अन्नू आनंद
जामतारा,झारखंड
सर्व शिक्षा अभियान का एक प्रमुख मकसद लड़कियों, खासकर दलित और आदिवासी समुदाय की लड़कियों को शिक्षित करना है। लेकिन झारखंड के आदिवासी इलाकों में यह मकसद पूरा होता नजर नहीं आता।
यहां के आदिवासी बहुल जिले जामतारा के ग्रामीण इलाकों में सर्व शिक्षा अभियान के तहत खुले अधिकतर स्कूलों में महिला षिक्षकों की कम नियुक्ति और नियुक्त क्षकों के स्कूलों में अनुपस्थित रहने के कारण बहुत सी लड़कियां स्कूलों से बाहर है। इसके अलावा अधिकतर स्कूलों में शौचालयों का न होना इन लड़कियों को स्कूलों से दूर रखे हैं। यहां की करीब 32 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासी है। जिनकी महिला साक्षरता दर 27 प्रतिषत है। स्कूल में लड़कियों को अनुकूल वातावरण न मिलने के कारण स्कूल रिकार्ड में दर्ज लड़किया भी स्कूलों में नियमित रूप से उपस्थित नहीं रहतीं। जामतारा से छह किलोमीटर दूर आदिवासी गांव है रूपायडीह। गांव के छोर पर एकमात्र प्राइमरी स्कूल है। गांव के 45 घरों में बच्चों की संख्या 145 के करीब है। आसपास के क्षेत्र के कुछ गावों के लिए भी यही स्कूल नजदीक पड़ता है। इस स्कूल में 2 महिला और एक पुरूश शिक्षक है। स्कूल में बच्चों की भर्ती 65 के करीब है लेकिन जिस दिन इस लेखक ने स्कूल का दौरा किया वहां केवल दस बच्चे ही उपस्थित थे। इन बच्चों को एक ही कमरे में बिठाकर ग्राम शिक्षा समिति के एक सदस्य नारायण हसदा बच्चों को अ, आ, और ए बी सी लिखाने की कोशिश कर रहा था। तीनों शिक्षक स्कूल में मौजूद नहीं थे। पूछने पर पता चला कि स्कूल की मुख्य शिक्षिका प्रातिमा घोष माह में केवल दो दिन के लिए ही स्कूल आती हैं। पैरा महिला शिक्षिका अपने विवाह के कारण कुछ दिनों की छुटटी पर थी। पुरूश शिक्षक शंकर्षण झा परीक्षा की डयूटी पर था।
गांव वालों के मुताबिक स्कूल की सब से बड़ी समस्या स्कूल की मुख्य शिक्षिका का स्कूल में न आना है। दो साल पहले तक यहां केवल वही महिला शिक्षका थी। उसके स्कूल में कभी कभार आने की वजह स्कूल में बच्चों की सख्यां भी 22 से 25 के करीब थी और ये बच्चे भी नियमित स्कूल नहीं आते थे। गांव की विमोली सोरेन बताती है कि बच्चों को मिड डे मील के चावल लेने वह पिं्रसीपल के घर जाती है। स्कूल के रजिस्टर्ड भी दीदी मुनि(मुख्य शिक्षिका) के घर पर रखे हैं और बाकी दो टीचर भी अपनी हाजरी लगाने उन के घर जाते हैं। विमोली के मुताबिक क्योंकि दीदी जामतारा मे रहती है इसलिए कई बार उन के घर से समय पर अनाज न ला पाने के कारण स्कूल में खिचड़ी भी नहीं बन पाती। वास्तव में मुख्य शिक्षिका मिड-डे मील समिति की सचिव होती है और बच्चों को दिए जाने वाले भोजन की सामग्री देने की जिम्मेदारी उस की होती है।
तीन साल पहले वर्श 2005 में स्कूल में बच्चों की कम हाजिरी के कारण गांव वालों ने इस संबंध में जामतारा के जिला अधीक्षक को एक लिखित षिकायत भी दर्ज की थी। गांव वालों ने बताया कि लेकिन इसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। उसके बाद वर्श 2006 में ग्रामसभा की एक बैठक में यह फैसला लिया गया कि स्कूल को उचित तरह से चलाने के लिए मुख्य षिक्षिका पर स्कूल में रोजाना और पूरा समय आने के लिए दबाव डाला जाए।
गांव वालों और इन गांवों में षिक्षा के मुद्वे पर काम करने वाने कार्यकर्ता इकबाल आसिफ और एलबीन मोनिका के समझाने पर इसी स्कूल के शिक्षक शंकर्षण ने तो स्कूल के समय टयूशन पढ़ाने का काम बंद कर दिया लेकिन मुख्य शिक्षिका प्रातिमा का अभी भी घर से स्कूल चलाने का सिलसिला जारी है।
जामतारा जिला के शिक्षा अधीक्षक बी एन राम इससे अनजान है। श्री राम के मुताबिक, ‘‘रूपायडीह के स्कूल में अब दो महिला शिक्षिका हैं लेकिन मुझे इस बात की जानकारी नहीं है कि मुख्य शिक्षिका स्कूल नहीं आती।’’ लेकिन ग्रामीणों में कन्या शिक्षा पर काम करने वाली रूंटी छंदा का कहना था इस बात की डीएसई से पहले भी शिकायत की गई थी लेकिन उन्होंने जांच के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं की।
इसी प्रकार जामतारा से 10 किलोमीटर दूर गुडडीपाढ़ा गांव में सर्व शिक्षा अभियान के प्राइमरी स्कूल में पांचवी तक की कक्षाओं के बच्चे दो कमरों में बांट कर बिठाए गए थे। एक से चैथी कक्षा के 22 बच्चे एक कमरे में और पांचवीं कक्षा के 12 बच्चे एक कमरे मेेे बैठे थे। स्कूल में एक भी शौचालय नहीं। सभी बच्चे घर भोजन के लिए जा रहे थे क्योंकि आज स्कूल मंे भोजन नहीं बन रहा था
स्कूल के प्रिंसीपल जवाहर प्रसाद सिंह ने बताया कि इस अप्रैल से स्कूल मिडिल स्कूल तक हो जाएगा और तब तक स्कूल में शौचालय की व्यवस्था भी हो जाएगी। भोजन न बनने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि भोजन बनाने वाले सदस्यों के न आने की वजह से आज भोजन नहीं बन रहा। यहां पढ़ने वाले आषीश कुमार मुर्मु की मां रश्मि मुर्मु ने बताया कि कुछ समय पहले तक स्कूल अधिकतर समय तक बंद रहता था लेकिन हाल ही में तीन पैरा टीचरों के आने से स्कूल में बच्चों ने जाना शुरू किया है।
श्री सिंह का मानना था कि स्कूल में भोजन मिलने से बच्चांे की उपस्थिति बढ़ जाती है क्योंकि एक तो उन्हें घर नहीं जाना पड़ता दूसरा उन्हें खेलने का अवकाश मिल जाता है। उनका कहना था कि शौचालय और महिला टीचरों के कारण लड़कियों की उपस्थिति भी बढ़ जाती है।
लेकिन इसके बावजूद इस साल के जनवरी माह से स्कूल में पहली महिला पैरा टीचर की नियुक्ति की गई है। इस नवनियुक्त महिला टीचर बिंदावासनी सोरेन के मुताबिक पिछले तीन माह से स्कूल में बच्चों की संख्या बढ़ गई है। अब मां बाप भी लड़कियों को स्कूल भेजने से हिचकिचाते नहीं।
गांव की अन्य महिला मालती मेदा का कहना था कि जब से महिला टीचर आई है हमने अपने बच्चों खासकर लड़कियों को स्कूल भेज रहे हैं।
सर्व शिक्षा के तहत चलने वाले अधिकतर स्कूलों में नियुक्त सरकारी शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा दूसरे कई सरकारी काम करने पड़ते हैं। इसलिए वे अधिकतर समय स्कूल से बाहर की डयूटी पर रहते हैं। ऐसे में स्कूल में टीचरों की कमी होना स्वाभाविक है। बहुत से सरकारी टीचरों के पद भी खाली भी पड़े हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए ही करीब तीन साल पहले पैरा टीचरों की नियुक्ति की योजना शुरू की गई है। पैरा टीचर यानी गांव का ही कोई व्यक्ति जो अधिक शिक्षित हो। इसमें महिला को प्राथमिकता देने का प्रावधान है। लेकिन ये योजना भी विवादों और भ्रष्टाचार का शिकार हो रही है। जैसा कि जनहित विकास संस्था के महफूज कहते हैं कि इसमें अक्सर महिला और अधिक शिक्षित व्यक्ति की बजाय पुरूष और कम पढ़े लिखे व्यक्ति को चुन लिया जाता है। क्यों कि पैरा टीचर को अधिक दहेज मिलता है इसलिए इस पद को पाने लिए हर तरह की जोड़ तोड़ की जाती है। इस कारण अक्सर महिला टीचर को प्राथमिकता नहीं मिल पाती।
देष भर में शिक्षा और पंचायती राज पर काम करने वाली संस्था प्रिया की जामतारा शाखा ने वर्ष 2006 में जामतारा और नारायणपुर ब्लाक में लड़कियों की शिक्षा के स्तर पर 41 स्कूलों में एक सर्वे कराई थी। सर्वे के परिणामों के मुताबिक प्राइमरी स्कूलों में महिला टीचर का होना लड़कियों की उपस्थिति पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। लेकिन यहां के अधिकतर स्कूलों में महिला टीचरों की पुरूषों की अपेक्षा संख्या कम है। इसी कारण शहरी क्षेत्रों के नजदीक खुले स्कूलों की अपेक्षा ग्रामीण स्कूलों मे लड़कियों का अनुपात लड़कों की अपेक्षा कम पाया गया।
सर्वे के परिणामों के मुताबिक हर दस पुरूष टीचरों पर चार महिला टीचर पाए गए लेकिन दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात और भी कम है। जिसकी वजह से लड़कियों की उपस्थिति कम रहती है। भले ही भर्ती अभियानों के दौरान लड़के और लड़की को आकड़ांे में दर्ज किया जाता है। रूण्टी के मुताबिक एक बार जब भर्ती अभियान खत्म हो जाता है न तो शिक्षक और न ही अधिकारी यह जानने का प्रयास करते हैं कि नया भर्ती हुआ छात्र नियमित रूप से स्कूल आ रहा है या नहीं। सर्वे किए गए सभी 41 स्कूलों मे से केवल दो स्कूलों में ही छात्रों को शौचालय इस्तेमाल करने की इजाजत थीं बाकी सभी स्कूलों में या तो शौचालय ही नहीं थे या फिर वे इस्तेमाल किए जाने की स्थिति में नहीं थे। कुछ स्कूलों में केवल शिक्षकों को ही इसके इस्तेमाल की इजाजत थी।
प्रिया संस्था के इकबाल आसिफ के मुताबिक हमने सर्वे के दौरान पाया कि जिन स्कूलों में महिला टीचरों की नियुक्ति हुई वहां लड़कियों की संख्या बढ़ गई। इसके अलावा स्कूली टीचरों से चुनावी सूची को अपडेट कराना, जनगणना तथा बीपीएल की सूची भरना जैसे कई कराए जाते हैं।
इकबाल के मुताबिक हाल ही में राजस्व गावों में प्रधान के चुनावों के लिए ग्रामसभाओं के आयोजन का काम भी इन टीचरों से कराया गया। उनके मुताबिक शिक्षकों का मानना है कि वे औसत साल मे एक माह ऐसे कामों में व्यस्त रहते हैं।
सर्व शिक्षा का मकसद केवल सभी बच्चों को स्कूलों तक पहुंचाना नहीं बल्कि उन्हें स्तरीय शिक्षा प्रदान करना भी है और यह तभी संभव है जब स्कूलों का वातावरण लड़के और लड़कियों को स्कूल आने के लिए प्रोत्साहित करे।
अनसुनी आवाज़ उन लोगों की आवाज़ है जो देश के दूर दराज़ के इलाकों में अपने छोटे छोटे प्रयासों के द्वारा अपने घर, परिवार समुदाय या समाज के विकास के लिए संघर्षरत हैं। देश के अलग अलग हिस्सों का दौरा करने के बाद लिखी साहस की इन कहानियों को मैं अख़बारों और इस ब्लॉग के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना चाहती हूँ क्योंकि ये खामोश योधाओं के अथक संघर्ष की वे कहानियाँ हैं जिनसे सबक लेकर थोड़े से साहस और परिश्रम से कहीं भी उम्मीद की एक नयी किरण जगाई जा सकती है।
Thursday, 28 August 2008
झारखंड में स्कूलों से दूर आदिवासी लड़कियां
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