Sunday, 21 July 2013


विकास से हुए अनाथ

अन्नू आनंद


 भिताड़ा (अलिराजपुर)चूना के चेहरे पर संतोष की मुस्कान थी. अब उसे कम से कम कुछ महीनों के लिए बच्चों के पेट भरने की चिंता नही सताएगी. 35 वर्षीय सरला भी अपना सारा काम काज छोड़ कर गांव के छोर की ओर भाग रही थी. वह यह अवसर चूकना नहीं चाहती थी. चूना और सरला की तरह गांव के सभी मर्द और युवा लड़के, लड़कियां तीन-चार किलोमीटर पैदल भागते हुए गांव के किनारे पहुँच रहे थे. आज उनके गांव भिताड़ा में छह माह के बाद पीडीएस राशन का गेहूं आया था. गांव के अंतिम छोर पर नदी के किनारे पीडीएस की दुकान के नाम पर जमीन पर ही राशन का गेहूं, चीनी और नमक रखे गए थे. यह सामान नाव के जरिये यहाँ लाया गया था. इस अजीबोगरीब राशन की दुकान की ओर भागते गांववासियों को यह डर भी सता रहा था कि कहीं उनके पहुँचने से पहले ही सरकारी कर्मचारी वापस न लौट जाएँ और उनके बच्चे फिर अपना पेट भरने को तरसते रहें.

यह नजारा था सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित मध्यप्रदेश के अलिराजपुर जिले के गांव भिताड़ा का. अलिराजपुर से 44 किलोमीटर सड़क के रास्ते और आठ किलोमीटर नाव और करीब तीन किलोमीटर पैदल चलने के बाद इस गांव में पहुंचा जा सकता है. पूरा गांव पांच फलियों में बंटा है जिस में 350 परिवार रहते हैं. एक फलिया से दूसरे फलिया के बीच की दूरी एक या दो किलोमीटर की है और अधिकतर परिवार भिलाला और नायक आदिवासियों के हैं.

खाद्य सुरक्षा कानून के तहत हर गरीब परिवार के लिए हर माह में कम से कम सात दिन तक सस्ती दरों पर पीडीएस के जरिय राशन पहुंचाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है. लेकिन सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित नर्मदा के किनारे बसे हजारों गांववासी जो पुनर्वास के अभाव में पहले ही नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं उन्हें अपने दो वक्त के भोजन के लिए भी सरकारी कर्मचारियों के रहमोकरमपर निर्भर रहना पड़ रहा है. इन गांव में राशन आता भी है तो महीनों  के बाद वह भी महज कुछ घंटों के लिए. छितरे हुए इन गांवों के हर घर में जब तक राशन आने की खबर पहुँचती है तब तक नदी के किनारे अस्थाई रूप से लगी यह दुकान खत्म हो जाती है. भिताड़ा में राशन का सामान लेकर आने वाले सरकारी कर्मचारी नांडला भाई के मुताबिक,” उन्हें केवल एक दिन के लिए ही इस गांव में जाने को कहा गया है. कल तो वह दूसरे गांव नाव लेकर जायेंगे.” नांडला भाई एक रुपये के नमक का पैकेट पांच रुपये में गांववालों को बेच रहे थे. जब इसका कारण पूछा गया तो उनका जवाब था,” दूर से लाने में सामान का किराया-भाड़ा भी तो लगता है.” लेकिन किराये का पैसा तो सरकार देती है? नांडला के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था.
 भिताड़ा की तरह अलिराजपुर जिले के 15 ऐसे गांव हैं जो सरदार सरोवर परियोजना के कारण पानी से घिरे हैं. बाँध की ऊँचाई बढ़ने से नर्मदा के पानी में इनके घर और ज़मीन डूब गए हैं. अपर्याप्त पुनर्वास के चलते इन सभी गांव में लोग भोजन, स्वास्थ्य और आजीविका की समस्या से दिन रात जूझ रहे हैं. पीडीएस, स्कूल, मिड-डे मील, मनरेगा और आंगनवाडी जैसी कल्याणकारी योजनाएं सरकारी दस्तावेजों में इन गांव में लागू हैं लेकिन सड़क से कटे होने, पहाड़ों पर छितरे घर, सरकारी लापरवाही और भ्रष्टाचार के चलते अधिकतर ये योजनाएं कागजों तक सीमित होकर रह गई हैं.
करीब 13 साल पहले इन गांव में लहलहाते खेत हुआ करते थे. गांव तक पहुँचने के लिए सड़क का रास्ता था. ग्रामीणों की जीविका का आधार उनके खेत थे जिसमें गेहूं, मक्की, और बाजरा उगाया जाता था. बहुत से गांव वाले पशुओं और जंगल पर भी निर्भर थे. लेकिन 1996 से ये सभी गांव डूब में आना शुरू हो गए. वर्ष 2000 तक योजना के कारण इनके गांव के नीचे की खेती और घर पानी में समाते चले गए. ज्यों ज्यों बाँध की ऊँचाई बढ़ती गयी नर्मदा नदी के किनारे बसे गांव डूबते गए. ऐसी स्थिति में बहुत से ग्रामीणों को नदी किनारे बने पहाड़ों पर पनाह लेनी पड़ी. पहाड़ भी ऐसे कि कहीं भी दो से तीन झोंपड़े बनाने के लिए भी समतल भूमि उपलब्ध नहीं है. करीबन ऐसे 15 गांव में आजीविका और भोजन के संसाधन हमेशा के लिए खत्म हो गए.
ऐसे ही पहाड़ पर बने एक गांव अंजनवाडा में रहने पर पता चला कि इन गांवों में बसने वाले ग्रामीण अपनी पानी की ज़रूरतें नदी के पानी से पूरा करते हैं   लेकिन पेट भरने के लिए गेहूं, बच्चों के लिए पोषक आहार, स्वास्थ्य, स्कूल और आजीविका जैसी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के साधन नहीं. सड़क के रास्ते से आखरी गांव ककराना से दो घंटे नाव की दूरी पर बसे इस अंजनवाडा गांव के वासी भी आज भी हर ज़रूरत पूरी करने के लिए सरकार पर निर्भर हैं. गांव की जनसँख्या 360 के करीब है. यहाँ रहने वाले बच्चों के लिए सरकार ने पांचवी कक्षा तक का एक स्कूल तो खोला है. लेकिन स्कूल तक पहुँचने के लिए गांव के आधे बच्चों को नाव के जरिये नदी को पार करना पड़ता है या फिर एक घंटे का पहाड़ी रास्ता.  स्कूल और आंगनवाड़ी एक ही जगह पर चलते हैं. आंगनवाडी में आने वाला पोषण आहार भी बच्चों को नहीं मिल पाता क्योंकि ज़रूरतमंद बच्चों के लिए रोज नाव से या पैदल चलकर यहाँ पहुंचना संभव नहीं. आंगनवाड़ी की देख रेख करने वाली गांव की युवती राखी बताती है कि अधिकतर समय तो छोटे बच्चे यहाँ पहुँच ही नहीं पाते. जब कभी वे आते हैं तभी उन्हें खिचड़ी या दूसरा पोषक आहार देती हूँ. गांव में बीमार का इलाज़ करने के लिए कोई स्वास्थ्य केन्द्र नहीं. स्वास्थ्य के नाम पर या तो पोलियो का टीका लगता है या फिर तीन या चार महीनों में एक बार स्वास्थ्यकर्मी पहुँच पाता है. इसलिए बीमारी और मौत इनके लिए आम बात है.

यहाँ रहने वाले खज़ान सिंह तीन साल पहले अपनी १२ साल की बच्ची और १८ साल के लड़के को समय पर इलाज़ न मिलने के कारण खो चुके हैं. सब से नजदीकी उप स्वास्थ्य केन्द्र १२ किलोमीटर दूर ककराना में है जहाँ तक नाव से पहुँचने में दो घंटे लगते हैं. अस्पताल उस से भी दूर तीन घंटे की दूरी पर सोंडवा या बडवानी में है. खज़ान सिंह बताते हैं, ”उनकी बेटी ने बुखार में नाव में ही दम तोड़ दिया था जबकी लड़के को बड़वानी अस्पताल पहुंचा तो दिया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.” यहाँ ९९ फीसदी प्रसव घरों में होते हैं क्योंकि नाव और गाड़ी से अस्पताल तक पहुँचने का खर्चा ३००० रुपये तक पड़ता है.
फिलहाल सड़क और बिजली तो इन लोगों के लिए बहुत दूर की बात है.
मध्यप्रदेश सरकार का मानना है कि उसने सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित ४५ हज़ार विस्थापितों को मुवाज़ा दे दिया है. लेकिन हकीकत में मध्य प्रदेश में डूब प्रभावित केवल कुछ लोगों को ही केवल झोंपड़े बनाने के लिए १५ से २५ हज़ार रूपए का भुगतान हुआ है. नर्मदा बचाओ आंदोलन की मीरा कुमारी बताती हैं कि करीब 3300 परिवारों को एक किश्त का भुगतान हुआ है. लेकिन फर्जी ज़मीन रजिस्ट्री घोटाले के कारण वे लोग भी ज़मीन नहीं खरीद पाए. फिलहाल मामला हाईकोर्ट में चल रहा है.
नर्मदा बचाओ आंदोलन ने पिछले माह सोशल जस्टिस एंड एम्पावरमेंट मंत्री को पत्र लिखा है कि वह राज्य सरकार को परियोजना में विस्थापित सभी प्रभावी परिवारों को विकसित पुनर्वास कालोनियों में घर और गैर अधिगृहित और  सिंचाई युक्त ज़मीन प्रदान करने का निर्देश दें. 
वर्ष २०११ के मई माह में मध्य प्रदेश के खाद्य सुरुक्षा राज्य सलाहकार सचिन जैन ने कुछ जिला अधिकारियों के साथ इन गांव का दौरा किया और पाया कि इन गांव तक पहुँचने की कोई भी जल परिवहन व्यवस्था न होने के कारण कल्याण की योजनायों को लागू करना आसान नहीं. श्री जैन के मुताबिक सरकारी अधिकारी इन गांव में जाने से कतराते हैं. किसी भी विभाग की ओर से किसी भी योजना की कोई निगरानी नहीं हो रही. जिन 15 गांव की ज़मीन डूबी है उनमें अधिकतर को वैकल्पिक ज़मीन हासिल नहीं हो सकी. यहाँ एक विशेष  परिस्थिति है उस पर काबू पाने के लिए इन गांवों के खाद्य ओर रोजगार के संचालन के लिए एक विशेष कार्य योजना बननी चाहिए. 
पानी से घिरे इन लोगों का सवाल है कि आम आदमी के विकास के नाम पर उनका शोषण क्यों. अधिकतर की मांग है कि ज़मीन के बदले उन्हें ऐसी ज़मीन मिले जो सिंचाई योग्य हो. जब कि बहुत से लोगों को पुनर्वास में ज़मीन एक जिले में तो प्लाट दूसरे जिले में दिया गया. जैसे कि अंजनवाडा का आदिवासी जहाँगा का कहना था सरकार ने बहुत से प्रभावितों को ज़मीन तो धार जिले के संकरिया और ढोलना में दी और रहने की जगह अलिराजपुर जिले में. ऐसे में कौन यह पुनर्वास चाहेगा? एक का विनाश दूसरे का विकास कैसे हो सकता है? क्या सरकार इस सवाल का जवाब देगी?
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Thursday, 4 July 2013

‘न्यू कन्वर्जेंस’ मीडिया के लिए नया खतरा: पी साईनाथ



   
मीडिया को सब से बड़ा खतरा न्यू कन्वर्जेंस से है. जिस के तहत बड़े व्यापारिक घराने मीडिया समूह को खरीद रहे हैं और मीडिया समूह बिजनेस हाउसिस में बदल रहे हैं. बड़े राजनैतिक दल नए-नए अखबार और चैनल की शुरुआत कर रहे हैं. यानी अब मीडिया, कॉरर्पोरेट और राजनैतिक दलों के हित एक हो रहे हैं. यह ‘न्यू कनवर्जेन्स’ सब से खतरनाक है. क्योंकि कॉरर्पोरेट जगत को सृजनात्मकता अथार्त क्रेटीविटी से कोई मतलब नहीं. उनका मुख्य उद्देश्य केवल प्राफिट है. पेड न्यूज, प्राइवेट ट्रीटी (निजी समझौते) जैसी प्रवृतियों पहले ही मीडिया की साख को कम कर चुकी हैं.
ये बातें वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने भोपाल की संस्था विकास संवाद द्वारा होशंगाबाद जिले के केसला ब्लाक  में आयोजित सातवें मीडिया संवाद में कही.  कॉर्पोरेटाईजेशन ऑफ मीडिया विषय पर उन्होंने कहा कि  भारतीय मीडिया राजनीति हस्तक्षेप से भले ही आज़ाद हो गया है लेकिन वह प्राफिट का कैदी बन गया है. अब प्राफिट ही उसका सबसे बड़ा उद्देश्य है. इसी के चलते मीडिया पर बिल्डरों, व्यापारियों, और बड़ी कंपनियों का दबदबा बढता जा रहा है.
श्री साईनाथ के मुताबिक अधिकतर समाचारपत्रों के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर की सूची में रियल एस्टेट और बिल्डरों के नाम देखे जा सकते हैं. उन्होंने दैनिक जागरण की सूची में दक्षिण एशिया के मेकडोनाल्ड प्रमुख का नाम होने की बात भी कही.
उन्होंने कहा हर मीडिया हाउस अधिक से अधिक प्राइवेट ट्रीटी रखना चाहता है. एक अखबार ने २४० कंपनियों के साथ प्राइवेट ट्रीटी कर रखी है. लेकिन जब शेयर मार्केट गिरने के कारण ऐसी ट्रीटी के चलते मीडिया हाउसिस को नुकसान होता है तो भी वह शेयर समझौते से बंधे होने के कारण खामोश रहता है और यह नहीं कह पाता कि कंपनी के शेयर का मूल्य घट रहा है.  नाम लिए बिना उन्होंने बताया कि इस मीडिया हाउस ने अपने यहाँ फतवा ज़ारी कर रखा है कि ‘रिसेशन’ शब्द का इस्तेमाल न करें. केवल ‘स्लो डाउन’ ही लिखें. रिसेशन केवल अमेरिका के लिए लिखें.

श्री साईनाथ के मुताबिक मीडिया हाउस खासकर चैनल बिजनेस लीडर अवार्ड या सेव टाइगर्स जैसे विज्ञापन कैम्पेन चलाने में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं क्योंकि इसमें उन्हें फायदा मिलता है. उन्होंने कहा हर दिन ४७ किसान आत्महत्या करते हैं लेकिन ऐसी स्टोरी कवर करने केवल कुछ पत्रकार पहुँचते हैं. लेकिन स्विट्जर्लैंड दावोस में इंडियन इकोनोमिक फोरम को कवर करने २०० पत्रकार पहुँचते हैं. क्योंकि सीआईआई या हीरो होंडा  जैसे ग्रुप इसे प्रायोजित करते हैं. मीडिया हितों के टकराव की बात करता है लेकिन समूचा मीडिया स्वयं हितों के टकराव से जकड़ा हुआ है. उन्होंने कहा यह दौर मीडिया के हायपर कमर्शियलाइजेशन का दौर है. जिस से बचने के लिए कुछ न कुछ नए तरीके ढूँढने होंगे.  अन्नू आनंद