Tuesday 19 August 2008

आदिवासियों का एटीएम


अन्नू आनंद
आदिवासी विधवा पानबाई पत्तल बेचने का काम करती है। उसके सारे पत्तल खत्म हो चुके हंै। उसके पास और पत्तल खरीदने के लिए पैसे नहीं। उसे अगले दिन के धंधे के लिए 300 रूपए की जरूरत है। दिन खत्म होने को है। लेकिन पानबाई को चिंता नहीं वह अपने सभी पत्तलों को बेचने के बाद शाम पांच बजे के करीब बैंक जाएगी और वहां से अपने खात्ते से 300 रूपए निकाल लेगी। पानबाई के मुताबिक, ‘‘जब उस के पास समय ‘सुविधाजनक’ बैंक है तो फिर क्या। वह तो 24 घंटे खुला रहता है।’’
तिलोना गांव की धोबन सोबती के बच्चा होने वाला था। आखिर समय में उसकी तबीयत अधिक खराब हो गई। उसे आपरेशन के लिए अगली सुबह अस्पताल में भर्ती कराने को कहा गया। डिलीवरी के लिए घर में पैसे रहीं थे। गांव में किसी से भी आपरेशन के लिए पैसे मिलना संभव नहीं था। तब गांव के किसी व्यक्ति के कहने पर उसके पति ने बैंक से संपर्क किया। महज दो घटों के भीतर उसे सुबह के चार बजे 2000 रूपए का लोन मिल गया। बैंक की इस तत्काल सहायता के कारण वह समय पर अस्पताल पहुंच गई और बच्चे को जन्म दे सकी।
पानबाई और सोबती जैसी कई महिलाओं के लिए ‘सुविधाजनक’ कहलाने वाला यह बैंक गांव वालों के लिए 24 घंटे के एटीएम से भी अधिक महत्वपूर्ण है क्यों कि यह 24 घंटे लोन देने का काम भी कर रहा है।
झारखंड के गिरडीह जिले के बेंगाबाद ब्लाक के करमजोरा गांव की सुनसान रोड पर स्थित ‘इफिकाॅ’ यानी इफिकाॅ वित अभिक्रम नाम का यह बैंक यहां की आदिवासी जनसंख्या की छोटी मोटी सभी आर्थिक जरूरतों को पूरी कर रहा है जो कि प्राय औपचारिक बैंक नहीं कर पाते हैं। चाहे छोटी से छोटी रकम को सुरक्षित रखना हो या थोड़े से पैसों का लोन लेना हो। इस बैंक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां महज घंटों के भीतर ही लोन उपलब्ध हो जाता है। ग्रामीण आदिवासियों के लिए यह ऐसा बैंक है जो 24 घंटे खुला रहता है।
बेंगाबाद में संथाल आदिवासियों की संख्या अधिक है। ये आदिवासी नमक, पते और दूसरी ग्रामीण जरूरतों की चीजें बेचने के घंधे करते हंै। बाहरी लोगों के लिए उनके छोटे -छोटे लेन- देन विशेष महत्व नहीं रखते लेकिन ग्रामीणों की घरेलु जीविका में उनका बेहद महत्व है। इन ग्रामीण आदिवासियों की वित्तीय जरूरतें समाज के अन्य क्षेत्र से अलग हैं। उन्हें थोड़े समय के लिए नकद चाहिए ताकि वे खाध असुरक्षा से बच सकें। कभी कभी तो महज कुछ घटों के भीतर ही उन्हें थोड़ी सी रकम की जरूरत पड़ जाती है। जिसे वे बिना अधिक औपचारिकता के लेना चाहते हैं। औपचारिक क्षेत्र यानी कि साधरण बैंक उनकी इन जरूरतों को पूरी करने में असमर्थ हैं।
अक्सर यह माना जाता है कि गरीब आदिवासी ऋण के काबिल नहीं क्योंकि वे बचत नहीं कर सकते। औपचारिक वित्तीय संस्थाएं इन्ही तर्कों के सहारे उन्हें कर्मिशयल क्रेडिट से दूर रखते हैं। जिसकी वजह से इन आदिवासियों को केवल महाजनों और साहूकारों के पास ही जाना पड़ता है और साहूकार उनकी इस कमजोरी का फायदा उठाकर उनका शोषण करते हैं।
लेकिन इफिकाॅ बेैंक इस संदर्भ में अनोखा है। वह ब्लाॅक के सभी छोटे निवेशकों को उनकी सुविधा के मुताबिक कम कीमत पर सामयिक सेवाएं दे रहा है। बैंक का सारा काम यहां की स्थानीय महिलाएं ही चला रही हंै। इसलिए यह आदिवासी महिलाओं के बैंक के नाम से भी जाना जाता है। बैंक में हर समय पैसे जमा कराने या निकालने और लोन देने जैसे लेन- देन किए जा सकते है। क्योंकि बैंक हर समय खुला रहता है इसके लिए बैंक की मैनेजर श्रीमती पुष्पा त्रिखी बैंक के साथ लगे घर में ही रहती है।
पुष्पा त्रिखी बैंक की शुरूआत के संदर्भ में बताती है कि वर्ष 2000 में जब गांव की महिलाओं के कुछ समूहों ने अपनी बचत राशि को जमा कराने के लिए आसपास के बैंको से संपर्क किया तो उन्हें एक एकांउट खोलने में 4-5 दिन लगे वे भी कई औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद खाते खोले जा सके। यह वह समय था जब हमें इस क्षेत्र में किसी अनौपचारिक और एक सुलभ बैंक खोले जाने की जरूरत महसूस हुई। इसके लिए हमने ग्रामीण आदिवासियों पर काम करने वाली स्थानीय संस्था इरमा के निदेशक डा रवि भूषण शर्मा के सामने अपनी समस्या को रखा।
गांव में एक आम सभा बुलाई गई। सभा में बैंक के महत्त्व और आने वाली दिक्कतों के संबंध में विस्तार से चर्चा की गई। गांव वालों को भरोसे में लेकर कोपोरेटिव सोसायटी के तहत बैंक को रजिस्टर्ड कराया गया। तकनीकी पहलुओं को सुलझाने के लिए इरमा ने मदद की। वर्ष 2001 में बैंक की पूरी प्रक्रिया खत्म होने के बावजूद बैंक मे लेन -देन का काम शुरू नहीं हो सका।
श्रीमती त्रिखी के मुताबिक आदिवासी लोगों में बचत की आदत डालना और उनका विश्वास जीतना आसान नहीं था। ‘‘लेकिन हमने धीरे धीरे स्थानीय लोगों को जागरूक बनाने का काम जारी रखा। इस प्रकार बैंक की वास्तविक शुरूआत वर्ष 2005 में हो पाई। लेकिन उसके बाद हमें कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। क्योंकि ग्रामीण आदिवासी अब बैंक का महत्व जानने लगे हैं।’’
आज बैंक के 451 खात्ताधारी हैं और बैंक के पास दो लाख से ऊपर की जमा राशि है। इस सफलता का श्रेय वह अवधारणा है जो गरीब, जरूरतमंद और अशिक्षित आदिवासियों की आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बैंक की कार्य प्रणाली को निर्धारित करती है।
मैनेजर पुष्पा के मुताबिक शुरू में यहां के आदिवासी लोग बैंक मे खाता खोलने से डरते थे। उस समय छोटी रकम भी बैंक में जमा कराने को प्रोत्साहित करने के लिए हमने ग्रामीणों को प्रेशर कुकर दिए। लेकिन आज लोग स्वयं थोड़ी सी बचत भी बैंक में जमा कराने आते हैं। यह रकम सौ रूपए या कभी इससे भी कम होती है।
एकाउटेंट सविता मुरमुर ने बताया कि बैंक 25 हजार रूपए तक का ऋण देता है। लोन खेती से लेकर स्वास्थ्य,शिक्षा और धंधे की दूसरी जरूरतों के लिए भी दिया जाता है। अक्सर ऋण स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से दिया जाता है। ब्याज की दर 12 प्रतिशत वार्षिक है। लेकिन सविता बड़े गर्व से बताती है कि अभी तक एक भी डिफाॅल्टर नहीं है। केवल एक पुरूष सहायक को छोड़कर कैशियर, एकाउटेंट और मेनेजर सभी स्टाफ महिलाओं के होने के पीछे कोई विशेष कारण के जवाब में पुष्पा हंसते हुए कहती है महिलाएं पैसों के लेन -देन में अधिक कुशल होती हैं।
इफिकाॅ के सभी शेयरधारी स्थानीय लोग हैं और वे ही प्रबंधन समिति के सदस्य हैं। अभी तक बैंक केवल आदिवासी लोगों की ही जरूरतों को पूरी कर रहा है लेकिन अब बैंक की सफलता को देखते हुए प्रबंधन समिति गैर आदिवासी समुदाय को भी माइक्रो फाइनेंस की सुविधा देने की सोच रही है। माइक्रो क्रेडिट की सुविधाएं गरीब ग्रामीण जीवन के लिएकतनी महत्चपूर्ण है, ये यहां के लोगों की बातचीत से समझा जा सकता है।
निवेश और बचत की छोटी जरूरतों को पूरी करने में सफल यह बैंक दूसरे राज्यों के आदिवासी समुदायों के लिए भी नजीर बन चुका है और राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे उपक्रम शुरू करने की योजनाएं बन रहीं हैं।

1 comment:

Dinesh C Sharma said...

bahut accha laga aapka lekh