Saturday, 23 October 2010

मीडिया

 पेड न्यूज से भी खतरनाक है अंधविश्वासों का प्रचार
अन्नू आनंद

आखिर क्या कारण है कि अंधविश्वासों और पाखंडों पर लोगों का विश्वास शिक्षा के स्तर में सुधार के बावजूद बढ़ता जा रहा है? सही जवाब यह है कि अब अंधविश्वासों के साथ बाजार जुड़ गया है। बाजार के जुड़ने के साथ ही सभी प्रकार के प्रपंचों, आंडबरों, पाखंडों और अवैज्ञानिक सोच के प्रति मीडिया की रूचि बढ़ रही है। अभी तक चमत्कारों, भूतप्रेतों और अंधविश्वासों को फैलाने के लिए केवल टीवी चैनलों को ही दोष दिया जाता था। सांप सपेरे का खेल, प्रलयों की झूठी भविष्यवाणियों का प्रचार- प्रसार करने में चैनल अभी भी मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि विजुअल मीडिया से स्वयं को अधिक मैच्योर मानने वाला प्रिंट मीडिया भी इस होड़ में अब पीछे नहीं रहा। पाठकों की गिनती बढ़ाने की चाह में विभिन्न अखबार हर तबके को अपना लक्ष्य बनाने में जुटे हैं। स्पर्धा की इस लड़ाई में वे यह भूल रहे हैं कि लोगों की आस्थाओं और विश्वास को बाजार में तब्दील करने में वे लोगों को अज्ञानता की उस दलदल में धकेलने का काम भी कर रहें हैं जहां से उबरने में कईं सदियां लग गईं। मीडिया के लिए फिलहाल ‘बेचना’ ही सबसे बड़ी उपलब्धि है।

कुछ दिन पहले राजधानी दिल्ली से निकलने वाले मुख्य दैनिक समाचारपत्र की एक बायलाइन स्टोरी में लिखा हुआ था कि ‘‘रात्रि़ को सोने से पूर्व बालकनी से वस्त्रों (खासतौर पर सफेद रंग) को उतार लेना चाहिए ऐसी मान्यता है कि रा़ित्र में वस़्त्र बाहर सूख रहे हों तो अतृप्त आत्माएं उन वस्त्रों पर कुदृष्टि डालकर उन वस्त्रों के पहनने वालों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती हैं।’’

खराब स्वास्थ्य का कारण अत्ृप्त आत्माओं को बताना और वस्त्रों के माध्यम से उनकी कुदृष्टि पड़ने की बात किसी फूहड़ सोच का नतीजा है।

मीडिया के किसी भी माध्यम में किसी भी खबर, आलेख, कार्यक्रम या फिर विज्ञापन के जरिए लोगों मंे भ्रम फैलाना, उन्हें अज्ञानता का पाठ पढ़ाना, डराना, धमकाना या फिर अंधविश्वासों को प्रकाशित या प्रसारित करना एक खतरनाक अपराध है। इसकी एक वजह यह भी है कि अखबार में छपे और टीवी में आने वाले किसी भी खबर को अभी भी बहुत बड़ा वर्ग सत्य मानकर चलता है। ऐसे लोग अक्सर यह तर्क देते हैं कि, ‘‘अरे भई गलत कैसे होगा मैंने अखबार में पढ़ा था। या ‘‘टीवी में देखा था।’’ लेकिन झूठ और आडंबरों पर आधारित ऐसी खबरों और प्रोग्रामों की गिनती बढ़ती ही जा रही है।

पाठकों को भ्रमित करने वाली और कुतर्कों पर आधारित 10 अक्तूबर को छपी इसी स्टोरी में आगे लिखा था ‘‘घर के मुख्य द्वार से यदि रसोई कक्ष दिखाई दे तो घर की स्वामिनी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता और उसके बनाए खाने को ज्यादा लोग पसंद नहीं करते हैं। कौन सी वास्तुकला ऐसे विचारों को प्रचारित कर रही है? किसी भी शास्त्र, कला के नाम पर इस प्रकार के कुतर्कों को प्रचारित करने का मुख्य कारण केवल मुनाफा हो सकता है जो लोगों को भ्रमित कर ऐसे अंधविश्वास के झूठे समाधानों को बेचकर कमाया जा सकता है। मीडिया ऐसे उपायों और समाधानों को बेचने का मुख्य माध्यम बनता जा रहा है। विके्रताओं और मीडिया मालिकांे के इस मिले -जुले खेल में आम आदमी खासकर जो निराश और शोषित हैं, ऐसे प्रपंचों में जकड़ जाते हंै।

अभिव्यक्ति की आजादी का जो अधिकार हम पत्रकारों और लेखकों को लिखने की आजादी प्रदान करता हैे वही पाठको और दर्शकों को सही तार्किक और तथ्यों पर आधारित सूचनाएं और ज्ञान प्रकाशित-प्रसारित करने की जिम्मेदारी और जवाबदेही की भी मांग करता है।

ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं जब अखबार और टीवी चैनल लोगों को महज गुमराह करते नजर आते है। लेकिन इसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती। इन दिनों कुछ टीवी चैनलों पर बाधा मुक्ति यंत्र और नजर सुरक्षा कवच को बेचने के लिए लोगों को पूरी तरह से गुमराह किया जा रहा है। इन कार्यक्रमों में पढ़ने के बावजूद बच्चे के अंक कम आने, व्यापार में घाटा होने या बेटी की सगाई टूटने का कारण किसी रिश्तेदार या मित्र की नजर लगना बताया जा रहा है। इसके लिए नाटक रूपातंरण के रूप में ऐसी झूठी कहानियों को फिल्माया जाता है और समाधान के रूपमें यंत्र या कवच खरीदने पर जोर दिया जाता है।

अपने प्रोडेक्ट को बेचने के लिए उसे विज्ञापित करना जायज ठहराया जा सकता है लेकिन उसके लिए लोगों को भयभीत करना या फिर झूठी कहानियों के माध्यम से यह प्र्रचारित करना कि यह यंत्र यानी गले में पहनने वाला पेंडेट न लिया गया तो आप के अधूरे काम कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। किसी भी चीज को बेचने के लिए विज्ञापन की भी कोई आाचार संहिता है। बेचने का मतलब यह नहीं कि लोगों को गुमराह किया जाए वह भी नेशनल चैनल पर। मीडिया के नाम पर सरकार से लाइसेंस और दूसरी सुविधाएं लेने का अर्थ यह नहीं कि आम लोगों में भूत प्रेत, अतृप्त आत्माओं अंधविश्वासों से भरा फूहड़ अज्ञान का प्रचार करो। पेड न्यूज से भी खतरनाक इस मर्ज से भी मीडिया को सावधान रहना होगा। समाचारों के रूप में हर समय आंतक और जिज्ञासा बनाकर खबरों को बेचने वाले चैनलों और अतार्किक, रूढ़िवादिता, अवैज्ञानिक तथ्यों और जादू टोनो जैसे अज्ञान को फैलाने वाले हर माध्यम के खिलाफ भी आवाज उठाने की जरूरत है क्योंकि यह एक उन्नतशील समाज के लिए बेहद खतरनाक प्रवृति है।

आखिर क्या कारण है कि अंधविश्वासों और पाखंडों पर लोगों का विश्वास शिक्षा के स्तर में सुधार के बावजूद बढ़ता जा रहा है? सही जवाब यह है कि अब अंधविश्वासों के साथ बाजार जुड़ गया है। बाजार के जुड़ने के साथ ही सभी प्रकार के प्रपंचों, आंडबरों, पाखंडों और अवैज्ञानिक सोच के प्रति मीडिया की रूचि बढ़ रही है। अभी तक चमत्कारों, भूतप्रेतों और अंधविश्वासों को फैलाने के लिए केवल टीवी चैनलों को ही दोष दिया जाता था। सांप सपेरे का खेल, प्रलयों की झूठी भविष्यवाणियों का प्रचार- प्रसार करने में चैनल अभी भी मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि विजुअल मीडिया से स्वयं को अधिक मैच्योर मानने वाला प्रिंट मीडिया भी इस होड़ में अब पीछे नहीं रहा। पाठकों की गिनती बढ़ाने की चाह में विभिन्न अखबार हर तबके को अपना लक्ष्य बनाने में जुटे हैं। स्पर्धा की इस लड़ाई में वे यह भूल रहे हैं कि लोगों की आस्थाओं और विश्वास को बाजार में तब्दील करने में वे लोगों को अज्ञानता की उस दलदल में धकेलने का काम भी कर रहें हैं जहां से उबरने में कईं सदियां लग गईं। मीडिया के लिए फिलहाल ‘बेचना’ ही सबसे बड़ी उपलब्धि है।
कुछ दिन पहले राजधानी दिल्ली से निकलने वाले मुख्य दैनिक समाचारपत्र की एक बायलाइन स्टोरी में लिखा हुआ था कि ‘‘रात्रि़ को सोने से पूर्व बालकनी से वस्त्रों (खासतौर पर सफेद रंग) को उतार लेना चाहिए ऐसी मान्यता है कि रा़ित्र में वस़्त्र बाहर सूख रहे हों तो अतृप्त आत्माएं उन वस्त्रों पर कुदृष्टि डालकर उन वस्त्रों के पहनने वालों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती हैं।’’खराब स्वास्थ्य का कारण अत्ृप्त आत्माओं को बताना और वस्त्रों के माध्यम से उनकी कुदृष्टि पड़ने की बात किसी फूहड़ सोच का नतीजा है।

मीडिया के किसी भी माध्यम में किसी भी खबर, आलेख, कार्यक्रम या फिर विज्ञापन के जरिए लोगों मंे भ्रम फैलाना, उन्हें अज्ञानता का पाठ पढ़ाना, डराना, धमकाना या फिर अंधविश्वासों को प्रकाशित या प्रसारित करना एक खतरनाक अपराध है। इसकी एक वजह यह भी है कि अखबार में छपे और टीवी में आने वाले किसी भी खबर को अभी भी बहुत बड़ा वर्ग सत्य मानकर चलता है। ऐसे लोग अक्सर यह तर्क देते हैं कि, ‘‘अरे भई गलत कैसे होगा मैंने अखबार में पढ़ा था। या ‘‘टीवी में देखा था।’’ लेकिन झूठ और आडंबरों पर आधारित ऐसी खबरों और प्रोग्रामों की गिनती बढ़ती ही जा रही है।

पाठकों को भ्रमित करने वाली और कुतर्कों पर आधारित 10 अक्तूबर को छपी इसी स्टोरी में आगे लिखा था ‘‘घर के मुख्य द्वार से यदि रसोई कक्ष दिखाई दे तो घर की स्वामिनी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता और उसके बनाए खाने को ज्यादा लोग पसंद नहीं करते हैं। कौन सी वास्तुकला ऐसे विचारों को प्रचारित कर रही है? किसी भी शास्त्र, कला के नाम पर इस प्रकार के कुतर्कों को प्रचारित करने का मुख्य कारण केवल मुनाफा हो सकता है जो लोगों को भ्रमित कर ऐसे अंधविश्वास के झूठे समाधानों को बेचकर कमाया जा सकता है। मीडिया ऐसे उपायों और समाधानों को बेचने का मुख्य माध्यम बनता जा रहा है। विके्रताओं और मीडिया मालिकांे के इस मिले -जुले खेल में आम आदमी खासकर जो निराश और शोषित हैं, ऐसे प्रपंचों में जकड़ जाते हंै।

अभिव्यक्ति की आजादी का जो अधिकार हम पत्रकारों और लेखकों को लिखने की आजादी प्रदान करता हैे वही पाठको और दर्शकों को सही तार्किक और तथ्यों पर आधारित सूचनाएं और ज्ञान प्रकाशित-प्रसारित करने की जिम्मेदारी और जवाबदेही की भी मांग करता है।

ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं जब अखबार और टीवी चैनल लोगों को महज गुमराह करते नजर आते है। लेकिन इसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती। इन दिनों कुछ टीवी चैनलों पर बाधा मुक्ति यंत्र और नजर सुरक्षा कवच को बेचने के लिए लोगों को पूरी तरह से गुमराह किया जा रहा है। इन कार्यक्रमों में पढ़ने के बावजूद बच्चे के अंक कम आने, व्यापार में घाटा होने या बेटी की सगाई टूटने का कारण किसी रिश्तेदार या मित्र की नजर लगना बताया जा रहा है। इसके लिए नाटक रूपातंरण के रूप में ऐसी झूठी कहानियों को फिल्माया जाता है और समाधान के रूपमें यंत्र या कवच खरीदने पर जोर दिया जाता है।
अपने प्रोडेक्ट को बेचने के लिए उसे विज्ञापित करना जायज ठहराया जा सकता है लेकिन उसके लिए लोगों को भयभीत करना या फिर झूठी कहानियों के माध्यम से यह प्र्रचारित करना कि यह यंत्र यानी गले में पहनने वाला पेंडेट न लिया गया तो आप के अधूरे काम कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। किसी भी चीज को बेचने के लिए विज्ञापन की भी कोई आाचार संहिता है। बेचने का मतलब यह नहीं कि लोगों को गुमराह किया जाए वह भी नेशनल चैनल पर। मीडिया के नाम पर सरकार से लाइसेंस और दूसरी सुविधाएं लेने का अर्थ यह नहीं कि आम लोगों में भूत प्रेत, अतृप्त आत्माओं अंधविश्वासों से भरा फूहड़ अज्ञान का प्रचार करो। पेड न्यूज से भी खतरनाक इस मर्ज से भी मीडिया को सावधान रहना होगा। समाचारों के रूप में हर समय आंतक और जिज्ञासा बनाकर खबरों को बेचने वाले चैनलों और अतार्किक, रूढ़िवादिता, अवैज्ञानिक तथ्यों और जादू टोनो जैसे अज्ञान को फैलाने वाले हर माध्यम के खिलाफ भी आवाज उठाने की जरूरत है क्योंकि यह एक उन्नतशील समाज के लिए बेहद खतरनाक प्रवृति है।
(विदुर की पूर्व सम्पादक)

Tuesday, 3 August 2010

कुलपति जी, बस और नहीं!

अन्नू आनंद

कुलपति जैसे प्रतिष्ठित पद पर रहते हुए कोई ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर सकता है। यह सोच कर भी आश्चर्य होता है। इन शब्दों ने केवल महिला लेखिकाओं का ही नहीं समूचे महिला समाज का अपमान किया है।

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविधालय जैसा संस्थान जिस पर हिंदी भाषा को अन्य देशों में प्रतिष्ठित करने की जिम्मेदारी हो वहां का कुलपति देश की लेखिकाओं के लिए ‘छिनाल’ जैसे शब्द का इस्तेमाल करे और उसे एक प्रतिष्ठित संस्थान साहित्य संसथान की पत्रिका प्रकाशित भी करे तो समझ में आ जाना चाहिए कि शिक्षा और साहित्य का स्तर किस हद तक गिर गया है। शालीनता की सभी हदें पार कर किसी भी लेखिका के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल दिमागी दिवालियापन और घटिया सोच की निशानी है और ऐसे पुरूषों को ऊंचें पदों पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं।

अपने वक्तव्य के बचाव में दिए गए कुलपति के तर्क भी संतोषजनक नहीं है।
अपने बचाव में वे कहते हैं इस शब्द का इस्तेमाल प्रेमचंद कई बार कर चुके हैं। हांलाकि मेरा साहित्य में कोई दखल नहीं है लेकिन कुलपति जी जो साहित्यकारों की जमात में अच्छा रसूख रखते हेैं यह कैसे भूल गए कि प्रेमचंद की कहानियों मंे इस्तेमाल इस शब्द का संदर्भ दूसरा रहा है। कहानी का पात्र किस पृष्ठभूमि में और किस संदर्भ के तहत इस शब्द का इस्तेमाल कर रहा है यह सही सोच रखने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है। उन्होंने कुलपति की तरह कभी अपनी किसी टिप्पणी में महिलाओं या लेखिकाओं के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया।

अपने बचाव में उन्होंने एक अखबार को दूसरा तर्क देते हुए कहा कि उन्होंने किसी एक विशेष लेखिका के लिए नहीं बल्कि बहुत सी लेखिकाओं के लिए इसका इस्तेमाल किया है यानी गाली एक को नहीं बहुत सी महिला लेखिकाओं को दी गई है। क्या बहुत सी महिलाओं के लिए ये शब्द तर्कसंगत हैं?

उनका कहना है कि बहुत सी लेखिकाएं स्त्री विमर्श के सवाल पर केवल देह से मुक्ति पर विमर्श को केंद्रित रखती हैं। इसलिए उन्होंने ऐसे विचार रखे। यह आपति भी जायज नहीं। स्त्री विमर्श का फोकस क्या होना चाहिए इसपर उनके अपने विचार हो सकते हैं। जिस पर बहस की जा सकती है। लेकिन कोई भी लेखिका अपनी आत्मकथा में या अपने लेखों में किस प्रकार की मुक्ति को वरीयता दे यह उसकी अपनी अभिवयक्ति की आजादी का मसला है। अगर वह देह की मुक्ति को अपना विषय बनाती है तो क्या उसकोेे गालियां दी जाएं ? इसका सीधा सा अर्थ यह है कि कोई लेखिका क्या लिखे इसके लिए भी उसे मर्दों से राय लेनी होगी। महिलाओं के प्रति उनकी यह टिप्पणी अपरोक्ष रूप से उसी कट्टरपंथी सोच को प्रतिबिंबित करती है जो कभी महिलाओं को पब न जाने की हिदायत देती है तो कभी अकेले मंदिर में न जाने की नसीहतें। कभी राजनीति से दूर रहने में ही महिलाओं का भला मानती है। अब वार महिलाओं के लेखन पर है और वह भी गालियों के साथ। यानी अब लेखन पर पाबंदी के लिए गालियों का सहारा।
ताकि महिलाएं कुछ भी लिखने से पहले ऊंचे ओहदों मंे बैठे ऐसे मर्दों से खौफ खाएं जो उनकी आवाज को दबाने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं। लेकिन इन मर्दों के लिए एक नसीहत महिला यह बखूबी जान चुकी है कि पाबंदियों के घेरों से कैसे निकलना है, मर्दों के बनाए रूढ़ीवादी खांचों को कैसे तोड़ना है और अपने रास्तों को कैसे चुनना है अगर चाहें तो उसके हौंसलों के साथ खड़ा होना सीखें। उनकी बढ़ती हैसियत से खार खाकर उनमें फच्चर फसाने की कोशिशें बहुत मंहगी पड़ सकती हैं। महिलाओं का चरित्रहनन कर उन पर लगाम लगाने का पुराना और घटिया नुस्खा अब औेर नहीं चलेगा कुलपति जी!

Friday, 23 July 2010

कोख का कारोबार

सरोगेसी पर महिला विरोधी विधेयक

अन्नू आनंद

हाल ही में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने देश में सरोगेसी यानी किराए पर कोख से जुड़े विधेयक का मसौदा स्वास्थय मंत्रालय को भेजा है। मंत्रालय और परिषद में कईं सालों से चल रही कवायद के बाद जो प्रारूप तैयार किया है वह निराशाजनक है। अस्सिटिड रिर्पोडेक्टिव टेकनाॅलाजी (एआरटी) को नियं़ित्रत करने का जो मसौदा बना है उसमें महिला के हितों को कम बाजार को अधिक ध्यान में रखा गया है। प्रारूप के अधिकतर प्रावधानों से स्पष्ट है कि सरकार एआरटी के जरिए कीमती और खतरनाक प्रक्रियाओं को प्रोत्साहित करने के पक्ष में है।

विधेयक में सरोगेसी के नाम पर किराए पर कोख देने वाली महिला को आर्थिक मुआवजा देने, सीमेंन बैंक, फर्टीलिटी क्लीनिक, दवा कंपनियां और एआरटी बैंकों को बिचैलिए बनाकर किराए पर कोख देने और लेने के प्रावधानों का उल्लेख है। ये बैंक बकायदा कानूनी तौर पर विज्ञापन के माध्यम से सरोगेट मांओं, शुक्राणुओं और अण्डाणुदात्ताओं का पता लगाने का काम करेंगे। बैंक इन दात्ताओं को इसकी फीस भी अदा करेगा। विधेयक के एक अन्य प्रावधान के मुताबिक सरोगेट मां किराए पर कोख लेने वाले दंपति से भी वित्तीय मुआवजा ले सकती है। विधेयक में जिस प्रकार से बैंकांे, क्लीनिकों, ग्राहकों और पैसे के लेन -देन की सिफारिशों का जिक्र किया गया है उससे साफ जाहिर है कि सरकार और दवा कंपनियां एक औरत की जनन अक्षमता को भुना कर देश में कृत्रिम तरीके से बच्चा जनने के एक बड़े उधोग को बढ़ावा देने के पक्ष में है।

यह सही है भारतीय समाज में महिला के मां के रूप को अधिक सम्मानित किया जाता है। विवाह के बाद ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’ जैसे पारंपरिक आर्शीवचन आज भी उसकी परिपूर्णता मां बनने पर केंद्रित करते हैं। जो महिला शादी के कुछ सालों के बाद मां नहीं बन पाती उसे घर परिवार में ही नहीं समाज में भी हीन भावना से देखा जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि महिला के प्राकृतिक रूप से संतान पैदा करने से जुड़े महत्व को खारिज करने की बजाय तकनीकी विकास का इस्तेमाल ऐसी प्रक्रियाओं को प्रचारित करने मेें किया जा रहा है जो महिला के लिए बच्चा जनने के तरीके को व्यापार में बदल रहा है। इससे भले ही उसका स्वास्थ्य दाव पर लग जाए। शर्म की बात यह है कि सरकारी एजंसिया भी इसमें ‘बिजनेस’ के पहलु को अधिक महत्व दे रही हैं। विधेयक में आईवीएफ बैंक, अण्डाणु-शुक्राणु बैंक और आईवीएफ की तकनीकों का जिक्र कर एआरटी को जादू की छड़ी के रूप में पेश किया जा रहा है और ऐसा करने में उन खतरों और आशंकाओं को भुला दिया जा रहा है जो महिला के स्वास्थ्य से जुड़े हैं। विधेयक में केवल किराए पर कोख लेने के संबंध में किए जाने वाले समझौते से जुड़े विशेष प्रवधानों का उल्लेख है लेकिन कोख किराए पर देने वाली महिला के अधिकारों और उसके स्वास्थ्य के हितों की कोई चर्चा नहीं। विधेयक में स्वास्थ्य को होने वाले खतरों को केवल ‘छोटे खतरों’ं के रूप में वर्णित किया गया है। विधेयक के मुताबिक एक महिला अपने बच्चों के अलावा पांच सफल जन्मों के लिए अपनी कोख किराए पर दे सकती है। लेकिन बार बार गर्भवती बनाने या आईवीएफ तकनीक के अधिक प्रयोग से महिला या बच्चे के जीवन से जुड़े गंभीर खतरों को इसमें महत्व नहीं दिया गया।

पिछले कुछ सालों के अंदर भारत में सरोगेसी एक बहुत बड़े व्यापार में तबदील हो चुका है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में सरोगेसी का व्यापार 445 मिलियन डालर का है। यहां एक दंपति को एकबार कोख किराए पर लेने का कुल खर्चा 8 से 10 लाख तक का है। जबकि अमेरिका में यही खर्चा 25 से 35 लाख है।

इनमें 70 प्रतिशत ग्राहक गैर प्रवासी भारतीय हैं। दरअसल जिन देशों में कृत्रिम प्रजनन से संबंधित कानून ढीले हैं या फिर जिन देशों में इन तकनीकों से जुड़ी चिकित्सा सुविधाएं अधिक विकसित हैं उन देशों में ‘प्रजनन टूरिज्म’ अधिक पनप रहा है। भारत में विदेशियों द्वारा कोख किराए पर लेने के प्रति कोई दिशा निर्देश नहीं इस कारण पिछले कुछ समय से भारत में कम लागत और कम कड़े कानूनों के चलते सरोगेसी का व्यापार और बाजार बढ़ा है।

भारत में गरीबी के चलते आर्थिक मजबूरी के कारण गरीब और पिछड़ी महिलाएं किराए पर कोख देने के लिए तैयार रहती हैं। लेकिन बिचैलिए के रूप में काम करने वाली एजेंसियां इन जरूरतमंद महिलाओं को मात्र प्रजनन की वस्तु मानकर उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का शोषण कर रही हैं। उम्मीद की जा रही थी कि सरोगेसी और एआरटी तकनीको को नियंत्रित करने वाले कानून से महिलाओं के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए तकनीकों के दुरूपयोग पर रोक लगाई जाएगी। लेकिन विधेयक के प्रारूप से स्पष्ट होता है कि स्वास्थ्य मंत्रालय को महिलाओं के स्वास्थ्य की कितनी चिंता है। फिलहाल सरकार की पूरी मंशा देश में ‘प्रजनन स्वास्थ्य टूरिज्म’ को बढ़ाने में दिखाई दे रही है।

(यह लेख 22 जुलाई 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है। )

Thursday, 13 May 2010

अनसुनी आवाज: निरूपमा की मौत में छिपा ज़ात का सवाल

अनसुनी आवाज: निरूपमा की मौत में छिपा ज़ात का सवाल

निरूपमा की मौत में छिपा ज़ात का सवाल

अन्नू आनंद

निरूपमा किसी गांव, बस्ती की रहने वाली कम पढ़ी लिखी या अशिक्षित परिवार की बेटी नहीं थी। देश की राजधानी में दिल्ली में रहने वाली, आथर््िाक रूप से संपन्न और बुद्विजीवी कहलाए जाने वाल व्यवसाय पत्रकारिता से संबंधित थी। ऐसे में अगर उसके प्रेम विवाह की इच्छा उसकी मौत का कारण बनती है और जात से बाहर विवाह करने को अपमान मानने वाला पढ़ा लिखा परिवार अगर अपने सम्मान के लिए अपनी ही बेटी की जान ले लेता है तो निश्चिय ही यह प्रवृति काफी खतरनाक है। इस पर गंभीरता से बहस की जरूरत है।

निरूपमा की मौत से सब से अधिक स्तब्ध और सदमे का एक कारण यह भी है कि आनॅर किलिंग यानी ‘मान के लिए जान’ के इस घृणित और तालिबानी रिवायत को अभी तक केवल एक विशेष समुदाय, जाति और विशेष भौगोलिक क्षेत्रों से ही जोड़ कर देखा जाता था। जात बिरादरी से बाहर या गौत्र में शादी करनेे के कारण जिन युवा लड़के -लड़कियों की जाने गईं उसके लिए मुख्य दोषी वे दकियानूसी खाप पंचायतें थीं जिनके तुगलकी फरमानों से डरकर मां बाप या रिश्तेदारों ने मान के लिए अपने बच्चों को ही मार डाला। लेकिन निरूपमा की हत्या ने साबित कर दिया है कि जात को अपना मान सम्मान मानने की प्रवृति उच्च, सभ्य और शिक्षित परिवारों में भी हावी है। केवल जात से बाहर प्रेम करने या विवाह करने की इच्छा जाहिर करने पर उसकी हत्या कर देना घरेलु हिंसा का वह घृणित स्वरूप है जहां घर का व्यक्ति घर के सदस्य (खासकर महिलाओं ) के साथ बर्बर से बर्बर बर्ताव करने को भी अपना हक मानता है।

दरअसल जात और धर्म को लेकर जो मानसिकता हमारे समाज में घर कर चुकी है उसकी जड़े केवल पिछड़े और अनपढ़ वर्ग तक सीमित नहीं। यह हमारी सामाजिक बुनावट में रसी बसी है। जातिगत सूचक के रूप में उपनाम हमें खास पहचान देते हैं। कोई व्यक्ति कितना भी पढ़ा लिखा या उच्च स्तर पर हो लेकिन जातिगत आधरित उसके उपनाम से ही उसकी काबिलियत और हैसियत को आंका जाता है। इन जातिगत सूचकों को त्यागकर अगर कोई महज अपने नाम से अपनी पहचान बनाना चाहता है तो उसे निम्न या पिछड़ी जाति का मान कर उस से भेदभाव का रवैया अपनाया जाता है। निरूपमा की मौत समाज में जाति के महत्व पर कईं सवाल खड़े करती है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि जात के आधार पर समाज को विभिन्न खंाचों में बांटना क्या उचित है? प्रतिभा, गुण, शिक्षा की बजाय जात के आधार पर उच्च निम्न स्तर का वर्गीकरण क्या एचित है?

इन्ही सवालों के बीच दूसरी ओर सम्मान के लिए जान लेने वाली खाप पंचायतों के विभिन्न नेताओं ने हरियाणा में एक बड़ी बैठक कर हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन कर गौत्र में विवाह करने पर प्रतिबंध लगाने की मांग रखी है। इसके लिए उन्होंने निर्वाचित प्रतिनिधियों को मांग का समर्थन करने के लिए एक माह का समय दिया है। गौत्र में विवाह के कारण हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कईं युवाओं को पिछले दिनों अपनी जानें गवानी पड़ी। मीडिया और सामाजिक संगठनों की द्वारा इन पंचायतों के खिलाफ आवाज उठाने के बावजूद सरकार राजनैतिक हितों की खातिर इन पंचायतों के खिलाफ कोई कार्रवाई न कर सकी। सरकार की लापरवाही के चलते अब खाप पंचायत की प्रवृति सभ्य पढ़े लिखे परिवारों ने भी अपनानी शुरू कर दी है। इन परिवारों में भी छोटे से मान के लिए हत्या करना एक सामान्य व्यवहार का रूप ले रहा है। इस प्रवृति को रोकने के लिए गंभीरता से सोचना होगा। बहस का मुद्दा तो यह है कि हमारा फर्ज क्या सदियों से चले आ रहे जाति के दकियानूसी बंधन को तोड़ने वाले युवाओं को प्रोत्साहित करना है या फिर जातीय खांचांे को बढ़ाने वाली प्रवृतियों को। आने वाली जनगणना में जात के वर्गीकरण का समर्थन करने वाले नेताओं को भी अपनी राय बनाने से पहले जातिगत समाज से होने वाले खतरों के प्रति गंभीरता से विचार करना होगा।

वरिष्ठ पत्रकार

Friday, 2 April 2010

ऐसी तालिबानी सोच का क्या करें

अन्नू आनंद

मुलायम सिंह कहते हैं कि अभिजात्य वर्ग की महिलाओं के संसंद में आने से छेड़खानी की घटनाएं बढ़ेंगी। उन का कहना है कि बड़े घर की महिलाओं के संसंद में आने से लोग सीटियां बजाएंगे। महंत नृत्यगोपाल दास का कहना हैं कि महिलाओं को अकेले मंदिर, मठ या देवालय नहीं जाना चाहिए। इन जगहों पर उन्हें पुरूषों को साथ लेकर ही जाना चाहिए। धर्मगुरू रामविलास वेदांती तो महिलाओं के अकेले मंदिर में जाने पर प्रतिबंध लगाने के पक्ष में है। शिया कल्बे ज़व्वाद का कहना है कि महिलाओं को घर संभालना चाहिए, बच्चे पैदा करने चाहिए। उन्हेें राजनीति से दूर रहना चाहिए। उन्हें अच्छे नेता पैदा करने चाहिए न कि स्वयं नेता बनना चाहिए।

एक बार फिर से मुखर होती इस मर्दवादी सोच से साफ जाहिर है कि महिलाओं की बढ़ती सबलता से राजनेता और धर्मभीरू अपनी सत्ता में सुराख होते देख पूरी तरह बौखला गए हैं। एक ओर वे महिलाओं की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए राजनीति में उनके प्रवेश का विरोध कर रहे हैं तो दूसरी तरफ अपने पापों को छिपाने के लिए धर्म का सहारा लेकर महिलाओं को ऐसे खांचों में कैद करने की चाल चल रहे हैं जिससे उनकी पुरूषों पर निर्भरता बनी रहे। मुलायम सिंह समर्थक महिलाओं कीे राजनैतिक ताकत से डरे हुए हैंे इसलिए वे हर जायज और नाजायज हथकंडा अपनाकर महिलाओं को संसद से बाहर रखना चाहते हैं। धर्मगुरू राजनीति के साथ महिलाओं की वैयक्तिक आजादी पर भी प्रतिबंध की बात कर रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने साथी साधू संतों के चरित्र पर भरोसा नहीं।

मुलायम सिंह जिन्हें संसद में महिलाओं की तादाद बढ़ाने से सीटियों का डर सता रहा है वे ऐसी ओछी हरकतों के खिलाफ आवाज बुलंद करने की बजाय महिलाओं को संसद से बाहर रहने की सलाह दे रहे हैं। लेकिन वह यह भूल रहें हैं कि संसद के दोनो सदनों में अभी भी जितनी महिलाएं मौजूद हैं वे सिरफिरों की सीटियों का जवाब देने में पूरी तरह सक्षम हैं। ऐसे ओछों से निपटने के गुर वे जानती हैं और इसके लिए उन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं। लिहाजा जरूरत उन ओछे कठमुल्लापंथियों से लड़ने की है जो महिलाओं के राजनीति में आने से इस प्रकार भयभीत हैं कि कभी जाति कभी धर्म और अब उनकी अस्मिता और सुरक्षा का खोखला आधार बनाकर उन्हें घर की चारदीवारी में कैद करने की साजिश रच रहे हैं।

बाबा भीमानंद और स्वामी परमहंस नित्यानंद के सेक्स सकंेडलों में लिप्त होने के खुलासे के बाद नृत्यगोपाल दास और वेदांती जैसे धर्मगुरूओं को महिलाओं का मंदिरों में जाना नागवार लग रहा है। हास्यस्पद तो यह है कि ढोंगी साधू महात्माओं को सजा देने, उन्हें संयम सिखाने और महिलाओं का सम्मान करने का पाठ पढ़ाने की बजाय ये धर्मभीरू महिलाओं पर ही शिकंजा कसने लगे। कोई भी साधू का चोला पहन कर ही सच्चे अर्थों में साधू नहीं हो जाता। ऐसे फर्जी साधू तो हर जगह हैं लेकिन इसके लिए महिलाएं घरों में कैद तो नहीं हो सकतीं। उचित तो यह होता कि सभी धर्माचार्य ढोंगी बाबाओं की हवस पर लगाम लगाने और उन्हें उनके अपराध की कड़ी सजा देने की हिमायत करते। लेकिन इसका समाधान भी कट्टरपंथियों की इस जमात को महिलाओं के मंंिदर में अकेले प्रवेश पर रोक लगाने में दिख रहा है। यह तो वही बात हुई हाथ पर लगी चोट का इलाज करने के लिए हाथ काटने की सलाह देना। तरस आता है ऐसी सोच पर और इसको खमोशी से सुनने वाले समाज पर जो आज भी हर क्षेत्र में अपनी कौशलता से र्कीति के नए आयाम बनाने वाली मानवियों की सुरक्षा के नाम पर अपना भय, कमजोरी ओर कामुकता को छिपाने का गंदा खेल खेल रहे हैं। ऐसी मर्दवादी सोच का इतिहास काफी लंबा है।

तलिबानो ने महिलाओं पर पाबंदी लगाने के लिए हमेशा ही धर्म का सहारा लिया है। ऐसा ही एक फरमान के द्वारा वर्ष 1998 में अफगानिस्तान में तालिबानों ने महिलाओं की सभी बसों पर पर्दे लगाने और इन बसों में टिकट काटने के लिए 15 साल से कम उमर के लड़कों को रखने का हुक्म सुनाया। आदेश के पीछे इस्लाम धर्म का हवाला दिया गया। महिलाओं को बसों में पर्दों के पीछे रहनेे के इस हुक्म का कारण भी महिलाओं की इज्जत की रक्षा बताया गया था। ऐसी ही तालिबानी सोच अब भारत में भी लगातार सिर उठा रही है। महिलाओं को सुरक्षित रखने की यही दलील अब वेदातीं जैसे महंत और जव्वाद जैसे मौलना दे रहे है। यानी महिलाएं पुरूषों की हवस और दरिदंगी का शिकार न हो उनके रूप और सौन्दर्य को देख कर उनका मन न डोल जाए इसका इंतजाम भी महिलाएं करें।
यह प्रवृति सदा से महिलाओं को पीछे धकेलने की साजिश रचती रही है। इन धार्मिक कठमुल्लाओं का मकसद एक ही है कि अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए महिलाओं को ज्ञान और शिक्षा से दूर रखना। जहां उनके आत्मनिर्भर या सबल होने की बात होती है तो कभी इस्लाम, कभी हिंदू धर्म और कभी भारतीय संस्कृत के नाम पर महिलाओं के विचारात्मक शोषण करने की साजिश शुरू हो जाती है।

वर्ष 1990 में कोलकाता से प्रकाशित होने वाली एक बंगला पत्रिका को बांगलादेश में प्रवेश की अनुमति इसलिए नहीं मिली क्योंकि यह पत्रिका नारी शरीर की संपूर्ण जानकारी देने के साथ स्त्री शरीर के विकास की विभिन्न प्रक्रियाओं की जानकारी देती थी। लेकिन बांग्लादेश के तत्कालीन कत्र्ताधत्र्ताओं को यह अंक नागवार लगा इसलिए इस पर पाबंदी लगा दी गई। दरअसल नारी शरीर और उसकी विभिन्न प्रक्रियाओं की वैज्ञानिक जानकारी आम महिलाओं को मिलना पुरूषों के हित में नहीं था। महिला अगर यह समझ हासिल कर ले कि बच्चे के लिंग की जिम्मेदारी उस की नहीं पुरूष की है,े यौन संबंधों मे जितना सुख का अधिकारी पुरूष है उतनी महिला भी तो पुरूषों को महिला पर मनमानी चलाने और ‘लड़की जनने’ के उलाहने देने की तानाशाही चलाने में कष्ट होता।

जो तर्क इस पत्रिका के पर रोक लगाने के लिए है वही भारत में फायर जैसी फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए उत्पात मचाने वालों के थे। ऐसी ही तालिबानी सोच रखने वाले ‘मनसे’ के लोग कितनी बार भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर कभी फिल्मों के पोस्टर जलाते हैं, कभी पब जाने से रोकते हैं कभी वेलंनटाइन डे को मुद्दा बनाते हैं। महिलाओं के पहनावे से लेकर उनके उपनाम तक उनके निशाने पर है। भारत में धर्म और राजनीति में ऐसी तालिबानी सोच बेहद उफान पर है। लिहाजा अभी सबसे बड़ी चुनौती महिलाओं को इन धर्मभीरूओं, कठमुल्लापंथियों की चालों को नाकाम करने की है।

Wednesday, 31 March 2010

धर्म का बाजारवादी चेहरा

अन्नू आनंद

पिछले कुछ समय से महाराज, बाबाओं और गुरूओं के काले कारनामों का भण्डाफोड़ हो रहा है। एक के बाद एक फर्जी गुरू की असलियत खुल कर सामने आ रही है। पिछले कुछ सालों से अपने को संत, महात्मा बता कर लोगों के साथ छल करने वाले बाबाओं की संख्या बढ़ी है। हकीकत तो यह है कि शिक्षा के विस्तार और सूचना क्रांति के विस्फोट के बावजूद इन बाबाओं की दुकाने बढ़ती जा रही हैंै। अगर जरा ध्यान दें ंतो पता चलेगा कि छल और धोखे का यह फलता फूलता धंधा केवल बाबाओं तक ही सीमित नहीं। कस्बों और महानगरों की गलियां पिछले एक दशक में ऐसे ज्योतिषियों और पंडितों की बडीे बडी दुकानों से भरी पड़ी हैं जिस पर लगे लंबे चौड़े बोर्ड राशि-दोष दूर करने से लेकर किसी भी प्रकार की मुसीबत का तोड़ निकालने का दावा करते हैं। जो काम पहले केवल कुछ धर्माचार्याओं और विशेष पंडित बिना किसी होर्डिंग और विज्ञापन के छोटे स्तर पर करते थे। अब वह उस बाजार का बड़ा हिस्सा है जहां खरीदने की बढ़ती क्षमता के चलते हर चीज बिकाउ है।

दरअसल मुक्त बाजार व्यवस्था ने जहां आधुनिकीकरण को बढ़ावा दिया। लोगों की क्रय शक्ति में इज़ाफा किया। आर्थिक दर के ग्राफ को ऊपर उठाया। शिक्षा और ज्ञान का विस्तार किया। उसी मुक्त आर्थिक व्यव्स्था ने लोगों की धार्मिक प्रवृतियों को बढ़ाने का काम भी किया। 1991 से लागू हुए मुक्त व्यापार ने लोगों को सुख संपन्न बनाने के साथ उस संपन्नता को कायम रखने के प्रति उनमें भय और असुरक्षा की भावना को बढ़ाने का काम किया। असुरक्षा की इसी भावना ने भगवानों, बाबाओं और पीर बाबाओं में लोगों की आस्था भी बढ़ा दी। परिणामस्वरूप नए भगवानों, नए बाबाओं, नए मंदिरों और तीर्थ स्थलों की गिनती भी बढ़ने लगी है। आर्थिक सुधारों के चलते मध्य वर्ग की बढ़ती आय ने धार्मिक सेवाओं की मांग और पूर्ति को बढ़ाने का काम किया है।

वर्ष 2007 की स्टेट आफॅ नेशन की सर्वे के मुताबिक पिछले पांच सालों में भारतीयों में धार्मिक प्रवृति बढ़ी है। इस सर्वे में 30 फीसदी लोगों ने माना कि वे पहले के मुकाबले पिछले कुछ सालों में अधिक धार्मिक हुए हैं। सर्वे के मुताबिक आधुनिकता और शहरी जीवन की ओर खुलाव के कारण भारतीय पहले से अधिक धार्मिक हुए हैं। हैरत की बात यह है कि शहर के शिक्षित ग्रामीण अशिक्षितों की तुलना में अधिक धार्मिक हुुआ है। मीरा नंदा की पुस्तक द गाॅड मार्किट के मुताबिक आर्थिक समृद्दि ने मिडल वर्ग की हिंदु धार्मिकता को तीन प्रकार से प्रभावित किया है। पहली नए गुरूओं का अवतार, गुरूओं की संस्कृति को बढ़ावा और गुरूओं का भद्रकरण। नंदा के मुताबिक यह स्पष्ट है कि पाॅपुलर हिंदुत्व अत्यंत परिवर्तनशील है क्योंकि यह भारत की तेजी से बदलती अर्थव्यव्स्था और समाज का अनुकरण कर रहा है। मंदिरों का पुनरूद्धार हो रहा है। इन मंदिरों में श्रद्धालु अपने पुराने देवी देवताओं और अनुष्ठानों को नया रूप दे रहे हैं। कुछ नए भगवान और नए अनुष्ठान भी खोजे जा रहे़े हैं। कर्नाटक में मरीअम्मां जिसे छोटी चेचक निर्वारण देवी माना जाता था अब वह एड्स अम्मा या एड्स को ठीक करने वाली माता के रूप में प्रचलित है। कुछ स्थानीय देवी देवता जो बीमारियों को ठीक करने के लिए पूजे जाते थे अब सफलता और स्पर्धा भरे शहरी जीवन में समझदारी व सद्बुद्धि प्रदान करने के लिए पूजे जा रहे हैं। खर्च की बढ़ती क्षमता और आस्था में वृद्धि ने पूजा स्थलों की गिनती को कई गुणा बढ़ाने का काम किया। पवन वर्मा की पुस्तक बीनंग इडियन (2004) के मुताबिक वर्ष 2000 तक देश में 2.5 मिलियन पूजा के स्थल थे लेकिन स्कूल 1.5 मिलियन और अस्पतालों की संख्या 75 हजार थी।
इसी प्रकार एनसीएईआर की सर्वे से पता चलता है कि भारत के कुल पैकेज टूर में 50 फीसदी धार्मिक यात्राओं का बिजनेस है।

बाजार ने लोगों की आस्था को भुनाने के लिए केवल भगवानों या धर्म को ही साधन नहीं बनाया बल्कि त्यौहार, पूजा और दूसरे सभी अनुष्ठान भी बाजारी चमक के कारण अपनी मूलता खोते जा रहे हैं। जो त्यौहार या अनुष्ठान कभी घर के आंगन तक सीमित होते थे बाजार ने उन्हें बड़े उत्सवों में बदल दिया है। तीज, छठ, करवा चौथ दीवाली हर त्यौहार का राष्ट्रीयकरण हो चुका है और इन में क्षेत्रीयता की महक कम और बाजार के समान रंग अधिक नजर आते हैं। अधिक खरीदने और बेचने की चाह, विज्ञापनों की होड़ ने बाजारों को तो सजा दिया लेकिन किसी भी अनुष्ठान या त्यौहार की पवित्रता और सही मायनों को धुंधला बना दिया। अक्षय तृतीया कभी विवाह के लिए शुभ माना जाता था अब सोना खरीदने के लिए अधिक जाना जाता है। द वल्र्ड गोल्ड काउंसिल ने इस दिन को सोने के सिक्के और गहने खरीदने के लिए विशेष शुभ दिन घोषित कर दिया है। एक आंकड़े के मुताबिक 2006-2007 में इस दिन 38 टन की खरीददारी हुई जबकि रोज 2 टन की बिक्री होती है।

धर्म और आस्था भारतीय समाज में बेहद संवेदनशील मसले हैं। लोगों की भावनाओं को भुनाने का सबसे सरल साधन भी। पोंगा पडितों और फर्जी बाबाओं के लिए बाजार ने इन भावनाओं को कैश करना और सरल बना दिया है। यही कारण है कि ऐसे ढोंगी बाबाओं की जमात फलने फूलने लगी है जो लोगों को अध्यात्मिक बनाने के नाम पर अंधविश्वासों, आडंबरांे और कर्मकाण्डों को बढ़ावा देकर अपनी दुकान चमका रहे हंै। दुख की बात यह है कि वैज्ञानिक मानसिकता को प्रोत्साहित करने वाले सरकारी और गैरसरकारी संस्थान भी खमोशी से इसे बढ़ता हुआ देख रहे हैं। जरूरत है तार्किक सोच को बढ़ावा देने की। इसके लिए सरकारी गैरसरकारी संस्थाओं के साथ मीडिया को आगे आना होगा।

(यह लेख 31 मार्च 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Tuesday, 16 March 2010

अमल में लाना भी आसान नहीं महिला बिल

अन्नू आनंद

बेहद जद्दोजहद के बाद राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल तो पारित हो गया। लेकिन लोकसभा में यह बिल मौजूदा स्वरूप में पारित होता दिखाई नहीं देता। अब आरक्षण का प्रतिशत घटाने का दबाव बना कर सहमति बनाने की कोशिश चल रही है। हांलाकि सरकार बार-बार मौजूदा स्वरूप में इसे पास कराने के संकल्प को दुहरा रही है। लेकिन यह उतना आसान भी नहीं है। सबसे बड़ी चिंता तो यह है कि अगर बिल मौजूदा स्वरूप में लोकसभा में पास हो भी गया तो इसे अमल में लाने और आरक्षण के मकसद को पूरा करने का रास्ता बिल पास कराने से भी कठिन साबित होगा।

बिल को सदन में पहुंचाने के 14 साल के संघर्ष और इसमें ओबीसी महिलाओं को आरक्षण देने के यादव नेताओं के अड़ियल रवैये पर बेहद चर्चा और विश्लेषण हो चुका है। अब जरूरत यह देखने कि है कि महिला आरक्षण बिल को कानूनी जामा पहनने के बाद किन कठिनाइयों और चुनौतियों से गुजरना पड़ेगा। बिल के मुख्य प्रवधानों को देखने से साफ जाहिर है कि जितनी कठिन राह इसको पास कराने की रही उसको लागू करने और उससे प्रत्याशित परिणाम हासिल करने का संघर्ष और भी कठिन साबित होगा।

पहले बिल के मुख्य प्रावधानों पर एक नजर। मौजूदा स्वरूप में अगर बिल पारित होता है तो लोकसभा और सभी राज्यों (दिल्ली सहित) के विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। इसी प्रकार एससी और एसटी के लिए आरक्षित कुल सीटों मंे से एक तिहाई सीटें इन समूहों की महिलाओं के लिए आरक्षित होगीं। मसौदे के मुताबिक सीटों का आरक्षण रोटेशन के आधार पर होगा। कानून लागू होने के 15 सालों के बाद महिलाओं के लिए आरक्षण की अवधि खत्म हो जाएगी।

अगर बिल के इन मुख्य बिदुंओं का विश्लेषण करें तो कई सवाल और दिक्कतें जेहन में आते हैं। सबसे बड़ी चिंता सीटों के आरक्षण को लेकर है। इस संदर्भ में बिल में सीट के आरक्षण की प्रक्रिया को स्पष्ट नहीं किया गया। बिल के मुताबिक आरक्षित सीटों का निर्धारण संसद द्वारा निर्धारित आथोरिटी करेगी। लेकिन उसके लिए क्या प्रक्रिया होगी इसकी कोई चर्चा नहीं। अगर सीटांे का निर्धारण न्यायसंगत तरीके से नहीं हुआ तो इससे महिलाओं को समानता के दर्जे पर लाने का मकसद पूरा नहीं होगा। जंयती नटराजन की अध्यक्षता में बनी स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट मंे सिफारिश की है कि सरकार को इस मसले पर उचित तरीके से विचार विमर्श करना चाहिए। इसके अलावा बिल में रोटेशन के आधार पर सीट के आरक्षण को लेकर भी आलोचना हो रही है। इस प्रावधान के आलोचकांे का मानना है कि रोटेशन के आधार पर सीटांे का आरक्षण सांसदो विधायको को अपने निर्वाचन क्षेत्र में विकास के कार्य करने के प्रोत्साहन को कम करेगा। इससे राजनैकित अस्थिरता बढ़ेगी। पंचायतरीराज मंत्रालय दारा कराए गए एक सर्वे ने पंचायतो में निर्वाचन क्षेत्र के रोटेशन को खत्म करने की सिफारिश की हैं इस का कारण यह है कि पंचायतों में करीब 85 फीसदी महिलाएं जो पहली बार पंचायतों में चुनकर आईं थीं उनमंे से केवल 15 फीसदी महिलाएं ही दुबारा निर्वाचित हो सकीं क्यांेकि जिन सीटों से वे चुनी गईं थी वे रोटेशन के तहत आरक्षित नहीं रही थीं। रोटेषन का सही प्रीााव विधानसभा और लोकसभा की आरक्षित सीटों पर भी देखने की आशंका व्यक्त की जा रही है।

रोटेशन के कारण वोटरों के प्रति निर्वाचित सदस्य की जवाबदेही भी कम होगी। वोअर अपनी ताकत को कम होता महसूस करेंगे। दो तिहाई मौजूदा उम्मीदवारों को रोटेशनल आरक्षण के कारण अपनी सीटें छोड़नी पड़ सकती है जिससे निर्वाचित सदस्य अपने क्षेत्र के मुद्दों पर गंभीरता से काम नहीं कर पाएंगे। इस प्रकार रोटेषन के प्रावधान को लागू करने में सरकार को बेहद विचार विमर्श और सतर्कता से फैसला लेना होगा।

इस के अलावा महिलाओं के आरक्षण की सीमा अवधि 15 सालों तक सीमित करने पर भी पुनर्विचार की जरूरत है। क्योंकि इससे महिलाओं को पर्याप्त राजनैतिक प्रतिनिधित्व मिलना संभव नहीं। पंचायत चुनावों के अनुभवों से पता चलता है कि आरक्षण के पहले दो चरण महिलाओं के लिए राजनैतिक दावपेंचों को सीखने के लिए जरूरी हैं ऐसे में अगर तीसरे चरण के बाद आरक्षण को खत्म कर दिया जाता है तो इससे महिलाएं अपनी योगयता को साबित करने में और उन्हें बराबरी के स्तर पर लाने का मकसद अधूरा रह जाएगा। स्थायी समिति ने भी इस समय सीमा को बढ़ाने की सिफारिश की है। साठ साल की अवधि के बाद भी अनुसुचित जाति और जनजातियों को मिले आरक्षण का मकसद पूरा नहीं हो सका। ऐसे में 15 साल की अवधि से आस लगाना मूर्खता होगी।

यह ठीक है कि पंचायतों और नगरपालिकाओं में आरक्षण ने महिलाओं में आत्मबल और फैसले लेने की नई उर्जा का संचार किया है और अब संसद तथा विधानसभाओं में भी महिलाओं की गिनती बढ़ने से नीति आधारित फैसलों में महिला नजरिया सार्थक साबित होगा लेकिन समझने की बात यह है कि बिल पास होने का जश्न मनाने के साथ आगे की टेढ़ी पगडंडी पर भी ध्यान में रखना होगा।

Friday, 5 February 2010

कृपया! मीडिया उपभोक्ता को नासमझ न समझे

अन्नू आनंद
मीडिया वही दिखाता या छापता है जो लोग देखना या पढ़ना चाहते हैं। यह कथन बार बार दोहराया जा रहा है। लेकिन क्या सह सही है? किसी भी प्रोडेक्ट के लांच से पहले जिस प्रकार मार्किटिंग सर्वे की जाती है इन दिनो शायद मीडिया भी अपने ‘प्रोडेक्ट’ यानी चैनल या अखबार की शुरूआत से पहले ऐसी ही कोई सर्वे कराता हो। यह अलग बात है कि यह सर्वे भी उन्हीं लोगों के बीच कराई जाती है जिन की रूचियों को ध्यान में रखकर ‘प्रोडेक्ट’ बनाया जाता है। खैर, अब तो इसकी जरूरत भी अधिक दिखाई नहीं पड़ती क्यों कि हर नया चैनल वही दिखाना चाहता है जो दूसरे चैनल दिखाते हैं और चैनलों के टीआरपी ग्राफ के हिसाब-किताब से नए चैनल के कंटेट का निर्धारण हो जाता है। टीआरपी को समूचे देश के लोगों की अभिरूचियों का आधार मानते हुए मीडिया ने अपने पूरे चरित्र को ही बदल दिया गया है। टीआरपी की विश्वसनीयता और उसके तकनीकी गुणों और दोषों पर और बहस करना उचित नहीं क्योंकि बहुत से मीडिया विशेषज्ञ भी जानते हैं कि टीआरपी भले ही बहुत से लोगों के कैरियर का भविष्य निर्धारित करती हो लेकिन बहुसंख्यक लोगों की पसंद-नापसंद को पहचानने का यह मापदण्ड बेहद खोखला है। अलबता, टीआरपी के आधार पर कंटेट करना उचित नहीं ठहराया जा सकता।
हकीकत तो यह है कि अभी तक राष्टीय स्तर पर ऐसी कोई सर्वे नहीं हुई जिसमें देश के 76 प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों की इच्छाओं और आकंक्षाओं को भी शामिल किया गया हो और जो ये बताए कि मीडिया में जो दिखाया जा रहा है वे उनकी पसंद और इच्छाओं के अनुरूप है।
पिछले दिनों चैनल के एक राजनीतिक संपादक ने मीडिया के मौजूदा चरित्र को सही ठहराने की कोशिश में लिखा कि जनता की पसंद दिल्ली के बड़े सेमिनारों में आए लोगों से तय नहीं की जा सकती उसके लिए ‘जमीं पर जाना होगा।’ बिल्कुल सही कहा। लेकिन उसके साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि जमीन पर जाने का अभिप्राय केवल कुछ चुनिंदा और मध्यवर्गीय लोगों की पसंद नहीं बल्कि देश की बहुसंख्यक जनता की रूचियों हैं जो अक्सर मीडिया से गायब रहती हैं। अफसोस तो इसी बात का है कि शहरों से बाहर निकलकर कभी इस बात का पता लगाने की कोई सार्थक कोशिश ही नहीं की गई कि गावों के लोग जो देश की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं, क्या चाहते हैं--- ‘जमीन’ पर जाकर गांवों के उन सभी लोगों को शामिल कर के देखिए जो देश की अधिकतर जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन फिर भी ‘टैम’ से बाहर हंेै तो पता चलेगा कि लोगों की सोच अभी भी कुंठित नहीं हुई।
शहरों से बाहर ग्रामीण लोगों की राय जानने के एक प्रयास से यह सबक मिल जाएगा कि गावों के लोग समाचारों में शेयर -मार्किट, फिल्मी सितारे, भूत- प्रेत, फैशन या खान -पान से कहीं अधिक ऐसे प्रयासों, सरोकारों को देखना चाहतें हैं जिस से उनके रोजमर्रा के जीवन में सुधार हो सके। कम से कम समाचार चैनलों से तो वे सच और वास्तविक जीवन से जुड़ी घटनाओं और समस्याओं की खबरों की ही उम्मीद करते हैं। असली भारत का यह बहुसंख्यक समाज इस बात को अच्छी तरह समझता है कि बडी हस्तियों को जानने या फिर चमत्कारों और भविष्य को जानने -समझने की भूख मनोरंजन चैनलो से भी पूरी हो सकती है। लेकिन पेट की भूख को शंात करना है तो उन के लिए नए रेस्त्रां या नए किसी नए प्रोडेक्ट के लांच (जो अक्सर न्यूज का हिस्सा बनते जा रहे हैं) से कहीं अधिक यह जानना जरूरी है कि गावों की राशन की दुकानों में राशन क्यों नहीं पहुंच रहा। कुपोषण आखिर कौन सी बला है जो चैनलों पर दिखाई जाने वाली ‘प्रलय’ या ‘स्वाइन फल’ू से भी अधिक बच्चों की जानें ले रही है। गावों और कस्बों में यह सोच निरंतर फैल रही है कि मीडिया में आम आदमी और उसके सरोकार गायब क्यों है?ं अखबार और टीवी में केवल बड़े लोगों और सनसनीख्ेाज घटनाओं तक ही सिमटता क्यों जा रहा है? अपने तर्क के संदर्भ में यह बताना जरूरी होगा कि पिछले कुछ वर्षों में ग्रासरूट पत्रिका के संपादक होने के नाते मुझे करीब 15 राज्यों के छोटे कस्बों से लेकर दूर-दराज के असंख्य गावों का दौरा करने का मौका मिला। हर दौरे में गावों के चबूतरों पर हुई ग्रामीणों के साथ हुई बैठकों, स्थानीय कार्यकर्ताओं से लेकर कसबों के आम लोगों और लोकल पत्रकार बिरादरी के साथ ं हुईं सभी बैठकों में मीडिया का कंटेट खास चर्चा का विषय रहा। एक ही सवाल मुझे बार बार मीडिया का नुमाइंदा होने पर शर्मसार कर देता कि मीडिया में आम आदमी गायब क्यों है। मैं थोड़ा झेंपते हुए उन्हें भरोसा दिलाने की कोशिश करती कि जब महज एक प्रतिशत लोंगों से जुड़े शेयर मार्किट की खबरें अखबारों और चैनलों की हेडलाइन्स बन सकती हैं तो फिर आम आदमी से जुड़े सरोकार और विकास की खबरें क्यों नहीं। मीडिया पर हुई हर चर्चा इस तर्क को और मजबूत करती कि दर्शक या पाठक बेवकूफ नहीं।
ऐसा नहीं गांव और विकास की खबरें मीडिया का हिस्सा बिल्कुल नहीं है या नहीं रहा लेकिन मुझे गुस्सा इस बात की है कि अधिक लोगों के मसले अखबारों में केवल कुछ सेंटीमीटरों में और चैनलों में कुछ मिनटों तक ही सिमट कर क्यों रह जातें हैं? लाइफस्टाइल, भूत-प्रेत, भगवानों, चमत्कारों ज्योतिषियों की भविष्यवाणियों से लेकर शेयर मार्किट तक के लिए या तो अलग चैनल और पन्ने हैं या उनके लिए निर्धारित स्लाॅट हैं। लेकिन शिक्षा, भुखमरी, कृषि, कुपोषण, रोजगार जैसे मसले जो हमारे समाज का बड़ा सच है उससे हम नजरअदांज कर यह मानकर चल रहे हैं कि लोग यही देखना चाहते हैं। अरे अगर आप प्रोडेक्ट बेच रहे हैं तो उपभोक्ता को नासमझ भी मत समझें।
अभी गावों ओर कस्बों से निकले और ऐसी समस्याओं को उठाने का मिशन लिए पत्रकारिता में आने वाले मेरे वे साथी जो आज चैनलों और अखबारों के शीर्ष पदों पर बैठे हैं ऐसे सवाल पर झट ‘टीआरपी’ ओर विज्ञापनों की कमी का रोना लेकर बैठ जाएंगे। कैरियर और मीडिया की आर्थिक मजबूरी का दम भरते हुए इन बातों की आलोचना करते हुए कहेंगे नैतिकता का पाठ पढ़ाना आसान है। लेकिन मीडिया की आर्थिक व्यवस्था को सही रखने का गणित और। ठीक है भई, अगर व्यापार ही करना है तो फिर मीडिया का क्यों? यह नहीं भूलना होगा कि कई प्रकार की सहूलियतों और विशेषाधिकारों से खड़े किए गए इस मीडिया (जिसे व्यापार मान रहे हैं) से लाखों लोगों के हित जुड़े हैं। इस धंधे मंे तो भले ही ‘प्रोडेक्ट’ कितना भी खराब हो किसी कंज्यूमर कोर्ट में सुनवाई भी नहीं होगी।
अजीब बात यह है कि अधिकतर मेरे हमपेशी विचार गोष्ठियों और सेमीनारों में अपनी व्यावसायिक मजबूरियांे को स्वीकारने और कोई रास्ता निकालने की बजाय ये कहते नहीं थकते कि मीडिया तो समाज का आईना है और वह वही दिखाता है जो समाज में होता है और यही पत्रकार का धर्म है। कुछ समय पहले मीडिया पर हुई एक ऐसी ही गोष्ठी में एक दैनिक समाचार पत्र के प्रबंध संपादक ने ऐसे ही विचार रखे। लेकिन यह धर्म केवल एक विशिष्ट यानी इलीट वर्ग के प्रति क्यों निभाया जाता है। एनडीटीवी सहित कई अन्य चैनल कोहरे के कारण केवल फलाइटों के कैंसल होने से यात्रियों को होने वाली कठिनाइयों की खबर देता है। लेकिन 200 के करीब रेलगाड़ियां के प्रभवित होने और यात्रियों के प्लेटफार्मों पर बैठने की खबरें दूरदर्शन दिखाता है। अगर मीडिया समाज का आईना होने का दावा करता है तो माफ कीजिए हमारा देश केवल सांप बिच्छू स्वयंवर, उत्सवों, आयोजनों से भरा नहीं।
पिछले दिनों एक चैनल के संपादक ने हिम्मत दिखाते हुए इस बात को स्वीकारा कि टीवी ने पत्रकारों को ‘टीआरपीबाज’ बना दिया है और संपादकों को ‘ब्रांड मैनेजर’। इसलिए पत्रकारिता के सही मायने खो गए हैं संभव है इससे बहुत से अन्य संपादको को भी अपने छोटे होते कदों का अहसास हो और वे टीआरपी के भम्रजाल से बाहर निकल समाज का वास्तविक आईना बनने के प्रयासों को तेज करें।
(पूर्व संपादक मीडिया पत्रिका विदुर)

Thursday, 14 January 2010

भूमंडलीकरण में महिलाएं

अभी तो खुरचन ही हाथ लगी
अन्नू आनंद
उदारीकरण की शुरूआत के करीब दो दशकों के बाद ग्लोबलाइजेशन के दौर में महिलाओं की स्थिति का आकलन करते हुए ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ की कहावत याद आती है। यानी यूं कहें कि मुक्त बाजार व्यवस्था ने महिलाओं को दिया कम पर लिया अधिक तो गलत नहीं होगा। भूमंडलीकरण की आंधी ने जहां कुछ प्रतिशत महिलाओं को फायदा पहुंचाने का काम किया उससे कहीं अधिक प्रतिशत महिलाओं को विश्व व्यापार की शर्तों के थपेड़ो ने उनकी पंारपरिक आजीविका के साधनों को छीनकर उन्हें अर्थ व्यव्स्था से बाहर करने पर भी मजबूर किया है। पहले से ही सामाजिक असमानता के माहौल में जीती भारतीय महिलाओं पर भूमंडलीकरण का प्रतिकूल असर अधिक नजर आता है। हमारे देश की आर्थिक व्यव्स्था में महिलाओं का सबसे अधिक योगदान कृषि के क्षेत्र में है। यहां अधिकतर खेतिहर कार्य महिलाओं द्वारा किए जाते हैं। महिलाओं का ज्ञान और उनकी निपुणता बीजों की सुरक्षा, खाद्य उत्पादन और फसलों की विविधता और खाद्य प्रोसेसिंग में काम आती है। लेकिन विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत कृषि पर कारपोरेट जगत का दबदबा बढ़ा है। जो खाद्य सुरक्षा महिलाओं के काम पर निर्भर करती है उसे कारपोरेट संबंधित खाद्य संस्कृति ने पीछे धकेल दिया है। ट्रिप्स ( व्यापार संबंधित बौद्दिक संपति अधिकार) समझौते के तहत ग्रामीण महिलाओं से बीज और जैव विविधता का ज्ञान छिनकर ग्लोबल कंपनियों के हाथों चला गया है। वर्ष 2005 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने भूमंडलीकरण के कृषि पर होने वाले प्रभावों पर कराए एक अध्ययन में कहा था कि विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि पर समझौता अनुचित और असमान है और इससें कृषि में कार्यरत महिलाओं पर नकारात्मक बदलाव आया है। कारपोरेट आधरित कृषि ने महिलाओं को उनकी खाद्य उत्पादन और खाद्य प्रस्संकरण की जीविका से बेदखल करने का काम किया है। यह सही है कि ग्लोबलाइजेशन ने अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में महिलाओं को रोजगार के असीम अवसर प्रदान किए है। जो महिलाएं परिवार की देखभाल में समय बिताती थीं उन्हें श्रम प्रधान इन इकाइयों में काम करने का अवसर मिला लेकिन इस प्रक्रिया ने महिलाओं से उनके काम के बुनियादी अधिकार छीन लिए। 1990 से शुरू हुए एसएपी (ढांचागत समयोजन) कार्यक्रम के तहत कई विदेशी कंपनियों ने अपने निर्यात उधोगों जैसे कपड़ा, खेल का सामान, फूड प्रोसेसिंग, खिलौनों की इकाईयों को भारत में खोलकर महिलाओं को सस्ता श्रम मानते हुए उन्हे अधिक से अधिक काम पर रखा। लेकिन असुरक्षित माहौल और दमघोंटू काम की स्थितियों ने महिलाओं को ‘गुलाम वेतनभोगी’ बनाने का काम अधिक किया। नौकरियां मिलीं लेकिन न तो युनियन बनाने के अधिकार और न ही अपने अधिकारों के खिलाफ लड़ने या आवाज उठाने के अधिकार मिल सके। काम की उचित कल्याणकारी सरकारी नीतियों के अभाव ने इन महिलाओं को बदहाल और गुलाम बनाने वाली कार्य स्थितियों में भी काम करने का आदी बना दिया है। इस प्रक्रिया ने ‘गरीबी के स्त्रीकरण’ को अधिक प्रोत्साहित किया है। एक अनुमान के मुताबिक विश्व के कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई घंटे काम करती हंै। लेकिन विश्व की केवल दस तिहाई आय अर्जित करती हंै और विश्व की केवल एक प्रतिशत संपति की मालकिन हंै। ग्लोबलाइजेशन के चलते आर्थिक और सामाजिक स्तर पर आगे बढ़ने के रास्ते खुलने का कुछ हद तक लाभ शहरों की शिक्षित अधिकार संपन्न महिलाओं को हुआ। लेकिन यहां भी फायदा उन्हीं महिलाओं को मिला जो संगठित क्षेत्रों की कंपनियों में बेहतर कार्य शर्तों पर काम करने की स्थिति में अधिक थीं। संचार माध्यमों के विस्तार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, मीडिया के विस्तार और विश्व स्तरीय संस्थाओं के भारत में खुलने से महिलाओं को समान अवसर और अपने अधिकारों के प्रति जागृत करने का काम किया है। इस से महिलाओं के स्तर में बदलाव लाने की कुछ हद तक कोशिश भी सफल हुई। गैर सरकारी संगठनों के आने से महिलाओं में साक्षरता और वोकेशनल प्रशिक्षण का लाभ भी मिला है। लेकिन खुले बाजार से पैदा हुई उपभोक्ता संस्कृति का शिकार भी महिलाएं बनीं। इस संस्क्ति ने महानगरों से लेकर छोटे शहरों की महिलाओं को महज उपभोक्ता और उत्पादक बनाने का काम अधिक किया है। ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया ने विकास के नए आयाम बनाए हैं लेकिन लाभों के असमान वितरण से आर्थिक असमानता बढ़ी है। वर्ष 2000 में बीजिंग प्लस 5 परिपत्र में 1995 में हुए संयुक्त राष्ट्र महिला सम्मेलन के बाद से हुई प्रगति का आकलन करते हुए कहा गया है कि ग्लोबलाइजेशन कुछ महिलाओं को अवसर प्रदान करता है लेकिन बहुत सी महिलाओं को हाशिये पर भी धकेलता है इसलिए समानता के लिए उन्हें मुख्यधारा में लाने की जरूरत है। ग्लोबलाइजेशन के मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए यह स्पष्ट है कि इससे समान रूप् से महिलाओं का भला होने वाला नहीं। ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है जो महिलाओं की कार्यक्षमता को बढ़ाने और भूमंडलीकरण के नकारात्मक सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का सामना करने के लिए उन्हें सशक्त बनाने का काम करे। भूमंडलीकरण का महिलाओं का उचित लाभ पहुंचे इसके लिए रोजगार की नीतियां को दुबारा तैयार करना होगा। ऐसे अवसरों का निर्माण करना होगा जिसमें महिलाएं विकास की प्रक्रिया में भागीदार बने। इसके लिए ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया के स्वरूप को बदलने की जरूरत है ताकि महज ‘लाभ’ पर केंद्रित नीतियों की बजाय ऐसी नीतियां बने जो लोगों पर केंद्रित हों और महिलाओं के प्रति अधिक जवाबदेह। वरना कहना गलत न होगा कि अभी तो खुरचन ही हाथ लगी। वरिष्ठ पत्राकार
यह लेख १२ जनवरी २०१० को राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में प्रकशित हुआ है