अनसुनी आवाज़ उन लोगों की आवाज़ है जो देश के दूर दराज़ के इलाकों में अपने छोटे छोटे प्रयासों के द्वारा अपने घर, परिवार समुदाय या समाज के विकास के लिए संघर्षरत हैं। देश के अलग अलग हिस्सों का दौरा करने के बाद लिखी साहस की इन कहानियों को मैं अख़बारों और इस ब्लॉग के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना चाहती हूँ क्योंकि ये खामोश योधाओं के अथक संघर्ष की वे कहानियाँ हैं जिनसे सबक लेकर थोड़े से साहस और परिश्रम से कहीं भी उम्मीद की एक नयी किरण जगाई जा सकती है।
Saturday, 14 November 2009
दलितों की थाली अलग क्यों ?
अन्नू आनंद
पिछले दिनों राहुल गांधी का दलित प्रेम उमड़ा तो उन्होंने उत्तर प्रदेश के कई गांवों का दौरा कर दलितों के घरों में जाकर उनकी समस्याओं को सुना और समझा। यही नहीं उन्होंने गरीब और दलितों के घर रात बिताने के बाद अपनी पार्टी के नेताओं को भी यही समानता का पाठ पढ़ाने की कोशिश की। उनकी हिदायत को मानते हुए गांधी जयंती पर सत्तारूढ़ पार्टी के कई मंत्री, सांसद, विधायक और क्षेत्रीय नेताओं ने भी अपने क्षेत्र के दलित बाहुल्य गांवो में जाकर दलितों के साथ चैपाल लगाई। उनके साथ अपनी थाली लगाकर ऐसा स्वांग रचा मानो उन्होंने ‘समानता’ की गंगा में डुबकी लगा ली हो।
अगर राहुल गांधी सहित इन मंत्री और नेताओं ने गावों में जाकर यह टोकन दलित-प्रेम दिखाने की बजाय गरीबों और दलितों के लिए चालू की गई सरकारी योजनाओं को चलाने वाले मुलाजिमांे के साथ बैठक कर उन्हें समानता की सीख दी होती तो देश के लाखों बच्चे स्कूलों में चल रही मिड डे मील योजना में अपनी अलग थाली लगाने की जिल्लत से बच जाते। संभव है कि सरकार की यह सीख मिड डे मील से वचिंत रहने वाले दलित बच्चों को बिना अपमान सहे एक समय का भोजन उपलब्ध कराने में सहायक साबित होती। अक्सर राजनेता चुनावी स्वार्थ को पूरा करने के लिए गरीबों और दलितों के प्रति ऐसी प्रतीकात्मक उदारता दिखाते हैं लेकिन जमीनी सचाई बेहद ही अलग है।
एक तरफ सरकार भोजन का अधिकार विधेयक लाने की तैयारी कर रही है और दूसरी और देश में भोजन की सुरक्षा से जुड़ी दो सबसे बड़ी योजनाओं मिड डे मील और जन वितरण प्रणाली(पीडीएस) का लाभ देश के लाखों दलितों को नहीं मिल पा रहा। इसका मुख्य कारण इन योजनाओं में जात के आधार पर बहिष्कार और भेदभाव का नजरिया है।
देश के पांच राज्यों के 531 गांवांे में मिड डे मील पर की गई सर्वे में पाया गया है कि अधिकतर सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों के साथ बहिष्करण और भेदभाव का रवैया अपनाया जाता है। दलित बच्चों को अन्य बच्चों से अलग बिठाकर भोजन परोसने, उन्हें भोजन देने से इंकार करने और उन्हें सबसे अंत में भोजन परोसने की घटनाएं आम देखने को मिली। इसके अलावा कई स्कूलों में दलित बच्चों को भोजन पहले परोसने की मांग पर सजा देने और उन्हें अन्य बच्चों से अलग हटकर घटिया और कम मात्रा में भोजन देने जैसी घटनाएं भी इन मंे शामिल हैं। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश मंे इंडियन इस्टीटयूट आॅफ दलित स्टडीज की सर्वे के मुताबिक हर तीन में से एक से अधिक स्कूल के मिड डे मील में और तीन में से एक राशन की दुकान पर दलितों के साथ भेदभाव किया जाता है। यह भेदभाव दलितों के भोजन के अधिकार में सबसे बड़ी बाधा है जिसे दूर किए बिना भोजन के अधिकार विधेयक को लागू करने का मकसद पूरा नहीं होगा।
अधिकतर गावों में किसी दलित व्यक्ति को भोजन बनाने के लिए नियुक्त करने के प्रति सबसे अधिक विरोध देखा गया। सर्वे के मुताबिक राजस्थान में केवल 8 फीसदी गावों में स्कूलों में दिया जाने वाला भोजन दलित व्यक्ति द्वारा बनाया जा रहा है। 88 फीसदी में उच्च जात के लोग ही खाना बनाने के काम में लगे हैं। इस प्रदेश में एक भी दलित आर्गेनाइजर यानी मिड डे मील का संचालक नहीं है। तमिलनाडू में 65 और आंध्र प्रदेश में 47 फीसदी गैर दलितों को खाना बनाने का काम सौंपा गया है। दलितों को खाना पकाने का काम न देने के पीछे दलील यह दी जाती है कि दलितों के खाना बनाने से दूसरे जात के लोग खाना नहीं खाएंगे और इससे जातिगत तनाव बढ़ेगा।
जिन स्कूलों में पहले दलित महिला या पुरूष खाना पकाने के काम में लगे थे वहां उच्च जात के लोगों ने स्थानीय प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए अपने बच्चों को स्कूल में भेजना बंद कर दिया। आखिर प्रशासन ने वहां भी गैर दलितों को ही खाना पकाने के काम में लगा दिया।
उत्तर प्रदेश और बिहार में देश के एक तिहाई दलित निवास करते हैं लेकिन इन राज्यों में स्कूलों में पका हुआ खाने की बजाय सूखा राशन माह में एक बार दिया जाता है लेकिन यहां भी भ्रष्टाचार और जात आधारित भेदभाव से ही राशन का वितरण होता है। ऐसेे भी उदाहरण देखने को मिले जहां दलित बच्चों को सूखा राशन भी नसीब नहीं होता। इन राज्यों में सूखा राशन स्कूलों में देने की बजाय 37 फीसदी राशन विक्रेता के घर या दुकान से दिया जाता है। जिन स्कूलों में यह योजना चल रही है वे अधिकतर उच्च जाति के कालोनियों मे स्थित है। उत्तर प्रदेश में मिड डे मील का 85 प्रतिशत सूखा राशन उच्च जात की कालोनियों में स्थित दुकानों या घरों से दिया जाता है।
राजस्थान में 12 फीसदी और तमिलनाडू में 19 फीसदी स्कूल हीं ऐसे हैं जो दलित कालोनियों में स्थित हैं। किसी भी राष्ट्र के लिए इस से शर्म की बात क्या हो सकती है कि देश की जनसंख्या का पांचवा हिस्सा होते हुए भी दलितों के साथ आज भी करीब सभी राज्यों में उच्च जात के लोगों द्वारा छूआछात का बर्ताव किया जाता है। गांव के कुंए से पानी भरन,े मंदिर में प्रवेश करने या यहां तक की दलित का कोई जानवर भी अगर उनके खेत या घर में गलती से चला जाए तो पूरे गांव में बवाल मच जाता है। ऐसे में उच्च जात की कालोनियों से चलाई जा रही इस मिड डे मील तक दलित बच्चों की पहुंच कितनी संभव है इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है।
सर्वे किए गए सभी गावों में औसतन 37 प्रतिशत गावों में जातिगत भेदभाव जैसे दलित बच्चों को अलग बिठाना उनकी थाली अलग परोसना, बाद मे खाना देना या आठ गावों में घटिया खाना और कम मात्रा में खाना देने के उदाहरण भी देखे गए। भोजन के अधिकार के मद्देनजर कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया था कि केंद्र सरकार को भोजन से संबंधित कोई भी योजना शुरू करते समय उसके अमलीकरण में जात आधारित भेदभाव और बहिष्करण को रोकने के प्रावधानों को शामिल करना होगा। जन वितरण प्रणाली यानी सरकारी राशन की दुकानों में भी दलितों के साथ भेदभाव का यही सिलसिला जारी है। हांलाकि इस योजना को शुरू हुए एक लंबा अरसा बीत चुका है लेकिन अभी भी सर्वे किए गए सभी गावों में इन दुकानो पर राशन का वितरण जात को देख कर किया जाता है। सभी राज्यों में पाया गया कि 40 प्रतिशत दलितों को पूरी लागत देने के बाद भी राशन कम मात्रा में दिया जाता है। बिहार में 66 फीसदी दलितों से राशन के वास्तविक मोल से अधिक लागत वसूली जाती है। यही नहीं यह राशन विक्रेता की अपनी जात पर भी निर्भर करता है कि वे किन लोगों को राष्श्न देने में प्राथमिकता दे। बिहार में सब से अधिक 86 प्रतिशत मामालों में राशन विक्रेता के द्वारा अपनी जात के लोगों को राशन वितरण करने में प्राथमिकता देने के मामले देखे गए।
सरकार के इन दो बड़े कार्यक्रमों में दलितों के साथ होने वाले भेदभावों का ही नतीजा है कि आज भी अन्य बच्चों के मुकाबले में दलित बच्चों की मृत्यु दर का आंकड़ा अधिक है। भोजन के अधिकार का मकसद हासिल करना है तो सबसे पहले गरीबों और दलितों के लिए बनी इन योजनाओं से छूआअूत के कीेड़े को खत्म करना होगा और यह तभी संभव है जब दलित भी इन योजनाओं के अमलीकरण में हिस्सेदार और भागीदार दोनों बनंेगे। वरना भोजन के अधिकार को लागू करने का मकसद कभी हासिल नहीं होगा।
यह लेख दैनिक भास्कर में १३ नवम्बर २००९ को प्रकाशित हुआ है
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2 comments:
बिलकुल सही सुझाव है.
बेहद मार्मिक सच को बताया ......बच्चो के साथ भेदभाव तो मार्मिक है ही .....पर उसमे शामिल अन्य जात के बच्चो मे भी वही भेदभाव डालने को प्रोत्साहन मिलताहै .......और शैक्षिक संसाथानो मे ऐसी हरकत जहाँ शिक्षा दी जाती है .........यह बेहद घृणित कार्य लगता है पर सच है !आपका सलाह उचित है !
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