अन्नू आनंद
पिछले कुछ समय से महाराज, बाबाओं और गुरूओं के काले कारनामों का भण्डाफोड़ हो रहा है। एक के बाद एक फर्जी गुरू की असलियत खुल कर सामने आ रही है। पिछले कुछ सालों से अपने को संत, महात्मा बता कर लोगों के साथ छल करने वाले बाबाओं की संख्या बढ़ी है। हकीकत तो यह है कि शिक्षा के विस्तार और सूचना क्रांति के विस्फोट के बावजूद इन बाबाओं की दुकाने बढ़ती जा रही हैंै। अगर जरा ध्यान दें ंतो पता चलेगा कि छल और धोखे का यह फलता फूलता धंधा केवल बाबाओं तक ही सीमित नहीं। कस्बों और महानगरों की गलियां पिछले एक दशक में ऐसे ज्योतिषियों और पंडितों की बडीे बडी दुकानों से भरी पड़ी हैं जिस पर लगे लंबे चौड़े बोर्ड राशि-दोष दूर करने से लेकर किसी भी प्रकार की मुसीबत का तोड़ निकालने का दावा करते हैं। जो काम पहले केवल कुछ धर्माचार्याओं और विशेष पंडित बिना किसी होर्डिंग और विज्ञापन के छोटे स्तर पर करते थे। अब वह उस बाजार का बड़ा हिस्सा है जहां खरीदने की बढ़ती क्षमता के चलते हर चीज बिकाउ है।
दरअसल मुक्त बाजार व्यवस्था ने जहां आधुनिकीकरण को बढ़ावा दिया। लोगों की क्रय शक्ति में इज़ाफा किया। आर्थिक दर के ग्राफ को ऊपर उठाया। शिक्षा और ज्ञान का विस्तार किया। उसी मुक्त आर्थिक व्यव्स्था ने लोगों की धार्मिक प्रवृतियों को बढ़ाने का काम भी किया। 1991 से लागू हुए मुक्त व्यापार ने लोगों को सुख संपन्न बनाने के साथ उस संपन्नता को कायम रखने के प्रति उनमें भय और असुरक्षा की भावना को बढ़ाने का काम किया। असुरक्षा की इसी भावना ने भगवानों, बाबाओं और पीर बाबाओं में लोगों की आस्था भी बढ़ा दी। परिणामस्वरूप नए भगवानों, नए बाबाओं, नए मंदिरों और तीर्थ स्थलों की गिनती भी बढ़ने लगी है। आर्थिक सुधारों के चलते मध्य वर्ग की बढ़ती आय ने धार्मिक सेवाओं की मांग और पूर्ति को बढ़ाने का काम किया है।
वर्ष 2007 की स्टेट आफॅ नेशन की सर्वे के मुताबिक पिछले पांच सालों में भारतीयों में धार्मिक प्रवृति बढ़ी है। इस सर्वे में 30 फीसदी लोगों ने माना कि वे पहले के मुकाबले पिछले कुछ सालों में अधिक धार्मिक हुए हैं। सर्वे के मुताबिक आधुनिकता और शहरी जीवन की ओर खुलाव के कारण भारतीय पहले से अधिक धार्मिक हुए हैं। हैरत की बात यह है कि शहर के शिक्षित ग्रामीण अशिक्षितों की तुलना में अधिक धार्मिक हुुआ है। मीरा नंदा की पुस्तक द गाॅड मार्किट के मुताबिक आर्थिक समृद्दि ने मिडल वर्ग की हिंदु धार्मिकता को तीन प्रकार से प्रभावित किया है। पहली नए गुरूओं का अवतार, गुरूओं की संस्कृति को बढ़ावा और गुरूओं का भद्रकरण। नंदा के मुताबिक यह स्पष्ट है कि पाॅपुलर हिंदुत्व अत्यंत परिवर्तनशील है क्योंकि यह भारत की तेजी से बदलती अर्थव्यव्स्था और समाज का अनुकरण कर रहा है। मंदिरों का पुनरूद्धार हो रहा है। इन मंदिरों में श्रद्धालु अपने पुराने देवी देवताओं और अनुष्ठानों को नया रूप दे रहे हैं। कुछ नए भगवान और नए अनुष्ठान भी खोजे जा रहे़े हैं। कर्नाटक में मरीअम्मां जिसे छोटी चेचक निर्वारण देवी माना जाता था अब वह एड्स अम्मा या एड्स को ठीक करने वाली माता के रूप में प्रचलित है। कुछ स्थानीय देवी देवता जो बीमारियों को ठीक करने के लिए पूजे जाते थे अब सफलता और स्पर्धा भरे शहरी जीवन में समझदारी व सद्बुद्धि प्रदान करने के लिए पूजे जा रहे हैं। खर्च की बढ़ती क्षमता और आस्था में वृद्धि ने पूजा स्थलों की गिनती को कई गुणा बढ़ाने का काम किया। पवन वर्मा की पुस्तक बीनंग इडियन (2004) के मुताबिक वर्ष 2000 तक देश में 2.5 मिलियन पूजा के स्थल थे लेकिन स्कूल 1.5 मिलियन और अस्पतालों की संख्या 75 हजार थी।
इसी प्रकार एनसीएईआर की सर्वे से पता चलता है कि भारत के कुल पैकेज टूर में 50 फीसदी धार्मिक यात्राओं का बिजनेस है।
बाजार ने लोगों की आस्था को भुनाने के लिए केवल भगवानों या धर्म को ही साधन नहीं बनाया बल्कि त्यौहार, पूजा और दूसरे सभी अनुष्ठान भी बाजारी चमक के कारण अपनी मूलता खोते जा रहे हैं। जो त्यौहार या अनुष्ठान कभी घर के आंगन तक सीमित होते थे बाजार ने उन्हें बड़े उत्सवों में बदल दिया है। तीज, छठ, करवा चौथ दीवाली हर त्यौहार का राष्ट्रीयकरण हो चुका है और इन में क्षेत्रीयता की महक कम और बाजार के समान रंग अधिक नजर आते हैं। अधिक खरीदने और बेचने की चाह, विज्ञापनों की होड़ ने बाजारों को तो सजा दिया लेकिन किसी भी अनुष्ठान या त्यौहार की पवित्रता और सही मायनों को धुंधला बना दिया। अक्षय तृतीया कभी विवाह के लिए शुभ माना जाता था अब सोना खरीदने के लिए अधिक जाना जाता है। द वल्र्ड गोल्ड काउंसिल ने इस दिन को सोने के सिक्के और गहने खरीदने के लिए विशेष शुभ दिन घोषित कर दिया है। एक आंकड़े के मुताबिक 2006-2007 में इस दिन 38 टन की खरीददारी हुई जबकि रोज 2 टन की बिक्री होती है।
धर्म और आस्था भारतीय समाज में बेहद संवेदनशील मसले हैं। लोगों की भावनाओं को भुनाने का सबसे सरल साधन भी। पोंगा पडितों और फर्जी बाबाओं के लिए बाजार ने इन भावनाओं को कैश करना और सरल बना दिया है। यही कारण है कि ऐसे ढोंगी बाबाओं की जमात फलने फूलने लगी है जो लोगों को अध्यात्मिक बनाने के नाम पर अंधविश्वासों, आडंबरांे और कर्मकाण्डों को बढ़ावा देकर अपनी दुकान चमका रहे हंै। दुख की बात यह है कि वैज्ञानिक मानसिकता को प्रोत्साहित करने वाले सरकारी और गैरसरकारी संस्थान भी खमोशी से इसे बढ़ता हुआ देख रहे हैं। जरूरत है तार्किक सोच को बढ़ावा देने की। इसके लिए सरकारी गैरसरकारी संस्थाओं के साथ मीडिया को आगे आना होगा।
(यह लेख 31 मार्च 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)