Saturday, 7 February 2009

मीडिया-उपभोक्ता के हितों की खातिर


अन्नू आनंद
लिखने, बोलने, देखने और सुनने की आज़ादी हर व्यक्ति को प्रिय है। अभिव्यक्ति की यही आजादी किसी भी लोकतंत्र को मजबूत बनाती है। इसी बात की दुहाई देकर हम लंबे समय से इस आजादी का जश्न मनाते आए हैं। यह सही है कि सच्चा लोकतंत्र लोगों को केवल जानने का अधिकार नहीं देता बल्कि विभिन्न प्रकार के विचारों को सुनने और उसके प्रति अपनी निजी राय रखने का अधिकार भी देता है।
लेकिन आजादी के उन्माद में अक्सर यह भुला दिया जाता है कि यह निरंकुश और परम स्वतंत्र नहीं है। अभिव्यक्ति की यह आज़ादी दायित्व, जवाबदेही, आत्मनियमन और संवेदनशीलता की मांग भी करती है। जब अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस्तेमाल इन दायित्वों के बोध के बिना होता है तो वह किसी भी समाज या लोकतंत्र के लिए खतरे का कारण बनता है। पैगंबर मोहम्मद के गैर मुनासिब कार्टून छापने वाले भी शायद यह भूल गए कि किसी भी समाज में असहिष्णुता जितनी भयंकर है, उतनी ही घातक जानबूझकर किसी भी धार्मिक भावनाओं या संवेदनशीलता पर प्रहार करना है ।
अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर मिली प्रेस की स्वतंत्रता पर हम वर्षों से गर्व करते आए हैं। हमारे लिए यह गौरव की बात रही है कि हमारे देश में प्रेस पूरी तरह आजाद है इसलिए इसे लोकतंत्र के चैथे स्तंभ की संज्ञा भी दी गई है। इस आज़ादी ने मीडिया को अभी तक ताकतवर बनाने का काम किया है लेकिन पिछले एक दशक में हुए मीडिया में अनियमित और अनियोजित विस्तार ने मीडिया को बेलगाम बना दिया है।
चैनलों की बढ़ती संख्या, समाचारपत्रों के नित नए संस्करणों के चलते मीडिया में ‘संख्या बढ़ाने’ की चाहे वह पाठकों की हो, दर्शकों या श्रोताओं की एक अद्भुत होड़ चल पड़ी है। समाज और लोगों के हितों को ध्यान में रखने के उद्देश्य का निर्वहन करने वाले ‘स्वतंत्र मीडिया’ में अपने हित सर्वोप्रिय होते जा रहे हैं। इसलिए प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया मंे खबरों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना, मसालेदार, सनसनीखे़ज बनाना, मीडिया ट्रायल और खबरों का आयोजन करना जैसी घटनाएं भी आम होती जा रही हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की शुरूआत के पश्चात् इन प्रवृत्तियों को और भी बढ़ावा मिला है।
दरअसल इन प्रवृतियों के पीछे मुख्य उद्देश्य अधिक मुनाफ़ा कमाना है। क्योंकि ‘अधिक संख्या,’ ‘अधिक आगे’ और ‘अधिक तेज़’ का मतलब है अधिक विज्ञापन और अधिक लाभ। जाहिर है मीडिया भी किसी शैंपू, साबुन या टुथपेस्ट बेचने वाले बनियों की तरह केवल उत्पाद बेच रहा है और मीडिया का प्रोडक्ट है खबरें जिसे वह हर उस ढंग से बेचना चाहता है जिससे उसकी बिक्री अधिक हो। जैसे साबुन या सर्फ बेचने वाली कंपनियां थोड़े-थोड़े समय के बाद अपने प्रोडक्ट को कभी ‘सुपर’, कभी ‘न्यू सुपर फास्ट’ या ‘न्यू’ जैसे नाम देकर बेचती है उसी प्रकार मीडिया भी इन दिनों समाचारों को ‘बे्रंकिग न्यूज’, ‘एक्सक्लू0सिव’, ‘केवल इसी पत्र/पत्रिका या चैनल पर’, जैसी संज्ञाएं देकर बेचने में लगा है। ऐसे में प्रेस की आजादी का दुरुपयोग भी स्वाभाविक है। अभी तक मीडिया से यह अपेक्षा की जाती रही है कि वह किसी भी प्रकार के बाहरी अंकुश के बिना आत्मनियमन का रास्ता अपनाए।
लेकिन मीडिया की बेसिरपैर की दौड़ ने अब यह जरूरी कर दिया है कि उसकी जवाबदेही तय की जाए और उसमें पारदर्शिता लाई जाए। इस दिशा में पहल हो चुकी है। अब पाठकों के हितों की सुरक्षा के लिए रीडर्स एडिटर (खबरपाल) जैसी संस्था की शुरूआत की गई है। ‘हिंदू’ और ‘सकाल’ ने इन खबरपालों की नियुक्ति की घोषणा कर निजी संस्थाओं के रूप में मीडिया में आत्मनियंत्रण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि यह खबरपाल न केवल खबरों की गुणवत्ता पर ध्यान देगा बल्कि पाठकों के हितों को भी ध्यान में रखेगा।
आर्थिक मुनाफे की खातिर पत्र-पत्रिकाओं को पोस्टरों में बदलने वाले प्रबंधक मालिक अक्सर यह तर्क देते हैं कि उनके पाठकों की यही मांग है और पाठकों को ध्यान में रखते हुए ऐसे बदलाव किए जा रहे हैं। जबकि हकीकत कुछ दूसरी ही होती है। लेकिन ऐसे खबरपाल पाठकों की वास्तविक अपेक्षाओं को संपादकों तक पहुंचाने का काम कर सकेंगे। पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों के हितों के साथ पत्रकारिता की साख को गिरने से बचाए। यह प्रक्रिया मीडिया-उपभोक्ता के हितों की रक्षा करेगी। उम्मीद है कि यह खबरपाल मीडिया संस्था और जनता के बीच सेतु का काम करेगा। क्या खबरपाल अपने इस उद्देश्य में सफल हो पाएगा, वह पाठकों के हितों की रक्षा कर पाएगा या वह भी संपादकों के हितों के आगे झुकने को मजबूर होगा। अभी यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल है।
लेकिन संतोष की बात यह है इससे पाठकों और संपादकों के बीच जिम्मेदार संबंध बनने की कवायद शुरू होगी।
(यह लेख मार्च 2006 में विदुर के अंक में प्रकाशित हुआ है)

लेकिन आज करीब तीन सालों के बाद भी देखने में आया है की खबरपाल भी पत्रकारिता के मूल्यों को बचाने में अहम भूमिका नहीं निभा सका। सब से बड़ी बात तो यह है की यह केवल कुछ मीडिया संस्थाओं का ही शगूफा बन कर रह गया। ऐसे में सवाल यह उठता है की पत्रकारिता के मूल्यों को बचाने के लिए मीडिया को नियंत्रित कैसे किया जाए। किसी भी प्रकार का सरकारी नियंत्रण हमें मंजूर नहीं। लेकिन स्व- अंकुश की दुहाई देने के बावजूद उस पर मीडिया खरा नहीं उतरा। मुंबई हमलों की कवरेज इस की गवाह है। ऐसे में वह कौन सा समाधान उचित है जिस से अभिव्यक्ति की आज़ादी भी कायम रहे और पत्रकारिता मजाक बनने से भी बच सके?

इस पर चिंतन ज़रूरी है ? क्या मीडिया चिंतकों के अलावा अभिव्यक्ति पर अंकुश के विरोधी इस मुद्दे पर कुछ कहना चाहेंगे? उनकी राय ही शायद भटके हुए समाचार मीडिया को कोई सही दिशा देखा सके। इसलिए अपनी राय ज़रूर लिखें ।

4 comments:

निर्मला कपिला said...

बहुत बडिया मुदा उठाया है आपने अब समय आ गया है कि इस विषय पर गंभीरता से विचार हो और हम जैसे नागरिक भी जागरुक हो सकें बहुत बहुत बधाई

संगीता पुरी said...

क्‍या पत्रकारिता की डिग्री लेने के दौरान पत्रकारिता के मूल्यों को बचाने के लिए पत्रकारों को कुछ पढाया नहीं गया है ?

आशीष कुमार 'अंशु' said...

Aapakee baat se sahamat hoo.

अक्षत विचार said...

bahut satic lekh prstut kiya apne.