Wednesday, 31 March 2010

धर्म का बाजारवादी चेहरा

अन्नू आनंद

पिछले कुछ समय से महाराज, बाबाओं और गुरूओं के काले कारनामों का भण्डाफोड़ हो रहा है। एक के बाद एक फर्जी गुरू की असलियत खुल कर सामने आ रही है। पिछले कुछ सालों से अपने को संत, महात्मा बता कर लोगों के साथ छल करने वाले बाबाओं की संख्या बढ़ी है। हकीकत तो यह है कि शिक्षा के विस्तार और सूचना क्रांति के विस्फोट के बावजूद इन बाबाओं की दुकाने बढ़ती जा रही हैंै। अगर जरा ध्यान दें ंतो पता चलेगा कि छल और धोखे का यह फलता फूलता धंधा केवल बाबाओं तक ही सीमित नहीं। कस्बों और महानगरों की गलियां पिछले एक दशक में ऐसे ज्योतिषियों और पंडितों की बडीे बडी दुकानों से भरी पड़ी हैं जिस पर लगे लंबे चौड़े बोर्ड राशि-दोष दूर करने से लेकर किसी भी प्रकार की मुसीबत का तोड़ निकालने का दावा करते हैं। जो काम पहले केवल कुछ धर्माचार्याओं और विशेष पंडित बिना किसी होर्डिंग और विज्ञापन के छोटे स्तर पर करते थे। अब वह उस बाजार का बड़ा हिस्सा है जहां खरीदने की बढ़ती क्षमता के चलते हर चीज बिकाउ है।

दरअसल मुक्त बाजार व्यवस्था ने जहां आधुनिकीकरण को बढ़ावा दिया। लोगों की क्रय शक्ति में इज़ाफा किया। आर्थिक दर के ग्राफ को ऊपर उठाया। शिक्षा और ज्ञान का विस्तार किया। उसी मुक्त आर्थिक व्यव्स्था ने लोगों की धार्मिक प्रवृतियों को बढ़ाने का काम भी किया। 1991 से लागू हुए मुक्त व्यापार ने लोगों को सुख संपन्न बनाने के साथ उस संपन्नता को कायम रखने के प्रति उनमें भय और असुरक्षा की भावना को बढ़ाने का काम किया। असुरक्षा की इसी भावना ने भगवानों, बाबाओं और पीर बाबाओं में लोगों की आस्था भी बढ़ा दी। परिणामस्वरूप नए भगवानों, नए बाबाओं, नए मंदिरों और तीर्थ स्थलों की गिनती भी बढ़ने लगी है। आर्थिक सुधारों के चलते मध्य वर्ग की बढ़ती आय ने धार्मिक सेवाओं की मांग और पूर्ति को बढ़ाने का काम किया है।

वर्ष 2007 की स्टेट आफॅ नेशन की सर्वे के मुताबिक पिछले पांच सालों में भारतीयों में धार्मिक प्रवृति बढ़ी है। इस सर्वे में 30 फीसदी लोगों ने माना कि वे पहले के मुकाबले पिछले कुछ सालों में अधिक धार्मिक हुए हैं। सर्वे के मुताबिक आधुनिकता और शहरी जीवन की ओर खुलाव के कारण भारतीय पहले से अधिक धार्मिक हुए हैं। हैरत की बात यह है कि शहर के शिक्षित ग्रामीण अशिक्षितों की तुलना में अधिक धार्मिक हुुआ है। मीरा नंदा की पुस्तक द गाॅड मार्किट के मुताबिक आर्थिक समृद्दि ने मिडल वर्ग की हिंदु धार्मिकता को तीन प्रकार से प्रभावित किया है। पहली नए गुरूओं का अवतार, गुरूओं की संस्कृति को बढ़ावा और गुरूओं का भद्रकरण। नंदा के मुताबिक यह स्पष्ट है कि पाॅपुलर हिंदुत्व अत्यंत परिवर्तनशील है क्योंकि यह भारत की तेजी से बदलती अर्थव्यव्स्था और समाज का अनुकरण कर रहा है। मंदिरों का पुनरूद्धार हो रहा है। इन मंदिरों में श्रद्धालु अपने पुराने देवी देवताओं और अनुष्ठानों को नया रूप दे रहे हैं। कुछ नए भगवान और नए अनुष्ठान भी खोजे जा रहे़े हैं। कर्नाटक में मरीअम्मां जिसे छोटी चेचक निर्वारण देवी माना जाता था अब वह एड्स अम्मा या एड्स को ठीक करने वाली माता के रूप में प्रचलित है। कुछ स्थानीय देवी देवता जो बीमारियों को ठीक करने के लिए पूजे जाते थे अब सफलता और स्पर्धा भरे शहरी जीवन में समझदारी व सद्बुद्धि प्रदान करने के लिए पूजे जा रहे हैं। खर्च की बढ़ती क्षमता और आस्था में वृद्धि ने पूजा स्थलों की गिनती को कई गुणा बढ़ाने का काम किया। पवन वर्मा की पुस्तक बीनंग इडियन (2004) के मुताबिक वर्ष 2000 तक देश में 2.5 मिलियन पूजा के स्थल थे लेकिन स्कूल 1.5 मिलियन और अस्पतालों की संख्या 75 हजार थी।
इसी प्रकार एनसीएईआर की सर्वे से पता चलता है कि भारत के कुल पैकेज टूर में 50 फीसदी धार्मिक यात्राओं का बिजनेस है।

बाजार ने लोगों की आस्था को भुनाने के लिए केवल भगवानों या धर्म को ही साधन नहीं बनाया बल्कि त्यौहार, पूजा और दूसरे सभी अनुष्ठान भी बाजारी चमक के कारण अपनी मूलता खोते जा रहे हैं। जो त्यौहार या अनुष्ठान कभी घर के आंगन तक सीमित होते थे बाजार ने उन्हें बड़े उत्सवों में बदल दिया है। तीज, छठ, करवा चौथ दीवाली हर त्यौहार का राष्ट्रीयकरण हो चुका है और इन में क्षेत्रीयता की महक कम और बाजार के समान रंग अधिक नजर आते हैं। अधिक खरीदने और बेचने की चाह, विज्ञापनों की होड़ ने बाजारों को तो सजा दिया लेकिन किसी भी अनुष्ठान या त्यौहार की पवित्रता और सही मायनों को धुंधला बना दिया। अक्षय तृतीया कभी विवाह के लिए शुभ माना जाता था अब सोना खरीदने के लिए अधिक जाना जाता है। द वल्र्ड गोल्ड काउंसिल ने इस दिन को सोने के सिक्के और गहने खरीदने के लिए विशेष शुभ दिन घोषित कर दिया है। एक आंकड़े के मुताबिक 2006-2007 में इस दिन 38 टन की खरीददारी हुई जबकि रोज 2 टन की बिक्री होती है।

धर्म और आस्था भारतीय समाज में बेहद संवेदनशील मसले हैं। लोगों की भावनाओं को भुनाने का सबसे सरल साधन भी। पोंगा पडितों और फर्जी बाबाओं के लिए बाजार ने इन भावनाओं को कैश करना और सरल बना दिया है। यही कारण है कि ऐसे ढोंगी बाबाओं की जमात फलने फूलने लगी है जो लोगों को अध्यात्मिक बनाने के नाम पर अंधविश्वासों, आडंबरांे और कर्मकाण्डों को बढ़ावा देकर अपनी दुकान चमका रहे हंै। दुख की बात यह है कि वैज्ञानिक मानसिकता को प्रोत्साहित करने वाले सरकारी और गैरसरकारी संस्थान भी खमोशी से इसे बढ़ता हुआ देख रहे हैं। जरूरत है तार्किक सोच को बढ़ावा देने की। इसके लिए सरकारी गैरसरकारी संस्थाओं के साथ मीडिया को आगे आना होगा।

(यह लेख 31 मार्च 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Tuesday, 16 March 2010

अमल में लाना भी आसान नहीं महिला बिल

अन्नू आनंद

बेहद जद्दोजहद के बाद राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल तो पारित हो गया। लेकिन लोकसभा में यह बिल मौजूदा स्वरूप में पारित होता दिखाई नहीं देता। अब आरक्षण का प्रतिशत घटाने का दबाव बना कर सहमति बनाने की कोशिश चल रही है। हांलाकि सरकार बार-बार मौजूदा स्वरूप में इसे पास कराने के संकल्प को दुहरा रही है। लेकिन यह उतना आसान भी नहीं है। सबसे बड़ी चिंता तो यह है कि अगर बिल मौजूदा स्वरूप में लोकसभा में पास हो भी गया तो इसे अमल में लाने और आरक्षण के मकसद को पूरा करने का रास्ता बिल पास कराने से भी कठिन साबित होगा।

बिल को सदन में पहुंचाने के 14 साल के संघर्ष और इसमें ओबीसी महिलाओं को आरक्षण देने के यादव नेताओं के अड़ियल रवैये पर बेहद चर्चा और विश्लेषण हो चुका है। अब जरूरत यह देखने कि है कि महिला आरक्षण बिल को कानूनी जामा पहनने के बाद किन कठिनाइयों और चुनौतियों से गुजरना पड़ेगा। बिल के मुख्य प्रवधानों को देखने से साफ जाहिर है कि जितनी कठिन राह इसको पास कराने की रही उसको लागू करने और उससे प्रत्याशित परिणाम हासिल करने का संघर्ष और भी कठिन साबित होगा।

पहले बिल के मुख्य प्रावधानों पर एक नजर। मौजूदा स्वरूप में अगर बिल पारित होता है तो लोकसभा और सभी राज्यों (दिल्ली सहित) के विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। इसी प्रकार एससी और एसटी के लिए आरक्षित कुल सीटों मंे से एक तिहाई सीटें इन समूहों की महिलाओं के लिए आरक्षित होगीं। मसौदे के मुताबिक सीटों का आरक्षण रोटेशन के आधार पर होगा। कानून लागू होने के 15 सालों के बाद महिलाओं के लिए आरक्षण की अवधि खत्म हो जाएगी।

अगर बिल के इन मुख्य बिदुंओं का विश्लेषण करें तो कई सवाल और दिक्कतें जेहन में आते हैं। सबसे बड़ी चिंता सीटों के आरक्षण को लेकर है। इस संदर्भ में बिल में सीट के आरक्षण की प्रक्रिया को स्पष्ट नहीं किया गया। बिल के मुताबिक आरक्षित सीटों का निर्धारण संसद द्वारा निर्धारित आथोरिटी करेगी। लेकिन उसके लिए क्या प्रक्रिया होगी इसकी कोई चर्चा नहीं। अगर सीटांे का निर्धारण न्यायसंगत तरीके से नहीं हुआ तो इससे महिलाओं को समानता के दर्जे पर लाने का मकसद पूरा नहीं होगा। जंयती नटराजन की अध्यक्षता में बनी स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट मंे सिफारिश की है कि सरकार को इस मसले पर उचित तरीके से विचार विमर्श करना चाहिए। इसके अलावा बिल में रोटेशन के आधार पर सीट के आरक्षण को लेकर भी आलोचना हो रही है। इस प्रावधान के आलोचकांे का मानना है कि रोटेशन के आधार पर सीटांे का आरक्षण सांसदो विधायको को अपने निर्वाचन क्षेत्र में विकास के कार्य करने के प्रोत्साहन को कम करेगा। इससे राजनैकित अस्थिरता बढ़ेगी। पंचायतरीराज मंत्रालय दारा कराए गए एक सर्वे ने पंचायतो में निर्वाचन क्षेत्र के रोटेशन को खत्म करने की सिफारिश की हैं इस का कारण यह है कि पंचायतों में करीब 85 फीसदी महिलाएं जो पहली बार पंचायतों में चुनकर आईं थीं उनमंे से केवल 15 फीसदी महिलाएं ही दुबारा निर्वाचित हो सकीं क्यांेकि जिन सीटों से वे चुनी गईं थी वे रोटेशन के तहत आरक्षित नहीं रही थीं। रोटेषन का सही प्रीााव विधानसभा और लोकसभा की आरक्षित सीटों पर भी देखने की आशंका व्यक्त की जा रही है।

रोटेशन के कारण वोटरों के प्रति निर्वाचित सदस्य की जवाबदेही भी कम होगी। वोअर अपनी ताकत को कम होता महसूस करेंगे। दो तिहाई मौजूदा उम्मीदवारों को रोटेशनल आरक्षण के कारण अपनी सीटें छोड़नी पड़ सकती है जिससे निर्वाचित सदस्य अपने क्षेत्र के मुद्दों पर गंभीरता से काम नहीं कर पाएंगे। इस प्रकार रोटेषन के प्रावधान को लागू करने में सरकार को बेहद विचार विमर्श और सतर्कता से फैसला लेना होगा।

इस के अलावा महिलाओं के आरक्षण की सीमा अवधि 15 सालों तक सीमित करने पर भी पुनर्विचार की जरूरत है। क्योंकि इससे महिलाओं को पर्याप्त राजनैतिक प्रतिनिधित्व मिलना संभव नहीं। पंचायत चुनावों के अनुभवों से पता चलता है कि आरक्षण के पहले दो चरण महिलाओं के लिए राजनैतिक दावपेंचों को सीखने के लिए जरूरी हैं ऐसे में अगर तीसरे चरण के बाद आरक्षण को खत्म कर दिया जाता है तो इससे महिलाएं अपनी योगयता को साबित करने में और उन्हें बराबरी के स्तर पर लाने का मकसद अधूरा रह जाएगा। स्थायी समिति ने भी इस समय सीमा को बढ़ाने की सिफारिश की है। साठ साल की अवधि के बाद भी अनुसुचित जाति और जनजातियों को मिले आरक्षण का मकसद पूरा नहीं हो सका। ऐसे में 15 साल की अवधि से आस लगाना मूर्खता होगी।

यह ठीक है कि पंचायतों और नगरपालिकाओं में आरक्षण ने महिलाओं में आत्मबल और फैसले लेने की नई उर्जा का संचार किया है और अब संसद तथा विधानसभाओं में भी महिलाओं की गिनती बढ़ने से नीति आधारित फैसलों में महिला नजरिया सार्थक साबित होगा लेकिन समझने की बात यह है कि बिल पास होने का जश्न मनाने के साथ आगे की टेढ़ी पगडंडी पर भी ध्यान में रखना होगा।