Friday, 31 October 2008

मानवी के साहस


अन्नू आनंद
यहां उन महिलाओं की बात की जा रही है जिनकी उपलब्धियां तो असीम हंै लेकिन वे खबर बहुत कम बनती हैं। उनके संघर्ष, साहस और मेहनत के साथ काम की बात करें तो वे किसी भी लिहाज से ऐश्वर्या राय, इंदिरा नुयी, किरण मजूमदार शाॅ या सानिया मिर्जा से कम नहीं लेकिन वे टीवी चैनलों या अखबारों के पन्नों पर ढूंढने पर भी नहीं मिलतीं। ये वे महिलाएं हैं जो सभी प्रकार की विपरीत स्थितियों में भी नदी की धाराओं को मोड़ने का दम रखती हैं। इन्हें किसी नाम और शोहरत की भूख नहीं उनका मुख्य मकसद अपनी मंजिल तक पहुंचना है। असली भारत की ये योद्दाएं बिना किसी बड़े संगठन या संस्था की छत्रछाया के अपने गांव, समुदाय या समाज के विकास और उनके कायाकल्प के लिए दूर-दराज के गांवों मंे खमोशी से अपने काम को अंजाम देने में जुटी हैं।
ऐसी ही एक मानवी से मेरी मुलाकात उस दौरान हुई जब मंै मैला ढोने वाली महिलाओं की एक स्टोरी के सिलसिले में मध्यप्रदेश के देवास जिले की विभिन्न गावों का दौरा कर रही थी। उस का नाम क्रांति था लेकिन नाम के विपरीत वह स्वभाव से बेहद ही शांत और सौम्य थी। करीब 20 वर्ष की यह फुर्तीली युवती मुझे तीन दिन तक देवास के दूर -दराज की बस्तियों में घुमाती रही। उसके पास मेरे हर सवाल का जवाब था। वह मैला ढोने वाली महिलाओं के पुनर्वास से जुड़े एक अभियान की जिला संयोजक के नाते पूरे दौरे में मुझे मुद्दे से जुड़ी बारिकियों को समझाती रही। जिस बस्ती में भी हम गए, बस्ती के बच्चे और महिलाएं उसको देखते ही भागते आते और उसे हर महिला और बच्चे का नाम जुबानी याद था। महिलाओं को काम छोड़ने के लिए प्रेरित करना, बच्चों का स्कूलों में भर्ती कराना, पुनर्वास के कामों की व्यवस्था करने में मदद करना और फिर बस्ती में दलितों के साथे अन्य जातियों द्वारा किए जाने वाले अन्याय के खिलाफ खड़े होना, वह इन सब कामों में माहिर थी। काम के प्रति उसके समर्पण को देखकर मैं मन ही मन उससे प्रभावित हुए बिना न रह सकी।
एक बस्ती में उसने मुझे रेवती (बदला हुआ नाम) नाम की एक महिला से मिलाया। रेवती की शादी बहुत ही छोटी उमर में हो गई थी और ससुराल में कदम रखते ही अपनी परंपरा के मुताबिक झाड़ू और टोकरा हाथ में ले लिया था। 20 सालों तक शहरी कालोनियों में मैला ढोकर अपने परिवार का पेट पालने वाली रेवती के जीवन से बदबू का नाता अभी पूरी तरह नहीं छूटा। हांलाकि रेवती को यह काम छोड़े सात साल बीत चुके हैं लेकिन आज भी वह अपने बच्चों की खातिर कभी-कभार फिर से टोकरा हाथ में लेने के लिए मजबूर महसूस करती है। छोटी सी उमर में मन में पढ़ने का सपना पाले और सिर पर टोकरा उठाए लोगों की गंदगी को साफ करने के दिनों के बारे में जब वह बताती है तो सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन क्रांति के प्रयासों से रेवती जैसी कई महिलाएं अब यहां जीना सीख रहीं हैं।
क्रांति इन महिलाओं को जागरूक बनाने के काम के साथ देवास से पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही है। दौरे के आखिरी दिन एक रेस्तरां में खाना खाते हुए मैंने उससे पूछा कि वह पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर आगे क्या करेगी तो उसने जवाब दिया कि वह लाॅ करने की सोच रही है। इसके अलावा वह यह फील्ड वर्क भी जारी रखेगी। काम के साथ लाॅ की पढ़ाई क्या संभव हो पाएगा? वह बेहद संजीदा लेकिन हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘अगर मैं पढ़ती नहीं तो मेैं भी आज अपनी बहन ‘रेवती दीदी’ जैसे होती। उन की तरह पिता जी ने मेरी शादी भी 15 साल में कर दी होती और मैं भी दीदी की तरह -----’’
रेवती कौन? मैंने एकदम चैंकते हुए पूछा। रेवती वही बस्ती में रहने वाली जिससे आपने लंबी बातचीत की थी। वह मेरी सगी बहन है। हम दलित जाति से हैं इसलिए पिताजी ने उसकी शादी जल्दी कर दी थी। उसकी शादी के बाद मैंने ठान ली थी कि कुछ भी हो जाए मैं पढ़ना नहीं छोड़ंूगी। इसके लिए मुझे अपने परिवार और बिरादरी से एक लंबा विरोध करना पड़ा।
वह बता रही थी और मैं इस कल्पना से ही सहमी जा रही थी कि उसे अपने को इस श्राप से बचाने के लिए किस प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। खुद को इस नरक से बचाने के साथ अपनी बड़ी बहन और उन जैसी कई महिलाओं को बचाने में उसके संघर्ष और साहस के आगे मैं स्वयं और उन महिलाओं के व्यक्तित्व को बेहद बौना महसूस कर रही थी जिन्हें मैं अक्सर चैनल सर्फ करते हुए देखती रहती हूं।
ऐसी ही एक अन्य साहसी मानवी से मेरी मुलाकात राजस्थान के गांव सुरजुनपुर में हुई। अरावली के पर्वत की छाया में खुले आकाश में उसका डेरा था। छोटे छोटे टेंटों में आसमान के नीचे यहां कई परिवार रह रहे हैं। केला भी उन में एक है। केला बंजारन उस समुदाय से है जिनकी गिनती न तो बीपीएल परिवारों में होती है और न ही न ही वोटरों में उनका नाम आता है। जनसंख्या के आकड़ों में भी वे पूरी तरह शामिल नहीं। केला बंजारा जाति सहित घुमंतु समुदाय की अन्य जातियों बावरिया, भोपा और नट जाति के लोगों को उनके संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए दिनभर उनकी बस्तियों में घूमती रहती है। बच्चों के स्कूलों मे नाम लिखान,े पट्टे की जमीन के लिए आवेदन देने और बुनियादी सेवाएं हासिल करने के अधिकारों के बारे में समुदाय के लोगों को बताना उसका मुख्य मकसद है।
50 साल की केला ने दिल्ली, हरिद्वार सोनीपत, पानीपत जैसे शहरों में ढेरा लगा कर मुलतानी मिट््टी और नमक बेचकर अपने बच्चों को बड़ा किया है। लेकिन अब वह कहती है, ‘‘मेरा मकसद अब केवल अपने समुदाय के लोगों को इस घुमंतु जीवन से छुटकारा दिलाना है। इसके लिए वह राजस्थान में स्थायी डेरा लगा कर महिलाओं के बीच में काम कर रही है। पारंपरिक लहंगा, सिर पर बड़ी सी ओढ़नी, हाथों और पावों में चांदी के दिखने वाले पारंपरिक गहने और बाजूओं पर गोदने के निशान के साथ केला जब तेज तेज चलते हुए एक बस्ती से दूसरी बस्ती तक का लंबा रास्ता तय करती है तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि जीवन के इस पड़ाव में इतने कठिन जीवन जीने के बाद भी वह एक नई उर्जा ओर उत्साह के साथ इतने बड़े मिशन को पूरा करने का संकल्प रखती है। लेकिन अनपढ़ केला समुदाय की महिलाओं की मसीहा बन चुकी है। वह उनकी हर छोटी बड़ी समस्या को बेहद ध्यान से सुनती है और बीचबीच में उससे निपटने की सलाह भी देती जाती है।
राजस्थान के अजमेर जिले के तिहारी गांव की कमला देवी को मिलने के बाद मुझे सेलिबे्रटी की वास्तविक परिभाषा को समझने का एक और अवसर मिला। कमला दिखने में किसी भी देहाती महिला से भिन्न नहीं। सिर पर पल्लू, नाक में बड़ी सी नथ और हाथ पावों में चांदी के चमकते गहने। लेकिन वह साधारण महिलाओं की तरह खाना बनाने या सिलाई बुनाई की बातों की बजाए तारों के सक्रिट चार्ज कंट्रोलर और पैनलों को जोड़कर सौर लालेटन बनाने की जानकारी देती है। उसके द्वारा बनाए सौर लालटेन राजस्थान के गांवों के र्कइं अधेरे घरों और स्कूलों में प्रकाश फैला रहे हैं। कमला जब 12 साल की आयु में अपने ससुराल सिरोंज गांव में आई तो उसने कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखा था। वह अपनी चारों बहनों की तरह ही बिल्कुल अनपढ़ थी। उसके घर में स्कूल जाने का अवसर केवल उसके भाइयों को ही मिला। उसका काम अपनी बहनों की देखभाल करना, खाना बनाना और पानी ढोना और पशु चराना था। सिरांेज गांव में जब उसने बिजनवाड़ा के रात्रि स्कूल के बारे में सुना तो उसके मन में भी पढ़ने की इच्छा जागृत हुई। उसे लगा कि वह दिन भर घर के सारे काम खत्म कर भी स्कूल जा सकती है। लेकिन उसके पति सास इस बात के लिए तैयार नहीं थे। आखिर उसके ससुर ने उसका साथ दिया और उसने रात्रि स्कूल में पांचवी कक्षा तक पढ़ाई की। रात्रि स्कूल में पढ़ते हुए वह रात के अंधेरे में जलने वाले सौर लैंप से बेहद प्रभावित हुई क्योंकि गैर बिजलीकृत के क्षेत्र में इन लैंपों का अच्छा इस्तेमाल हो सकता है। यही सोच उसे केंद्र के ‘सोलर लाईट’ प्रशिक्षण कोर्स ले गई। इससे पहले गांव की किसी भी महिला ने सौर इंजीनियर का प्रशिक्षण नहीं लिया था। केवल पुरुष ही इसमें दाखिल होते थे। लेकिन अब कमला के कारण क्षेत्र की कई महिलाएं इसमे महारत हासिल कर अपने गावों में उजाला कर रही हैं।क्रांति, केला और कमला जैसी कई महिलाएं बेहद खामोशी से बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्यप्रदेश में बदलाव के नए अध्याय लिख रही हैं लेकिन जरूरत इन्हें पढ़ने और सराहने की है।





Thursday, 9 October 2008

पंचायतों में घुमंतू महिलायें


अन्नू आनंद
(अलवर, राजस्थान)वह समाज के सबसे पिछड़े समुदाय से हैं और समाज केसबसे निचले पायदान पर खड़ी हैं। उनके समुदाय के अधिकतरलोगों को वोट देने जैसे बुनियादी अधिकार भी हासिल नहीं।लेकिन वे अब लोकतंत्र की पहली सीढ़ी पर बेहद मजबूती केसाथ अपने कदम रख चुकी हैं। अपने समुदाय के विकास के लिएउन्होंने स्थानीय शासन का हिस्सा बनकर अपने संघर्ष की शुरूआतकर दी है।ये हैं पिछले वर्ष पहली बार राजस्थान की पंचायतों में नियुक्तहुई नट, बंजारा, बावरिया, भोपा जैसे घुमंतु समुदायों की उत्साही,उद्यमी महिलाएं।32 वर्षीय सावड़ी सूकड़ गांव की विमला पिलखुड़ी पंचायतकी उपसरपंच है। वह घुमंतु समाज के नट समुदाय से है औरकाफी समय से नट समाज की मुखिया रह चुकी है। विमला औरउसके परिवार की अन्य महिलाएं दौसा, भरतपुर और अलवर केग्रामीण इलाकों में नाच, तमाशा और नौटंकी कर अपनी जीविकाचलाते हैं। दिल्ली-जयपुर हाईवे से कुछ किलोमीटर की दूरी परबसी सावड़ी बस्ती में सात-आठ सौ परिवार रहते हैं। कच्चे-पक्केघरों में रहने वाले अधिकतर लोग नट समुदाय के हैं। गांव केकालूराम नट बताते हैं, ‘‘हमारे परिवारों में महिलाएं नाचती हैं यातमाशा करती है और पुरुष ढोलक आदि बजाने का काम करतेहैं। हम दीवाली के समय घरों से निकलते हैं और होली पर वापसघर लौटते हैं।’’ कुछ लोगों ने अब इस काम को छोड़कर अन्यछोटे-मोटे व्यवसायों को अपनाया है लेकिन जीविका के अभाव मेंउन्हें अपने पारंपरिक काम को ही करना पड़ता है। लेकिन अबउन्होंने निरंतर घुमंतु जीवन को छोड़कर पिछले कई वर्षों से यहींअपना स्थायी ठिकाना बना लिया है।विमला ने जब उपसरपंच के लिए अपना नामांकन भरा तोउसे कई गांवों का विरोध सहना पड़ा। विमला बताती है, ‘‘गांव केदूसरी जाति के लोगों ने स्पष्ट कह दिया कि हम नटिनी को बड़ापद नहीं देंगें। हमारा रास्ता भी रोक लिया गया। लेकिन नटसमुदाय के सहयोग से मैंने चुनाव लड़ा और 17 वोटों से जीतगई।’’उपसरपंच के रूप में विमला ने सबसे पहले गांव में पानी कीसमस्या को दूर करने के लिए नल लगाने का काम किया। गांवमें मौजूद दो पम्प गांववालों की पानी की जरूरतें पूरी करने केलिए काफी नहीं थे। उसने पंचायत में मामला उठाया और फिरएक नया पम्प लग गया। लेकिन उसकी मुख्य चिंता गांव की ओरजाने वाले रास्ते को पक्का बनाने की है।विमला पंचायत की हर बैठक में जाती है। पंचायत प्रतिनिधिबनने के बाद उसने बाहर गांवों में जाने का अपना काम भी कमकर दिया है ताकि विकास के कामों में अधिक रूचि ले सके।विमला के मुताबिक गांव में 40-50 बीघा जमीन एनीकट बनाने केलिए पड़ी है। लेकिन एनीकट न बनने के कारण बरसात के दिनोंमें इसमें पानी भर जाता है जिससे पूरे गांव में कीचड़ और गंदगीफैल जाती है। इसलिए उसकी मुख्य चिंता यहां एनीकट बनाने कीहै। विमला जिस उत्साह से पंचायत कार्यों में दिलचस्पी ले रही हैउसको देखकर लगता है कि वह बहुत जल्द नट समुदाय केविकास में एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित होगी।पारंपरिक लहंगा, ओढ़नी चांदी के गहने और बाजूओं परगोदने के बड़े बड़े निशान-- यह है गांव राढ़ी की 45वर्षीय मूमलबंजारन, जो बामनवास कांकड़ पंचायत से निर्विरोध वार्ड पंचनियुक्त हुई है। अलवर से 20-25 किलोमीटर की दूरी के बादएक किलोमीटर तक पक्की चट्टानों का रास्ता तय करने के बादयह बस्ती आती है। मूमल और उसके गांव के अधिकतर लोगबेवाड़ी, अलवर और राजस्थान के अन्य गांवों में नमक औरमुलतानी मिट्टी बेचकर गुजारा करते हैं। यह जानकर किसी को भीहैरत हो सकती है कि हमारे यहां आज भी वस्तुओं की अदला-बदलीप्रचलित है।मूमल बताती है कि एक मुट्ठी गेहूं के बदले चार मुट्ठी नमकदेना पड़ता है। गेहूं को बनिए को बेचकर वे लोग अपनी जरूरतोंको पूरा करते हैं। यह उनका पारंपरिक व्यवसाय है। अब वे कईअन्य छोटे-मोटे काम भी करते हैं लेकिन उसके समुदाय की मुख्यआय का साधन गांवों में गधों पर लादकर नमक और मुलतानीमिट्टी ही बेचना है।वार्ड पंच के रूप में उसकी मुख्य समस्या गांव में बिजली कीव्यवस्था करना है। उसने बताया कि गांव के पास की सड़क तकलाईट आती है लेकिन उनकी बस्ती को कनेक्शन नहीं दिया जारहा क्योंकि बस्ती के लोगों के पास पट्टे नहीं हैं। मूमल केमुताबिक, ‘‘पहले हम लोग एक जगह पर नहीं रहते थे लेकिनपिछले कई सालों से हमने अपना यहां स्थायी ठिकाना बना लियाहै लेकिन आज दो-तीन दशक बिताने के बाद भी हमें जमीन केपंचंचंचायतों ें में ें गूंजूंजूंजी घुमुमुमंतंतंतुअुअुओं ें की आवाज़अन्नू आनंदंदंदपट्टे नहीं मिले हैं। उसने बताया कि पंचायत में उसने बिजली औरसड़क को पक्का बनाने का मुद्दा उठाया है लेकिन उसे अन्यसदस्यों का सहयोग नहीं मिल रहा।मूमल के मुताबिक, ‘‘हमने पंचायत में जगह तो बना ली है औरहम अपनी बात रखने में समर्थ हैं लेकिन वहां अभी भी हमारे साथभेदभाव किया जाता है। विकास की सारी बहस गुज्जरों केसुझावों पर ही होती है। हमें अपनी बात मनवाने में अभी और समयलगेगा’’।किशोरी पंचायत की शारदा बंजारन का भी यही मानना है।वह कहती है कि मुलतानी मिट्टी और नमक बेचकर वह जो भीकमाती है वह भी बीडीओ के पास चक्कर लगाने में खर्च हो जाताहै। लेकिन वह पंचायत की हर बैठक में उपस्थित रहना चाहती हैताकि वह जान सके कि विकास कार्यों का पैसा कहां खर्च हो रहाहै। पृथ्वीपुरा पंचायत की सुआ बंजारन भी अपने गांव में पानी कानल लगाने के लिए संघर्ष कर रही है। वह शिकायत करती है,‘‘पंचायत बैठक में वह मेरी हर मांग लिखते हैं लेकिन जब मैंबीडीओ के पास जाकर पूछती हूं कि क्या हुआ है तो मुझे जवाबमिलता है कि यह प्रस्ताव तो आया ही नहीं।’’गेंदी बावरिया विराटनगर से केवल दो किलोमीटर की दूरी परबसे गोपीपुरा बस्ती से सोठाना ग्राम पंच नियुक्त हुई है। बावरियासमुदाय के लोग लंबे समय से जंगली जानवरों का शिकार करतेआए हैं। लेकिन 1972 में जानवरों के शिकार पर प्रतिबंध लगने केबाद से वे खेतों की जानवरों से रखवाली या पशुओं को चराने काकाम कर अपनी जीविका चलाते रहे हैं। 1871 में लागू एक्ट केतहत उन्हें आपराधिक जाति दबाव अधिनियम में शामिल कर लियागया था। इसी प्रकार भारत सरकार ने 1952 में इस अधिनियम कोखत्म कर इन पर आदतन अपराधी अधिनियम लागू कर दिया।जिसकी वजह से वे नागरिकों, पुलिस और दूसरे कानून लागू करनेवाली एजेंसियों के शोषण का शिकार हो रहे हैं।गेंदी बाई सहित उसके गांव के करीब पांच सौ परिवारों नेपिछले 14 वर्षों से घुमंतु जीवन छोड़कर राजस्थान की इस बस्तीमें अपना स्थायी ठिकाना बना लिया है। गेंदी बाई बताती है, ‘‘इतनेसालों के बाद भी हमें न तो जमीन के पट्टे मिले हैं और न ही उन्हेंकहीं और बसाया गया है। बस्ती में सबसे बड़ी दिक्कत पानी कीहै। गांव से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर लगे एक नल सेसमूची बस्ती पानी की जरूरतों को पूरा कर रही है। पंचायत मेंहमारी सुनवाई नहीं होती। सरपंच ब्राह्मण जाति का है इसलिएबैठक में हमारी कोई नहीं सुनता।’’ गेंदी और उसकी बस्ती केलोग जिस बस्ती में रह रहे हैं वह वन क्षेत्र की जमीन घोषित हैइसलिए उसे और उसके परिवार वालों को अक्सर वन अधिकारियोंकी प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है।’’ गेंदी बताती है, ‘‘हमारेघर में एक लकड़ी के टुकड़े को देखते ही जुर्माने की परची कटजाती है।’’इन सब समस्याओं के बावजूद पंचायत बैठक में वह अपनीबात रखने में संकोच नहीं करती। वह अभी पंचायत की बैठक सेलौटी है जिसमें विधवा पेंशन और बीपीएल कार्ड से संबंधित कुछफैसले लिए गए। गेंदी कहती है, ‘‘आज नहीं तो कल उन्हें हमारीसमस्याओं को सुनना ही पड़ेगा आखिर कब तक वे हमें खामोशरख पाएंगे।’’भोपा समुदाय की शीला केसरोली ग्राम पंचायत की वार्ड पंचनिर्वाचित हुई हैं। 45 वर्षीय शीला 120 भोपा परिवारों के साथपिछले तीन वर्षों से रामगढ़ गांव (भोपावास) में स्थायी रूप से रहरही है। भोपा समुदाय के लोग गाकर और पुरानी चित्रकलाओं कीकहानियां सुनाकर अपना पेट भरते आए हैं। शीला और उसकेपति आज भी गांव के लोगों का सारंगी बजाकर मनोरंजन करतेहैं। शीला ने सारंगी बजाना अपने घर के बड़े-बूढ़ों से सीखा है।शीला की बस्ती में 40-50 घर हैं। घास-फूस और मिट्टी के बनेइन घरों के पट्टे किसी के पास नहीं। गांव के सभी बच्चे खुले मेंपढ़ते हैं। पानी का भी कोई प्रबंध नहीं है।शीला के मुताबिक वह हर पंचायत की बैठक में बस्ती में पानीऔर बिजली की समस्या के बारे में बताती है। लेकिन पंचायत केलोग हमसे लिखवा तो लेते हैं पर उसका समाधान नहीं होता। वहबताती है, ‘‘लेकिन मैं चुप नहीं बैठूंगी। मैं अपनी मांगें तब तकरखती रहूंगी जब तक कि वे पूरी नहीं हो जातीं।’’पंचातयों में निर्वाचित घुमंतु समाज की इन महिलाओं कीसमस्या पंचायत बैठकों में न बोल पाना या पंच/सरपंच पति नहींहै। जिस बड़ी समस्या का सामना इन्हें करना पड़ा है वह हैविभिन्न जातियों के लोगों द्वारा इनकी स्वीकृति। इनके अस्तित्वको स्वीकारना और उनके साथ समान बर्ताव करना।घुमंतु समुदाय के विकास के लिए कार्यरत मुक्ति धारा संस्थाके संस्थापक रतन कात्यायनी के मुताबिक, ‘‘ये महिलाएं जागरूकहैं और स्थानीय प्रशासनिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए आगे आरही हैं। वे पंचायत बैठकों में बोलने से नहीं डरती लेकिन समाजउनके प्रति भेदभाव करता है। लेकिन समय के साथ और इनमहिलाओं की क्षमता से उसमें बदलाव आएगा।’’ कात्यायनी कोपूरी उम्मीद है कि ये घुमंतु महिलाएं अपने संकल्प में आखिरसफल होंगी। मुक्तिधारा पहली बार पंचायतों में चुनकर आने वालीइन महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए एक हजार रुपए प्रतिमाह की फेलोशिप दे रहा है।

मध्यप्रदेश में युवाओं ने किया गावों का कायाकल्प


अन्नू आनंद


(सीहोर, मध्य प्रदेश)


अरुण के चेहरे की मासूमियत और आंखों से झलकती शरारतदेखकर यह कयास लगाना कठिन था कि गांव के विकास मेंउसका भी कोई योगदान हो सकता है। किसी भी अजनबी केआगमन से बेखबर वह बड़ी तन्मयता के साथ गांव के बीचोबीचबने छोटे से चबूतरे पर एकत्रित हुए गांव के सभी छोटे-बड़े बच्चोंके हाथों के नाखूनों की जांच कर रहा था। ‘‘क्या तुम्हारे हाथों केनाखून कटे हैं,’’ इस सवाल को सुनते ही उसने अपनी गर्दन ऊपरउठाई और अपने कटे हुए नाखून वाले हाथ झट आगे कर दिए।इतना करने के बाद वह फिर से अपने काम में मग्न हो गया।दस वर्षीय अरुण मेवाड़ा गांव की ‘आजाद बाल विकाससमिति’ का सदस्य है। गांव के सभी बच्चों की साफ-सफाईजांचने की जिम्मेदारी इस समिति पर है। गांव में पोलियो कीखुराक दी जा रही है। धीरज और हृदयेश गांव के पांच वर्ष तकके सभी बच्चों को पोलियो बूथ भेजने का काम संभाले हुए थे।दोपहर तक वे गांव के सभी बच्चों को दवाई पिलाने का काम पूराकर चुके थे। 12 वर्षीय प्रमोद सभी घरों की दीवार पर बने सफाईके ग्राफ को चाक से भरने का काम कर रहा था। यह ग्राफ बताताहै कि अमुक घर में आज नाली की सफाई, घर के बाहर की सड़ककी सफाई और शौचालय की सफाई की गई है या नहीं।यह दृश्य है राजूखड़ी गांव का। भोपाल से करीब 45 किलोमीटरकी दूरी पर सीहोर जिले के दस गांवों में पानी, शौचालय औरस्वच्छता के सामुदायिक प्रयासों ने गावों का पूरी तरह कायाकल्पकर दिया है।तीन वर्ष पहले तक इन गावों में पानी की बेहद कमी थी बहुतसे घरों में शौचालय न होने के कारण गंदगी और पेट कीबीमारियां अधिक थीं। अधिकतर लोग शौच के लिए खुले में जातेथे। बच्चों में भी स्वच्छता की जानकारी का अभाव था। इस सबकाअसर गांव के अन्य विकास कार्यों पर भी पड़ रहा था। गांव केज्यादातर बच्चे स्कूल नहीं जाते थे क्योंकि गांव का इकलौताप्राइमरी स्कूल कभी-कभार ही खुलता था।वर्ष 2005 में भोपाल के गैर सरकारी संगठन ‘समर्थन’ नेसीहोर ब्लाॅक के 10 गावों में जल और शौचालय की एक परियोजनाकी शुरूआत की। इसके लिए यूके की एजेंसी ‘वाॅटर एड्’ सेवित्तीय मदद ली गई। संस्था ने प्रत्येक परिवार को घर मेंशौचालय बनाने के लिए 500 रुपए की मदद दी। शेष 2000 रुपएका खर्चा स्वयं परिवारों ने वहन किए। इसके अलावा उन्होंनेशौचालय बनाने में श्रम दान भी किया।सीहोर से करीब चार किलोमीटर कच्चा रास्ता पार करने केबाद राजूखड़ी गांव पहुंचा जा सकता है। गांव में कुल 88 घर हैंजिनमें से 80 परिवार पिछड़े वर्ग और आठ परिवार अनुसूचितजाति के हैं। यहां के अधिकतर लोग खेतों मंे मजदूरी का कामकरते हंै। गांव में करीब सभी घर कच्चे हैं, रास्ता भी कच्चा हैलेकिन फिर भी गांव का साफ-सुथरा और व्यवस्थित वातावरणकिसी काल्पनिक गांव का अहसास देता है। गांव के सभी घरों मेंशौचालय मौजूद है। घरों के गंदे पानी के निकास के लिए हर घरके बाहर एक पाइप की व्यवस्था है। इस पाइप को घर के बाहरबनाए गए सोक्ता (सोक-पिट) से जोड़ा गया है। सोक्ता के ऊपरबोरी का टुकड़ा लगा रहता है ताकि गंदी मिट्टी पानी के साथछनकर अंदर न जाए।इस व्यवस्था के बारे में गांव के सरपंच चंदन सिंह बताते हैं,‘‘गांव के पानी का स्तर कम न हो जाए इसलिए घरों से निकलनेवाले पानी को सोक-पिट के माध्यम से रिचार्ज किया जाता है।इसके अलावा पानी को संरक्षित करने के लिए मिली 36 हजाररुपए की सरकारी सहायता और गांववालों की मजदूरी की मददसे स्टाॅप डैम और चेक डेम भी बनाए गए हैं।’’गांव में लगे चार सार्वजनिक नल के अलावा कपड़े धोने केलिए अलग से प्लेटफाॅर्म बने हुए हैं। इन नलों और प्लेटफाॅर्म कीसफाई के लिए जिम्मेदार बाल समूह समिति के सदस्य प्रमोदबताते हैं कि किसी को भी नल के नीचे कपड़े धोने की इजाजतनहीं है क्योंकि इससे अन्य लोगों को पानी लेने में दिक्कत होतीहै और नल के नीचे गंदगी भी फैलती है।कुल 21 घरों में वर्षा का पानी संरक्षित करने की भी व्यवस्थाकी गई है। चंदन सिंह के मुताबिक, ‘‘तीन वर्ष पहले यहां पानीऔर शौचालय मुख्य समस्याएं थीं लेकिन स्थानीय संस्था ‘समर्थन’ने जब ‘पानी, स्वच्छता और शौचालय’ की परियोजना गांव में शुरूकी तो सभी परिवारों ने आर्थिक और श्रम का योगदान देकर इसेसफल बनाने में पूरा सहयोग किया।’’ इसके लिए बच्चे, युवा,महिला और पुरुष विभिन्न स्तरों पर अपना योगदान दे रहे हैं। हरग्रामीण को हिस्सेदार बनाने के लिए गांव में विभिन्न समितियांमप्र में ें युवुवुवा औरैरैर बच्चों ें ने किया गांवंवंवों ें का कायाकल्पअन्नू आनंदंदंदबनाई गई हैं। पांच से बारह वर्ष तक के बच्चों का ‘बाल समूह’ हैजिसकी जिम्मेदारी व्यक्तिगत स्वच्छता का ध्यान रखना है। इसकेअलावा वे गांव के हैंडपंप, वाशिंग प्लेटफाॅर्म और घर की साफ-सफाईका भी संचालन करते हंै। गांव के युवाओं का समूह ‘युवा विकासमंडल’ सामुदायिक संरचनाओं जैसे गांव के कुएं, टंकी, स्कूल औरस्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं की देखभाल करता है।‘युवा विकास मंडल’ के सदस्य धर्म प्रकाश ने बताया, ‘‘पिछलेकई वर्षों से हमारे गांव का प्राइमरी स्कूल केवल दो घंटे के लिएही खुलता था क्योंकि स्कूल की शिक्षिका भोपाल में रहने के कारण12 बजे के करीब स्कूल आती थी। हमारी समिति ने शिक्षिका सेकई बार इसकी शिकायत की। लेकिन कोई कार्रवाई न होने परहमने स्कूल में ताला लगा दिया और चेतावनी दी कि स्कूल पूरासमय नहीं खुला तो इसे बंद कर दिया जाएगा।’’युवा समिति की इस चेतावनी पर शिक्षिका ने अपने रहने कीव्यवस्था सीहोर में ही कर ली और अब स्कूल नियमित समय परखुलने लगा। इसी प्रकार इन युवाओं ने गांव में आने वालीअनियमित डाक के खिलाफ सूचना के अधिकार के तहत शिकायतदर्ज की तो पता चला कि गांव का डाकिया गांव की डाक नहीं लेजाता जिसकी वजह से काफी डाक पड़ी रहती है।धर्म प्रकाश के मुताबिक, ‘‘हमारी शिकायत के बाद अब रोजडाकिया आता है और गांव के बहुत से युवा जिन्हें अपने नौकरी केआवेदन के जवाब का इंतजार रहता था, वे अब अपने पत्रों केजवाब से खुश हैं।’’राजूखड़ी गांव में आज स्कूल, स्वास्थ्य सेवा और साफ-सफाईसब कुछ नियमित ढंग से चल रहा है। इसका पूरा श्रेय गांव कीसामूहिक भागीदारी को जाता है। गांव की महिलाएं स्वयं सहायतासमूह की सदस्य हैं। बचत के पैसे का इस्तेमाल ये महिलाएंछोटे-मोटे धंधे की शुरूआत में लगाती हंै।गांव में एक छोटे लेकिन बेहद ही सलीकेदार ढंग से सजेकमरे को ‘सूचना कंेद्र’ बनाया गया है। इस केंद्र में गांव में लागूहर सरकारी योजना की जानकारी के अलावा गांव से संबंधितदूसरे हर प्रकार की सूचना उपलब्ध है।सीहोर से आठ किलोमीटर दूर मानपुरा गांव में भी पानी औरशौचालयों की व्यवस्था ने पूरे गांव का नक्शा बदल दिया है। इसगांव में भी पानी की बेहद किल्लत थी। गांव के बीचोबीच बनेपुराने कुएं का जलस्तर भी काफी नीचे चला गया था। वर्ष के कुछमहीने ही यहां पानी उपलब्ध होता था। इस कमी को पूरा करने केलिए ‘समर्थन’ संस्था की मदद से यहां भी पानी और शौचालययोजना के तहत पानी आपूर्ति, शौचालय और स्वच्छता की एकीकृतपरियोजना शुरू की गई। इसके लिए समुदाय ने स्वयं औरसरकारी माध्यमों से फंड एकत्रित किया।यहां घरों की छतों पर वर्षा के पानी को संरक्षित किया जा रहाहै। कुल 60 घरों वाले इस गांव के हर घर की छत पर पानी कोएकत्रित करने की व्यवस्था है। पाइपों के माध्यम से वर्षा के पानीको पुराने कुएं में पहुंचाया जाता है। जिससे पानी रिचार्ज होकरनल में आता है। गांव के स्कूल में मिड-डे मील के प्रभारी दशरथका मानना है कि प्रोजेक्ट की शुरूआत से पहले गांव में दिसंबरआने तक पानी खत्म हो जाता था, लेकिन इस बार जनवरी-फरवरीमाह में भी पानी नलों में आ रहा है।सरकारी और सामुदायिक सहायता से दो लाख 36 हजाररुपए की लागत वाली 20 हजार लीटर पानी की एक बड़ी टंकीबनाई गई है। इस टंकी को पाइप के माध्यम से गांव की कुछ दूरीपर बने एक बोरवेल से पानी मिलता है। इस से गांव के 8सामूदायिक नल चल रहे हंै। इन नलों से पानी का इस्तेमाल करनेवाले परिवारों को गांव की ‘पानी और शौचालय निगरानी समिति’को दस रुपए प्रति माह फीस देने पड़ते हैं। इसके अलावा समिति30 रुपए प्रति माह की दर से घरों में भी पानी का कनेक्शन देतीहै।‘एकता युवा मंडल’ के पिंटू गांव के घरों की छत पर बने वर्षाके पानी को संरक्षित करने वाले ढंाचे को दिखाते हुए कहते हैं,‘‘कुछ साल पहले तक हमें पानी लेने के लिए एक किलोमीटर दूरजाकर बैलगाड़ियों पर पानी लाना पड़ता था, लेकिन अब हमनेपानी को बचाना सीख लिया है। अब हमें पानी की कोई कमी नहींहै।’’ पानी और शौचालयों से आई खुशहाली के बाद ग्रामीण जलऔर शौचालय समिति ने गांव में मिडिल स्कूल खोलने के प्रयासकिए। आज गांव में मिडिल स्कूल भी है जिसमें अन्य दो गावों केबच्चे पढ़ने आते हैं।‘समर्थन’ संस्था के जिला समन्वयक शाफिक का कहना है किराजूखड़ी, मानपुरा और जहांगीरपुरा सहित जिले के दस गांवों मेंआने वाले इस सार्थक बदलाव का मुख्य कारण सामूहिक भागीदारीहै। इसमें बच्चों और युवाओं की भगीदारी सबसे अधिक है, जोविभिन्न समितियों के माध्यम से इसे अंजाम देते हैं। इसके अलावापानी और शौचालयों के स्थाई संचालन के लिए हम पंचायतों कीक्षमता का निर्माण करते हैं। इसलिए कोई भी निर्णय पंचायतों कीभागीदारी के बिना नहीं होता।‘समर्थन’ के सामुदायिक समन्वयक लाखन सिंह के मुताबिककिसी भी योजना को लागू करने से पहले पंचायत समिति में उसपर बहस की जाती है। पंचायत सदस्य किसी भी मसले कोनिपटाने के लिए ग्रामसभा बुलाते हैं और सबकी सहमति से निर्णयलिया जाता है। राजूखेड़ी गांव के सरपंच चंदन सिंह का कहना हैकि उनके गांव की चैपाल आज भी संसद का काम करती है।सारे फैसले आज भी चौपाल पर ही लिए जाते हैं।साामूहिक भागीदारी की इस परियोजना ने यहां के लोगों केजीवन को पूरी तरह से बदल दिया है। शाफिक के मुताबिक पानीऔर शौचालय योजना की इस सफलता को देखते हुए जिले केअन्य गांव भी इसे अपनाना चाहते हैं। 􀂄

Monday, 6 October 2008

शिक्षा का प्रकाश फैलाते रात के स्कूल

अन्नू आनंद
(तिलोनिया, राजस्थान)
रात के आठ बजे का समय। जयपुर से करीब 120 किलोमीटरकी दूरी पर स्थित गांव तिलोनिया में एक स्कूल में सौर उर्जालैम्पों की रोशनी में 6 से 13 वर्ष की आयु के करीब 32 बच्चे पढ़नेमें तल्लीन हंै।जयपुर से अजमेर तक का अधिकतर रास्ता अरावली कीबंजर पहाड़ियों और पथरीली जमीन से घिरे होने के कारण अधिकही सुनसान है। रात का अंधेरा इसे और भी वीरान बना देता है।ऐसे वातावरण में स्कूलों से गूंजती बच्चों की प्रार्थनाओं की आवाजकिसी को भी हैरत में डाल सकती है।लेकिन यह द्वश्य केवल तिलोनिया गांव का नहीं। जयपुरऔर अजमेर और सीकर जिलों के कुछ गावों में चलने वाले रात्रिस्कूल इस समय कई परिवारों में शिक्षा का प्रकाश फैला रहे हैं।हालांकि सरकार शिक्षा आप के द्वार योजना के तहत हर बच्चे कोशिक्षित करने का दम भरती है लेकिन हकीकत में ऐसे बच्चों कीकमी नहीं जो गरीबी के कारण पारिवारिक आय में सहयोग करनेके कारण दिन के स्कूलों से बाहर हैं। यह बच्चे दिन के समयखेतों में मजदूरी या लकड़ियां लाने, पशुओं को चारा चराने तथापानी लाने के अलावा र्कइं घरेलू काम निपटाते हैं। इस के अलावादिन के स्कूलों की अधिकतर शिक्षा उनकी व्यावहारिक जरूरतोंकी दृष्टि से उपयोगी नहीं होती। इन स्कूलों में पढ़ाने का माध्यमग्रामीण बच्चों की रोजाना की भाषा से पूर्णतया भिन्न होता है।स्कूल का पाठ्यक्रम उनके परिवेश को ध्यान में रखकर नहींबनाया जाता। पांचवी या सांतवी पास करने के बाद भी छात्रकिसी प्रकार की हस्तकला या खेती बाड़ी के कामों में दक्ष नहीं होपाते। ये कारण ग्रामीण इलाकों के बहुत से बच्चों को औपचारिकशिक्षा प्रणाली से दूर रखते हैं।लेकिन तिलोनिया स्थित बहुचर्चित संस्था समाज कार्य एवंअनुसंधान क्षे़त्र (बेयरफुट कालेज) ने इन बच्चों को उनकी जरूरतोंके मुताबिक शिक्षित करने के लिए रात्रि स्कूलों की शुरूआत कीहै। इन स्कूलों के कारण बच्चे दिन भर अपने कामकाज खत्म कररात को सात बजे स्कूल पढ़ने आते हैं। यह स्कूल सामुदायिकभवन, धर्मशाला या किसी औपचारिक स्कूल की इमारतों में चलतेहैं।अजमेर जयपुर और सीकर जिले के गांवों में 150 ऐसे स्कूलचल रहे हैं। जिन में 3000 के करीब बच्चे पढ़ते हैं। इन में 90प्रतिशत संख्या लड़कियों की है। इन स्कूलों की सफलता सेप्रोत्साहित होकर केंद्रीय सरकार ने भी अन्य कई राज्यों मंे ऐसे125 रात्रि स्कूल खोले हैं।इन स्कूलों की देख-रेख का काम बेयरफुट कालेज काशैक्षणिक स्टाफ देखता है। स्कूलों का पाठ्यक्रम बच्चों की जरूरतोंऔर उनके परिवेश को ध्यान में रख कर तैयार किया गया है।स्कूलों में मुख्यतः पर्यावरणीय शिक्षा, हस्तकला के अलावा हिन्दीऔर गणित पढ़ाए जाते हैं।इसके अलावा पाठयक्रम को गावों की सामाजिक- आर्थिकऔर पर्यावरणीय स्थितियों से भी जोड़ा जाता है। ये स्कूल केवलपांचवी कक्षा तक ही सीमित हंै। चैथी और पांचवी की कक्षाओं मेंसरकारी स्कूलों के पाठयक्रम को भी शामिल किया जाता है ताकिरात्रि स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे बाद में औपचारिक स्कूलों में भी प्रवेशपा सकें।तिलोनिया स्थित रात्रि स्कूल नं 1 की कुल पांच लड़कियों नेपिछले वर्ष बोर्ड की परीक्षा पास की है। यहां कुल 32 छात्र हैं। इनमें लड़कियों की संख्या अधिक है। यह स्कूल 1998 से एक पुरानीखाली पड़ी धर्मशाला में चल रहा है। इस स्कूल में पढ़ने वाली10-11 वर्षीय जमुना दिन के समय पानी और लकड़ी लाने काकाम करती है। अनु दिन में बकरियां चराती है इसी तरह चंतादिन में घरेलु काम निपटाती है। यहां पढ़ाने की जिम्मेदारी दो अध्यापकों मुल्ला राम और चंद्रकातां पर है। मुल्ला राम हायर सेंकड्रीपास हैं जबकि चंद्रकाता सांतवी पास। बच्चों को पढ़ाने के बादरात नौ बजे अध्यापक सभी बच्चों को उनके घरों में छोड़ने के बादघर जाते हैं। चंद्रकाता हिन्दी और कला पढ़ाती हैं। च्ंाद्रकांताबताती है, ‘‘जब बच्चे रात के स्कूलों मंे पढ़ने के लिए आते हैं तोवे थके हुए होते हैं इसलिए हमें पढ़ाई को रूचिकर बनाने के लिएखेल और अन्य रूचिकर माध्यमों का इस्तेमाल करना पड़ता है।क्योंकि अगर पढ़ाई दिलचस्प नहीं होगी तो बच्चे पढ़ने नहींआएंगे।12 वर्षीय नदूं बताता है कि, ‘‘उसे रात में स्कूल आना अच्छालगता है। दिन में घर के कामों के कारण कोई स्कूल भेजता भीनहीं।’’ सात वर्षीय वनफूल बड़ी उत्सुकता से अपनी कापियांदिखाती है कि उसने गिनती और क ख ग सीख लिया है। उसकीशिक्षा का प्रक्रक्रकाश फैलैलैलाते रात के स्कूलूलूलअन्नू आनंदंदंदशादी हो चुकी है। यहां पढ़ने वाली दस वर्षीय चांत कुमारी भीविवाहित हैं। बचपन में हुई इस शादी की व्यर्थता को अब वे शिक्षाके माध्यम से समझ रही हैं। सभी स्कूलों में शिक्षकों के चुनाव कीजिम्मेदारी ग्राम सभा की शिक्षा समिति ही करती है। इस समितिमें गांव के कुछ वरिष्ठ व्यक्ति शामिल रहते हैं। सलाह-मशिवरे केअलावा ये समितियां स्कूलों के बजट बनाने का काम भी देखतीहैं।शिक्षक के चुनाव में शिक्षा स्तर की बजाय ऐसे व्यक्ति कोअधिक प्राथमिकता दी जाती है जो समुदाय के प्रति जिम्मेदार होऔर अच्छे प्रेरक का काम कर सके। इन शिक्षकों को बेयरफुटकालेज की ओर से प्रशिक्षण भी दिया जाता है। बेयरफुट कालेजके संस्थापक बंकर राय के मुताबिक इन स्कूलों से निकलने वालेकई अच्छे छात्र और छात्राएं उनके संस्थान में बतौर बेयरफुटइंजीनियर कार्य कर रहे हैं और वे रात्रि स्कूल से शिक्षित लोगों कोप्राथमिकता भी देते हैं।’’