Tuesday 9 December 2008

अन्याय के खिलाफ गुलाबी गिरोह



अन्नू आनंद
मानवी अब अपने हकों के लिए इस कदर जागरूक हो रही है कि अगर कोई उसके अधिकारों के रास्ते में रूकावट बनता है तो वह इस नाइंसाफी के खिलाफ अवैध तरीका भी इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करती।
उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाके बुंदेलखंड में इन दिनों ‘गुलाबी गिरोह’ नामक महिलाओं के एक बहुत बड़े समूह ने क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ कर प्रशासन की नींद उड़ा दी है। वर्ष 2006 में बना यह गिरोह मुख्यतः भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी जंग लड़ रहा है। यह समूह कमजोर और गरीब वर्गों के लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं के अमलीकरण में होने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहा है। इस क्षेत्र में बहुत सी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ गरीबों और वंचितों को नहीं मिल रहा है। गुलाबी गिरोह की मुखिया अर्धशिक्षित, गरीब 45 वर्षीया संपत देवी पाल है।
बांदा के अटारा गांव से करीब 100 सदस्यों के साथ शुरू हुए इस समूह के अब करीब 20 हजार समर्थक सदस्य हैं। समूह के पास सबसे अधिक शिकायतें राशन की दुकानों से राशन न मिलने की आती है। इसकी एक वजह यह है कि इस गिरोह को बांदा और चित्रकूट जिले के कोटे का राशन काला बाजार में पहुंचने से रोकने में सबसे बड़ी उपलब्धि हासिल हो चुकी है। इन जिलों का अभी तक 70 फीसदी राशन काला बाजार में पहुंच जाता था। अटारा के राशन विक्रेता रामअवतार दारा राशन न देने की शिकायतें मिलने के बाद गिरोह के सदस्यों ने उसपर नजर रखनी शुरू कर दी। आखिर समूह के सदस्यों ने उन दो टैक्टरों को बीच रास्ते में रोक लिया जिन पर बीपीएल लोगों के हिस्से का राशन खुले बाजार में बेचने के लिए जा रहा था। संपत देवी के मुताबिक प्रमाण दिखाने के बावजूद जब पुलिस ने रामअवतार के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं की तो हमारा संदेह विश्वास में बदल गया कि पुलिस और राशन विक्रेताओं की मिलीभगत के चलते ही गरीबों का राशन खुुले बाजार में बेचा जा रहा है। बाद में समूह की सदस्यों ने गुस्से में अटारा पुलिस स्टेशन को घेर लिया ओर डयूटी पर मौजूद पुलिस अधिकारियों के साथ हाथापाई की। इस घटना के बाद भले ही इन जिलों में राशन वितरण में हेराफेरी की घटनाएं कम हो गईं लेकिन गिरोह के पास अन्य क्षेत्रों से राशन न मिलने की शिकायतें की संख्या बढ़ने लगीं हैं। गिरोह अब तक राशन के अलावा बिजली, पानी और पुलिस की ज्यादतियों के खिलाफ मोर्चा खोल चुका है।
अपने सदस्यों को अलग पहचान देने के लिए गिरोह ने एक ही रंग के कपड़े पहनना तय किया। गुलाबी रंग क्योंकि किसी भी राजनैतिक पार्टी से जुड़ा नहीं इसलिए गिरोह इस रंग का इस्तेमाल करता है। गुलाबी रंग के चुनाव पर संपत देवी कहती है, ‘‘अपनी अलग पहचान स्थापित करने के लिए हमने एक ही रंग के कपड़े पहनना तय किया है और गुलाबी रंग जीवन का प्रतीक भी है। इसके अलावा धरना प्रदर्शन और भीड़ में हमें अपने साथियों को पहचानने में भी आसानी होती है।
आर्थिक दष्टि से पिछड़े इस क्षे़त्र की जनसंख्या लगभग 2 करोड़ है। यहां की अधिकतर महिलाएं खासकर दलित इस समूह से जुड़ कर भोजन, आवास और सामाजिक न्याय की लड़ाई में स्वयं को अधिक सुरक्षित महसूस करतीं है। जैसा कि समूह की एक सदस्य कहती है हमारी संख्या ही हमारी ताकत है।
भारतीय दंड संहिता के तहत इस गिरोह पर गैरकानूनी सभा, दंगा, सरकारी अधिकारी पर हमला और सरकारी कर्मचारियों का अपना काम करने से रोकने के आरोप लग चुके है। लेकिन स्थानीय स्तर पर ‘गुलाबी गिरोह’ को मिल रहे भारी समर्थन और उनकी मजबूत इच्छा शक्ति के चलते उन पर अकुंश लगाना संभव नहीं होगा।
गिरोह का मानना है कि जब मांगने से नहीं मिलता तो छीनना पड़ता है। इसलिए इस के लिए समूह के कुछ सदस्य अपने पास लाठी भी रखते हैं लेकिन संपत देवी कहती है कि यह लाठी हमारा सहारा है लेकिन अन्याय के खिलाफ और आरोपी अधिकारियों को सबक सिखाने के लिए यह उठ भी सकती है। गिरोह ने अपने संदेश को अधिक से अधिक महिलाओ तक पहुचांने के लिए नारों को गीतों में बुनने की शुरूआत की है। ‘‘नेताओ हो जाओ होश्यार, बहने हो गई तैयार’’ और ‘‘बहनो हो जाओ तैयार नेता हो गए गददार’’, जैसे गीतों से महिलाओं को सचेत किया जा रहा हैै।
हांलाकि गुलाबी गिरोह की शुरूआत गुलाबी संगठन के रूप में हुई थी लेकिन बाद में इसकी चर्चा ‘गिरोह’ के रूप में होने लगी। संपत देवी के मुताबिक गिरोह का मतलब केवल नकारात्मक ही नहीं। अपने हको के लिए लड़ने वाले मजदूरों आदि के समूह का भी गिरोह कहा जाता है। दूसरा गिरोह के रूप में ख्याति फैलने से पुलिस और प्रशासन भी हमसे डरता है। कुछ लोग संपत देवी की तुलना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से करते हैं।
बचपन से ही संपत को लड़कियों के साथ किए जाने वाले भेदभाव के रवैये को झेलना पड़ा। छोटी उमर में ही उसे खेतों में काम करने के लिए भेज दिया गया जबकि उसके भाई स्कूल पढ़ने के लिए जाते। 12 साल की हुई तो उसकी शादी कर दी गई और 15 वर्ष में वह मां बन चुकी थी। दो लडकियां पैदा होने के बाद भी सास ने आपरेशन कराने से मना कर दिया क्योंकि उसे बेटा चाहिए था। उसके बाद संपत के चार बच्चे पैदा हुए। संपत के मुताबिक सास उसे पुरूषों के सामने चुप रहने और पर्दा करने के लिए कहती जो उसे मंजूर नहीं था।
महिलाओं के प्रति इस प्रकार के उपेक्षित रवैये ने ही शायद संपत को क्रांतिकारी बनने पर मंजूर कर दिया। आज संपत और उसका गिरोह महिलाओं की हर प्रकार की सहायता करने के लिए तैयार रहता है। नशेड़ी पतियों से पीड़ित महिलाओं के पतियों को सबक सिखाने के अलावा गिरोह विधवा महिलाओं को पेंशन दिलाने में भी मदद करता है। गिरोह की साख अब इस कदर बढ़ गई है कि अब पुरूष भी अपने मसले सुलझाने के लिए गिरोह से मदद मांगने लगे हैं। इसी वर्ष फसल नष्ट हो जाने पर बांदा के हजारों किसानों ने प्रशासन से मुआवजे की रकम हासिल करने के लिए गिरोह से मदद मांगी थी।
अपने हकों की खातिर भले ही ये महिलाएं कानून को भी अपने हाथों में लेने से गुरेज नहीं करतीं लेकिन नांइसाफी के खिलाफ लड़ी जानी वाली इस जंग में उनके लिए वे सब जायज है जिससे वे अपने बुनियादी अधिकारों को हासिल कर सकती हैं। भले ही इसके लिए उन्हें हिंसा पर उतारू होना पड़े। आखिर मानवी के साहस की परीक्षा क्यों?





1 comment:

P.N. Subramanian said...

अभिवादन उस संपत देवी को. जितने भी गिरोह बनते हैं उनके पीछे कमोबेसी ऐसे ही कारण होते हैं. चाहे वाह नक्सल वाद हो माओवाद, जड़ में जाएँ तो वही सब कुछ होगा. सुंदर लेख के लिए आभार.