अन्नू आनंद
सुप्रीम कोर्ट ने हिदायत दी है कि देश में कोई भी व्यक्ति भुखमरी और कुपोषण से नहीं मरना चाहिए। कोर्ट के मुताबिक यह जिम्मेदारी सरकार की है कि वह गरीबों को उनकी जरूरत के मुताबिक भोजन उपलब्ध कराए। लेकिन क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का पालन कर पाएगी? दिसंबर माह में संसद में प्रस्तुत होने वाले खाध सुरक्षा अधिनियम के प्रारूप को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार देश में बढ़ते कुपोषण की रोकथाम के प्रति गंभीर नहीं है। खाध और उपभोक्ता मंत्रालय द्वारा तैयार किए गए खाध सुरक्षा अधिनियम के जिस प्रारूप को अधिकार संपन्न मंत्रियों के समूह नेे मंजूरी दी है वह गरीबी और कुपोषण से लड़ने वाले इस देश के हित में नहीं। यह बिल भूखों को अनाज देने वाली 60 साल पुरानी पीडीएस (सार्वजनिक वितरण) प्रणाली को खत्म कर नकद सब्सिडी देने की सिफारिश करता है। बिल के मुताबिक लोगों को प्रति माह दिए जाने वाले राशन (अनाज,तेल,खाद) के बदले नकद राशि प्रदान की जाएगी। देश भर मे पीडीएस को खत्म करने का माहौल बनाने की कवायद शुरू हो चुकी है।
लेकिन नकद सब्सिडी प्रदान करने की यह सरकारी पहल अधिकतर लोगों खासकर महिलाओं को मंजूर नहीं। भोजन के अधिकार और रोजी रोटी अधिकार अभियान सहित 30 सामाजिक संगठनों का मानना है कि पीडीएस को खत्म करने करने का मतलब है देश में भुखमरी ओर कुपोषण को बढ़ावा देना। उनका मानना है कि हर गरीब के घर अनाज पहुंचे इसके लिए जरूरत पीडीएस में सुधार लाने की है।
भारत में राशन के बदले नकद सब्सिडी देने की नीति को युनाइटेड नेशन डेवलपमेंट आर्गेनेजाइशन(यूएनडीपी) और वल्र्ड बैंक प्रोत्साहित कर रहे हैं। इन संस्थाओं का मानना है कि बुनियादी सेवाओं का लाभ गरीबों और वचिंत समूहों तक नहीं पहुंच रहा। इसकी मुख्य वजह इन सेवाओं के अमलीकरण में होने वाली अनियमितताएं हैं। इनका तर्क है कि सेवाओं और उत्पादों के बदले लक्षित लोगों तक नकद पहुुंचाना बेहतर विकल्प है। यूएनडीपी ने अपनी 2009 की ‘गरीबी को खत्म करने के लिए सशर्त नकद योजनाएं’ रिपोर्ट में भारत में नकद सब्सिडी के माध्यम से सरकारी सेवाओं के वितरण में कुशलता लाने की हिमायत की है। रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी सेवाओं और वस्तुओं को लोगों तक पहुंचाने की लागत अधिक है दूसरा एंजेसियों के तालमेल में अभाव के कारण वे लक्षित समूहों तक नहीं पहुंच पातीं।
राशन के बदले नकद प्रावधान के सर्मथन में यूएनडीपी ने दिल्ली सरकार को चार चरणों में 10 मिलियन डालर की सहायता प्रदान की है। इस आर्थिक सहायता से दिल्ली सरकार ने अनाज के बदले नकद देने का एक पाॅयलट प्रोजेक्ट दिल्ली की रघुवीर बस्ती में शुरू किया है। पिछले मई माह में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट के तहत 100 परिवारांे को राशन के बदले प्रतिमाह एक हजार रूपए दिए जा रहे हैं। किसी भी राज्य की नीति को बदलने के लिए इस पाॅयलट प्रोजेेक्ट का आकार बेहद बेहद छोटा है। दूसरा यह भी देखने में आया है कि जिन 100 परिवारों को नकद योजना के लिए चुना गया है उनके पास पहले से ही राशनकार्ड नहीं थे।
राशन या नकद की हकीकत जानने के लिए दिल्ली में कईं संस्थाओं ने मिलकर रोजी रोटी अभियान के तहत दिल्ली की झुग्गीबस्तियों और पुनर्वास कालोनियों के 4005 परिवारों में एक सर्वे कराया और पाया कि केवल 5फीसदी परिवार ही राशन को नकद में बदलने के पक्ष में थे। इसी संदर्भ में सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां दे्रज और रितिका खेड़ा ने मार्च से जून 2011 तक देश के 9 राज्यों के 100 चयनित गावों के 1227 परिवारों में एक सर्वे किया और पाया कि 91 प्रतिशत लोग आंध्र प्रदेश में, 88 प्रतिशत उड़ीसा में 99 प्रतिशत छतीसगढ़ और 81 प्रतिशत हिमाचल में नकद नहीं केवल राशन चाहते हैं।
दरअसल पीडीएस को खत्म करने के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि इससे उचित लक्षित लोगों की पहचान नहीं हो पा रही। यह कहना सही है क्यों कि ऐसे लोगों की कमी नहीं जिन के लिए एक वक्त खाने की व्यव्स्था करना कठिन है लेकिन उनके पास बीपीएल के कार्ड नहीं। नेशनल सेंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक 2004-2005 में 50 प्रतिशत गरीबों के पास बीपीएल कार्ड नहीं थे। उस दौरान बिहार और झारखंड में बीपीएल कार्ड न रखने वालों की संख्या 80 फीसदी थी। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या बीपीएल परिवारों की पहचान की समस्या नकद सब्सिडी योजना में खत्म हो जाएगी? इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जिन सरकारी कार्यक्रमों में नकद देने का प्रावधान उनके अनुभव भी सुखद नहीं। जैसे सामाजिक सुरक्षा के लिए बूढ़ों और विकलांगों को दी जाने वाली पंेशन सरकारी रिकार्ड में दर्ज बहुत से लोगों को या तो मिल नहीं मिल रही या निर्धारित राशि से कम मिल रही है।
पीडीएस के माध्यम से हर परिवार तक राशन पहुुंचे इसके लिए उस में बड़े पैमाने पर बदलाव किए जा सकते हैं लेकिन उसको खत्म कर नकद की योजना लागू करना देश में असामनता को बढ़ावा मिलेगा
नकद राशि घर का अनाज खरीदने पर ही खर्च हो इसकी कोई गारंटी नहीं। घर में आने वाले पैसे पर पुरूषों का अधिकार होता है। पीडीएस से घर में खाने के लिए अनाज तो आ जाएगा लेकिन पैसा किस पर खर्च हो यह महिलाओं के अधिकार में नहीं रहता। राशनकार्डों से भले ही कम या देर से ही सही घर में अनाज का इंतजाम तो हो जाता है लेकिन पैसा तो शराब में भी जा सकता है।
नकद सब्सिडी के लिए दिल्ली में एकांउट खुलवाने की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है ध्याान रहे कि बैंको में एकाउंट खोलने और अधिक संख्या में बैंक उपलब्ध कराने जैसी दिक्कतें पीडीएस से भी अधिक परेशानी पैदा करने वाली हैं। इसके अलावा नकद रूपया जमा होने पर मिडल मेन यहां भी मौजूद होता है। यही नहीं बैंकों में पैसा जमा होने में देरी और लाभार्थी तक पैसा पहंुुचाने में होने वाला भ्रष्टाचार परिवारों की भूख मिटाने में सबसे बड़ी समस्या साबित होगा।
नकद योजना की आलोचना का कारण यह भी है कि इसमें सब्सिडी के लिए नकद राशि निर्धारित होगी और ये मार्किट की कीमतों में बदलाव के साथ नहीं बदेंगी। जिससे कीमतें बढ़ने पर गरीबों को जरूरत से कम राशन उपलब्ध हो पाएगा। हकीकत तो यह है कि नकद सब्सिडी की राशि कईं सालों में नहीं बढ़ती भले ही कीमतें आसमान छूने लगे। अनुभव बताते हैं कि वृद पेंशन योजना की राशि को बढ़ाने में एक दशक से भी अधिक का समय लगा। ऐसे में गरीबों के लिए तेजी से बढ़ती कीमतों से कदमताल करना मुश्किल होगा। नकद सब्सिडी में सरकार को किसानों से अनाज लेने की जरूरत नहीं होगी जबकि न्यूनतम समर्थन कीमतों पर किसानों से अनाज लेन खाध उत्पादन को प्रोत्साहन मिलता है। इससे छोटे किसानों को भी मदद मिलती है। पीडीएस खतम होने से सभी लोगों को सीधा निजी दुकानदारों पर निर्भर होना पड़ेगा क्या पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ प्राइवेट दुकानदारों से राशन सप्लाई की उम्मीद की जा सकती है?
पीडीएस की अनियमितताओं को खत्म करने की बजाय नकद की योजना लागू करना खाध सुरक्षा के सरकारी वादे का सबसे बड़ा मजाक है। खाध सुरक्षा के लिए जरूरी है कि सरकार मौजूदा पीडीएस में सुधार लाने की कोशिश करे। अगर इच्छा शक्ति हो तो पीडीएस में सुधार कर उसे प्रभावी तरीके से लागू किया जा सकता है ये हम तमिलनाडू और छतीसगढ़ राज्यों के अनुभवों से जान चुके हंै।
वरिष्ठ पत्रकार
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