अन्नू आनंद
भारत में हर रोज तीन हजार से अधिक बच्चे मर रहे हैं। जानकर विश्वास नहीं होता। अगर साथ में यह जोड़ दिया जाए कि ये मौतें स्वाइन फ्लू या बर्ड फ्लू के कारण हो रही हैं तो मीडिया में हडकंप मच जाएगा। 24 घंटे के चैनल ब्रेंकिग न्यूज के साथ हर कोने से मसले को चीड- फाड़ कर उसके हर पहलू पर अपनी ‘सूक्ष्म दृष्टि’ डालने की होड़ में लग जाएंगे। सरकार भी बड़ी मुस्तैदी से आनन -फानन में अपने प्रशासनिक अमले की ‘काबिलियत’ को दर्शाने में लग जाएगी। उनकी यह मुस्तैदी शायद जायज भी लगे क्योंकि किसी भी बीमारी के पनपने से पहले ही उसके लिए सचेत होना बेहतर गर्वनेंस के लक्षण हैं। लेकिन स्वाइन फ्लू से भी अधिक मौतों का कारण बनने वाली बीमारियों को अनदेखा कर सरकार और मीडिया का यह ‘मुस्तैद दृष्टिकोण’ हैरत पैदा करता है। पिछले हफ्ते कुपोषण के कारण हर रोज करीब तीन हजार बच्चों की मौतों के खुलासे से न तो मीडिया की धड़कने तेज हुईं और न ही सरकार की ओर से इस भंयकर समस्या से निजात पाने के लिए तुरंत कोई गंभीर उपायों की घोषणा की गई। हांलाकि यह आंकडा प्रति दिन स्वाइन फ्लू से होने वाली मौतों से कहीं अधिक है। पिछले एक साल से देश में आंकड़ो के साथ कुपोषण की बढ़ती भयावहता के प्रति चेताने के कईं प्रयास किए जा चुके हैं। इस बार एक देशव्यापी अध्ययन के जरिए इस बात का खुलासा किया गया कि देश में कुपोषण की स्थिति गंभीर है और आर्थिक प्रगति के बावजूद विश्व के एक तिहाई अल्प पोषित बच्चांे की संख्या भारत में है और इस का मुख्य कारण प्रशासन यानी गवर्नेंस की विफलता बताया गया है। इंस्टीट्यूट आॅफ डेवलपमेंट स्टडीज यूके (आईडीएस) द्वारा किए गए इस अध्ययन में स्पष्ट किया गया है कि भारत में तीन साल की उमर के कम से कम 46 फीसदी बच्चे अभी भी कुपोषण के शिकार है। रिपोर्ट के मुताबिक कुपोषण से निपटने की इस रफ्तार के चलते भारत सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य के तहत 2015 तक देश में भूखे लोगों की संख्या पचास फीसदी कम करने के अपने लक्ष्य में कामयाब नहीं हो सकेगा। यह लक्ष्य 2043 से पहले पूरा नहीं किया जा सकता। इससे पहले पिछले साल (वर्ष 2008) ग्रामीण भारत में खाध असुरक्षा की रिपोर्ट में भी भारत में सबसे अधिक 23 करोड़ लोगों को अल्प -पोषित बताया गया था। इस सर्वे ने 5 वर्ष से कम उमर के 47 फीसदी बच्चों को जोकि सब-सहारा अफ्रीका से भी अधिक बताकर सरकार को जल्द इस ओर ध्यान देने की हिदायत दी गई थी। रिपोर्ट में 80 फीसदी से अधिक बच्चे एनीमिया के शिकार पाए गए थे। इसी साल लांसेट की रिपोर्ट में भी विश्व में सबसे अधिक अल्प-पोषित बच्चों की संख्या भारत में बताई थी। लेकिन इन चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लिया गया। जबकि ये सभी तथ्य यह साबित करने के लिए काफी हैं कि पिछले पंद्रह सालों में देश में पोषण का स्तर बढ़ाने के लिए जो भी योजनाएं शुरू की गईं उनसे अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हो रहे। देश का सब से बड़ा पोषण कार्यक्रम एकीकृत बाल विकास सेवाएं(आईसीडीएस) भी गुणवता में कमी के कारण और लक्षित समूहों तक न पहुंचने के कारण सफल साबित नहीं हो सका। इस योजना पर की गई सर्वे से पता चलता है कि सामाजिक असमानता के चलते बहुत से वंचित समूह जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चों तक ये सेवाएं नहीं पहुंच रही क्योंकि अधिकतर आंगनवाड़ियां उच्च या दबंग जाति के क्षेत्रों में स्थित हैं। मिड-डे मील में भी स्कूलों में बच्चों के साथ भेदभाव की घटनाएं देखने को मिल रहीं हैं। बहुत से स्कूलों में दलित बच्चों को सबके खाने के बाद परोसने या उन्हें अलग से परोसने जैसे भेदभाव इन बच्चों तक पोषित भोजन पहुंचाने में असमर्थ हैं। सरकार ने पिछले साल इस सोजना का विस्तार करते हुए इसके बजट में चार गुणा बढ़ोतरी जरूर की है लेकिन असली जरूरत इन सेवाओं के संचालन और उसकी निगरानी में सुधार की है ताकि हर जरूरतमंद को इसका लाभ मिल सके। इसके लिए कार्यक्रम के प्रति जवाबदेही निर्धारण की गंभीरता को समझना होगा। आईडीएस ने भी अपनी रिपोर्ट में सरकार को पोषण योजनाओं के संचालन में अधिकारियों की जवाबदेही तय करने पर जोर दिया है। गरीब तबके के हर व्यक्ति को भोजन मिल सके और कुपोषण से छुटकारा मिले इसके लिए सरकार ने भोजन का अधिकार विधेयक लाने के घोषणा भी की है और इसके लिए प्रयास गंभीर प्रयास भी किए जा रहे हैं लेकिन मौजूदा स्थिति देखते हुए सरकार की यह नेकनीयत योजना सफल हो सकेगी इसको लेकर संदेह अवश्य पैदा होता है क्योंकि जिस सार्वजनिक प्रणाली (पीडीएस) के तहत गरीबों तक गेंहू या चावल पहुंचाने की योजना है वह भ्रष्टाचार अकुशलता और गरीबों के गलत आकलन के चलते जरूरतमंदों तक पहुंचने मेें कहां तक सफल साबित होगा इस पर ध्यान देनेा जरूरी है। परिवार की पात्रता का निर्धारण सही नहीं हो पाने के कारण पीडीएस का कार्यक्रम पहले ही अपने उदेदश्य को पूरा करने में समर्थ नहीं हो पा रहा। अगर सरकार को करोड़ो बच्चों की मौतांे के अभिषाप से बचना है तो देश में पोषण का एक ऐसा कारगर कार्यक्रम शुरू करना होगा जिसमें भोजन, स्वास्थ्य और देखभाल सेवाओं वाले सभी विभागों को एकसाथ मिलकर लक्षित समूहों तक पहुंचना होगा और इन विभागों के कार्यवाही पर सख्त निगरानी के साथ उनकी जवाबदेही का कड़ा प्रावधान बनाना होगा। इसके अलावा पोषण के स्तर का निरंतर संचालन होना चाहिए ताकि सामाजिक संस्थाएं और मीडिया सरकारों की जिम्मेदारी निर्धारित कर सके।
(यह आलेख २२ सितम्बर को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है )