ्रश्टाचार के मामले अधिक बढ़े हैं।
न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दिए जाने की जानकारी सभी राज्यों से मिली। सर्वे में 42 प्रतिषत परिवारों ने राज्य में लागू न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी मिलने की षिकायत की। कई उत्तरदाताओं ने बताया कि कम मजदूरी मिलने के कारण बहुत से ग्रामीण रोजगार परियोजना के तहत काम करना पसंद नहीं करते। सभी राज्य सरकारों को कार्य, समय एवं गति के आधार पर मजदूरी का निर्धारण करना है लेकिन कई राज्यों में जिला दर सूची (डीएसआर) अभी तक नहीं बनी है। अतः राज्य में लागू न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी दी जा रही है।
कानून के मुताबिक हर दस ग्राम पंचायत पर जूनियर इंजीनियर उपलब्ध होना चाहिए जो कि किए गए काम को मापने की जिम्मेदारी संभालता है। लेकिन अधिकतर क्षेत्रों में ब्लाॅक स्तर पर भी जूनियर इंजीनियर उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए किए गए काम का सही आकलन न होने के कारण मजदूरी देर से मिलना या कम मिलना आम बात है। हालांकि कानून के मुताबिक काम करने वाले हर मजदूर को निर्धारित मजदूरी का भुगतान साप्ताहिक या फिर पंद्रह दिनों के भीतर हो जाना चाहिए लेकिन सर्वे के मुताबिक 54 प्रतिषत परिवारों ने बताया कि उन्हें 15 दिनों के भीतर मजदूरी नहीं मिली। बिहार, उत्तरप्रदेष छत्तीसगढ़ राजस्थान और केरल तथा झारखंड में ऐसी षिकायतें अधिक थीं।
नई दिल्ली की एक अन्य संस्था सेंटर फाॅर इन्वायरमेंट एण्ड फूड सिक्योरिटी द्वारा हाल ही में कराई गई एक सर्वे के मुताबिक उड़ीसा में रोजगार गारंटी योजना पर खर्च की गई 75 प्रतिषत राषि लाभार्थियों तक नहीं पहुंची। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सरकार औसतन हर जरूरतमंद परिवार के लिए पांच दिन का काम उपलब्ध करा सकी जबकि आधिकारिक आंकड़ों में 57 दिनों का काम दिए जाने का दावा किया गया था। यही नहीं उड़ीसा में तो केंद्रीय योजना लागू होने के एक वर्श तक राज्य में योजना की अधिसूचना जारी ही नहीं हुई थी।
समूची योजना के अमल में राज्य रोजगार गारंटी परिशद् का महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन सर्वे के दौरान पाया गया कि बिहार, गुजरात, हरियाणा और उड़ीसा में परिशदों का गठन ही नहीं हुआ है जबकि हकीकत तो यह है कि ये परिशदें् रोजगार योजना से संबंधित हर विशय जैसे कार्यो का निर्धारण असके अमलीकरण और संचालन प्रक्रिया पर ध्यान देती है। इसके अलावा कानून के प्रति आम लोगों में जागरूकता फैलाने का जिम्मा भी इन पर है लेकिन इन राज्यों मेें परिशदों के अभाव में योजना किस प्रकार चल रही होगी इसकी महज कल्पना की जा सकती है।
रोजगार के मामले में महिलाएं अधिकतर राज्यों में हाषिये पर ही दिखाई पड़ती हैं। कानून की धारा 6 के मुताबिक रजिस्टर्ड किए गए लोगों में से महिलाओं को प्राथमिकता मिलनी चाहिए ताकि एक तिहाई महिलाओं को काम मिल सके। लेकिन सर्वे किए गए अधिकतर जिलों में पुरुशों की अपेक्षा महिलाओं की भागीदारी बहुत कम थी। यह भागीदारी दक्षिण चैबीस परगना (पष्चिम बंगाल) में 1.01 प्रतिषत, सीतापुर (उत्तर प्रदेष) मंे 2.57 प्रतिषत, सिरमौर (हिमाचल प्रदेष) में 3.9 प्रतिषत थी। महिलाओं को कम काम देने का कारण अधिकतर घरों में घर के मुखिया के रूप में पुरुश का नाम दर्ज कराया जाना है। यही नहीं अधिकतर क्षेत्रों में ठेकेदार महिलाओं को षारीरिक मजदूरी करने के लिए उपयुक्त नहीं मानते और वे उन्हें केवल उन्हें तभी काम देना पसंद करते हंै जब वे कम मजदूरी लेने के लिए तैयार होती हैं।
इन तथ्यों के मदूदेनजर अधिकतर राज्यों से आने वाली अनियेिमतताओं की ऐसी रिपोर्टें यह तस्दीक करती है कि जरूरत मौजूदा परियोजना ढांचे को सुदृढ़ और सषक्त बनाने की है। योजना का विस्तार तभी सार्थक साबित हो पाएगा जबकि यह मौजूदा जिलों में हर गरीब व्यक्ति को रोजगार की गांरटी दे सके और लाभदायक सामुदायिक परिसंपतियां बनाने के लक्ष्य को हासिल कर सके। लेकिन सरकार की मंषा तत्काल राजनैतिक लाभ लूटने की है इसलिए वह मौजूदा ढांचे को मजबूत बनाकर हर गरीब को गांरटी रोजगार देने की बजाय राजनीति की गोटियां फिट करने मे अधिक मषगूल है।
यह लेख दैनिक भास्कर में अक्तूबर 2007 को प्रकाषित हुआ हैकहां है गांरटी रोजगार की
अन्नू आनंद
करोड़ो रुपए की आर्थिक योजना और वह भी अगर देश के सबसे गरीब तबके से जुड़ी हो तो उसका श्रेय कौन नहीं उठाना चाहेगा। खासकर जब इस श्रेय को वोटों में बदला जा सके तो कोई भी राजनैतिक पार्टी ऐसे अवसर को भुनाने से नहीं चूकेगी। यही कारण है कि पिछले दिनों यूपीए सरकार ने आनन-फानन में समूचे देष में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून को लागू करने की घोषणा कर डाली। अभी तक यह योजना देश के 330 जिलों में ही लागू है। गत अप्रैल 2007 को ही दूसरे चरण के तहत 200 जिलों से बढ़ाकर इसे 330 जिलों में लागू किया गया था और अगले तीन वर्शों में चरणबद्ध तरीके से इसे बाकी जिलों में लागू किया जाना था। लेकिन इस घोशणा के साथ अब यह अप्रैल 2008 से देश के 593 जिलों में लागू की जाएगी और इस पर 20 हजार करोड़ रुपए का खर्च आएगा। हालांकि इस घोषणा से अगर देश के हर गरीब व्यक्ति को रोजगार मिलने की संभावना बनती है तो उसका स्वागत होना चाहिए लेकिन जिस अफरा-तफरी में समय से पूर्व यानी तीन साल पहले ही इसे समूचे देश में लागू करने की घोषणा की गई है उसमंे आम आदमी का फायदा कम चुनावी राजनीति की बू अधिक आती है। ‘गरीबों का मसीहा’ की छवि बनाने के जुगत में सरकार ने समूचे देष में इसे लागू करने की घोशणा तो कर डाली लेकिन इस घोषणा से पहले सरकार को यह तो पता लगा लेना चाहिए था कि अभी तक जिन हिस्सों में इसे लागू किया गया है वहां की जमीनी हकीकत क्या है? जिन 330 जिलों में योजना के तहत गरीब परिवार के व्यस्क को 100 दिनों तक का काम देने की कवायद शुरू हो चुकी है वहां कितने लोगों को इसका लाभ पहुंचा है और कितने लोग कितने दिनों के लिए ‘गारंटी रोजगार’ के हकदार बने हैंै।
वास्तविकता तो यह है कि वर्श 2006-2007 यानी पिछले एक वर्ष में इस योजना के तहत छह प्रतिशत से भी कम परिवारों को सौ दिनों तक का रोजगार हासिल हो सका है। पिछले दो वर्षों में देश के जिन हिस्सों में यह योजना लागू हुई है वहां अनियमितताओं, भ्रष्टाचार, अफसरशाही और कुव्यवस्था के चलते कम लोगों को ही इसका फायदा मिला है।
कानून में योजना को लागू करने की जिम्मेदारी पंचायतों पर है। लेकिन विभिन्न राज्यों में इसके क्रियान्वयन में उनकी भूमिका अभी भी प्रभावी नहीं बन पाई है क्योंकि पंचायतों के पास पर्याप्त तकनीकी और प्रशासकीय स्टाफ नहीं है। नतीजतन निर्धारित समय के भीतर काम का आवंटन न हो पाना, कम मजदूरी और समय सीमा के अंदर मजदूरी न मिलने जैसी गंभीर समस्याएं सभी राज्यों मंे देखने को मिल रही हैं।
पंचायती राज पर कार्य करने वाली संस्था ‘प्रिया’ ने 14 राज्यों के 21 जिलों में अप्रैल 2006 से मार्च 2007 तक योजना के अमलीकरण पर सर्वे कर इसी हफ्ते एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सर्वे किए गए 530 गांवों में केवल 45 प्रतिषत रजिस्टर्ड परिवारों ने काम की मांग की और मांग करने वाले इन परिवारों में से केवल 27 प्रतिषत परिवारों को ही काम की पर्ची दी गई। सर्वे के मुताबिक केवल 44 प्रतिषत परिवारों को ही निर्धारित 15 दिनों के भीतर काम मिला। सेंपल में सभी परिवारों ने बताया कि उन्हें 15 दिन के भीतर काम नहीं मिला। कानून के मुताबिक जिन लोगों को निर्धारित समय पर काम नहीं मिलता उन्हें रोजगार भत्ता मिलना चाहिए लेकिन सर्वे में कोई भी ऐसा परिवार नहीं था जिसे रोजगार भत्ता मिला हो।
सर्वे के मुताबिक अधिकतर राज्यों में कुल योजना का 81 प्रतिषत काम पंचायतों के तहत लागू किया जा रहा है लेकिन उन्हें पर्याप्त स्टाफ या फंड न दिए जाने की वजह से पंचायतों पर दबाव बढ़ रहा है। प्रषासनिक स्तर पर योजना को सुचारू रूप से चलाने के लिए केंद्रीय योजना में रोजगार सहायक की नियुक्ति का निर्देष है लेकिन उत्तराखंड, पष्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेष और बिहार में रोजगार सहायकों की नियुक्ति अधिकतर गावों में नहीं हुई है। इन राज्यों मे स्टाफ की कमी के कारण पंचायतंे सक्रिय नहीं हो पा रहीं जिसका लाभ गलत और स्वार्थी तत्व उठा रहे हैं। इसी वजह से इन क्षेत्रों में भ्रश्टाचार के मामले अधिक बढ़े हैं।
न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दिए जाने की जानकारी सभी राज्यों से मिली। सर्वे में 42 प्रतिषत परिवारों ने राज्य में लागू न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी मिलने की षिकायत की। कई उत्तरदाताओं ने बताया कि कम मजदूरी मिलने के कारण बहुत से ग्रामीण रोजगार परियोजना के तहत काम करना पसंद नहीं करते। सभी राज्य सरकारों को कार्य, समय एवं गति के आधार पर मजदूरी का निर्धारण करना है लेकिन कई राज्यों में जिला दर सूची (डीएसआर) अभी तक नहीं बनी है। अतः राज्य में लागू न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी दी जा रही है।
कानून के मुताबिक हर दस ग्राम पंचायत पर जूनियर इंजीनियर उपलब्ध होना चाहिए जो कि किए गए काम को मापने की जिम्मेदारी संभालता है। लेकिन अधिकतर क्षेत्रों में ब्लाॅक स्तर पर भी जूनियर इंजीनियर उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए किए गए काम का सही आकलन न होने के कारण मजदूरी देर से मिलना या कम मिलना आम बात है। हालांकि कानून के मुताबिक काम करने वाले हर मजदूर को निर्धारित मजदूरी का भुगतान साप्ताहिक या फिर पंद्रह दिनों के भीतर हो जाना चाहिए लेकिन सर्वे के मुताबिक 54 प्रतिषत परिवारों ने बताया कि उन्हें 15 दिनों के भीतर मजदूरी नहीं मिली। बिहार, उत्तरप्रदेष छत्तीसगढ़ राजस्थान और केरल तथा झारखंड में ऐसी षिकायतें अधिक थीं।
नई दिल्ली की एक अन्य संस्था सेंटर फाॅर इन्वायरमेंट एण्ड फूड सिक्योरिटी द्वारा हाल ही में कराई गई एक सर्वे के मुताबिक उड़ीसा में रोजगार गारंटी योजना पर खर्च की गई 75 प्रतिषत राषि लाभार्थियों तक नहीं पहुंची। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सरकार औसतन हर जरूरतमंद परिवार के लिए पांच दिन का काम उपलब्ध करा सकी जबकि आधिकारिक आंकड़ों में 57 दिनों का काम दिए जाने का दावा किया गया था। यही नहीं उड़ीसा में तो केंद्रीय योजना लागू होने के एक वर्श तक राज्य में योजना की अधिसूचना जारी ही नहीं हुई थी।
समूची योजना के अमल में राज्य रोजगार गारंटी परिशद् का महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन सर्वे के दौरान पाया गया कि बिहार, गुजरात, हरियाणा और उड़ीसा में परिशदों का गठन ही नहीं हुआ है जबकि हकीकत तो यह है कि ये परिशदें् रोजगार योजना से संबंधित हर विशय जैसे कार्यो का निर्धारण असके अमलीकरण और संचालन प्रक्रिया पर ध्यान देती है। इसके अलावा कानून के प्रति आम लोगों में जागरूकता फैलाने का जिम्मा भी इन पर है लेकिन इन राज्यों मेें परिशदों के अभाव में योजना किस प्रकार चल रही होगी इसकी महज कल्पना की जा सकती है।
रोजगार के मामले में महिलाएं अधिकतर राज्यों में हाषिये पर ही दिखाई पड़ती हैं। कानून की धारा 6 के मुताबिक रजिस्टर्ड किए गए लोगों में से महिलाओं को प्राथमिकता मिलनी चाहिए ताकि एक तिहाई महिलाओं को काम मिल सके। लेकिन सर्वे किए गए अधिकतर जिलों में पुरुशों की अपेक्षा महिलाओं की भागीदारी बहुत कम थी। यह भागीदारी दक्षिण चैबीस परगना (पष्चिम बंगाल) में 1.01 प्रतिषत, सीतापुर (उत्तर प्रदेष) मंे 2.57 प्रतिषत, सिरमौर (हिमाचल प्रदेष) में 3.9 प्रतिषत थी। महिलाओं को कम काम देने का कारण अधिकतर घरों में घर के मुखिया के रूप में पुरुश का नाम दर्ज कराया जाना है। यही नहीं अधिकतर क्षेत्रों में ठेकेदार महिलाओं को षारीरिक मजदूरी करने के लिए उपयुक्त नहीं मानते और वे उन्हें केवल उन्हें तभी काम देना पसंद करते हंै जब वे कम मजदूरी लेने के लिए तैयार होती हैं।
इन तथ्यों के मदूदेनजर अधिकतर राज्यों से आने वाली अनियेिमतताओं की ऐसी रिपोर्टें यह तस्दीक करती है कि जरूरत मौजूदा परियोजना ढांचे को सुदृढ़ और सषक्त बनाने की है। योजना का विस्तार तभी सार्थक साबित हो पाएगा जबकि यह मौजूदा जिलों में हर गरीब व्यक्ति को रोजगार की गांरटी दे सके और लाभदायक सामुदायिक परिसंपतियां बनाने के लक्ष्य को हासिल कर सके। लेकिन सरकार की मंषा तत्काल राजनैतिक लाभ लूटने की है इसलिए वह मौजूदा ढांचे को मजबूत बनाकर हर गरीब को गांरटी रोजगार देने की बजाय राजनीति की गोटियां फिट करने मे अधिक मषगूल है।
(यह लेख दैनिक भास्कर में अक्तूबर 2007 को प्रकाशित हुआ है)