Tuesday, 29 September 2009

स्वाइन फ्लू से अधिक खतरनाक है कुपोषण

अन्नू आनंद

भारत में हर रोज तीन हजार से अधिक बच्चे मर रहे हैं। जानकर विश्वास नहीं होता। अगर साथ में यह जोड़ दिया जाए कि ये मौतें स्वाइन फ्लू या बर्ड फ्लू के कारण हो रही हैं तो मीडिया में हडकंप मच जाएगा। 24 घंटे के चैनल ब्रेंकिग न्यूज के साथ हर कोने से मसले को चीड- फाड़ कर उसके हर पहलू पर अपनी ‘सूक्ष्म दृष्टि’ डालने की होड़ में लग जाएंगे। सरकार भी बड़ी मुस्तैदी से आनन -फानन में अपने प्रशासनिक अमले की ‘काबिलियत’ को दर्शाने में लग जाएगी। उनकी यह मुस्तैदी शायद जायज भी लगे क्योंकि किसी भी बीमारी के पनपने से पहले ही उसके लिए सचेत होना बेहतर गर्वनेंस के लक्षण हैं। लेकिन स्वाइन फ्लू से भी अधिक मौतों का कारण बनने वाली बीमारियों को अनदेखा कर सरकार और मीडिया का यह ‘मुस्तैद दृष्टिकोण’ हैरत पैदा करता है। पिछले हफ्ते कुपोषण के कारण हर रोज करीब तीन हजार बच्चों की मौतों के खुलासे से न तो मीडिया की धड़कने तेज हुईं और न ही सरकार की ओर से इस भंयकर समस्या से निजात पाने के लिए तुरंत कोई गंभीर उपायों की घोषणा की गई। हांलाकि यह आंकडा प्रति दिन स्वाइन फ्लू से होने वाली मौतों से कहीं अधिक है। पिछले एक साल से देश में आंकड़ो के साथ कुपोषण की बढ़ती भयावहता के प्रति चेताने के कईं प्रयास किए जा चुके हैं। इस बार एक देशव्यापी अध्ययन के जरिए इस बात का खुलासा किया गया कि देश में कुपोषण की स्थिति गंभीर है और आर्थिक प्रगति के बावजूद विश्व के एक तिहाई अल्प पोषित बच्चांे की संख्या भारत में है और इस का मुख्य कारण प्रशासन यानी गवर्नेंस की विफलता बताया गया है। इंस्टीट्यूट आॅफ डेवलपमेंट स्टडीज यूके (आईडीएस) द्वारा किए गए इस अध्ययन में स्पष्ट किया गया है कि भारत में तीन साल की उमर के कम से कम 46 फीसदी बच्चे अभी भी कुपोषण के शिकार है। रिपोर्ट के मुताबिक कुपोषण से निपटने की इस रफ्तार के चलते भारत सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य के तहत 2015 तक देश में भूखे लोगों की संख्या पचास फीसदी कम करने के अपने लक्ष्य में कामयाब नहीं हो सकेगा। यह लक्ष्य 2043 से पहले पूरा नहीं किया जा सकता। इससे पहले पिछले साल (वर्ष 2008) ग्रामीण भारत में खाध असुरक्षा की रिपोर्ट में भी भारत में सबसे अधिक 23 करोड़ लोगों को अल्प -पोषित बताया गया था। इस सर्वे ने 5 वर्ष से कम उमर के 47 फीसदी बच्चों को जोकि सब-सहारा अफ्रीका से भी अधिक बताकर सरकार को जल्द इस ओर ध्यान देने की हिदायत दी गई थी। रिपोर्ट में 80 फीसदी से अधिक बच्चे एनीमिया के शिकार पाए गए थे। इसी साल लांसेट की रिपोर्ट में भी विश्व में सबसे अधिक अल्प-पोषित बच्चों की संख्या भारत में बताई थी। लेकिन इन चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लिया गया। जबकि ये सभी तथ्य यह साबित करने के लिए काफी हैं कि पिछले पंद्रह सालों में देश में पोषण का स्तर बढ़ाने के लिए जो भी योजनाएं शुरू की गईं उनसे अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हो रहे। देश का सब से बड़ा पोषण कार्यक्रम एकीकृत बाल विकास सेवाएं(आईसीडीएस) भी गुणवता में कमी के कारण और लक्षित समूहों तक न पहुंचने के कारण सफल साबित नहीं हो सका। इस योजना पर की गई सर्वे से पता चलता है कि सामाजिक असमानता के चलते बहुत से वंचित समूह जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चों तक ये सेवाएं नहीं पहुंच रही क्योंकि अधिकतर आंगनवाड़ियां उच्च या दबंग जाति के क्षेत्रों में स्थित हैं। मिड-डे मील में भी स्कूलों में बच्चों के साथ भेदभाव की घटनाएं देखने को मिल रहीं हैं। बहुत से स्कूलों में दलित बच्चों को सबके खाने के बाद परोसने या उन्हें अलग से परोसने जैसे भेदभाव इन बच्चों तक पोषित भोजन पहुंचाने में असमर्थ हैं। सरकार ने पिछले साल इस सोजना का विस्तार करते हुए इसके बजट में चार गुणा बढ़ोतरी जरूर की है लेकिन असली जरूरत इन सेवाओं के संचालन और उसकी निगरानी में सुधार की है ताकि हर जरूरतमंद को इसका लाभ मिल सके। इसके लिए कार्यक्रम के प्रति जवाबदेही निर्धारण की गंभीरता को समझना होगा। आईडीएस ने भी अपनी रिपोर्ट में सरकार को पोषण योजनाओं के संचालन में अधिकारियों की जवाबदेही तय करने पर जोर दिया है। गरीब तबके के हर व्यक्ति को भोजन मिल सके और कुपोषण से छुटकारा मिले इसके लिए सरकार ने भोजन का अधिकार विधेयक लाने के घोषणा भी की है और इसके लिए प्रयास गंभीर प्रयास भी किए जा रहे हैं लेकिन मौजूदा स्थिति देखते हुए सरकार की यह नेकनीयत योजना सफल हो सकेगी इसको लेकर संदेह अवश्य पैदा होता है क्योंकि जिस सार्वजनिक प्रणाली (पीडीएस) के तहत गरीबों तक गेंहू या चावल पहुंचाने की योजना है वह भ्रष्टाचार अकुशलता और गरीबों के गलत आकलन के चलते जरूरतमंदों तक पहुंचने मेें कहां तक सफल साबित होगा इस पर ध्यान देनेा जरूरी है। परिवार की पात्रता का निर्धारण सही नहीं हो पाने के कारण पीडीएस का कार्यक्रम पहले ही अपने उदेदश्य को पूरा करने में समर्थ नहीं हो पा रहा। अगर सरकार को करोड़ो बच्चों की मौतांे के अभिषाप से बचना है तो देश में पोषण का एक ऐसा कारगर कार्यक्रम शुरू करना होगा जिसमें भोजन, स्वास्थ्य और देखभाल सेवाओं वाले सभी विभागों को एकसाथ मिलकर लक्षित समूहों तक पहुंचना होगा और इन विभागों के कार्यवाही पर सख्त निगरानी के साथ उनकी जवाबदेही का कड़ा प्रावधान बनाना होगा। इसके अलावा पोषण के स्तर का निरंतर संचालन होना चाहिए ताकि सामाजिक संस्थाएं और मीडिया सरकारों की जिम्मेदारी निर्धारित कर सके।

(यह आलेख २२ सितम्बर को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है )

Saturday, 12 September 2009

मैंने ऐसा कहां लिखा, प्रभाष जी ?

पिछले सप्ताह प्रभाष जोशी जी के ‘कागद कारे’ कालम में अपने नाम का जिक्र देखकर आश्चर्य हुआ। पत्रकारिता में जाति धर्म की बहस के संदर्भ में लिखते हुए उन्होंने एक स्थान पर लिखा है कि है कि ‘‘कुछ साल बाद एक अन्नू आनंद ने लिखा कि प्रभाष जोशी देखते नहीं कि इंडियन एक्सप्रेस में कितनी महिलाएं हैं और जनसत्ता में कितनी कम.......’’ मैं, वह एक अन्नू आनंद माननीय प्रभाष जी से जानना चाहती है कि उन्होंने मेरे किस आलेख में ऐसा लिखा पाया? मैंने अभी तक लिखे अपने किसी भी लेख में या विदुर पत्रिका की संपादक के नाते लिखे किसी भी संपादकीय में ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया जैसा कि यहां जिक्र किया गया है।

यह सही है कि मैंने पत्रिकारिता में महिलाओं की स्थिति पर कई बार आलेखों या अन्य मंचों के जरिए कईं सवालों को उठाया है। लेकिन इसके लिए कहीं भी निजी रूप से किसी एक व्यक्ति या किसी एक संपादक पर आरोप नहीं लगाया। एक प्रोफेशनल पत्रकार होने के नाते मैंने जब भी कुछ लिखा वह तथ्यों पर आधारित रिर्पोट या विश्लेषण रहा हैं इस में निजी रूप से किसी पर कोई आरोप या प्रत्यारोप को जगह नहीं दी। तथ्यों के आधार पर बात करें तो हकीकत यह है कि जब प्रेस इंस्टीटृसूट में राजकिशोर जी ‘विदुर’ हिंदी का काम देख रहे थे तो उन्होंर्ने 1998 में महिला पत्रकारो पर एक विशेष अंक निकालने के समय मुझे फोन कर राजधानी की महिला पत्रकारों की स्थिति पर रिसर्च आधरित एक लेख लिखने को कहा। यह लेख उन्होंने जुलाई-सितंबर 1998 के अंक में ‘महिला हो डेस्क पर रहो’ के शीर्षक से प्रकाशित किया। इस लेख में राजधानी से हिंदी में निकलने वाले सभी प्रमुख समाचारपत्रों में महिलाओं की संख्या का जिक्र करते हुए उनके कार्य और पद का विश्लेषण कर महिला पत्रकारों की स्थिति का जायजा लिया गया था। जनसत्ता के संदर्भ में इसमें लिखा गया था कि ‘‘इस समय यहां 6 महिलाएं संपादकीय विभाग में हें। उन में दो महिलाएं स्थानीय रिर्पोटिग में हैं लेकिन उन्हें संवाददाता का दरजा हासिल नहीं......... शेष तीन महिलाएं रविवारी यानी फीचर विभाग में ही है। हैरानी की बात तो यह है कि इसी समाचारपत्र समूह के अग्रंेजी समाचारपत्र में राजनीतिक ब्यूरो प्रमुख, स्थानीय संपादक जैसे प्रमुख पदों पर महिलाएं नियुक्त है।........’’ इसके अलावा वहां की महिला पत्रकारों द्वारा महिलाओं को रिपोर्टिंग में न लिए जाने की शिकायत का जिक्र था। इसी प्रकार का विश्लेषण नवभारत टाइम्स और हिंदुस्तान के संदर्भ में भी किया गयाा था। यह आकलन आंकड़ों पर आधारित था और इसमें किसी संपादक या ‘‘प्रभाष जोशी देखते नहीं़ जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं हुआ था। उस समय प्रभाष जी विदुर के सलाहकार संपादक थे और जिस अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ उसमें भी उनका नाम भी बतौर सलाहकार संपादक प्रकाशित हुआ था।

दूसरा आश्चर्य और दुख मुझे प्रभाष जी के संबोधन से हुआ उनका लिखना कि ‘‘एक अन्नू आनंद....ऐसा आभास देता है कि वे किसी ऐसे व्यक्ति का जिक्र कर रहे हैं जिससे वे परिचित नहीं। जबकि पिछले वर्ष तक प्रेस इंस्टीटयूट में काम करने के करीब दस साल के अंतराल के दौरान प्रभाष जी से कई बार मिलना हुआ। भले ही वह टिहरी की यात्रा हो या तिलोनिया की या कोई बैठक या फिर मेरा हर दो माह के बाद उनको संपादकीय या आलेख लिखने का अनुरोध उन्होंने हमेशा ही बेहद आत्मीयता से बात की। मिलने पर भी उन्होंने अक्सर स्नेह से सिर पर हाथ रख का अपने बड़प्पन का परिचय ही दिया। इस दौरान उन्होंने कभी मेरे ऐसे किसी लेख या मेरे द्वारा उनके प्रति ऐसे किसी सोच का जिक्र नहीं किया। इससे पहले भी मैं उनके नेतृत्व में काम कर चुकी हूं। प्रभाष जी मेरे लिए सम्मानीय हैं वे हिंदी के सबसे वरिष्ठ पत्रकार हैं ऐसे में उनके साथ काम करने वालों की संख्या भी कोई कम बड़ी नही हैं। वर्ष 1991 में जनसता के रिपोर्टिंग विभाग में मैं पहली महिला थी जिसने रिपोर्टर के रूप में यहां काम किया था। उस समय प्रभाष जी जनसत्ता मे संपादक थे। हांलाकि उस समय मेरी नियुक्ति लोकसभा चुनाव के कारण पैदा हुई इलेक्शन वकेंन्सी के तहत अंशकालीन संवाददाता के रूप में ही हुई थी लेकिन मेरे लिए वह नौ महीने का कार्यकाल अविस्मरणीय रहा क्योंकि उस दौरान मुझे चीफ रिपोर्टर कुमार आनंद के अलावा आलोक तोमर सुशील कुमार सिंह सहित अन्य सभी वरिष्ठ साथियों का जो सहयोग मिला वह अक्सर महिलाओं को कम नसीब होता है। प्रभाष जी से सीधी मुलाकात कम होती थी लेकिन जब मेरी कोई स्टोरी प्रथम पेज पर छपती तो उनका रिर्पोटिग में चक्कर लगाने के दौरान मुझे ‘अन्नू की बजाय ‘इंदु’ कह कर हाथ उठाकर शाबशी देना और फिर अपनी भूल पर हल्का सा मुस्कुराना मुझे अभी भी याद है। इस लंबे परिचय के बाद उनका अचानक अपने महिला समर्थक तर्कों में मेरे बारे में गलत तथ्यों का बयान आश्चर्य पैदा करता है। उम्मीद है कि मेरे इस स्पष्टीकरण से इस संबंध में पैदा हुई गलतफहमी दूर हो सकेगी। कागद कारे प्रभाष जी का कालम है इसमें वे किसी को कैसे भी संबोधित करें और उसके बारे में लिखें इसका उन्हें पूरा अधिकार हो सकता है लेकिन किसी का उल्लेख करते समय तथ्य सही हों और उसके स्वाभिमान को ठेस न पहुुंच इतनी अपेक्षा तो की जा सकती है।

अन्नू आनंद पूर्व संपादक ‘विदुर’ प्रेस इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया