Thursday, 13 November 2008

प्रतिबंध के बावजूद


छोटू और मोनू जैसे असंख्य बच्चों के नाम जो बाल दिवस की खुशी से कोसों दूर हैं

अन्नू आनंद
पिछले दिनों गुड़गांव के एक घर में काम करने वाली बच्ची लखी को मालिकों द्वारा निर्ममता से पीटे जाने की घटना ने एक बार फिर घरों में काम करने वाली असंख्य बच्चियों की सुरक्षा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। अक्तूबर माह में घरेलू बाल मजदूरी पर लगे प्रतिबंध को दो साल पूरे हो गए। लेकिन घरों और ढाबों में काम करने वाले बच्चे अभी भी हिंसा और शोषण के माहौल में जी रहे हैं। दिल्ली-जयपुर हाईवे के एक ढाबे में काम करने वाले 10 साल के मोनू की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया। उसके दिन की शुरूआत सुबह चार बजे होती है। अपने छोटे छोटे हाथों से भारी भरकम बर्तन मांजने, फिर मेज कुर्सियां लगाने के बाद भाग भाग कर ग्राहकों को चाय, पानी पिलाने और खाना खिलाने में उसका पूरा दिन बीत जाता है। मोनू यह नहीं जानता कि दिन भर जो मेहनत वह कर रहा है वह उसका हकदार नहीं और और ऐसा करना या कराना अपराध है। सरकार ने दो साल पहले वर्ष 2006 में 14 साल से कम उमर के बच्चों का घरों, ढाबों और होटलों पर काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन इस प्रतिबंध के बावजूद आज भी देश भर में मोनू जैसे करीब 1.3 करोड़ (अधिकारिक आंकड़ांे के मुताबिक) बच्चे अभी भी पढ़ने की उमर में मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार हो रहे हंै। गैर सरकारी सूत्रों के मुताबिक यह संख्या 6करोड़ से ऊपर है।

काम करने वाले बच्चों का आंकड़ा करोडों़ में है। लेकिन सरकारी मशीनरी पिछले 19 महीनों में सारे देश में से केवल 6782 बच्चों को ही बचा सकी। कुल मिलाकर आठ हजार के करीब ऐसे मामलों का पता चला जिनमें कि सरकारी प्रतिबंध के बावजूद बच्चों से काम कराया जा रहा था। लेकिन इनमें से भी केवल 1680 मालिकों के खिलाफ ही मामला दर्ज किया गया। इस नियम को लागू करने की जिम्मेदारी श्रम मंत्रालय पर है। लेकिन श्रम मंत्रालय की ‘काबिलियत’ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राजधानी दिल्ली में ऐसे इस कानून का उल्लघंन करने वाले केवल 26 मामलों का ही पता लगाया जा सका। उन में से भी 12 मामले ही दर्ज हुए। जबकि दिल्ली में गैर सरकारी आंकड़ो के मुताबिक काम करने वाले बच्चों की संख्या 10 लाख बताई जाती है। बहुत से राज्यों में बचाए गए बच्चों का रिकार्ड भी उपलब्ध नहीं। जिन राज्यों मंे पता लगाए गए मामलों की संख्या अधिक है वहां भी बहुत कम मामलों मंे ही मुकदमा चलाया गया। जैसे उत्तर प्रदेश में अधिनियम का उल्लघंन करने वाले 726 मामलों का पता लगाया गया लेकिन मुकदमा केवल 92 मामलों में ही चला।

बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं प्रतिषेध) अधिनियम 1986 की खतरनाक श्रेणी में मौजूद 13 व्यवसायों में घरेलू नौकर, होटलों और स्पा को शामिल करने का मुख्य मकसद यह था कि कम आयु में बच्चों को काम की कठोर स्थितियों से बचाकर उन्हें स्कूलों का रास्ता दिखाया जाए। ग्रामीण इलाकों में स्कूलों में बढ़ते ड्राप -आउट का एक बड़ा कारण यह भी है कि मां बाप बच्चों को शहरों में भेजकर उन्हें काम पर लगाने में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं ताकि उन्हें घर की कमाई में मदद मिल जाए। सेव द चिल्ड्रन संस्था द्वारा पिछले साल कराई गई एक सर्वे में बताया गया है कि दिल्ली और कोलकाता में घरों में काम करने वाले बाल मजदूरों में अधिकतर संख्या लड़कियों की है जो देश के विभिन्न हिस्सों से काम करने के लिए इन शहरों में पहुंचती हैं। सर्वे से पता चला कि 68 प्रतिशत बच्चे मारपीट के शिकार हुए और 47 प्रतिशत बच्चे मारपीट के कारण कई बार जख्मी हो चुके थे। उम्मीद यह की जा रही थी कि घरेलु बाल मजदूरी पर प्रतिबंध के चलते घर की चारदीवारी में जुल्म सहने वाले बहुत से बच्चों को राहत मिलेगी। बाल अधिकारों के समर्थकों का भी मानना था कि इस प्रतिबंध के बाद स्कूलों में बच्चों की भर्ती बढ़ेगी। प्रतिबंध के मुताबिक इसका उल्लघंन करने वाले किसी भी व्यक्ति को बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं प्रतिषेध) अधिनियम 1986 के तहत तीन माह से दो साल की साल की कैद और 10 से 20 हजार रूपए का जुर्माना हो सकता है। लेकिन हैरत की बात यह है कि जो मुकदमे दर्ज भी हुए हैं उनमें अभी तक किसी भी मामले में किसी व्यक्ति को सजा मिलना का मामला सामने नहीं आया। बाल अधिकार से जुड़ी संस्थाएं इस बात से सहमत हैं कि प्रतिबंध प्रभावी साबित नहीं हो सका। श्रम मंत्रालय का मानना है कि उनके पास संसाधनों की कमी है इसलिए जल्द कुछ कर दिखाना संभव नहीं। लेकिन बाल मजदूरी से जुड़े अधिनियमों के अनुभव इस बात के गवाह हैं कि प्रतिबंध से वांछित सफलता की उम्मीद उचित नहीं।

होटलों और घरों में बच्चों के काम करने पर प्रतिबंध लगे दो साल ही बीते हैंै इसलिए सरकारी अमला कम समय की दुहाई देकर अपना पल्ला झाड़ सकता है लेकिन बाल मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1986 को लागू हुए कईं साल बीत गए फिर भी पटाखे, फुटबाल और कालीन बनाने से लेकर अन्य खतरनाक उधोगांे में आठ सालों के भीतर केवल 22588 मामलों में ही कार्रवाई की गई जबकि इन सभी उधोगों में काम करने वाले बाल मजदूरों की संख्या 6.70 करोड़ (गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक) है। बाल अधिकारों पर काम करने वाली बचपन बचाओं संस्था के हाल ही में कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक मेरठ, जालंधर सहित उत्तर प्रदेश और पंजाब के अन्य शहरों में 5000 बच्चे फुटबाल सिलने के कामों में लगे हैं। सर्वे के मुताबिक यह बच्चे 12 से 14 घंटों में एक से दो फृटबाल ही सिल पाते हैं और एक फुटबाल सिलने के लिए उन्हें 3 से 5 रूपए मिलते हैंै।

दरअसल सरकारी विफलता का ग्राफ ऊंचा होने का एक बड़ा कारण यह है कि सरकार ने कानून बनाकर बच्चों के काम करने पर तो प्रतिबंध लगा दिया लेकिन उसके अमलीकरन के लिए और बचाए गए बच्चों के पुनर्वास की कोई व्यापक नीति उनके पास नहीं। यह पहले से ही तय था कि प्रतिबंध के बाद घरों और होटलों मे काम करने वाले लाखों बच्चे काम से बाहर हो जाएंगे। लेकिन फिर भी छुड़ाए गए बच्चों को स्कूलों में भर्ती कराने अथवा अन्य किसी भी प्रकार से शोषण से बचाने के लिए सरकार के पास कोई प्रभावी वैक्लपिक नीति तैयार नहीं है। इनमें से कई बच्चे परिवार की कमाई का मुख्य जरिया है। इन बच्चों के काम न करने की स्थिति में उनका घर कैसे चलेगा? ऐसे काम से निकाले जाने वाले बच्चों के परिवारों में वयस्कों को काम देने संबंधी कोई भी नीति तैयार नहीं की गई। अधिनियम को लागू करने से पहले सरकार के पास घरों, होटलों में काम करने वाले बच्चों की पहचान करने और उनको छुड़ाने के प्रति कोई ठोस योजना प्रक्रिया नहीं थी। पिछले साल केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्यों से बचाव और पुनर्वास संबंण्ी कार्य योजना की मांग की थी लेकिन तीन राज्यों अलावा किसी राज्य ने ऐसी योजना नहीं बनाई। वर्ष 1987 से देश के कुछ राज्यों में लागू मौजूदा पुनर्वास नीति - ‘राष्ट्रीय बाल मजदूर परियोजना’ अभी तक प्रभावी साबित नहीं हो पाई। हर बच्चे का यह मौलिक अधिकार है कि वह उचित रूप से अपना मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास कर सके। बच्चों से संबंधित सभी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संधियों और कानूनों का यही निचोड़ है। लेकिन इसके बावजूद दुनिया के 76 प्रतिशत बच्चे इस अधिकार से वंचित है।

बाल मजदूरी एक गंभीर और जटिल समस्या है और इससे निजात पाने के लिए एक ऐसी दीर्घकालीन योजना की जरूरत है जिस में बच्चे के उचित विकास के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, बाल अधिकार जैसे सभी मुद्दों को शामिल करना होगा। यह तभी संभव है जब स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय जैसे मंत्रालय भी बाल मजदूरों के पुनर्वास में अपनी सक्रिय भगीदारी निभाएं। जब तक बचाव और पुनर्वास की बेहतर प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती बच्चों को घरों या होटलों से छुड़ाना उनके लिए अधिक शोषण के दरवाजे खोलना है। ऐसी घटनाएं भी सुनने को मिली हैं जहां काम से छुड़ाए गए बच्चों घरों में वापस नहीं पहुंचे जिनमें से कुछ ने कूडे़ बीनने का काम अपना लिया और कईं अन्य प्रकार के शोषण को झेलने के लिए मजबूर हो गए। नेपाल के केंद्रीय बाल कल्याण बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक गत साल में 500 नेपाली बच्चे तस्करी के जरिए भारतीय सर्कसों में बेचे गए। इन सर्कसों में ये मासूम बच्चे किस प्रकार के शोषण का शिकार हो रहेे हैं क्या सरकार और बाल अधिकारों के चिंतक इस ओर ध्यान देंगे।

1 comment:

रवि रतलामी said...

भारत के लिए बाल मजदूर तो क्रॉनिक समस्या है. भारत के तमाम रोड साइड ढाबे और छोटे होटल बाल मजदूरों के भरोसे चलते हैं. यह तो कैंसर की तरह फैल चुका है. कोई त्वरित निदान तो दिखाई ही नहीं देता.