अन्नू आनंद
(देवास, मध्य प्रदेश)
मध्य प्रदेश में मैला ढोने वालों के पुनर्वास को लेकर कई प्रकारकी अनियमितताएं देखने को मिल रही हैं। सरकार की पुनर्वासनीति में इतने सुराख हैं कि यहां पर कई जिलों में इस काम को छोड़ने वाले कई लोग फिर से इस काम को अपनाने लगे हंै।फरवरी 2002 में देवास जिले में चलने वाले ‘गरिमा अभियान’ केतहत किरन सहित बस्ती की 26 महिलाओं ने यह काम करनाछोड़ दिया। मध्य प्रदेश में इस अभियान के तहत मैला ढोने वालोंको अपनी मान मर्यादा और सम्मान की खातिर इस काम कोछोड़ने के लिए तैयार किया जा रहा है। किरन बताती है कि यहकाम छोड़ने के बाद उन सभी महिलाओं के पास बच्चों का पेटपालने के लिए कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने खेतों में मजदूरीकरना शुरू किया लेकिन यह मजदूरी का काम भी कभी-कभारमिलता। मजदूरी के काम से अनजान किरन अक्सर नौ बीघासोयाबीन काटती जबकि उसे मजदूरी केवल सात बीघा की हीमिलती। किरन सहित काम छोड़ने वाली बस्ती की अन्य महिलाओंके बच्चों को स्कूल में मिलने वाली छात्रवृत्ति भी बंद कर दी गई।अब बस्ती के अधिकतर बच्चे स्कूल से बाहर हंै।केंद्र सरकार ने जब वर्ष 1993 में मैला ढोने के अमानवीय कार्यको बंद करने का सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालयसन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम 1993 लागू किया था तो साथ मेंकाम छोड़ने वाले लोगों के लिए पुनर्वास की राष्ट्रीय योजना भीलागू की थीं। इनमें से एक योजना अस्वच्छ धंधों में लगे लोगों केबच्चों को शिक्षित बनाने के संबंध में थी। अप्रैल 1993 से लागू इसयोजना के तहत अस्वच्छ धंधों में लगे लोगों के दो बच्चों को दसमाह तक पहली से दसवीं कक्षा तक छात्रवृत्ति प्रदान करने काप्रावधान है। योजना के मुताबिक एक से पांचवीं तक 40 रुपए प्रतिमाह और छठी से आठवीं तक 60 रुपए प्रति माह तक कीछात्रवृत्ति निर्धारित की गई थी। इस आर्थिक प्रोत्साहन ने देश भरमें मैला ढोने के काम में लगे बहुत से परिवारों के बच्चों को स्कूलोंमें पहुंचाने का काम किया।लेकिन जब वर्ष 2000 से कानून के तहत सरकारी औरगैरसरकारी प्रयासों के चलते मैला ढोने वाले लोगों द्वारा काम कोत्यागने की प्रवृति ने जोर पकड़ा तो इसका सबसे बुरा प्रभाव स्कूलों के बच्चों पर पड़ा। स्कूलों में उनको मिलने वाली छात्रवृत्ति बंदहोने लगी। इसकी मुख्य वजह यह है कि बच्चों को छात्रवृत्ति कीइस कल्याणकारी योजना और कानून में ही विरोधाभास है। कानूनअस्वच्छ धंधे पर रोक लगाता है जबकि योजना अस्वच्छ धंधे मेंलगे बच्चों को ही स्कूली शिक्षा के लिए सहायता देती है।मैला ढोने का काम बंद करने वाली बस्ती की शोभा ने अपनीदो लड़कियों का स्कूल छुड़वा दिया। वह बताती है कि एक तोकाम नहीं ऊपर से बच्चों की फीस, वर्दी और दूसरे खर्चे हम कहांसे लाएं। किरन ने बताया कि जब स्थानीय सरकारी अधिकारियोंसे पूछा तो उन्होंने बताया कि छात्रवृत्ति तो अस्वच्छ धंधों में लगेलोगों के बच्चों के लिए है जब काम छोड़ दिया तो छात्रवृत्ति क्योंमिलेगी। किरन तर्क देती है कि एक तरफ तो सरकार यह प्रथाबंद करना चाहती है और इसके लिए कानून भी बनाया है दूसरीओर उसी कानून का सहारा लेकर हमारे बच्चों के पढ़ने के रास्तेबंद किए जा रहे हैं हम बच्चों की जरूरतें कैसे पूरी करें। ऐसे मेंहमारे पास बच्चों को स्कूल से हटाने के अलावा क्या विकल्प है।पिछले वर्ष किरन ने गरिमा अभियान के तहत आयोजित जनसुनवाईमें भी सरकार से ऐसे धंधों को छोड़ने वालों के बच्चों को दोगुनीछात्रवृत्ति देने की मांग की थी।किरन की बातों में दम है लेकिन स्थानीय सरकारी अधिकारीसिर्फ कागजों की भाषा समझते हंै। इस छात्रवृत्ति को पाने के लिएसाल में 100 दिन काम करने का हलफनामा देना पड़ता है। जिसपर सरकारी अधिकारी को हस्ताक्षर करने होते हैं। कोई भीसरकारी अधिकारी यह मानना नहीं चाहता कि उनके जिले में मैलाढोने का काम चल रहा है। इसलिए बच्चों को छात्रवृत्ति नहीं मिलपाती।2500 की आबादी वाले सिआ गांव में वर्षों से मैला ढोने केकाम को त्यागने वाली 54 वर्षीया मन्नू बाई कहती है, ‘‘जब मैं औरमेरी बहुएं यह काम करते थे तो मेरे पोते-पोतियों के साथ स्कूलमें भेदभाव होता था। अब काम छोड़ दिया तो हम बच्चों को स्कूलभेजने के काबिल ही नहीं रहे। सरकारी सहायता भी तो बंद करदी गई।’’ संतोष बताती है कि पहले मैं मैला सिर पर ढोकर लेजाती थी बदले में मुझे बासी रोटी फेंक कर दी जाती थी। बच्चेस्कूल जाते तो उन्हें नल से पानी नहीं पीने दिया जाता। उनकोटाटपल्ली पर बैठने भी नहीं देते थे। बच्चे घर आकर शिकायतकरते। दोपहर के भोजन में भी उन्हें अलग बिठाकर भोजन खानेको मिलता। लेकिन बाद में जब गांव में इस काम को छोड़ने काअभियान शुरू हुआ और कानून के बारे में जानकारी दी गई तोहमने काम छोड़ दिया, लेकिन हमें काम छोड़कर क्या मिला। आजन हमारे पास काम है उस पर बच्चों को शिक्षा में मिलने वालीमदद भी बंद हो गई। आज जब हमारे काम की वजह से स्कूल मेंउन्हें शर्मसार नहीं होना पड़ता और वे सभी बच्चों के समानव्यावहार पाने के काबिल हुए हैं तो प्रशासन ने बच्चों को मिलनेवाली राशि बंद कर दी। यह कहां का न्याय है।’’वास्तव में मैला ढोने जैसे श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए चालूकी गई सरकारी पुनर्वास योजनाओं मंे इतनी कमियां हैं कि निध्र्ाारित समय सीमा तक इस काम को बंद करने का लक्ष्य अभी बेहददूर जान पड़ता है। केंद्र की यूपीए सरकार ने सामाजिक न्यायमंत्रालय को यह आदेश दिया है कि दिसंबर 2007 तक सभी राज्योंमें यह काम पूरी तरह बंद हो जाना चाहिए। इस लक्ष्य को हासिलकरने के लिए योजना आयोग ने ‘मैला ढोने से मुक्ति राष्ट्रीयकार्ययोजना 2007’ भी बनाई है। जिस का मकसद 2007 के अंततक इस काम को पूरी तरह बंद किया जाना है। लेकिन जमीनीहकीकत अलग ही कहानी बयां करती है।
मध्य प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट में हलफनामा दिया है कि मध्य प्रदेश में अब कोई भी मैला ढोने का काम नहीं कर रहा।जबकि यहां के नौ जिलों में पिछले वर्ष गरिमा अभियान द्वाराकराई गई सर्वे से पता चलता है कि अभी भी यहां 618 लोग इसकाम में लगे हैं। इस के अलावा 52 ऐसे लोगों का भी पता चलाजिन्होंने काम छोड़ने के बाद उचित पुनर्वास के अभाव में फिर सेइस काम को अपना लिया है। जो लोग ये काम छोड़ चुके हैं उनसे आज भी अन्य हीन काम जैसे गांव में मरे पशुओं को फेंकना,श्मशान से मृतक के कपड़े लेना, लावारिस लाशों का अंतिमसंस्कार करना, जजमानी करना और किसी की मृत्यु होने पर ढोलबजाना इत्यादि कामों को कर रहें हैं और इन जातिगत कामों केबंटवारे को रोकने के लिए सरकार के पास कोई ठोस नीति नहींहै। सरकार का पूरा जोर आर्थिक पुनर्वास पर है। अधिकतरयोजनाएं भी पुरुषों को ध्यान मंे रखकर बनाई जा रही हैं। जबकिइस धंधे में 93 प्रतिशत महिलाएं लगी हुई हैं। जिन रोजगारों केलिए कर्जा दिए जाने की व्यवस्था है वे अधिकतर पुरुषों द्वारा किएजाते हैं। देवास जिला में इस मुद्दे पर काम करने वाली संस्था‘जनसाहस’ के प्रमुख आसिफ के मुताबिक अधिकतर ऐसे कामों केलिए कर्जा दिया जा रहा है जो पुरुष करते हैं। जैसे आॅटो,दुकानदारी आदि। ऐसा नहीं है कि ये काम महिलाएं नहीं करसकतीं लेकिन उन्हें प्रशिक्षण के माध्यम से सशक्त बनाने कीजरूरत है और ये लंबी प्रक्रिया है। आसिफ के मुताबिक स्कूलों सेमिलने वाली आथर््िाक मदद के बंद होने की नीति इन लोगों को यहकाम न छोड़ने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। उन्होंने बताया किभावरासागर में मैला ढोने के काम मे लगी शोभा की छह लड़कियांस्कूल जाती थीं, लेकिन जब उसने वर्ष 2003 में काम छोड़ा तोकुछ समय बाद उसकी सभी बेटियों को स्कूल छोड़ना पड़ा क्योंकिस्कूल से मिलने वाली आर्थिक सहायता यानी कि छात्रवृत्ति बंद होगई और शोभा के लिए बिना सहायता के उन्हें पढ़ाना संभव नहींथा।किरन, शोभा, संतोष जैसी बाल्मीकी बस्ती की अधिकतरमहिलाओं को यह काम छोड़े पांच वर्ष हो चुके हैं, लेकिन आज भीवे कभी खेतों में दाने तो कभी अनाज की फसल आने का इंतजारकरती हैं तो कभी नगर पंचायत से नाली या गटर साफ करने कीपर्ची कटने का इंतजार। यह काम केवल 15 दिनों के लिएबारी-बारी से हर परिवार को दिया जाता है।सरकार नौ प्रतिशत आर्थिक वृद्धि का भले ही जश्न मनाती रहेलेकिन हकीकत तो यह है कि आज भी छह लाख के करीब लोगइस अमानवीय काम को करने का खामियाजा भुगत रहे हैं। अबदेखना यह है कि सरकार दिसंबर 2007 तक इन लोगों को इसप्रथा से निजात दिलाने के साथ ही उनके स्कूलों मे पढ़ने वालेबच्चों के साथ भी न्याय कर पाती है या फिर कोई नई तारीख,नया साल इनकी उम्मीद की परीक्षा लेगा।