अन्नू आनंद
बाजारी ताकतों का पत्रकारिता पर प्रभाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। प्रिंट माध्यम हो या इलेक्ट्राॅनिकअब विषय-वस्तु (कंटेंट) का निर्धारण भी प्रायः मुनाफे को ध्यान में रखकर किया जाता है। कभीसंपादकीय मसलों पर विज्ञापन या मार्केटिंग विभाग का हस्तक्षेप बेहद बड़ी बात मानी जाती थी।प्रबंधन विभाग संपादकीय विषयों पर अगर कभी राय-मशविरा देने की गुस्ताखी भी करते थे तो वहएक चर्चा या विवाद का विषय बन जाता था और यह बात पत्रकारिता की नैतिकता के खिलाफमानी जाती थी।लेकिन यह बातें अब अतीत बन चुकी हैं। अब अखबार या चैनल के पूरे कंटंेट में मार्केटिंग वालोंका दबदबा अधिक दिखाई पड़ता है। इसकी एक वजह यह भी है कि हर मीडिया समूह अधिक सेअधिक मुनाफा कमाना चाहता है और उसके लिए खबरों को प्रोडक्ट मानना एक मजबूरी बनती जारही है। ‘खबर’ नाम के इस प्रोडक्ट को भले ही वे चैनल पर हो या अखबार में, अधिक से अधिकबेचने के लिए बड़े-बड़े मीडिया समूह आए दिन नए-नए प्रयोग कर रहे हैं।इसी प्रवृत्ति को आगे बढ़ाते हुए इन दिनों बड़े मीडिया समूहों ने बड़ी-बड़ी काॅरपोरेट कंपनियों केसाथ ‘निजी समझौतों की शुरूआत की है। इन समझौतों के तहत प्रायः कंपनियांे के विज्ञापन औरप्रचार की जिम्मेदारी मीडिया कंपनी की होती है और बदले में काॅरपोरेट कंपनियां मीडिया कंपनीको अपनी कंपनी में हिस्सेदारी देती हैं।सूचनाओं के मुताबिक हाल ही में बेनेट एण्ड कोलमेन कंपनी के वर्ष 2007 में ऐसे निजी समझौतोंकी मार्केट कीमत पांच हजार करोड़ रुपए हुई है जो कि उसकी सालाना तीन हजार पांच सौकरोड़ की आमदन से भी अधिक है। अब यह प्रवृत्ति अन्य हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में भी पांवपसार रही है। हालांकि कहा यह जा रहा है कि काॅरपोरेट कंपनियों के अधिक विज्ञापनों को बिनापैसे के हासिल करने का यह तरीका है और मीडिया समूह इस प्रकार केवल बड़ी कंपनियों कोविज्ञापन स्पेस ही उपलब्ध करा रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि इस प्रकार के निजीसमझौतों के बाद क्या कोई अखबार या चैनल पूरी तरह निष्पक्ष होकर उन कंपनियों की कवरेजकर सकता है जिनका कि वे स्वयं शेयरधारक है?बड़ी बड़ी काॅरपोरेट कंपनियां तो यही चाहती हैं कि वे अधिक विज्ञापनों के जरिए इन अखबारों औरचैनलों के कंटेंट मंे भी अपनी जगह बना सकें और ऐसा होना कोई असंभव भी नहीं दिखता जैसाकि ऐसे समझौते करने वाले अखबार या टीवी चैनल कहते नहीं अघाते कि इनका संपादकीयमसलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। पिछले कुछ समय में बाजारवाद के नाम पर प्रिंट औरइलेकट्राॅनिक मीडिया में ‘ब्रांड पत्रकारिता’ की प्रवृत्ति बढ़ी है उसको देख कर नहीं लगता किसंपादकीय विभाग ऐसे समझौतों से खुद को बचा पाएंगे।कंटंेट के जरिए मुनाफा कमाने के उद्देश्य और प्रतिस्पर्धा के नाम पर धीरे-धीरे अखबारों और चैनलोंके कंटंेट (विषय सामग्री) पर मार्केटिंग वालों का कब्जा बढ़ता ही जा रहा है। इसकी शुरूआतसबसे पहले संपादकों की हैसियत कम करने से हुई थी ताकि वे खबर को बेचने के रास्ते कीरूकावट न बनंे। उनके कद को छोटा करने के लिए मार्केटिंग और विज्ञापन विभागों का संपादकीयविषयों पर दखल बढ़ाया गया।अखबारों में 60 प्रतिशत कंटंेट और 40 प्रतिशत विज्ञापन की नीति लागू होती है। लेकिन मार्केटिंगके हाथों में कमान आते ही उन्होंने विज्ञापनों का प्रतिशत बढ़ाने के लिए नए-नए रास्ते निकाललिए। इसके लिए पहले अखबार के ‘मास्ट हेड’ मुख पृष्ठ बिके। फिर विज्ञापनों के विशेष पन्ने शुरूहुए। पहले पन्ने पर विज्ञापन की कवायद भी शुरू हुई। इसी होड़ में फिर खबरों के रूप मेंविज्ञापन भी छपने लगे। इसके लिए अखबारों ने बकायदा खबरों का कुछ स्पेस ‘विज्ञापनी’ खबरोंके लिए निर्धारित किया। इस स्पेस में खबरों के रूप में किसी कंपनी, वस्तु के बारे में जानकारी दीजाने लगी। इन ‘विज्ञापनी’ खबरों को इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाता है कि पाठक के लिए यहसमझना कठिन होता है कि यह वास्तविक खबर है या प्राॅपोगेंडा। टीवी चैनलों में भी बकायदा ऐसेकार्यक्रम दिखाए जाते हैं कि यह अंतर करना मुश्किल हो जाता है कि खबर है या पैसे से खरीदागया विज्ञापन। अब स्वास्थ्य से संबंधित किसी भी नए प्रोडक्ट या फिर कोई इलेक्ट्राॅनिक संयंत्र नयाकैमरा या कोई नए स्पा, रिर्सोट के बारे में जानकारी खबरों का ही हिस्सा होती हैं। देश-विदेश कीखबरों के साथ इन प्रोडक्ट की जानकारी भी उसी तर्ज पर दी जाती है कि यह अंतर करना भीकठिन हो जाता है कि अमुक कोई खबर है या स्पांसर कार्यøम।अब जबकि संपादकीय और मार्केटिंग के बीच की रेखा दिन प्रतिदिन धुंधली पड़ रही हो, ऐसे मेंयह उम्मीद करना कि मीडिया कंपनियों के निजी समझौतांे का असर संपादकीय विषय-वस्तु परनहीं पडे़ेगा नासमझी होगी। पत्रकारिता के मूल्यों और उसकी बची हुई विश्वसनीयता के लिए यहप्रवृत्ति बेहद घातक साबित हो सकती हैं खासकर जबकि मझोले और क्षेत्रीय अखबारों में भी ऐसेसमझौतांे की संभावनाएं बढ़ रही हैं।
(यह आलेख अक्तूबर-दिसंबर 2007 के विदुर अंक में प्रकाशित हुआ है)
3 comments:
अब तो बहुत छोटेविज्ञापन दाता तक के कहने पर खबरे रूकने एवं छपने लगी है। अभी तक खबरो की विश्वसनीयता थी, दो चार साल चलने दो सब खत्म हो जाएगी।
जब अख़बारो मे संपादक से मैनेजर बड़ा हो गया तो ये सब तो होगा ही।
जब अख़बारो मे संपादक से मैनेजर बड़ा हो गया तो ये सब तो होगा ही।
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