अन्नू आनंद
यहां उन महिलाओं की बात की जा रही है जिनकी उपलब्धियां तो असीम हंै लेकिन वे खबर बहुत कम बनती हैं। उनके संघर्ष, साहस और मेहनत के साथ काम की बात करें तो वे किसी भी लिहाज से ऐश्वर्या राय, इंदिरा नुयी, किरण मजूमदार शाॅ या सानिया मिर्जा से कम नहीं लेकिन वे टीवी चैनलों या अखबारों के पन्नों पर ढूंढने पर भी नहीं मिलतीं। ये वे महिलाएं हैं जो सभी प्रकार की विपरीत स्थितियों में भी नदी की धाराओं को मोड़ने का दम रखती हैं। इन्हें किसी नाम और शोहरत की भूख नहीं उनका मुख्य मकसद अपनी मंजिल तक पहुंचना है। असली भारत की ये योद्दाएं बिना किसी बड़े संगठन या संस्था की छत्रछाया के अपने गांव, समुदाय या समाज के विकास और उनके कायाकल्प के लिए दूर-दराज के गांवों मंे खमोशी से अपने काम को अंजाम देने में जुटी हैं।
ऐसी ही एक मानवी से मेरी मुलाकात उस दौरान हुई जब मंै मैला ढोने वाली महिलाओं की एक स्टोरी के सिलसिले में मध्यप्रदेश के देवास जिले की विभिन्न गावों का दौरा कर रही थी। उस का नाम क्रांति था लेकिन नाम के विपरीत वह स्वभाव से बेहद ही शांत और सौम्य थी। करीब 20 वर्ष की यह फुर्तीली युवती मुझे तीन दिन तक देवास के दूर -दराज की बस्तियों में घुमाती रही। उसके पास मेरे हर सवाल का जवाब था। वह मैला ढोने वाली महिलाओं के पुनर्वास से जुड़े एक अभियान की जिला संयोजक के नाते पूरे दौरे में मुझे मुद्दे से जुड़ी बारिकियों को समझाती रही। जिस बस्ती में भी हम गए, बस्ती के बच्चे और महिलाएं उसको देखते ही भागते आते और उसे हर महिला और बच्चे का नाम जुबानी याद था। महिलाओं को काम छोड़ने के लिए प्रेरित करना, बच्चों का स्कूलों में भर्ती कराना, पुनर्वास के कामों की व्यवस्था करने में मदद करना और फिर बस्ती में दलितों के साथे अन्य जातियों द्वारा किए जाने वाले अन्याय के खिलाफ खड़े होना, वह इन सब कामों में माहिर थी। काम के प्रति उसके समर्पण को देखकर मैं मन ही मन उससे प्रभावित हुए बिना न रह सकी।
एक बस्ती में उसने मुझे रेवती (बदला हुआ नाम) नाम की एक महिला से मिलाया। रेवती की शादी बहुत ही छोटी उमर में हो गई थी और ससुराल में कदम रखते ही अपनी परंपरा के मुताबिक झाड़ू और टोकरा हाथ में ले लिया था। 20 सालों तक शहरी कालोनियों में मैला ढोकर अपने परिवार का पेट पालने वाली रेवती के जीवन से बदबू का नाता अभी पूरी तरह नहीं छूटा। हांलाकि रेवती को यह काम छोड़े सात साल बीत चुके हैं लेकिन आज भी वह अपने बच्चों की खातिर कभी-कभार फिर से टोकरा हाथ में लेने के लिए मजबूर महसूस करती है। छोटी सी उमर में मन में पढ़ने का सपना पाले और सिर पर टोकरा उठाए लोगों की गंदगी को साफ करने के दिनों के बारे में जब वह बताती है तो सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन क्रांति के प्रयासों से रेवती जैसी कई महिलाएं अब यहां जीना सीख रहीं हैं।
क्रांति इन महिलाओं को जागरूक बनाने के काम के साथ देवास से पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही है। दौरे के आखिरी दिन एक रेस्तरां में खाना खाते हुए मैंने उससे पूछा कि वह पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर आगे क्या करेगी तो उसने जवाब दिया कि वह लाॅ करने की सोच रही है। इसके अलावा वह यह फील्ड वर्क भी जारी रखेगी। काम के साथ लाॅ की पढ़ाई क्या संभव हो पाएगा? वह बेहद संजीदा लेकिन हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘अगर मैं पढ़ती नहीं तो मेैं भी आज अपनी बहन ‘रेवती दीदी’ जैसे होती। उन की तरह पिता जी ने मेरी शादी भी 15 साल में कर दी होती और मैं भी दीदी की तरह -----’’
रेवती कौन? मैंने एकदम चैंकते हुए पूछा। रेवती वही बस्ती में रहने वाली जिससे आपने लंबी बातचीत की थी। वह मेरी सगी बहन है। हम दलित जाति से हैं इसलिए पिताजी ने उसकी शादी जल्दी कर दी थी। उसकी शादी के बाद मैंने ठान ली थी कि कुछ भी हो जाए मैं पढ़ना नहीं छोड़ंूगी। इसके लिए मुझे अपने परिवार और बिरादरी से एक लंबा विरोध करना पड़ा।
वह बता रही थी और मैं इस कल्पना से ही सहमी जा रही थी कि उसे अपने को इस श्राप से बचाने के लिए किस प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। खुद को इस नरक से बचाने के साथ अपनी बड़ी बहन और उन जैसी कई महिलाओं को बचाने में उसके संघर्ष और साहस के आगे मैं स्वयं और उन महिलाओं के व्यक्तित्व को बेहद बौना महसूस कर रही थी जिन्हें मैं अक्सर चैनल सर्फ करते हुए देखती रहती हूं।
ऐसी ही एक अन्य साहसी मानवी से मेरी मुलाकात राजस्थान के गांव सुरजुनपुर में हुई। अरावली के पर्वत की छाया में खुले आकाश में उसका डेरा था। छोटे छोटे टेंटों में आसमान के नीचे यहां कई परिवार रह रहे हैं। केला भी उन में एक है। केला बंजारन उस समुदाय से है जिनकी गिनती न तो बीपीएल परिवारों में होती है और न ही न ही वोटरों में उनका नाम आता है। जनसंख्या के आकड़ों में भी वे पूरी तरह शामिल नहीं। केला बंजारा जाति सहित घुमंतु समुदाय की अन्य जातियों बावरिया, भोपा और नट जाति के लोगों को उनके संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए दिनभर उनकी बस्तियों में घूमती रहती है। बच्चों के स्कूलों मे नाम लिखान,े पट्टे की जमीन के लिए आवेदन देने और बुनियादी सेवाएं हासिल करने के अधिकारों के बारे में समुदाय के लोगों को बताना उसका मुख्य मकसद है।
50 साल की केला ने दिल्ली, हरिद्वार सोनीपत, पानीपत जैसे शहरों में ढेरा लगा कर मुलतानी मिट््टी और नमक बेचकर अपने बच्चों को बड़ा किया है। लेकिन अब वह कहती है, ‘‘मेरा मकसद अब केवल अपने समुदाय के लोगों को इस घुमंतु जीवन से छुटकारा दिलाना है। इसके लिए वह राजस्थान में स्थायी डेरा लगा कर महिलाओं के बीच में काम कर रही है। पारंपरिक लहंगा, सिर पर बड़ी सी ओढ़नी, हाथों और पावों में चांदी के दिखने वाले पारंपरिक गहने और बाजूओं पर गोदने के निशान के साथ केला जब तेज तेज चलते हुए एक बस्ती से दूसरी बस्ती तक का लंबा रास्ता तय करती है तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि जीवन के इस पड़ाव में इतने कठिन जीवन जीने के बाद भी वह एक नई उर्जा ओर उत्साह के साथ इतने बड़े मिशन को पूरा करने का संकल्प रखती है। लेकिन अनपढ़ केला समुदाय की महिलाओं की मसीहा बन चुकी है। वह उनकी हर छोटी बड़ी समस्या को बेहद ध्यान से सुनती है और बीचबीच में उससे निपटने की सलाह भी देती जाती है।
राजस्थान के अजमेर जिले के तिहारी गांव की कमला देवी को मिलने के बाद मुझे सेलिबे्रटी की वास्तविक परिभाषा को समझने का एक और अवसर मिला। कमला दिखने में किसी भी देहाती महिला से भिन्न नहीं। सिर पर पल्लू, नाक में बड़ी सी नथ और हाथ पावों में चांदी के चमकते गहने। लेकिन वह साधारण महिलाओं की तरह खाना बनाने या सिलाई बुनाई की बातों की बजाए तारों के सक्रिट चार्ज कंट्रोलर और पैनलों को जोड़कर सौर लालेटन बनाने की जानकारी देती है। उसके द्वारा बनाए सौर लालटेन राजस्थान के गांवों के र्कइं अधेरे घरों और स्कूलों में प्रकाश फैला रहे हैं। कमला जब 12 साल की आयु में अपने ससुराल सिरोंज गांव में आई तो उसने कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखा था। वह अपनी चारों बहनों की तरह ही बिल्कुल अनपढ़ थी। उसके घर में स्कूल जाने का अवसर केवल उसके भाइयों को ही मिला। उसका काम अपनी बहनों की देखभाल करना, खाना बनाना और पानी ढोना और पशु चराना था। सिरांेज गांव में जब उसने बिजनवाड़ा के रात्रि स्कूल के बारे में सुना तो उसके मन में भी पढ़ने की इच्छा जागृत हुई। उसे लगा कि वह दिन भर घर के सारे काम खत्म कर भी स्कूल जा सकती है। लेकिन उसके पति सास इस बात के लिए तैयार नहीं थे। आखिर उसके ससुर ने उसका साथ दिया और उसने रात्रि स्कूल में पांचवी कक्षा तक पढ़ाई की। रात्रि स्कूल में पढ़ते हुए वह रात के अंधेरे में जलने वाले सौर लैंप से बेहद प्रभावित हुई क्योंकि गैर बिजलीकृत के क्षेत्र में इन लैंपों का अच्छा इस्तेमाल हो सकता है। यही सोच उसे केंद्र के ‘सोलर लाईट’ प्रशिक्षण कोर्स ले गई। इससे पहले गांव की किसी भी महिला ने सौर इंजीनियर का प्रशिक्षण नहीं लिया था। केवल पुरुष ही इसमें दाखिल होते थे। लेकिन अब कमला के कारण क्षेत्र की कई महिलाएं इसमे महारत हासिल कर अपने गावों में उजाला कर रही हैं।क्रांति, केला और कमला जैसी कई महिलाएं बेहद खामोशी से बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्यप्रदेश में बदलाव के नए अध्याय लिख रही हैं लेकिन जरूरत इन्हें पढ़ने और सराहने की है।