Wednesday, 23 November 2011

नकद से नहीं मिटेगी गरीबों की भूख



 अन्नू आनंद

सुप्रीम कोर्ट ने हिदायत दी है कि देश में कोई भी व्यक्ति भुखमरी और कुपोषण से नहीं मरना चाहिए। कोर्ट के मुताबिक यह जिम्मेदारी सरकार की है कि वह गरीबों को उनकी जरूरत के मुताबिक भोजन उपलब्ध कराए। लेकिन क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का पालन कर पाएगी? दिसंबर माह में संसद में प्रस्तुत होने वाले खाध सुरक्षा अधिनियम के प्रारूप को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार देश में बढ़ते कुपोषण की रोकथाम के प्रति गंभीर नहीं है। खाध और उपभोक्ता मंत्रालय द्वारा तैयार किए गए खाध सुरक्षा अधिनियम के जिस प्रारूप को अधिकार संपन्न मंत्रियों के समूह नेे मंजूरी दी है वह गरीबी और कुपोषण से लड़ने वाले इस देश के हित में नहीं। यह बिल भूखों को अनाज देने वाली 60 साल पुरानी पीडीएस (सार्वजनिक वितरण) प्रणाली को खत्म कर नकद सब्सिडी देने की सिफारिश करता है। बिल के मुताबिक लोगों को प्रति माह दिए जाने वाले राशन (अनाज,तेल,खाद) के बदले नकद राशि प्रदान की जाएगी। देश भर मे पीडीएस को खत्म करने का माहौल बनाने की कवायद शुरू हो चुकी है।
लेकिन नकद सब्सिडी प्रदान करने की यह सरकारी पहल अधिकतर लोगों खासकर महिलाओं को मंजूर नहीं। भोजन के अधिकार और रोजी रोटी अधिकार अभियान सहित 30 सामाजिक संगठनों का मानना है कि पीडीएस को खत्म करने करने का मतलब है देश में भुखमरी ओर कुपोषण को बढ़ावा देना। उनका मानना है कि हर गरीब के घर अनाज पहुंचे इसके लिए जरूरत पीडीएस में सुधार लाने की है।
भारत में राशन के बदले नकद सब्सिडी देने की नीति को युनाइटेड नेशन डेवलपमेंट आर्गेनेजाइशन(यूएनडीपी) और वल्र्ड बैंक प्रोत्साहित कर रहे हैं। इन संस्थाओं का मानना है कि बुनियादी सेवाओं का लाभ गरीबों और वचिंत समूहों तक नहीं पहुंच रहा। इसकी मुख्य वजह इन सेवाओं के अमलीकरण में होने वाली अनियमितताएं हैं। इनका तर्क है कि सेवाओं और उत्पादों के बदले लक्षित लोगों तक नकद पहुुंचाना बेहतर विकल्प है। यूएनडीपी ने अपनी 2009 की ‘गरीबी को खत्म करने के लिए सशर्त नकद योजनाएं’   रिपोर्ट में भारत में नकद सब्सिडी के माध्यम से सरकारी सेवाओं के वितरण में कुशलता लाने की हिमायत की है। रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी सेवाओं और वस्तुओं को लोगों तक पहुंचाने की लागत अधिक है दूसरा एंजेसियों के तालमेल में अभाव के कारण वे लक्षित समूहों तक नहीं पहुंच पातीं।

राशन के बदले नकद प्रावधान के सर्मथन में यूएनडीपी ने दिल्ली सरकार को चार चरणों में 10 मिलियन डालर की सहायता प्रदान की है। इस आर्थिक सहायता से दिल्ली सरकार ने अनाज के बदले नकद देने का एक पाॅयलट प्रोजेक्ट दिल्ली की रघुवीर बस्ती में शुरू किया है। पिछले मई माह में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट के तहत 100 परिवारांे को राशन के बदले प्रतिमाह एक हजार रूपए दिए जा रहे हैं। किसी भी राज्य की नीति को बदलने के लिए इस पाॅयलट प्रोजेेक्ट का आकार बेहद बेहद छोटा है। दूसरा यह भी देखने में आया है कि जिन 100 परिवारों को नकद योजना के लिए चुना गया है उनके पास पहले से ही राशनकार्ड नहीं थे।
राशन या नकद की हकीकत जानने के लिए दिल्ली में  कईं संस्थाओं ने मिलकर रोजी रोटी अभियान के तहत दिल्ली की झुग्गीबस्तियों और पुनर्वास कालोनियों के 4005 परिवारों में एक सर्वे कराया और पाया कि केवल 5फीसदी परिवार ही राशन को नकद में बदलने के पक्ष में थे। इसी संदर्भ में सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां दे्रज और रितिका खेड़ा ने मार्च से जून 2011 तक देश के 9 राज्यों के 100 चयनित गावों के 1227 परिवारों में एक सर्वे किया और पाया कि 91 प्रतिशत लोग आंध्र प्रदेश में, 88 प्रतिशत उड़ीसा में 99 प्रतिशत छतीसगढ़ और 81 प्रतिशत हिमाचल में नकद नहीं केवल राशन चाहते हैं।
दरअसल पीडीएस को खत्म करने के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि इससे उचित लक्षित लोगों की पहचान नहीं हो पा रही। यह कहना सही है क्यों कि ऐसे लोगों की कमी नहीं जिन के लिए एक वक्त खाने की व्यव्स्था करना कठिन है लेकिन उनके पास बीपीएल के कार्ड नहीं। नेशनल सेंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक 2004-2005 में 50 प्रतिशत गरीबों के पास बीपीएल कार्ड नहीं थे। उस दौरान बिहार और झारखंड में बीपीएल कार्ड न रखने वालों की संख्या 80 फीसदी थी। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या बीपीएल परिवारों की पहचान की समस्या नकद सब्सिडी योजना में खत्म हो जाएगी? इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जिन सरकारी कार्यक्रमों में नकद देने का प्रावधान उनके अनुभव भी सुखद नहीं। जैसे सामाजिक सुरक्षा के लिए बूढ़ों और विकलांगों को दी जाने वाली पंेशन सरकारी रिकार्ड में दर्ज बहुत से लोगों को या तो मिल नहीं मिल रही या निर्धारित राशि से कम मिल रही है।
पीडीएस के माध्यम से हर परिवार तक राशन पहुुंचे इसके लिए उस में बड़े पैमाने पर बदलाव किए जा सकते हैं लेकिन उसको खत्म कर नकद की योजना लागू करना देश में असामनता को बढ़ावा मिलेगा
नकद राशि घर का अनाज खरीदने पर ही खर्च हो इसकी कोई गारंटी नहीं। घर में आने वाले पैसे पर पुरूषों का अधिकार होता है। पीडीएस से घर में खाने के लिए अनाज तो आ जाएगा लेकिन पैसा किस पर खर्च हो यह महिलाओं के अधिकार में नहीं रहता।   राशनकार्डों से भले ही कम या देर से ही सही घर में अनाज का इंतजाम तो हो जाता है लेकिन पैसा तो शराब में भी जा सकता है।


नकद सब्सिडी के लिए दिल्ली में एकांउट खुलवाने की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है ध्याान रहे कि बैंको में एकाउंट खोलने और अधिक संख्या में बैंक उपलब्ध कराने जैसी दिक्कतें पीडीएस से भी अधिक परेशानी पैदा करने वाली हैं। इसके अलावा नकद रूपया जमा होने पर मिडल मेन यहां भी मौजूद होता है। यही नहीं बैंकों में पैसा जमा होने में देरी और लाभार्थी तक पैसा पहंुुचाने में होने वाला भ्रष्टाचार परिवारों की भूख मिटाने में सबसे बड़ी समस्या साबित होगा।
नकद योजना की आलोचना का कारण यह भी है कि इसमें सब्सिडी के लिए नकद राशि निर्धारित होगी और ये मार्किट की कीमतों में बदलाव के साथ नहीं बदेंगी।  जिससे कीमतें बढ़ने पर गरीबों को जरूरत से कम राशन उपलब्ध हो पाएगा। हकीकत तो यह है कि नकद सब्सिडी की राशि कईं सालों में नहीं बढ़ती भले ही कीमतें आसमान छूने लगे। अनुभव बताते हैं कि वृद पेंशन योजना की राशि को बढ़ाने में एक दशक से भी अधिक का समय लगा। ऐसे में गरीबों के लिए तेजी से बढ़ती कीमतों से कदमताल करना मुश्किल होगा। नकद सब्सिडी में सरकार को किसानों से अनाज लेने की जरूरत नहीं होगी जबकि न्यूनतम समर्थन कीमतों पर किसानों से अनाज लेन खाध उत्पादन को प्रोत्साहन मिलता है। इससे छोटे किसानों को भी मदद मिलती है। पीडीएस खतम होने से सभी लोगों को सीधा निजी दुकानदारों पर निर्भर होना पड़ेगा क्या पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ प्राइवेट दुकानदारों से राशन सप्लाई की उम्मीद की जा सकती है?
पीडीएस की अनियमितताओं को खत्म करने की बजाय नकद की योजना लागू करना खाध सुरक्षा के सरकारी वादे का सबसे बड़ा मजाक है। खाध सुरक्षा के लिए जरूरी है कि सरकार मौजूदा पीडीएस में सुधार लाने की कोशिश करे। अगर इच्छा शक्ति हो तो पीडीएस में सुधार कर उसे प्रभावी तरीके से लागू किया जा सकता है ये हम तमिलनाडू और छतीसगढ़ राज्यों के अनुभवों से जान चुके हंै।

 वरिष्ठ पत्रकार              

Tuesday, 26 April 2011

लड़कियों के प्रति यह नफरत क्यों?






अन्नू आनंद

भारत में लड़कियों के लिए कोई जगह नहीं। स्वयं को सुॅपरपावर कहलाने वाले और आर्थिक प्रगति के राग अलापने वाले इस देश का लड़कियों के प्रति नजरिया नफरत भरा है। देश की आधी आबादी के प्रति यह तंग और घटिया सोच हमें कईं पिछड़े देशों की कतार में खड़ा करती है। 2011 की जनगणना के आंकड़े साबित करते हैं कि लड़कियों के प्रति देश के अधिकतर लोगों की सोच बेहद संकुचित और शर्मनाक है इसलिए गर्भ में ही उसे खत्म करने का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है।

जनगणना के मुताबिक 6वर्ष की आयुवर्ग में लड़कियों की संख्या में आजादी के बाद से अभी तक सबसे अधिक गिरावट आई है। आंकड़ो में लड़कियों की गिनती 1000 लड़कों पर 914 है। जबकि 2001 की जनगणना में यह संख्या 927 थी यानी 13 अकों की गिरावट है। इसी जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि  देश के 27 राज्यों सहित दिल्ली और अन्य केंद्र शासित प्रदेशों में सामान्य से लेकर खतरनाक स्तर तक की गिरावट आई है जो यह साबित करती है कि कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ चलाए जाने वाले अभी तक के सभी प्रयास विफल रहे हैं। संपन्न राज्य हरियाणा और पंजाब में लड़कियों की गिनती सबसे कम क्रमश 774 और 778 है। साफ जाहिर है कि लड़की को हीन मानने का कारण महज गरीबी और शिक्षा ही नहीं। राजस्थान में स्वयंसेवी संगठनों को कन्या भू्रण हत्याओं पर रोक लगाने के प्रयासों के लिए भारी फंडों का वितरण किया गया था। इसके बावजूद यहां लड़कियों के अनुपात में कमी आई है। यह अनुपात 2001 में 909 था लेकिन अब 2011 में कम होकर 883 हो गया है। पूरे देश में लड़कियों की संख्या में यह गिरावट कईं बड़े और गंभीर सबक देती है।

सबसे बड़ी बात तो यह भी समझने की है कि भू्रण परीक्षणों पर रोक लगाने के लिए किए गए कानूनी और सामाजिक प्रयासों में अमलीकरण के स्तर पर बेहद सुराख रहे। गर्भ में लड़का है या लड़की का पता लगाने के बाद लड़की के भू्रण को गर्भ में खत्म करने की प्रवृति पर रोक लगाने के लिए 1994 में भू्रण परीक्षण निवारण कानून बना। इसे और सख्त बनाने के लिए तथा गर्भ ठहरने से पहले ही लिंग का निर्धारण करने वाली तकनीकों पर भी रोक लगाने के लिए 1996 में इस कानून में संशोधन भी किया गया। लेकिन अमलीकरण के स्तर पर कामयाबी नहीं मिल सकी। इसकी एक वजह कानून के लचीले प्रावधान हैं। दूसरा इसको अमल में लाने के लिए सरकार का रवैया बेहद ढीला रहा। विभिन्न राज्यों में कानून के क्रियान्वयन पर नजर रखने वाले केंद्रीय सर्तकता बोर्ड के गठन में ही सरकार ने कईं साल बरबाद कर दिए। बोर्ड बनने के बाद उनकी बैठकें भी उसी सुस्त चाल में चली। गैर रजिस्टर्ड अल्ट्रासाउंड मशीनों को जब्त करने के प्रयासों के अभाव के कारण इन की गिनती बढ़ती जा रही है। मोबाइल मशीनों ने लिंग परीक्षणों की संख्या में और भी बढ़ोतरी की है। पूरे देश में अभी तक केवल 15 डाक्टरों के खिलाफ ही मामलों की सुनवाई हुई है। जबकि मेडिकल पत्रिका लांसेट की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल मारी जानी वाली लड़कियों की गिनती 5 लाख है। ये तथ्य साबित करते है कि कानून को एक कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल करने में देश पूरी तरह से विफल रहे है और अब इसको प्रभावी बनाने के लिए इसके अमलीकरण पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है।      

 लड़कियों के भू्रणों को खत्म करने की प्रवृति संपन्न राज्यों के संपन्न परिवारों में अधिक बढ़ी है जो यह दर्शाती है कि गरीबी ही लड़की को मारने का कारण नहीं। 2008 में हुई एक सर्वे ने इस संदर्भ में सरकार को चेताने का काम करते हुए अपनी रिपोर्ट में साफ बताया था कि संपन्न समझे जाने वाले राज्य पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, के अधिकतर जिलों में लड़कियों का अनुपात वर्ष 2001 की जनगणना से भी कम हो रहा है। पंजाब मेें स्थिति सबसे गंभीर पाई गई थी। यहां केे कुछ इलाकों में धनी पंजाबी परिवारों में 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या महज 300 ही थी। लेकिन महिला पुरूष बराबरी के प्रति जागरूकता फैलाने वाले अधिकतर अभियानों का फोकस निम्न वर्ग तक ही रहा।

हकीकत यह है कि चाहे उच्च वर्ग का शिक्षित परिवार हो पिछड़े वर्ग का गरीब और अनपढ़ परिवार, लड़कियों की चाहत के प्रति दोनों की सोच में कोई अंतर नहीं। इसलिए केवल गरीबी और अशिक्षा को लड़कियों की संख्या कम होने के लिए दोषी ठहराना उचित नहीं। देखा जाए तो पिछले एक दशक से देश में शिक्षा का विस्तार हुआ है। साक्षरता बढ़ी है। 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में महिलाओं का साक्षरता प्रतिशत 64 से बढ़कर 74 हो गया है। पुरूषों का 82 फीसदी तक पहुंच गया है। स्कूलों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। सूचना के बढ़ते माध्यमों ने जानकारियां हासिल करने के क्षेत्र का विस्तार किया है। लेकिन इस सब के बावजूद लड़की के प्रति सोच पर अभी भी जंग लगा हुआ है।

इसका जो बड़ा कारण समझ में आता है वे हमारी पुरानी परपंराए और पुरूष प्रधान समाज है। पुरूषसतात्मक समाज में अभी भी एक मध्यवर्गीय परिवार में लड़की कोे लड़के के बराबर का दर्जा नहीं मिला। भले ही महिलाएं देश के राष्ट्रपति स्पीकर जैसे सर्वोच्च पदों पर पहुंच रही हांे, परीक्षाओं में लड़कांे से आगे निकल रही हो, देश में तगमों की गिनती बढ़ा रही हो। लेकिन आम परिवार में लड़के को अहमियत देने की रिवायत में बदलाव नहीं हो रहा।  महज एक या दो फीसदी परिवारों को अपवाद मान लें तो शेष सभी परिवारों में लड़के को वंश आगे बढ़ाने और विरासत मानने की प्रवृति उसे अधिक अहमियत दिलाती है। दो साल पहले दिल्ली की सेंटर फाॅर सोशल रिसर्च संस्था और स्वास्थ्य कल्याण मंत्रालय ने दिल्ली में लिंग अनुपात से जुड़े आर्थिक ,सामाजिक और नीति संबंधी कारणों की जांच करने के लिए एक सर्वे कराई। सर्वे के नतीजों से पता चला कि पुराने रीति रिवाज और पारिवारिक परंपराओं के कारण दिल्ली में अधिकतर परिवार लिंग निर्धारित गर्भपात कराते हंै। दिल्ली में लड़कियों के कम अनुपात वाले तीन क्षेत्र नरेला, पंजाबी बाग और नजफगढ़ में कराई गई सर्वे में सभी लोगों ने जिनमें अनपढ़, कम पढ़े-लिखे और उच्च शिक्षा ग्रहण करने वालों नेे माना कि उनके परिवारों में लड़की की बजाए लड़के के जन्म को अधिक बेहतर माना जाता है। इसकी वजह के बारे में इन लोंगो ने साफ माना कि बेटा मरने के बाद अतिंम रस्मों को पूरा कर मोक्ष दिलाता है। इसके अलावा परिवार का नाम भी आगे बढ़ाता है। सर्वे के नतीजों से साफ था कि गरीब और पिछड़ा वर्ग अगर लड़की को आर्थिक बोझ के रूप में देखता है तो मध्य और उच्च वर्ग के संपन्न लोग लड़के को अपनी संपति का वारिस और अतिंम रस्मों को पूरा करने का जरिया मानते हैं। दूसरा लड़की को दिया जाने वाला दहेज लड़के के लिए बेयरर चेक का काम करता है।

लड़कियों को पिता की संपति में समान हक का कानूनी अधिकार भले ही मिल गया हो लेकिन ऐसे परिवारों की संख्या कितनी है जहां लड़कियों को लड़कों के बराबर संपति का वितरण हुआ हो। लड़कियों द्वारा मां- बाप के अतिंम संस्कार करने के भी छिटपुट प्रयास शुरू हो चुके हैं लेकिन ऐसे प्रयासों को ओर बढ़ावा मिलने की जरूरत है। परिवार में लड़की हर पहलु से लड़के के बराबर है यह समझ बनाने के लिए विवाह के बाद उसके सरनेम यानी उपनाम को न बदलना और घर के हर छोटे बड़े फैसले में पत्नी की राय को बराबर अहमियत देना जैसी प्रवृतियों को शामिल करना होगा।

एक्शन एड द्वारा देश के पांच खुशहाल माने जाने वाले राज्यों पंजाब राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल, हरियाणा के विभिन्न जिलों में की गई एक सर्वे बसे सह भी पता चलता है कि जिन इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं और अल्ट्रासांउड मशीनों की पहुंच नहीं है, उन इलाकोे में लड़कियां पैदा तो हो जाती हैं लेकिन जीवित कम बचती हैं। इसके लिए पैदा हुई लड़कियों को या तो बीमार होने पर मेडिकल सहायता नहीं दी जाती या फिर ऐसे तरीके अपनाए जातें हैं कि वे जीवित न बचें। इस सर्वे से यह भी पता चलता है कि परिवारों में दूसरे बच्चे के रूप में भी लोग लड़का ही चाहते हैं।

सर्वे किए गए सभी इलाकों में पैदा हुए दूसरे बच्चे में लड़कियों की संख्या बहुत कम थी। इसी प्रकार तीसरे नंबर पर पैदा हुए बच्चों में लड़कियों की संख्या 750 से भी कम थी। 2011 की जनगणना में जनसंख्या के कम होते आंकड़ो से भी पता चलता है कि लोगों में सीमित परिवार रखने की प्रवृति बढ़ रही है। लेकिन इससे लड़के की चाह में कमी नहीं आई है।

लड़कियों की कम होती संख्या का सबसे भयावह परिणाम यह भी हो सकता है कि आने वाले समय में लड़कों को अपने विवाह के लिए लड़कियों को बाहर देश से आयात करना पड़े।  हरियाणा और पंजाब के कईं गावों में लड़को को दुल्हनें नहीं मिल रही। इसके लिए उन्हें बिहार झारखण्ड सहित उतर पूर्वी राज्यों से दुल्हनों को लाना पड़ रहा है। राजस्थान के जैसलमेर जिले का देवरा गांव 110 सालों के बाद किसी बारात का स्वागत करने की पदवी हासिल कर चुका है। अगर लड़कियों के प्रति नफरत का यह सिलसिला थमा नहीं तो वे दिन दूर नहीं जब देश के अन्य इलाकों में भी लड़कांे को अपने लिए दुल्हन पाने के लिए सैंकड़ों सालों तक इंतजार करना पड़े।    


स्वतंत्र स्तंभकार

यह लेख दैनिक जागरण में अप्रैल २०११ में  प्रकाशित हुआ है












Monday, 28 March 2011


हर परिवार तक अनाज पहुंचाने की खातिर


अन्नू आनंद

आंदा की खुशी उसकी झुर्रियों से साफ झलक रही थी। आदिवासी आंदा के लिए इससे संतोष की अधिक क्या बात हो सकती कि महीने की छह तारीख को ही उसे महीने भर का चावल तेल और शक्कर मिल गया। आंदा ने दिखाया कि उसने 35 किलो चावल खरीदा है और वह भी केवल एक रूपए किलो के हिसाब से। बस्तर के अंदरूनी इलाके चित्रकोट के आदिवासी आंदा को यह राशन अपने गांव के यमुना स्वयं सहायता समूह द्वारा चलाई जा रही उचित मूल्य की दुकान से मिला।  आंदा के पास लाल रंग का कार्ड है जो अति गरीब लोगों को एक रूपए प्रति किलो अनाज मुहैया कराने के लिए दिए गए हैं।
इस समय पूरे देश में करीब 60 साल पुरानी पीडीएस यानी जन वितरण प्रणाली द्वारा बीपीएल के लोगों को किफायती दर पर राशन देने में विफलता पर विचार विमर्श चल रहा है। इसी विफलता को देखते हुए सरकार ने मौजूदा बजट में इस प्रणाली को खत्म कर नकद सब्सिडी देने का प्रस्ताव रखा है। इस प्रस्ताव पर विभिन्न कोणों से बहस का दौर जारी है। क्या अनाज के बदले नकद की योजना पीडीएस से अधिक कारगर साबित हो सकती है? खासकर जब विधवा पेंशन जैसी नकद राशि देने वाली कई योजनाओं का पैसा लक्षित समूह तक नहीं पहुंच रहा हो। देश में तमिनलाडू के बाद छत्तीसगढ़ का पीडीएस सब से कारगर साबित हो रहा है। छत्तीसगढ़ के पीडीएस को एक माॅडल के तौर पर लिया जा रहा हैै। आखिर जो प्रणाली देश के अधिकतर हिस्सों में नाकाम साबित हो रही है छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्य में इसकी सफलता हैरानी पैदा करती है।  
राज्य के दूरदराज के अंदरूनी इलाकों के दौरे से यह जाहिर होता है कि आम आदमी को सस्ता राशन मिल रहा है।  हांलाकि शहर के लोगों में खासकर जो वर्ग पीडीएस प्रणाली का हिस्सा नहीं इस बात को लेकर क्षोभ भी है कि अगर हर गरीब आदमी को एक या दो रूपए में 35 किलो अनाज मिल जाएगा तो वह काम पर क्यों जाएगा? लेकिन मुख्यमंत्री रमन सिंह इसे शहरी मध्यवर्गीय सोच का परिचायक मानते हुए कहते हैं अगर आज बस्तर के अभुजमाड़ और टोंडवाल जैसे जंगली इलाकों के गरीब लोगों को भी पीडीएस का चावल मिल रहा है तो यह उनकी सोची समझी नीति का नतीजा है। ‘‘गोदाम में अनाज को सड़ने दें लेकिन किफायत पर न दे यह कहां की समझदारी है।’’
आखिर वह सोचा समझा कौन सा फार्मूला है जिसे देश के अन्य राज्यों में भी लागू करने की योजनाएं चल रही है। साल 2004 में छत्तीसगढ़ की सरकार ने राशन की दुकानों पर अनाज न मिलने की बढ़ती शिकायतों के मद्देनजर नया पीडीएस नियंत्रण आदेश जारी किया। इसके तहत तीन स्तरों पर नए सुधारात्मक आदेश लागू किए गए।

आंदा जैसे हजारों आदिवासियों को घर के नजदीक आटा, चावल, और तेल  मुहैया कराने के लिए सरकार ने उचित मूल्यों की दुकानों के लाइंसेस निजी व्यापारियों की बजाए स्थानीय समुदाय जैसे वन कोपोरेटिव, ग्राम पंचायत, ग्राम परिषदों और स्वयं सहायता समूहों को सौंप दिए। इसके लिए 2872 निजी व्यापारियों के लाइसेंस रद्द किए गए। इसका फायदा यह हुआ कि स्थानीय लोगों की भागीदारी से दुकानें पूरा दिन खुली रहने लगी और गांव वाले अपनी सुविधानुसार राशन लेने लगे। पूरे राज्य में ऐसी 2297 राशन की दुकानें हैं जो स्वयं सहायता समूहों द्वारा चलाई जा रही हैं। स्थानीय लोगों की भागीदारी ने जवाबदेही को भी बढ़ाने का काम किया। अब निजी व्यापारी के तरह दुकान चलाने वाले समूह जल्द दुकान बंद करने और राशन खत्म होने का बहाना नहीं कर सकते थे। संरचनात्मक स्तर पर अगला सुधार राशन की दुकानों की गिनती बढ़ाना था। दुकानों की गिनती 8492 से बढ़ाकर 10465 कर दी गई। इसके तहत हर ग्राम पंचायत में एक दुकान खोली गई। इससे राशन लेने की लंबी कतारों में कमी आई और कम समय में ही राशन मिलने लगा।  

इसके बाद सबसे बड़ा सुधार राशन को गोदामों से दुकानों तक पहुंचाने के लिए ट्रांसपोटेशन प्रणाली में बदलाव कर किया गया। अभी तक निजी व्यापारी अपने कोटे का राशन उठाकर दुकान तक पहुंचने से पहले ही ओपन मार्किट में उसे ऊचें दामों पर बेच देते थे। लेकिन नए सिस्टम के तहत सिविल सप्लाई कारपोरेशन ने सभी उचित मूल्यों की दुकानों पर बिना किसी अतिरिक्त लागत के राशन की सप्लाई करने की शुरूआत की। इसके लिए हर महीने की छह तारीख तक पीले रंग के विशेष ट्रकों में पूरी सप्लाई पहुंचाई जाती है। सारी सप्लाई सीधा दुकान तक पहुचने से ब्लैक मार्किटिंग की संभावना में कमी  हुई।

अधिकतर राशन की दुकानें घाटे में चलने के कारण व्यापारी अक्सर राशन का चावल या आटा मिल मालिकों को अधिक दामों में बेचकर अपना मुनाफा बढ़ाने की फिराक में रहता था ऐसे भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए पीडीएस की कमीशन 8रूपए प्रति किवंटल से बढ़ाकर 30 रूपए प्रति किंवटल की गई। इस प्रोत्साहन ने आम आदमी का आटा चावल बाजार में बेचे जाने की प्रवृति पर कुछ हद तक रोक लगाने का काम किया।  इसके लिए 40 करोड़ रूपए प्रति वर्ष की अतिरिक्त लागत राज्य सरकार को सहनी पड़ी। पीडीएस चलाने के लिए ब्याज रहित 75 हजार रूपए तक के ऋण देने की योजना ने भी  लोगों को पीडीएस की बागडोर अपने हाथों में लेने के लिए प्रोत्साहित किया।  पीडीएस के अलावा दूसरी चीजें बेचने की अनुमति ने भी स्थानीय लोगों को पीडीएस की जिम्मेदारी लेने के लिए प्रेरित किया। इससे पीडीएस की दुकान चलाने वालों का मुनाफा 700 रूपए प्रति माह से बढ़कर 2500 रूपए हो गया।

किसी भी राज्य में पीडीएस की असफलता का सबसे बड़ा कारण फर्जी कार्ड हैं। हाल ही में कर्नाटक और महाराष्ट्र में लाखों की संख्या में फर्जी कार्ड पकड़े जाने का मामला सामने आया। छत्तीसगढ़ में भी ऐसे कार्डों से छुटकारा पाना एक बड़ी चुनौती थी।  अधिक लोगों तक राशन पहुुंचाने के लिए सरकार ने पुराने कार्डों को खत्म कर नए प्रकार के कार्ड जारी किए। इस प्रक्रिया में तीन लाख के करीब फर्जी कार्डों को रद्द किया गया। बीपीएल के अलावा बूढ़े,विकलांग, अति गरीब लोगों को भी पीडीएस में शामिल करने के लिए पांच प्रकार के नए कार्ड जारी किए गए। जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के परिवारों को भी शामिल किया गया और  अति गरीबों को एक रूपए प्रति किलो चावल देने के कार्ड दिए गए। इससे करीब 80 प्रतिशत लोगों को कवर किया गया कुल मिलाकर राज्य सरकार इस नई प्रणाली को जारी रखने के लिए फिलहाल प्रति वर्ष 1440 करोड़ रूपए की सब्सिडी प्रदान कर रही है।

    
पीदीएस चलाने वाली यमुना समूह की महिलायें


रमन सिंह सरकार का दावा है कि इन सुधारांे ने हर घर में अनाज पहुंचा कर राज्य की मातृत्व मृत्यु दर को 407 प्रति लाख से कम कर 337 प्रति लाख और नवजात शिशु मृत्यु दर को 76 प्रति हजार से कम कर 56 प्रति हजार तक पहुंचा दिया है। भले ही इन सुधारों के जरिए राज्य सरकार अधिक से अधिक लोगों तक अनाज पहुंचाने में काफी हद तक सफल रही हो लेकिन आलोचकों का मानना है कि 35 किलो अनाज का काफी हिस्सा मंहगे दामों में मार्किट में बिक रहा है। जैसे कि राज्य के कांग्रेस नेता अजित जोगी का मानना है कि एपीएल परिवारों के हिस्सों का अनाज सीमावर्ती राज्यों में बेचा जा रहा है।

दूसरा बड़ी आलोचना का कारण यह है कि छत्तीसगढ़ का पीडीएस एक मंहगा माॅडल माना जा रहा हैं जिन्हें अन्य राज्यों में लागू करना संभव नहीं। इसके लिए अधिक संसाधनों और बजट की जरूरत है। छत्तीसगढ़ के पास बजट भी अधिक है और अनाज भी। जो कि अन्य राज्यों के लिए संभव नहीं। इसके अलावा इस माॅडल में भी दुकानों तक सप्लाई पहुंचाकर सरकार ने काफी हद तक गरीबों के हिस्से का अनाज ओपन मार्किट तक पहुंचने पर रोक लगा दी है लेकिन दुकानों से परिवारों तक अनाज पहुंच रहा है कि नहीं इस की माॅनिटरिंग में अभी सुधार की जरूरत है।  

(यह लेख २८ मार्च को दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ )