Saturday, 30 August 2008

मैला ढोने को मजबूर


अन्नू आनंद

(देवास, मध्य प्रदेश)

मध्य प्रदेश में मैला ढोने वालों के पुनर्वास को लेकर कई प्रकारकी अनियमितताएं देखने को मिल रही हैं। सरकार की पुनर्वासनीति में इतने सुराख हैं कि यहां पर कई जिलों में इस काम को छोड़ने वाले कई लोग फिर से इस काम को अपनाने लगे हंै।फरवरी 2002 में देवास जिले में चलने वाले ‘गरिमा अभियान’ केतहत किरन सहित बस्ती की 26 महिलाओं ने यह काम करनाछोड़ दिया। मध्य प्रदेश में इस अभियान के तहत मैला ढोने वालोंको अपनी मान मर्यादा और सम्मान की खातिर इस काम कोछोड़ने के लिए तैयार किया जा रहा है। किरन बताती है कि यहकाम छोड़ने के बाद उन सभी महिलाओं के पास बच्चों का पेटपालने के लिए कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने खेतों में मजदूरीकरना शुरू किया लेकिन यह मजदूरी का काम भी कभी-कभारमिलता। मजदूरी के काम से अनजान किरन अक्सर नौ बीघासोयाबीन काटती जबकि उसे मजदूरी केवल सात बीघा की हीमिलती। किरन सहित काम छोड़ने वाली बस्ती की अन्य महिलाओंके बच्चों को स्कूल में मिलने वाली छात्रवृत्ति भी बंद कर दी गई।अब बस्ती के अधिकतर बच्चे स्कूल से बाहर हंै।केंद्र सरकार ने जब वर्ष 1993 में मैला ढोने के अमानवीय कार्यको बंद करने का सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालयसन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम 1993 लागू किया था तो साथ मेंकाम छोड़ने वाले लोगों के लिए पुनर्वास की राष्ट्रीय योजना भीलागू की थीं। इनमें से एक योजना अस्वच्छ धंधों में लगे लोगों केबच्चों को शिक्षित बनाने के संबंध में थी। अप्रैल 1993 से लागू इसयोजना के तहत अस्वच्छ धंधों में लगे लोगों के दो बच्चों को दसमाह तक पहली से दसवीं कक्षा तक छात्रवृत्ति प्रदान करने काप्रावधान है। योजना के मुताबिक एक से पांचवीं तक 40 रुपए प्रतिमाह और छठी से आठवीं तक 60 रुपए प्रति माह तक कीछात्रवृत्ति निर्धारित की गई थी। इस आर्थिक प्रोत्साहन ने देश भरमें मैला ढोने के काम में लगे बहुत से परिवारों के बच्चों को स्कूलोंमें पहुंचाने का काम किया।लेकिन जब वर्ष 2000 से कानून के तहत सरकारी औरगैरसरकारी प्रयासों के चलते मैला ढोने वाले लोगों द्वारा काम कोत्यागने की प्रवृति ने जोर पकड़ा तो इसका सबसे बुरा प्रभाव स्कूलों के बच्चों पर पड़ा। स्कूलों में उनको मिलने वाली छात्रवृत्ति बंदहोने लगी। इसकी मुख्य वजह यह है कि बच्चों को छात्रवृत्ति कीइस कल्याणकारी योजना और कानून में ही विरोधाभास है। कानूनअस्वच्छ धंधे पर रोक लगाता है जबकि योजना अस्वच्छ धंधे मेंलगे बच्चों को ही स्कूली शिक्षा के लिए सहायता देती है।मैला ढोने का काम बंद करने वाली बस्ती की शोभा ने अपनीदो लड़कियों का स्कूल छुड़वा दिया। वह बताती है कि एक तोकाम नहीं ऊपर से बच्चों की फीस, वर्दी और दूसरे खर्चे हम कहांसे लाएं। किरन ने बताया कि जब स्थानीय सरकारी अधिकारियोंसे पूछा तो उन्होंने बताया कि छात्रवृत्ति तो अस्वच्छ धंधों में लगेलोगों के बच्चों के लिए है जब काम छोड़ दिया तो छात्रवृत्ति क्योंमिलेगी। किरन तर्क देती है कि एक तरफ तो सरकार यह प्रथाबंद करना चाहती है और इसके लिए कानून भी बनाया है दूसरीओर उसी कानून का सहारा लेकर हमारे बच्चों के पढ़ने के रास्तेबंद किए जा रहे हैं हम बच्चों की जरूरतें कैसे पूरी करें। ऐसे मेंहमारे पास बच्चों को स्कूल से हटाने के अलावा क्या विकल्प है।पिछले वर्ष किरन ने गरिमा अभियान के तहत आयोजित जनसुनवाईमें भी सरकार से ऐसे धंधों को छोड़ने वालों के बच्चों को दोगुनीछात्रवृत्ति देने की मांग की थी।किरन की बातों में दम है लेकिन स्थानीय सरकारी अधिकारीसिर्फ कागजों की भाषा समझते हंै। इस छात्रवृत्ति को पाने के लिएसाल में 100 दिन काम करने का हलफनामा देना पड़ता है। जिसपर सरकारी अधिकारी को हस्ताक्षर करने होते हैं। कोई भीसरकारी अधिकारी यह मानना नहीं चाहता कि उनके जिले में मैलाढोने का काम चल रहा है। इसलिए बच्चों को छात्रवृत्ति नहीं मिलपाती।2500 की आबादी वाले सिआ गांव में वर्षों से मैला ढोने केकाम को त्यागने वाली 54 वर्षीया मन्नू बाई कहती है, ‘‘जब मैं औरमेरी बहुएं यह काम करते थे तो मेरे पोते-पोतियों के साथ स्कूलमें भेदभाव होता था। अब काम छोड़ दिया तो हम बच्चों को स्कूलभेजने के काबिल ही नहीं रहे। सरकारी सहायता भी तो बंद करदी गई।’’ संतोष बताती है कि पहले मैं मैला सिर पर ढोकर लेजाती थी बदले में मुझे बासी रोटी फेंक कर दी जाती थी। बच्चेस्कूल जाते तो उन्हें नल से पानी नहीं पीने दिया जाता। उनकोटाटपल्ली पर बैठने भी नहीं देते थे। बच्चे घर आकर शिकायतकरते। दोपहर के भोजन में भी उन्हें अलग बिठाकर भोजन खानेको मिलता। लेकिन बाद में जब गांव में इस काम को छोड़ने काअभियान शुरू हुआ और कानून के बारे में जानकारी दी गई तोहमने काम छोड़ दिया, लेकिन हमें काम छोड़कर क्या मिला। आजन हमारे पास काम है उस पर बच्चों को शिक्षा में मिलने वालीमदद भी बंद हो गई। आज जब हमारे काम की वजह से स्कूल मेंउन्हें शर्मसार नहीं होना पड़ता और वे सभी बच्चों के समानव्यावहार पाने के काबिल हुए हैं तो प्रशासन ने बच्चों को मिलनेवाली राशि बंद कर दी। यह कहां का न्याय है।’’वास्तव में मैला ढोने जैसे श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए चालूकी गई सरकारी पुनर्वास योजनाओं मंे इतनी कमियां हैं कि निध्र्ाारित समय सीमा तक इस काम को बंद करने का लक्ष्य अभी बेहददूर जान पड़ता है। केंद्र की यूपीए सरकार ने सामाजिक न्यायमंत्रालय को यह आदेश दिया है कि दिसंबर 2007 तक सभी राज्योंमें यह काम पूरी तरह बंद हो जाना चाहिए। इस लक्ष्य को हासिलकरने के लिए योजना आयोग ने ‘मैला ढोने से मुक्ति राष्ट्रीयकार्ययोजना 2007’ भी बनाई है। जिस का मकसद 2007 के अंततक इस काम को पूरी तरह बंद किया जाना है। लेकिन जमीनीहकीकत अलग ही कहानी बयां करती है।

मध्य प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट में हलफनामा दिया है कि मध्य प्रदेश में अब कोई भी मैला ढोने का काम नहीं कर रहा।जबकि यहां के नौ जिलों में पिछले वर्ष गरिमा अभियान द्वाराकराई गई सर्वे से पता चलता है कि अभी भी यहां 618 लोग इसकाम में लगे हैं। इस के अलावा 52 ऐसे लोगों का भी पता चलाजिन्होंने काम छोड़ने के बाद उचित पुनर्वास के अभाव में फिर सेइस काम को अपना लिया है। जो लोग ये काम छोड़ चुके हैं उनसे आज भी अन्य हीन काम जैसे गांव में मरे पशुओं को फेंकना,श्मशान से मृतक के कपड़े लेना, लावारिस लाशों का अंतिमसंस्कार करना, जजमानी करना और किसी की मृत्यु होने पर ढोलबजाना इत्यादि कामों को कर रहें हैं और इन जातिगत कामों केबंटवारे को रोकने के लिए सरकार के पास कोई ठोस नीति नहींहै। सरकार का पूरा जोर आर्थिक पुनर्वास पर है। अधिकतरयोजनाएं भी पुरुषों को ध्यान मंे रखकर बनाई जा रही हैं। जबकिइस धंधे में 93 प्रतिशत महिलाएं लगी हुई हैं। जिन रोजगारों केलिए कर्जा दिए जाने की व्यवस्था है वे अधिकतर पुरुषों द्वारा किएजाते हैं। देवास जिला में इस मुद्दे पर काम करने वाली संस्था‘जनसाहस’ के प्रमुख आसिफ के मुताबिक अधिकतर ऐसे कामों केलिए कर्जा दिया जा रहा है जो पुरुष करते हैं। जैसे आॅटो,दुकानदारी आदि। ऐसा नहीं है कि ये काम महिलाएं नहीं करसकतीं लेकिन उन्हें प्रशिक्षण के माध्यम से सशक्त बनाने कीजरूरत है और ये लंबी प्रक्रिया है। आसिफ के मुताबिक स्कूलों सेमिलने वाली आथर््िाक मदद के बंद होने की नीति इन लोगों को यहकाम न छोड़ने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। उन्होंने बताया किभावरासागर में मैला ढोने के काम मे लगी शोभा की छह लड़कियांस्कूल जाती थीं, लेकिन जब उसने वर्ष 2003 में काम छोड़ा तोकुछ समय बाद उसकी सभी बेटियों को स्कूल छोड़ना पड़ा क्योंकिस्कूल से मिलने वाली आर्थिक सहायता यानी कि छात्रवृत्ति बंद होगई और शोभा के लिए बिना सहायता के उन्हें पढ़ाना संभव नहींथा।किरन, शोभा, संतोष जैसी बाल्मीकी बस्ती की अधिकतरमहिलाओं को यह काम छोड़े पांच वर्ष हो चुके हैं, लेकिन आज भीवे कभी खेतों में दाने तो कभी अनाज की फसल आने का इंतजारकरती हैं तो कभी नगर पंचायत से नाली या गटर साफ करने कीपर्ची कटने का इंतजार। यह काम केवल 15 दिनों के लिएबारी-बारी से हर परिवार को दिया जाता है।सरकार नौ प्रतिशत आर्थिक वृद्धि का भले ही जश्न मनाती रहेलेकिन हकीकत तो यह है कि आज भी छह लाख के करीब लोगइस अमानवीय काम को करने का खामियाजा भुगत रहे हैं। अबदेखना यह है कि सरकार दिसंबर 2007 तक इन लोगों को इसप्रथा से निजात दिलाने के साथ ही उनके स्कूलों मे पढ़ने वालेबच्चों के साथ भी न्याय कर पाती है या फिर कोई नई तारीख,नया साल इनकी उम्मीद की परीक्षा लेगा।

Friday, 29 August 2008

शोचालयों की क्रांति में महिला सरपंच




अन्नू आनंद

(राजनांदगांव, छत्तीसगढ़)



राजनांदगांव जिले के छोटे से आदिवासी गांव गुण्डरदेही मेंसरपंच निर्मला बाई कंवर के घर के बाहर बच्चे जोर जोर से ढोलबजा रहे हैं। उनके ढोल की आवाज पूरे गांव में खुशी के माहौलको तरंगित कर रही है। समूचे गांव में जश्न का माहौल है। गांवमें प्रवेश करते ही बने पंचायत कार्यालय के बाहर खड़ी जीप केआसपास लोगों की भीड़ जुटी है। इंतजार है सरपंच का जो इसजीप में बैठकर रायपुर के लिए रवाना होंगी। रायपुर से वह दिल्लीजाएंगी। दिल्ली में उन्हें राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से दो लाख रूपएका पुरस्कार और प्रशस्ति पत्र मिलेगा। यह पुरस्कार उन्हें सर्वस्वच्छता अभियान के तहत गांव के हर घर में शौचालय का निर्माणकराने के कारण दिया जा रहा है।दो साल पहले जिले के अधिकतर गांवों के लोग खुले में शौचके लिए जाते थे, क्योंकि घरों में कहीं भी शौचालय की व्यवस्थानहीं थी। स्कूल या आंगनवाड़ी में भी शौचालय की कोई नहीं था।इस कारण महिलाओं को विशेष दिक्कत का समना करना पड़ताथा क्योंकि वे केवल रात में या बेहद तड़के ही बाहर जा पाती थीं।इसके अलावा उन्हें छेड़खानी का डर भी सताता था। गांव कीयुवा लड़कियों के लिए शौच के लिए उचित समय और स्थानढूंढना एक सबसे बड़ी परेशानी थी। इसके अलावा साफ-सफाईके अभाव में बच्चों में कुपोषण के मामले भी बहुत अधिक पाए जातेथे। लेकिन आज हर घर में शौचालय की व्यवस्था हो जाने केकारण यहां के सामाजिक जीवन में काफी बदलाव आ गया है।कच्चे घरों से अटे पड़े इस गांव को देखकर लगता नहीं है कियहां किसी भी घर में शौचालय की व्यवस्था है। यहां 90 प्रतिशतआदिवासी परिवार रहते हैं, जो छोटी-मोटी खेती कर या खेतों मेंमजदूरी से अपना घर चलाते हैं। लेकिन 146 बीपीएल परिवारोंसहित गांव के सभी 306 घरों में स्वच्छ शौचालयों का निर्माण होचुका है। गांव के आंगनवाड़ी और प्राथमिक पाठशाला में भीशौचालय बनाए गए हैं। स्वच्छता बनाए रखने के लिए पूरे गांव में20 कूड़ेदानों और 11 टंकियों का निर्माण किया गया है। गांव केबीचो बीच पीने के पानी का हैंडपंप लगा है। गांव के अधिकतरबच्चे स्कूल में देखे जा सकते हैं।पिछले वर्ष आरक्षित सीट से चुनाव जीती दसवीं पास निर्मलाबाई के लिए भी यह एक चुनौती का काम था। वह बताती है,‘‘सबसे कठिन काम गांव के सभी परिवारों को तैयार करना थाक्योंकि व्यवहार में बदलाव लाना आसान कार्य नहीं है। हमने इसेमहिलाओं की अस्मिता और सम्मान का नारा देकर लोगों कोमनाने का काम किया। आबादी से दूर एकांत में शौच जाने वालीमहिलाओं की राशि प्रशासन ने प्रदान की। कुछ परिवारों नेश्रमदान भी दिया।’’ गुण्डरदेही पंचायत में किलारगोंदी गांव भीशामिल है। श्री कौशिक के मुताबिक इस तरह इस योजना से इनदोनों गांवों के कुल 1833 परिवारों को लाभ पहुंचा है।संपूर्ण स्वच्छता अभियान का यह कार्यक्रम वर्ष 2003 में समूचेछत्तीसगढ़ में शुरू हुआ। लेकिन राजनांदगांव जिले में इस कार्यक्रमपर सबसे अधिक तेजी से काम हुआ। यही कारण है कि गुण्डरदेहीपंचायत के साथ इस जिले की 12 पंचायतों यानी 21 गांवों को‘निर्मल ग्राम’ के दो लाख रुपए पुरस्कार के लिए चयनित कियागया। यह संख्या राज्य के सभी जिलों से अधिक है। अधिकतरग्रामीण इस उपलब्धि का श्रेय जिले के कलेक्टर गणेश शंकरमिश्रा को देते है।श्री मिश्रा का मानना है कि ग्रामीणों, प्रशासनिक तंत्र औरजनप्रतिनिधियों की टीमवर्क का परिणाम है। शौचालयों के निर्माणके साथ ही उनके इस्तेमाल के लिए प्रेरित करना वास्तविक चुनौतीथी।योजना की शुरूआत से पहले जिला प्रशासन ने हर विभाग केएक सदस्य को लेकर कोर ग्रुप का गठन किया। कोर ग्रुप के माध्यम से ग्रामीण स्तर तक अभियान का प्रचार किया गया। जिले मेंसात रूरल सेनेटरी मार्ट खोले गए। इस रूरल मार्ट का संचालनमहिला समूह एवं स्वयंसेवी संस्थाओं को सौंपा गया। गांव के राजमिस्त्रियों को इन विशेष डिजाइन के और कम पानी के इस्तेमालवाले शौचालय बनाने के लिए प्रशिक्षण दिया गया। पंचायतप्रतिनिधियों को अभियान से जोड़ा गया।गांव की महिलाओं और पुरुषांे के साथ दस बैठकें की गईजिनमें उन्हें हाथ धोने और सामान्य साफ-सफाई का महत्वबताया गया। फिर इनमें से कुछ चयनित महिला-पुरुषों के समूहबनाए गए जो कि गांव की सफाई पर विशेष ध्यान दें।महिला बाल विकास विभाग की सुपरवाइज़र किरन श्रीवास्तवके मुताबिक सभी घरों में शौचालय बन जाने के बाद सभीगांववालों ने मिलकर बैठक में तय किया कि जो भी खुले में के लिए जाएगा उससे 51 रुपए का जुर्माना लिया जाएगा।शुरूआती दिनों में हमने जुर्माने के तौर पर कुछ पैसे भी इकट्ठेकिए। श्री किरन के मुताबिक, ‘‘लेकिन अब सभी गांववालों नेशौचालय का इस्तेमाल करना सीख लिया है।’’लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग (पीएचईडी) के कार्यकारीइंजीनियर और इस अभियान में विशेष रुप से जुड़े एचएस ढींगराने बताया, ‘‘शुरू में लोगों को इसके लिए तैयार करना कठिन कामथा। लोगों के व्यवहार को बदलने में कई दिक्कतें आईं क्योंकि इनआदिवासी क्षेत्रों के कई गांवों में अभी भी शौच के बाद पत्ते काइस्तेमाल किया जाता था। इसलिए इस अभियान को सफल बनानेके लिए जिले के सात हजार के करीब स्वयं सहायता महिलासमूहों की शक्ति का भरपूर इस्तेमाल किया गया। महिलाओं कोइस अभियान का हिस्सा बनाने के लिए हर ब्लाॅक में शौचालय केनिर्माण और उसको समझने और परखने के लिए महिलाओं केलिए विशेष कार्यशालाओं का आयोजन किया गया।उन्हें घर में शौचालय की सुविधा होने और स्वच्छता बनाएरखने जैसी बातों को नुक्कड़ नाटक के जरिए समझाया गया।गांवों में पानी की कमी को देखते हुए श्री ढींगरा ने स्पष्ट कियाकि इन शौचालयों की बनावट ऐसी रखी गई है जिसमें अधिकपानी का इस्तेमाल न हो। इसके लिए ढलान 40 डिग्री पर बनाईहै ताकि पानी की कम जरूरत पड़े और गहराई तीन फुट की है।उन्होंने बताया कि यह डिजाइन यूएनडीपी से सवीकृत है।शौचालयों की व्यवस्था के बाद गांववालों में इसके इस्तेमालकी आदत बनाने के लिए जिला कलेक्टर ने हर ब्लाॅक मेंमहिला-पुरुषों को मां बम्लेश्वरी के नाम पर स्वच्छता कायम रखनेकी शपथ दिलाई। श्री ढींगरा का मानना है कि इससे शौचालयोंके इस्तेमाल की प्रवृत्ति बढ़ी है।अभी तक स्वयं सहायता समूहों की सफलता के लिए मशहूरइस जिले में अब स्वच्छता की क्रांति की शुरूआत हो चुकी है। श्रीमिश्रा को उम्मीद ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि आने वाले एकदो वर्षों में जिले के केवल 21 गांव ही नहीं बल्कि हर गांव मेंस्वच्छता की बयार बहेगी।

Thursday, 28 August 2008

झारखंड में स्कूलों से दूर आदिवासी लड़कियां




अन्नू आनंद
जामतारा,झारखंड
सर्व शिक्षा अभियान का एक प्रमुख मकसद लड़कियों, खासकर दलित और आदिवासी समुदाय की लड़कियों को शिक्षित करना है। लेकिन झारखंड के आदिवासी इलाकों में यह मकसद पूरा होता नजर नहीं आता।
यहां के आदिवासी बहुल जिले जामतारा के ग्रामीण इलाकों में सर्व शिक्षा अभियान के तहत खुले अधिकतर स्कूलों में महिला षिक्षकों की कम नियुक्ति और नियुक्त क्षकों के स्कूलों में अनुपस्थित रहने के कारण बहुत सी लड़कियां स्कूलों से बाहर है। इसके अलावा अधिकतर स्कूलों में शौचालयों का न होना इन लड़कियों को स्कूलों से दूर रखे हैं। यहां की करीब 32 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासी है। जिनकी महिला साक्षरता दर 27 प्रतिषत है। स्कूल में लड़कियों को अनुकूल वातावरण न मिलने के कारण स्कूल रिकार्ड में दर्ज लड़किया भी स्कूलों में नियमित रूप से उपस्थित नहीं रहतीं। जामतारा से छह किलोमीटर दूर आदिवासी गांव है रूपायडीह। गांव के छोर पर एकमात्र प्राइमरी स्कूल है। गांव के 45 घरों में बच्चों की संख्या 145 के करीब है। आसपास के क्षेत्र के कुछ गावों के लिए भी यही स्कूल नजदीक पड़ता है। इस स्कूल में 2 महिला और एक पुरूश शिक्षक है। स्कूल में बच्चों की भर्ती 65 के करीब है लेकिन जिस दिन इस लेखक ने स्कूल का दौरा किया वहां केवल दस बच्चे ही उपस्थित थे। इन बच्चों को एक ही कमरे में बिठाकर ग्राम शिक्षा समिति के एक सदस्य नारायण हसदा बच्चों को अ, आ, और ए बी सी लिखाने की कोशिश कर रहा था। तीनों शिक्षक स्कूल में मौजूद नहीं थे। पूछने पर पता चला कि स्कूल की मुख्य शिक्षिका प्रातिमा घोष माह में केवल दो दिन के लिए ही स्कूल आती हैं। पैरा महिला शिक्षिका अपने विवाह के कारण कुछ दिनों की छुटटी पर थी। पुरूश शिक्षक शंकर्षण झा परीक्षा की डयूटी पर था।
गांव वालों के मुताबिक स्कूल की सब से बड़ी समस्या स्कूल की मुख्य शिक्षिका का स्कूल में न आना है। दो साल पहले तक यहां केवल वही महिला शिक्षका थी। उसके स्कूल में कभी कभार आने की वजह स्कूल में बच्चों की सख्यां भी 22 से 25 के करीब थी और ये बच्चे भी नियमित स्कूल नहीं आते थे। गांव की विमोली सोरेन बताती है कि बच्चों को मिड डे मील के चावल लेने वह पिं्रसीपल के घर जाती है। स्कूल के रजिस्टर्ड भी दीदी मुनि(मुख्य शिक्षिका) के घर पर रखे हैं और बाकी दो टीचर भी अपनी हाजरी लगाने उन के घर जाते हैं। विमोली के मुताबिक क्योंकि दीदी जामतारा मे रहती है इसलिए कई बार उन के घर से समय पर अनाज न ला पाने के कारण स्कूल में खिचड़ी भी नहीं बन पाती। वास्तव में मुख्य शिक्षिका मिड-डे मील समिति की सचिव होती है और बच्चों को दिए जाने वाले भोजन की सामग्री देने की जिम्मेदारी उस की होती है।
तीन साल पहले वर्श 2005 में स्कूल में बच्चों की कम हाजिरी के कारण गांव वालों ने इस संबंध में जामतारा के जिला अधीक्षक को एक लिखित षिकायत भी दर्ज की थी। गांव वालों ने बताया कि लेकिन इसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। उसके बाद वर्श 2006 में ग्रामसभा की एक बैठक में यह फैसला लिया गया कि स्कूल को उचित तरह से चलाने के लिए मुख्य षिक्षिका पर स्कूल में रोजाना और पूरा समय आने के लिए दबाव डाला जाए।
गांव वालों और इन गांवों में षिक्षा के मुद्वे पर काम करने वाने कार्यकर्ता इकबाल आसिफ और एलबीन मोनिका के समझाने पर इसी स्कूल के शिक्षक शंकर्षण ने तो स्कूल के समय टयूशन पढ़ाने का काम बंद कर दिया लेकिन मुख्य शिक्षिका प्रातिमा का अभी भी घर से स्कूल चलाने का सिलसिला जारी है।
जामतारा जिला के शिक्षा अधीक्षक बी एन राम इससे अनजान है। श्री राम के मुताबिक, ‘‘रूपायडीह के स्कूल में अब दो महिला शिक्षिका हैं लेकिन मुझे इस बात की जानकारी नहीं है कि मुख्य शिक्षिका स्कूल नहीं आती।’’ लेकिन ग्रामीणों में कन्या शिक्षा पर काम करने वाली रूंटी छंदा का कहना था इस बात की डीएसई से पहले भी शिकायत की गई थी लेकिन उन्होंने जांच के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं की।
इसी प्रकार जामतारा से 10 किलोमीटर दूर गुडडीपाढ़ा गांव में सर्व शिक्षा अभियान के प्राइमरी स्कूल में पांचवी तक की कक्षाओं के बच्चे दो कमरों में बांट कर बिठाए गए थे। एक से चैथी कक्षा के 22 बच्चे एक कमरे में और पांचवीं कक्षा के 12 बच्चे एक कमरे मेेे बैठे थे। स्कूल में एक भी शौचालय नहीं। सभी बच्चे घर भोजन के लिए जा रहे थे क्योंकि आज स्कूल मंे भोजन नहीं बन रहा था
स्कूल के प्रिंसीपल जवाहर प्रसाद सिंह ने बताया कि इस अप्रैल से स्कूल मिडिल स्कूल तक हो जाएगा और तब तक स्कूल में शौचालय की व्यवस्था भी हो जाएगी। भोजन न बनने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि भोजन बनाने वाले सदस्यों के न आने की वजह से आज भोजन नहीं बन रहा। यहां पढ़ने वाले आषीश कुमार मुर्मु की मां रश्मि मुर्मु ने बताया कि कुछ समय पहले तक स्कूल अधिकतर समय तक बंद रहता था लेकिन हाल ही में तीन पैरा टीचरों के आने से स्कूल में बच्चों ने जाना शुरू किया है।
श्री सिंह का मानना था कि स्कूल में भोजन मिलने से बच्चांे की उपस्थिति बढ़ जाती है क्योंकि एक तो उन्हें घर नहीं जाना पड़ता दूसरा उन्हें खेलने का अवकाश मिल जाता है। उनका कहना था कि शौचालय और महिला टीचरों के कारण लड़कियों की उपस्थिति भी बढ़ जाती है।
लेकिन इसके बावजूद इस साल के जनवरी माह से स्कूल में पहली महिला पैरा टीचर की नियुक्ति की गई है। इस नवनियुक्त महिला टीचर बिंदावासनी सोरेन के मुताबिक पिछले तीन माह से स्कूल में बच्चों की संख्या बढ़ गई है। अब मां बाप भी लड़कियों को स्कूल भेजने से हिचकिचाते नहीं।
गांव की अन्य महिला मालती मेदा का कहना था कि जब से महिला टीचर आई है हमने अपने बच्चों खासकर लड़कियों को स्कूल भेज रहे हैं।
सर्व शिक्षा के तहत चलने वाले अधिकतर स्कूलों में नियुक्त सरकारी शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा दूसरे कई सरकारी काम करने पड़ते हैं। इसलिए वे अधिकतर समय स्कूल से बाहर की डयूटी पर रहते हैं। ऐसे में स्कूल में टीचरों की कमी होना स्वाभाविक है। बहुत से सरकारी टीचरों के पद भी खाली भी पड़े हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए ही करीब तीन साल पहले पैरा टीचरों की नियुक्ति की योजना शुरू की गई है। पैरा टीचर यानी गांव का ही कोई व्यक्ति जो अधिक शिक्षित हो। इसमें महिला को प्राथमिकता देने का प्रावधान है। लेकिन ये योजना भी विवादों और भ्रष्टाचार का शिकार हो रही है। जैसा कि जनहित विकास संस्था के महफूज कहते हैं कि इसमें अक्सर महिला और अधिक शिक्षित व्यक्ति की बजाय पुरूष और कम पढ़े लिखे व्यक्ति को चुन लिया जाता है। क्यों कि पैरा टीचर को अधिक दहेज मिलता है इसलिए इस पद को पाने लिए हर तरह की जोड़ तोड़ की जाती है। इस कारण अक्सर महिला टीचर को प्राथमिकता नहीं मिल पाती।
देष भर में शिक्षा और पंचायती राज पर काम करने वाली संस्था प्रिया की जामतारा शाखा ने वर्ष 2006 में जामतारा और नारायणपुर ब्लाक में लड़कियों की शिक्षा के स्तर पर 41 स्कूलों में एक सर्वे कराई थी। सर्वे के परिणामों के मुताबिक प्राइमरी स्कूलों में महिला टीचर का होना लड़कियों की उपस्थिति पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। लेकिन यहां के अधिकतर स्कूलों में महिला टीचरों की पुरूषों की अपेक्षा संख्या कम है। इसी कारण शहरी क्षेत्रों के नजदीक खुले स्कूलों की अपेक्षा ग्रामीण स्कूलों मे लड़कियों का अनुपात लड़कों की अपेक्षा कम पाया गया।
सर्वे के परिणामों के मुताबिक हर दस पुरूष टीचरों पर चार महिला टीचर पाए गए लेकिन दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात और भी कम है। जिसकी वजह से लड़कियों की उपस्थिति कम रहती है। भले ही भर्ती अभियानों के दौरान लड़के और लड़की को आकड़ांे में दर्ज किया जाता है। रूण्टी के मुताबिक एक बार जब भर्ती अभियान खत्म हो जाता है न तो शिक्षक और न ही अधिकारी यह जानने का प्रयास करते हैं कि नया भर्ती हुआ छात्र नियमित रूप से स्कूल आ रहा है या नहीं। सर्वे किए गए सभी 41 स्कूलों मे से केवल दो स्कूलों में ही छात्रों को शौचालय इस्तेमाल करने की इजाजत थीं बाकी सभी स्कूलों में या तो शौचालय ही नहीं थे या फिर वे इस्तेमाल किए जाने की स्थिति में नहीं थे। कुछ स्कूलों में केवल शिक्षकों को ही इसके इस्तेमाल की इजाजत थी।
प्रिया संस्था के इकबाल आसिफ के मुताबिक हमने सर्वे के दौरान पाया कि जिन स्कूलों में महिला टीचरों की नियुक्ति हुई वहां लड़कियों की संख्या बढ़ गई। इसके अलावा स्कूली टीचरों से चुनावी सूची को अपडेट कराना, जनगणना तथा बीपीएल की सूची भरना जैसे कई कराए जाते हैं।
इकबाल के मुताबिक हाल ही में राजस्व गावों में प्रधान के चुनावों के लिए ग्रामसभाओं के आयोजन का काम भी इन टीचरों से कराया गया। उनके मुताबिक शिक्षकों का मानना है कि वे औसत साल मे एक माह ऐसे कामों में व्यस्त रहते हैं।
सर्व शिक्षा का मकसद केवल सभी बच्चों को स्कूलों तक पहुंचाना नहीं बल्कि उन्हें स्तरीय शिक्षा प्रदान करना भी है और यह तभी संभव है जब स्कूलों का वातावरण लड़के और लड़कियों को स्कूल आने के लिए प्रोत्साहित करे।

Wednesday, 20 August 2008

Silent crusaders for water harvesting

Annu Anand
DROUGHT in some parts of the country, notably Rajasthan and Gujarat, made big news in the months preceding the monsoon. The media was busy in reporting the gruesome picture of the first drought of the new century. Some even dubbed it the worst-ever in the past hundred years. The print and visual media were competing with each others in bringing pictures and stories of this drought. But grassroot and community-level efforts, which were made to fight the drought without any government help, were not highlighted in their proper perspective.
A story bigger than the drought itself was efforts made by communities and individuals to meet the challenge posed by the drought. Several innovative, traditional methods of water harvesting saved the day for a number of villages in the two worst-affected states. Deepening village ponds, recharging dried wells and construction of simple watershed successfully, enabled villagers to face the acute water shortage. Unfortunately, the media largely ignored these efforts in its eagerness to project the horrors of the “worst-ever drought”. An attempt has been made to record such success stories in a study commissioned by Charkha and the National Foundation for India. The study called “paani ghano amol” (water is too priceless) is a compilation of some of the extraordinary stories of rural communities devising their own ways and methods of conserving water in villages of Rajasthan and Gujarat.
Villagers are adopting different methods for water harvesting and conservation. They have demonstrated that rainwater can be collected in dried-up ponds, old village wells can be recharged and ponds with plastic lining can effectively hold water. The lining also helps water from becoming saline. In some villages it was found that there was no water scarcity at all, when other villages in the same area were passing through a crisis. “This is the last year when we are using drinking water from government tanks. From next year we will not need this help at all”, says Jaidev, a proud and confident deputy sarpanch of Adloi village in Bhavnagar district of Gujarat. The reason for his confidence is a tank that villagers are constructing near the village — it will have the capacity to hold 8,000 cubic metres of water.
Kharkali village of Kochar Ki Daang in Sawai Madhopur district of Rajasthan has a similar story to tell. Houses in this as well as several other drought-prone villages used to be found locked during the summer season. People from these villages waned migrate to other villages from March to June every year, since they had no water to drink during these months. These villages are located in a hilly terrain. But there is no more migration now. With the help of the active NGO, Tarun Bharat Sangh, villages from this area have learnt to store water by constructing small tanks around their dwellings and fields. Stored water in these tanks is now sufficient for villagers as well as their animals in the summer months, in some cases up to June.
The worst-hit Saurashtra region of Gujarat too has its share of success stories. There are crusaders like Premji Bhappa who are spreading the message of “plant a tree and get rain”. Bhappa is also engaged in making people of the region realise the importance of preserving groundwater. “I realised this four decades back. I have been telling people that at the speed at which the water levels are falling, there will be no groundwater left very soon. We can stop this depletion only when we put back into the ground the quantity of water which we draw from it”, says Bhappa. He has been educating villagers how to recharge open wells. The first time he recharged a well was 31 years ago. In 1992, when there was a severe drought, people took to the idea of recharging wells. Since then the message has spread far and wide in the region.
In Bhenkra village of Sabarkundala taluk of Amreli district, local resident Chaganbhai has an interesting tale to narrate. He says his father, Bhagwanabhai, was the first in the village to try out watershed development in his own novel way. He had blocked the village water drain by putting mud and stones to prevent water from flowing out to open areas. Using this experience of conserving water, villagers have benefited through the years. Now, with the help of local NGOs a proper watershed development programme has been started in the village. The watershed is being used to collect rainwater effectively. Chaganbhai is also engaged in teaching various water conservation techniques. Villagers recall that thanks to him, six-seven wells in the village were flowing with water even at the peak of summer this year.
Asakro village in Dhundka taluka has a population of about 2,500 people. But it has never faced water scarcity even during the worst drought years. Village elder Mistry Shyamjibhai recalls that for the past 40 years he has not seen the bottom of the village pond. Thanks to water conservation and constant recharging, even in the month of June the pond has sufficient water for the entire village. Due to groundwater recharging, wells in the village also don’t get dried — some of them have water levels up to 30 feet in summer. In Tatu village in Gadra taluka of Bhavnagar district, villagers have constructed three check dams to hold rainwater.
In Saurashtra, yet another silent crusader is Shyamjibhai Antala who has taken upon himself the task of reviving dried wells in all the drought-prone villages. Through the Saurashtra Lok Manch, Shyamji has taught the technique of recharging wells to some 1200 villages. He has held gram sabhas to train villagers in this technique. Even the Madhya Pradesh Chief Minister has sought his expertise in bringing about awareness in his own state. Now the Rajasthan Government is also keen to utilise the services of Shyamji.

Tuesday, 19 August 2008

आदिवासियों का एटीएम


अन्नू आनंद
आदिवासी विधवा पानबाई पत्तल बेचने का काम करती है। उसके सारे पत्तल खत्म हो चुके हंै। उसके पास और पत्तल खरीदने के लिए पैसे नहीं। उसे अगले दिन के धंधे के लिए 300 रूपए की जरूरत है। दिन खत्म होने को है। लेकिन पानबाई को चिंता नहीं वह अपने सभी पत्तलों को बेचने के बाद शाम पांच बजे के करीब बैंक जाएगी और वहां से अपने खात्ते से 300 रूपए निकाल लेगी। पानबाई के मुताबिक, ‘‘जब उस के पास समय ‘सुविधाजनक’ बैंक है तो फिर क्या। वह तो 24 घंटे खुला रहता है।’’
तिलोना गांव की धोबन सोबती के बच्चा होने वाला था। आखिर समय में उसकी तबीयत अधिक खराब हो गई। उसे आपरेशन के लिए अगली सुबह अस्पताल में भर्ती कराने को कहा गया। डिलीवरी के लिए घर में पैसे रहीं थे। गांव में किसी से भी आपरेशन के लिए पैसे मिलना संभव नहीं था। तब गांव के किसी व्यक्ति के कहने पर उसके पति ने बैंक से संपर्क किया। महज दो घटों के भीतर उसे सुबह के चार बजे 2000 रूपए का लोन मिल गया। बैंक की इस तत्काल सहायता के कारण वह समय पर अस्पताल पहुंच गई और बच्चे को जन्म दे सकी।
पानबाई और सोबती जैसी कई महिलाओं के लिए ‘सुविधाजनक’ कहलाने वाला यह बैंक गांव वालों के लिए 24 घंटे के एटीएम से भी अधिक महत्वपूर्ण है क्यों कि यह 24 घंटे लोन देने का काम भी कर रहा है।
झारखंड के गिरडीह जिले के बेंगाबाद ब्लाक के करमजोरा गांव की सुनसान रोड पर स्थित ‘इफिकाॅ’ यानी इफिकाॅ वित अभिक्रम नाम का यह बैंक यहां की आदिवासी जनसंख्या की छोटी मोटी सभी आर्थिक जरूरतों को पूरी कर रहा है जो कि प्राय औपचारिक बैंक नहीं कर पाते हैं। चाहे छोटी से छोटी रकम को सुरक्षित रखना हो या थोड़े से पैसों का लोन लेना हो। इस बैंक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां महज घंटों के भीतर ही लोन उपलब्ध हो जाता है। ग्रामीण आदिवासियों के लिए यह ऐसा बैंक है जो 24 घंटे खुला रहता है।
बेंगाबाद में संथाल आदिवासियों की संख्या अधिक है। ये आदिवासी नमक, पते और दूसरी ग्रामीण जरूरतों की चीजें बेचने के घंधे करते हंै। बाहरी लोगों के लिए उनके छोटे -छोटे लेन- देन विशेष महत्व नहीं रखते लेकिन ग्रामीणों की घरेलु जीविका में उनका बेहद महत्व है। इन ग्रामीण आदिवासियों की वित्तीय जरूरतें समाज के अन्य क्षेत्र से अलग हैं। उन्हें थोड़े समय के लिए नकद चाहिए ताकि वे खाध असुरक्षा से बच सकें। कभी कभी तो महज कुछ घटों के भीतर ही उन्हें थोड़ी सी रकम की जरूरत पड़ जाती है। जिसे वे बिना अधिक औपचारिकता के लेना चाहते हैं। औपचारिक क्षेत्र यानी कि साधरण बैंक उनकी इन जरूरतों को पूरी करने में असमर्थ हैं।
अक्सर यह माना जाता है कि गरीब आदिवासी ऋण के काबिल नहीं क्योंकि वे बचत नहीं कर सकते। औपचारिक वित्तीय संस्थाएं इन्ही तर्कों के सहारे उन्हें कर्मिशयल क्रेडिट से दूर रखते हैं। जिसकी वजह से इन आदिवासियों को केवल महाजनों और साहूकारों के पास ही जाना पड़ता है और साहूकार उनकी इस कमजोरी का फायदा उठाकर उनका शोषण करते हैं।
लेकिन इफिकाॅ बेैंक इस संदर्भ में अनोखा है। वह ब्लाॅक के सभी छोटे निवेशकों को उनकी सुविधा के मुताबिक कम कीमत पर सामयिक सेवाएं दे रहा है। बैंक का सारा काम यहां की स्थानीय महिलाएं ही चला रही हंै। इसलिए यह आदिवासी महिलाओं के बैंक के नाम से भी जाना जाता है। बैंक में हर समय पैसे जमा कराने या निकालने और लोन देने जैसे लेन- देन किए जा सकते है। क्योंकि बैंक हर समय खुला रहता है इसके लिए बैंक की मैनेजर श्रीमती पुष्पा त्रिखी बैंक के साथ लगे घर में ही रहती है।
पुष्पा त्रिखी बैंक की शुरूआत के संदर्भ में बताती है कि वर्ष 2000 में जब गांव की महिलाओं के कुछ समूहों ने अपनी बचत राशि को जमा कराने के लिए आसपास के बैंको से संपर्क किया तो उन्हें एक एकांउट खोलने में 4-5 दिन लगे वे भी कई औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद खाते खोले जा सके। यह वह समय था जब हमें इस क्षेत्र में किसी अनौपचारिक और एक सुलभ बैंक खोले जाने की जरूरत महसूस हुई। इसके लिए हमने ग्रामीण आदिवासियों पर काम करने वाली स्थानीय संस्था इरमा के निदेशक डा रवि भूषण शर्मा के सामने अपनी समस्या को रखा।
गांव में एक आम सभा बुलाई गई। सभा में बैंक के महत्त्व और आने वाली दिक्कतों के संबंध में विस्तार से चर्चा की गई। गांव वालों को भरोसे में लेकर कोपोरेटिव सोसायटी के तहत बैंक को रजिस्टर्ड कराया गया। तकनीकी पहलुओं को सुलझाने के लिए इरमा ने मदद की। वर्ष 2001 में बैंक की पूरी प्रक्रिया खत्म होने के बावजूद बैंक मे लेन -देन का काम शुरू नहीं हो सका।
श्रीमती त्रिखी के मुताबिक आदिवासी लोगों में बचत की आदत डालना और उनका विश्वास जीतना आसान नहीं था। ‘‘लेकिन हमने धीरे धीरे स्थानीय लोगों को जागरूक बनाने का काम जारी रखा। इस प्रकार बैंक की वास्तविक शुरूआत वर्ष 2005 में हो पाई। लेकिन उसके बाद हमें कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। क्योंकि ग्रामीण आदिवासी अब बैंक का महत्व जानने लगे हैं।’’
आज बैंक के 451 खात्ताधारी हैं और बैंक के पास दो लाख से ऊपर की जमा राशि है। इस सफलता का श्रेय वह अवधारणा है जो गरीब, जरूरतमंद और अशिक्षित आदिवासियों की आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बैंक की कार्य प्रणाली को निर्धारित करती है।
मैनेजर पुष्पा के मुताबिक शुरू में यहां के आदिवासी लोग बैंक मे खाता खोलने से डरते थे। उस समय छोटी रकम भी बैंक में जमा कराने को प्रोत्साहित करने के लिए हमने ग्रामीणों को प्रेशर कुकर दिए। लेकिन आज लोग स्वयं थोड़ी सी बचत भी बैंक में जमा कराने आते हैं। यह रकम सौ रूपए या कभी इससे भी कम होती है।
एकाउटेंट सविता मुरमुर ने बताया कि बैंक 25 हजार रूपए तक का ऋण देता है। लोन खेती से लेकर स्वास्थ्य,शिक्षा और धंधे की दूसरी जरूरतों के लिए भी दिया जाता है। अक्सर ऋण स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से दिया जाता है। ब्याज की दर 12 प्रतिशत वार्षिक है। लेकिन सविता बड़े गर्व से बताती है कि अभी तक एक भी डिफाॅल्टर नहीं है। केवल एक पुरूष सहायक को छोड़कर कैशियर, एकाउटेंट और मेनेजर सभी स्टाफ महिलाओं के होने के पीछे कोई विशेष कारण के जवाब में पुष्पा हंसते हुए कहती है महिलाएं पैसों के लेन -देन में अधिक कुशल होती हैं।
इफिकाॅ के सभी शेयरधारी स्थानीय लोग हैं और वे ही प्रबंधन समिति के सदस्य हैं। अभी तक बैंक केवल आदिवासी लोगों की ही जरूरतों को पूरी कर रहा है लेकिन अब बैंक की सफलता को देखते हुए प्रबंधन समिति गैर आदिवासी समुदाय को भी माइक्रो फाइनेंस की सुविधा देने की सोच रही है। माइक्रो क्रेडिट की सुविधाएं गरीब ग्रामीण जीवन के लिएकतनी महत्चपूर्ण है, ये यहां के लोगों की बातचीत से समझा जा सकता है।
निवेश और बचत की छोटी जरूरतों को पूरी करने में सफल यह बैंक दूसरे राज्यों के आदिवासी समुदायों के लिए भी नजीर बन चुका है और राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे उपक्रम शुरू करने की योजनाएं बन रहीं हैं।

Monday, 11 August 2008

Shaping the young through Kishori panchayats



By : Annu Anand
Muzaffarpur, Bihar
Sixteen year-old Sangita doesn't belong to any television channel or film world but she can be seen shooting with camera in remote villages of Bihar. She captures images of small functions held in villages as efficiently as a professional cameraperson. Besides shooting, she can also write scripts and make documentaries on village life.
Anjali of Kanti Nagar village knows screen-printing and print visiting cards and wedding invitations. In addition, eighteen year-old Anjali can handle several other chores such as Bindi and papad making to boost the income of her family. She is intermediate pass and uses her knowledge to make village women aware of their rights.
Sangita and Anjali are among hundreds of adolescent girls in the district who are getting trained in traditional as well as modern crafts through Kishori Panchayat- a forum of adolescent girls. Like elsewhere in the state, young girls of this district also drop out early from schools to help parents in household work. It was to engage such girls in productive work that Kishori Panchayats were formed in 1997 by a Patna-based voluntary body, Centre for Communication Research and Development.The idea behind these Panchayats is to "incubate future women leadership". There is interesting history behind starting Kishori Panchayat. "When we were organizing self help groups of women, we used to hold trainings sessions. Women used to be accompanied by their children, especially adolescent girls. We noticed that young girls were quick and enthusiastic learners and would often help their mothers understand the content of the programme in local language," said Varun Kumar, project coordinator. "They were also becoming politically and socially aware. So it was decided that adolescent girls should be treated as independent entity and given chance to learn and grow despite the social barriers."
Two open schools were started in Adigopalpur and Kanhara where around 50 girl students are studying in each one. Each school has two teachers and school provide them with informal education. Few girls of this school have now passed regular metric exams.
Thirteen year old Rehana of Adigopalpur school says she was studying in a primary school but was forced to drop out by her father so that she can help her mother in household works. When Kishori panchayat was formed in her village, her parents were convinced to send her to the open school.
Till now more than 15 Kishori Panchayats have been formed in the block and most of young girls have become members. These panchayats are formed through self help groups working in the district.
Each panchayat consists of 10 to 20 members in 10-19 age group. The group then elects its office bearers and decides its priorities based on an assessment of local needs and problems. Senior members of the self help group concerned help the young ones in this task.
The training programme covers personal skill training as well as familiarization of political, economic and social issues.
Skill training includes stitching, tailoring, bangle making, Bindi and papad making, screen-printing videography and script writing. Social and political issues like legal awareness, gender equality, panchayati raj and reproductive health are also covered.
After five years of training these adolescent brigades are now addressing social and economic issues in this backward district. Several instances of these girls pressurizing parents to stop early marriages have come to light. Narrating one such incident, Sangita said parents of Rajani in Adigopalpur village had fixed her marriage when she was just 14. But Rajani wanted to pursue her studies and tried to convince her parents. But when her parents did not listen, ten members of Kishori Panchayat reached to her house.
"We explained her mother about adverse impact on health of girls if they conceive before 20. The mother got convinced but the father was still adamant. At last, with the help of the self help group leader, we could convince him also. Now Rajani is preparing for tenth class exams," said Sangita proudly. The panchayats are also addressing issues like eve teasing.
These young women are instrumental in spreading awareness about panchayati raj institutions, health and hygiene. Ruby of Karanpur village goes door to door to spread awareness about cleanliness and, reproductive health.
Gunja and Sangita mobilize women especially newly married ones to access the information from the centre located in Bochahn. They convey their message of Panchyati Raj by singing songs composed by them in local language like "dili se Aielai sakhiya Panchyati Raj he, Okre main hotai sakhi, hamane ke kaj he…"(O friend Panchyati raj has come from Delhi, out of that will emerge our rule i.e people's rule.)
There are many such examples, where these young girls are writing success stories of their empowerment.
But this needs to be replicated in other districts of Bihar as well as other states in the country. The growing number of self help groups in different states can help grooming young women into separate groups to tackle their special needs.
Addressing this segment of the population could bring about qualitative change in lives of future citizens.

Nomads storm panchayati citadel



By : Annu Anand
Viratnagar, Rajasthan
They belong to the most backward communities of our society. They don't even have basic rights and continue to live much below the poverty line. Most don't have voting rights because for centuries they have not had a permanent address.

But now they have taken their first decisive steps in democracy. They are becoming a part of the local governance system and beginning to carry forward their struggle for the development of their communities. These are the gutsy, enterprising and dynamic women of nomadic communities - Nat, Bawaria, Banjara, and Bhopa. Last year they were elected for the first time to panchayats in Rajasthan.

Vimla aged 32 is one such nomad. She is currently deputy sarpanch of Pilkhudi panchayat. She belongs to the community of jugglers, known as Nat, and has been head woman for long. To earn their livelihood, Vimla and her family members perform dances, street theatre and other traditional entertainment in the villages of Alwar, Bharatpur and other areas in Rajasthan.

A little away from the Delhi-Jaipur highway is a small hamlet called Sawari. Here about 700 to 800 Nat families live in kuchha houses. Kaluram Nat says, "Most of our women dance and perform nautanki in fairs and festivals, while men folk beat the drums. We go out for such performances before Diwali and return to our homes around Holi."

However, the situation is changing slowly. Many in the community are trying other odd jobs as opportunities in their traditional vocation are shrinking. They have stopped making temporary shelters, and are giving up their nomadic ways. Some have been living in Sawari for the past few years.

When Vimla filed her nomination for the post of deputy head of the panchayat, she faced protests from other villages in the vicinity. "The people of other castes declared they wouldn't give a senior post to any Natini or dancer," she recalled. "They blocked our way. But people of my community supported me, and at last I won the election by 17 votes."

After her victory, Vimla's first priority was to tackle the water shortage in the village. The two existing hand pumps were not sufficient to fulfill the village's needs. She raised the issue in the panchayat meeting, and got one more pump sanctioned. Now she wants to develop a pucca road for the village.

Vimla makes it a point to attend every meeting of the panchayat. She does not go on dancing trips, so she can concentrate on development work as a representative of the panchayat. According to her, 40 to 50 bighas of land is lying vacant, and it can be used for construction of an anicut that can solve the water shortage to a great extent. Her active participation in development activities means she could become an important link in the development of other nomadic communities as well.

Vimla is not alone. 45-year old Moomal of the Banjara community- always dressed in traditional lehanga, orani, arms full of silver bangles and tattoos on her body - has been elected unopposed as a ward panch of Bamanwas Kankar panchayat. This village, located about 40 kms from Alwar, houses 700 nomad families called Raadi. Access to this village is difficult as the last kilometre is full of rocks.

Moomal and members of her family earn their livelihood by selling salt and Multani mitti (a fine clay) in the markets of rural Rajasthan. Curiously, the barter system is still in vogue in India. Moomal says, "We exchange four handfuls of salt to get one handful of grain. After collecting large quantities of grain, we sell it to local shopkeepers to buy other daily needs." This is the main source of income and traditional occupation for all villagers of Raadi. "We transport salt and multani mitti on donkeys to different villages," she added.

In her new role as a ward panch, Moomal is concerned with the lack of electricity in her village. Electricity is available up to the nearby road, but the settlement is not getting any since the residents don't have land rights.

"We have been staying here for many years now and this has become our permanent settlement," she says. "Still we have not been given pattas." She has raised the issue of getting electricity and making a pucca road in her village in panchayat meetings, but has not been getting support from other members.

"We have earned our place in the panchayat and we are able to express our demands, but we are being treated with discrimination," feels Moomal. "All discussion about development only starts on suggestions made by higher caste Gujjars. Perhaps it will take time for them to accept our suggestions in the panchayat meetings."

Sharda Banjaran, ward panch of Kishori panchayat also share the same sentiments. She says that whatever she earns by selling salt and Multani Mitti she spends in attending meetings of the panchayat. She is determined to attend every meeting to know where they spend the funds for development work.

Sua Banjaran of Prithvipura panchayat is also struggling to get a hand-pump for her village. She complains, "They write down everything in panchayat meetings, but when I go to the Block Development Officer to find out what has been done, the reply is that the proposal has not come."

Gaindi Bawaria has been elected as ward panch of Sothana Village, located near Alwar. She has been elected unopposed from the reserved seat for women in the last panchayat election.

Bawarias used to traditionally hunt wild animals. When a ban was imposed on killing of wild animals in 1972, most members gave up hunting and work as security guards (Chowkidars). They protect crops from wild animals or by grazing animals like goats and sheep. They have not been able to get into other jobs due to the stigma attached to them.

Bawarias were included in the Criminal Suppression Act enacted in 1871. Though this law was scrapped in 1952, the community continued to be part of the new Habitual Offenders Act. Because of this, Bawarias are victimized by villagers, police and other law enforcement agencies.

Gaindi and her other 500 fellow villagers have been staying in Sothana for the past fourteen years. This is forest land, and everyone is under constant threats from forest officers. "Neither have we been rehabilitated anywhere else nor have we been given pattas" she says. "Even forest officers victimize us for minor things. If they see a piece of wood in our houses they impose a fine."

There is an acute problem of water with just one hand pump located one kilometer from the village. It is not sufficient to fulfill the needs of the whole village. "Nobody listens to me in the panchayat meeting," she complained. "The Sarpanch is a Brahmin. Many times I have raised the issue of water. Only today they decided on BPL cards and the widow pension scheme. Today or tomorrow they will have to listen our problems. For how long will they keep us quiet."

Sheela from the Bhopa community has been elected as ward panch from the Kesroli Gram Panchayat. Sheela with 120 families of her community has been staying in Ramgarh, also known as Bhopawas, for the past three years. Bhopas sing songs and narrate stories based on ancient paintings. Sheela and her husband still play the sarangi to entertain and earn their livelihood.

There are 40-50 houses in this settlement. Most residents don't have pattas for their grass and mud houses. Their children study in the open. They have to fetch water from a source two-kilometer distant.

According to Sheela, she raises the demand for a hand pump and electricity connection in every meeting of the panchayat. "They make me write but my demands never reach the administrative people. This is not going to deter me from making these suggestions. I will keep raising them till they are resolved. "

Ratan Katyayani, founder of Mukti Dhara, a voluntary group instrumental in encouraging nomadic women, observes, "Now these women are sensitized and are coming forward to participate in the local governance process. They are no more afraid of speaking in panchayat meetings or raising their problems, but society is prejudiced against them."

The Ghumantu Vikas Panchayat is fighting to secure constitutional rights for nomads. Katyayani is hopeful these nomads will ultimately succeed. Meanwhile, Mukti Dhara is providing a fellowship of Rs 1000 a month to ten women who have been elected for the first time to panchayats, as a token of help and encouragement.

Friday, 8 August 2008

Youth script hygiene story in MP villages

Annu Anand
Sehore, Madhya Pradesh

The innocence writ large on Arun's face and the naughty sparkle in his eyes make it hard for anyone to believe that he is involved in the development of his village. Oblivious to the presence of a stranger, sitting on a small platform in the middle of the village, he checks nails of children with utmost concentration. When confronted with the question, "have you clipped your nails?" he raises his head and shows both his hands in a matter-of-fact manner and returns to his work. Ten-year-old Arun Mewada is member of the Azad Bal Vikas Samiti, a group responsible for ensuring personal hygiene of children in the village.

Dheeraj and Hirdeysh are busy taking children to a polio booth as it is a polio vaccination day in the village. Pramod is busy filling the cleanliness graph painted outside every house with chalk. These charts show if the drain, the road outside the house and the toilet inside are clean.

This is the scenario in Rajukhdi village, just about 45 kilometres from Bhopal. It is among 10 villages in Sehore district where community participation has improved sanitation and hygiene awareness, contributing to the overall development of these villages.

Just three years back, these villages were facing water shortage and had high incidences of water-borne diseases due to lack of proper sanitation. Most of the people were relieving themselves in the open. In particular, women faced a lot of hardship. Children didn't know anything about personal hygiene. Due to the absence of any checks by villagers, school and health services were also not running properly.

In 2005, a Bhopal-based voluntary body, Samarthan, started a Water and Sanitation
Project in 10 villages of Sehore block with financial aid from the UK-based agency, Water Aid. Each family was provided Rs 500 for the construction of a toilet in their houses. The rest of the cost, Rs 2,000, was borne by the families concerned themselves. Villagers also put in their labour for construction of toilets and water resource structures.
Connected to the district headquarter at Sehore by a four-kilometre kutcha road, Rajukhedi village has nearly 80 households belonging to backward classes and eight to the Scheduled Castes. Most of the villagers work as farm workers. Nearly all the houses are kutcha and roads are not paved, yet village streets are clean and rows of houses in a street appear neatly organised.

All the houses in the village have proper sanitation facilities. There is a pipe running outside every house for the disposal of sewage. This pipe is connected to a soak pit constructed outside every house. The pits are covered with a filter made out of old gunny bags.
"To prevent groundwater level in the village from receding, used water from houses is directed to the soak pit for recharging the groundwater," points out Sarpanch Chandan Singh.

In addition, some water conservation structures such as 'check dams' and 'stop dams' have been constructed with Rs 36,000 financial aid from the government. Villagers have constructed these structures themselves. They have also installed four hand pumps and constructed four platforms for washing clothes.

Promodh, a member of Bal Samooh, which is responsible for overseeing cleanliness of these facilities informs that nobody is allowed to wash clothes under a hand pump as it leads to wastage of water and messes up the area around the pump.

In 21 houses, Rainwater harvesting structures have been constructed with the contribution of Rs 10,000 from the community. Chandan Singh says, "three years ago, water and sanitation were primary problems in the village. When the cleanliness and sanitation drive started in the village, villagers contributed money as well as their labour making this drive successful."

Children, women and youth of the village all are participating in this initiative through different committees formed to monitor the project. Children from five to 12 years have formed Bal Samoohs. They also ensure proper functioning of hand pumps and cleanliness of washing platform as well as housesThe youth group called Yuva Vikas Mandal takes care of supply of water and other public facilities.

Empowered by their participation in this project, the youth group also sought to end problems faced by the villagers in accessing other basic amenities like education and health. Dharma Prakash, a member, informs, "for many years the village's primary school used to open for only two hours as the teacher, who used to live in Bhopal, could reach the school only at noon. We complained about this many-a-times, but there was no action. Then we locked the school one day, and warned the teacher that if the school does not open on time, it would be closed down." After this, the teacher shifted to Sehore.

Similarly, when information was sought about postal delays under the Right to Information Act, it was found that the postman was not regularly picking up letters from the village letterbox. Following a complaint, the situation has now been rectified.
The water and sanitation committees runs a 'information centres', which provides information about all the government schemes being implemented in the village.

About eight kilometres from Sehore is a village called Manpura. Three years before the village had acute water problem as the water level of the village well went down too low. It could be used only few months in a year. To overcome the shortage of water, an integrated approach to water supply, sanitation and hygiene was adapted under the Water and sanitation project. The community has been able to mobilise funds from the government as well as from amongst themselves.
Under this strategy, the Village Water Sanitation Committee(VWSC) planned to conserve rainwater through rooftop harvesting. So, rainwater harvesting structures were constructed in all the 60 houses of the village. Water thus collected is diverted for recharging the well as well as supply to houses through pipelines. A tank of 20,000-litre capacity was also constructed at the cost of Rs 2.36 lakh, contributed by both villagers and the government. This tank gets water from a bore-well located near the village through a pipeline.

Hari Narayan Chourasia, a member of village water and sanitation committee, says, "now we are able to run eight public water taps through pipes connected to this tank. We charge Rs 10 per family per month for utilising this water. The committee is also giving connection to individual houses for Rs 30 per month. This supply is for four hours a day."
Dashrath, who is in-charge of the mid-day meal scheme in the village school, says that water in the well used to earlier last only till December, but now it is available for longer periods. "We used to bring water on our bullock carts from places far away from the village. Now we have learnt to conserve water, so there is no shortage," says Pintu, member of the water and sanitation committee, pointing to a rooftop water harvesting structure.

Manpura also boasts of having toilets in all the 60 houses of the village. Village committee maintains these structures through youth clubs formed in the village. In
March 2006, this village also got the state award for achieving the total sanitation target.
According to Shafiq, the district coordinator of Samarthan, "the reason for the success of the project in 10villages including Rajukhdi, Manpura and Jahangirpura is community participation. We are trying to inculcate participatory processes in the planning, execution and monitoring of community and sanitation initiative. Under the project we build the capacity of panchayats to plan and execute sustainable water and sanitation management initiatives. So no decision is taken without the participation of the Panchayat Samiti."

Lakhan singh, a community coordinator of Samarthan, says every scheme is being discussed in the panchayat meetings. Schemes are implemented with the consent of all village committees and the gram sabha. Panchyats of these villages are still a focal point for decision-making on any development project. As the sarpanch of Rajukhdi village Chandan Singh notes, "in this village, the chaupal is a parliament of the people. All the decisions are taken there."

The implementation of this community project has changed the lives of these villagers. It has also contributed to the improvement of other development works. After seeing the success of the water and sanitation scheme, other villages of the district also want to replicate it, adds Shafiq.