Saturday 12 September 2009

मैंने ऐसा कहां लिखा, प्रभाष जी ?

पिछले सप्ताह प्रभाष जोशी जी के ‘कागद कारे’ कालम में अपने नाम का जिक्र देखकर आश्चर्य हुआ। पत्रकारिता में जाति धर्म की बहस के संदर्भ में लिखते हुए उन्होंने एक स्थान पर लिखा है कि है कि ‘‘कुछ साल बाद एक अन्नू आनंद ने लिखा कि प्रभाष जोशी देखते नहीं कि इंडियन एक्सप्रेस में कितनी महिलाएं हैं और जनसत्ता में कितनी कम.......’’ मैं, वह एक अन्नू आनंद माननीय प्रभाष जी से जानना चाहती है कि उन्होंने मेरे किस आलेख में ऐसा लिखा पाया? मैंने अभी तक लिखे अपने किसी भी लेख में या विदुर पत्रिका की संपादक के नाते लिखे किसी भी संपादकीय में ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया जैसा कि यहां जिक्र किया गया है।

यह सही है कि मैंने पत्रिकारिता में महिलाओं की स्थिति पर कई बार आलेखों या अन्य मंचों के जरिए कईं सवालों को उठाया है। लेकिन इसके लिए कहीं भी निजी रूप से किसी एक व्यक्ति या किसी एक संपादक पर आरोप नहीं लगाया। एक प्रोफेशनल पत्रकार होने के नाते मैंने जब भी कुछ लिखा वह तथ्यों पर आधारित रिर्पोट या विश्लेषण रहा हैं इस में निजी रूप से किसी पर कोई आरोप या प्रत्यारोप को जगह नहीं दी। तथ्यों के आधार पर बात करें तो हकीकत यह है कि जब प्रेस इंस्टीटृसूट में राजकिशोर जी ‘विदुर’ हिंदी का काम देख रहे थे तो उन्होंर्ने 1998 में महिला पत्रकारो पर एक विशेष अंक निकालने के समय मुझे फोन कर राजधानी की महिला पत्रकारों की स्थिति पर रिसर्च आधरित एक लेख लिखने को कहा। यह लेख उन्होंने जुलाई-सितंबर 1998 के अंक में ‘महिला हो डेस्क पर रहो’ के शीर्षक से प्रकाशित किया। इस लेख में राजधानी से हिंदी में निकलने वाले सभी प्रमुख समाचारपत्रों में महिलाओं की संख्या का जिक्र करते हुए उनके कार्य और पद का विश्लेषण कर महिला पत्रकारों की स्थिति का जायजा लिया गया था। जनसत्ता के संदर्भ में इसमें लिखा गया था कि ‘‘इस समय यहां 6 महिलाएं संपादकीय विभाग में हें। उन में दो महिलाएं स्थानीय रिर्पोटिग में हैं लेकिन उन्हें संवाददाता का दरजा हासिल नहीं......... शेष तीन महिलाएं रविवारी यानी फीचर विभाग में ही है। हैरानी की बात तो यह है कि इसी समाचारपत्र समूह के अग्रंेजी समाचारपत्र में राजनीतिक ब्यूरो प्रमुख, स्थानीय संपादक जैसे प्रमुख पदों पर महिलाएं नियुक्त है।........’’ इसके अलावा वहां की महिला पत्रकारों द्वारा महिलाओं को रिपोर्टिंग में न लिए जाने की शिकायत का जिक्र था। इसी प्रकार का विश्लेषण नवभारत टाइम्स और हिंदुस्तान के संदर्भ में भी किया गयाा था। यह आकलन आंकड़ों पर आधारित था और इसमें किसी संपादक या ‘‘प्रभाष जोशी देखते नहीं़ जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं हुआ था। उस समय प्रभाष जी विदुर के सलाहकार संपादक थे और जिस अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ उसमें भी उनका नाम भी बतौर सलाहकार संपादक प्रकाशित हुआ था।

दूसरा आश्चर्य और दुख मुझे प्रभाष जी के संबोधन से हुआ उनका लिखना कि ‘‘एक अन्नू आनंद....ऐसा आभास देता है कि वे किसी ऐसे व्यक्ति का जिक्र कर रहे हैं जिससे वे परिचित नहीं। जबकि पिछले वर्ष तक प्रेस इंस्टीटयूट में काम करने के करीब दस साल के अंतराल के दौरान प्रभाष जी से कई बार मिलना हुआ। भले ही वह टिहरी की यात्रा हो या तिलोनिया की या कोई बैठक या फिर मेरा हर दो माह के बाद उनको संपादकीय या आलेख लिखने का अनुरोध उन्होंने हमेशा ही बेहद आत्मीयता से बात की। मिलने पर भी उन्होंने अक्सर स्नेह से सिर पर हाथ रख का अपने बड़प्पन का परिचय ही दिया। इस दौरान उन्होंने कभी मेरे ऐसे किसी लेख या मेरे द्वारा उनके प्रति ऐसे किसी सोच का जिक्र नहीं किया। इससे पहले भी मैं उनके नेतृत्व में काम कर चुकी हूं। प्रभाष जी मेरे लिए सम्मानीय हैं वे हिंदी के सबसे वरिष्ठ पत्रकार हैं ऐसे में उनके साथ काम करने वालों की संख्या भी कोई कम बड़ी नही हैं। वर्ष 1991 में जनसता के रिपोर्टिंग विभाग में मैं पहली महिला थी जिसने रिपोर्टर के रूप में यहां काम किया था। उस समय प्रभाष जी जनसत्ता मे संपादक थे। हांलाकि उस समय मेरी नियुक्ति लोकसभा चुनाव के कारण पैदा हुई इलेक्शन वकेंन्सी के तहत अंशकालीन संवाददाता के रूप में ही हुई थी लेकिन मेरे लिए वह नौ महीने का कार्यकाल अविस्मरणीय रहा क्योंकि उस दौरान मुझे चीफ रिपोर्टर कुमार आनंद के अलावा आलोक तोमर सुशील कुमार सिंह सहित अन्य सभी वरिष्ठ साथियों का जो सहयोग मिला वह अक्सर महिलाओं को कम नसीब होता है। प्रभाष जी से सीधी मुलाकात कम होती थी लेकिन जब मेरी कोई स्टोरी प्रथम पेज पर छपती तो उनका रिर्पोटिग में चक्कर लगाने के दौरान मुझे ‘अन्नू की बजाय ‘इंदु’ कह कर हाथ उठाकर शाबशी देना और फिर अपनी भूल पर हल्का सा मुस्कुराना मुझे अभी भी याद है। इस लंबे परिचय के बाद उनका अचानक अपने महिला समर्थक तर्कों में मेरे बारे में गलत तथ्यों का बयान आश्चर्य पैदा करता है। उम्मीद है कि मेरे इस स्पष्टीकरण से इस संबंध में पैदा हुई गलतफहमी दूर हो सकेगी। कागद कारे प्रभाष जी का कालम है इसमें वे किसी को कैसे भी संबोधित करें और उसके बारे में लिखें इसका उन्हें पूरा अधिकार हो सकता है लेकिन किसी का उल्लेख करते समय तथ्य सही हों और उसके स्वाभिमान को ठेस न पहुुंच इतनी अपेक्षा तो की जा सकती है।

अन्नू आनंद पूर्व संपादक ‘विदुर’ प्रेस इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया

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