Thursday 6 November 2008

अंधेरे से उजाले की ओर


अन्नू आनंद
नसरीन परवीन के चेहरे पर खुशी साफ दिखाई पड़ रही थी। इस खुशी का कारण उसका आत्मविश्वास था जो उसे आश्रम की पढ़ाई से मिला था। अभी तक मदरसे के स्कूल में महज उर्दू पढ़ना सीखने वाली नसरीन की यह हसरत थी कि वह भी स्कूल में जाने वाले दूसरे बच्चों की तरह हिंदी अग्रेंजी भी पढ़ना सीखे। नसरीन के पांचों भाई बहन मदरसे में पढ़ते हैं। लेकिन 14 वर्षीय नसरीन यहां तीसरी कक्षा तक की शिक्षा हासिल करने के बाद नियमित स्कूल में जाने का रास्ता तैयार कर रही है।
हसीना खातून 13 साल तक कभी स्कूल नहीं जा पाई क्योंकि उसके गांव बरान में कोई स्कूल नहीं था। दूसरे गांव स्थित स्कूल जाने के रास्ते मंे नदी पड़ती थी। बरसात के दिनों में नदी में पानी भर जाने के कारण गांव के अधिकतर बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। इसलिए हसीना चाह कर भी अपनी पढ़ने की इच्छा को पूरा नहीं कर पाई। हसीना ने कभी सोचा नहीं था कि अब भी उसके स्कूल जाने का सपना हकीकत में बदल सकता है। लेकिन आवासीय आश्रम में आने के बाद उसे अपना पढ़कर टीचर बनने का सपना साकार होता नजर आ रहा है।
नसरीना और परवीन जैसी कई लड़कियों की किताबों को पढ़ने की तीव्र लेकिन दमित ख्वाहिश पूरी हो सकी क्योंकि स्थानीय शिक्षा कार्यकत्र्ताओं ने यहां के मुस्लिम बहुल गावों में जाकर लड़कियों के घरवालों और स्थानीय मौलानाओं को समझाया कि वे गांव की लड़कियों को पास के गांव में स्थित आश्रम के आवासीय स्कूल मे पढ़ने के लिए भेजे।
वनवासी विकास आश्रम झारखण्ड के गिरडीह जिले के बगोदर ब्लाॅक में स्थित है। यह आश्रम 10 से 14 साल की उन बच्चियों के लिए आवासीय ब्रिज स्कूल चलाता है जो लड़किया काम या दूरी के कारण कभी स्कूल नहीं जा पाई या फिर किन्हीं कारणों से उन्हें बीच में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। लेकिन अब इन लड़कियों को सामान्य स्कूलों मंे उमर के मुताबिक उन कक्षाओं में दाखिला नहीं मिल पाता जिनमें उन्हें होना चाहिए।
बगोदर ब्लाॅक झारखंड राज्य की कम साक्षरता दर वाले क्षेत्रों मंे एक है। खासकर लड़कियों की साक्षरता दर यहां 30 प्रतिशत से भी कम है। इस का एक बड़ा कारण कुछ समय पहले तक यहां स्कूलों की कमी थी। प्राथमिक शिक्षा से वंचित अधिकतर यहां की लड़कियां पशु चराने और घर और बच्चों को संभालने के कामों में लगी रहती हैं।
हांलाकि पिछले कुछ सालों में सर्व शिक्षा अभियान के तहत यहां के गावों में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है लेकिन पहले स्कूल छोड़ चुके बच्चों को कोई खास लाभ नहीं पहुंचा। लड़कियां खासकर दस से चैदह साल की उमर की लड़कियों को सेकेंडरी और हाई-स्कूलों में तब तक दाखिला नहीं मिलता जब तक कि उन की प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई का स्तर मजबूत नहीं होता।
एक से पांच कक्षा की बुनियादी शिक्षा में उन्हें निपुण बना मुख्यधारा के नियमित स्कूलों तक पहुचांना ही बनवासी आश्रम स्कूल का मुख्य मकसद है। आश्रम के संस्थापक सुरेश कुमार शक्ति के मुताबिक इसके लिए ब्लाॅक के उन 20 गावों को लक्ष्य बनाया गया है, जहां की साक्षरता की दर बेहद कम है। हर साल 100 के करीब लड़कियों को दाखिला दिया जाता है। एक साल के अंतराल के दौरान उन्हें एक से पांच तक की सभी कक्षाओं का कोर्स पढ़ाया जाता है। इसके लिए शिक्षा के नए और अनूठे तरीकों का उपयोग किया जाता है।
कक्षा तीन में पढ़ने वाली 14 साल की सोनी कुमारी बताती है, ‘‘जब मैं यहां आई तो शुरू शुरू में मुझे सुबह उठना फिर कक्षा शुरू होने से पहले अपना सारा काम निपटाना उसके बाद स्कूल की पढ़ाई और फिर स्कूल के बाद अपने पाठ याद करना सभी बेहद कठिन लगता था। लेकिन अब मुझे हर काम समय पर करने की आदत हो गई है और अब खेल- खेल में पढ़ाई और नाच-गाना सीखने में मुझे बेहद मजा आता है।’’ सोनी को बड़े होकर टीचर बनना है इसलिए वह कहती है मैं आगे भी पढ़ना चाहती हूं।
पिछले कईं सालों से स्कूल में पढ़ाई से लेकर स्कूल के अन्य कार्यकलापों को देखने वाली टीचर रेनु कुमारी के मुताबिक वर्ष 2000 में जब आश्रम की शुरूआत हुई थी तो गावों मे जाकर लड़कियों को स्कूल आने के लिए तैयार करना बेहद कठिन काम था। लेकिन अब तो इतनी अधिक संख्या में लड़कियां आने लगीं हैं कि हमारे पास सीटें कम होती हैं।
रेणु के मुताबिक लड़कियों को सब से पहले साफ सफाई की जानकारी दी जाती है। नहाने कपड़ो को साफ रखने बालों और नाखूनों की सफाई जैसी बुनियादी बातों से उनकी सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है। उन्हें हर काम अनुशासन में करने का विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है।
स्कूल में लडकियों की भर्ती के लिए एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है। सब से पहले संबंधित क्षेत्र के शैक्षिक आंकड़ों की जांच की जाती है। फिर उन गावों में नुक्कड़ नाटक, दीवार पेपर और जलसे जलूसों के जरिए लड़की की शिक्षा के महत्व के संबंध में समुदाय के लोगों को जागरूक बनाया जाता है। इसी दौरान आश्रम के कार्यकत्र्ता ग्राम पंचायतों के साथ बैठकें कर स्कूलों से बाहर 10 से 14 साल की लड़कियों का पता लगााते हैं। फिर आर्थिक और जातीय आधार पर इन बच्चों का वर्गीकरण किया जाता है ताकि हर वर्ग की लड़की को पढ़ने का अवसर मिले।
श्री सुरेश के मुताबिक कुल 100 साटों में से 25 फीसदी आदिवासी, 25 फीसदी अनुसुचित जाति और 25 फीसदी आर्थिक रूप से पिछड़े और 25 अल्प समुदाय के लिए आरक्षित रखी गई हैं।
दाखिले की प्रक्रिया पूरी होने के बाद योगयता और समझ के आधार पर उन्हें एबीसीडी श्रेणियों में बांटा जाता है। फिर उनकी योगयता स्तर के मुताबिक सिखाने का पैमाना तय किया जाता है। पढ़ाने के लिए यहां के ऐसे तरीकांे का इस्तेमाल किया जाता है जिससे कम समय में और खेल खेल में अधिक सिखाया जा सके। जैसे कक्षा दो में करीब 40 लड़कियों के समूह को एक से 100 तक की गिनती सिखाने के लिए एक से 100 तक लिखे कार्डो को एक लाइन में लगाने के लिए कहा गया। सभी लड़कियां को सही नंबर का कार्ड ढेर में से ढंूढने को कहा गया जो सही कार्ड ढूंढ कर लगाती उसके लिए सभी तालियां बजाते। पढ़ाने के अलावा सास्कृतिक और सामूहिक कार्यकलापों पर यहां अधिक ध्यान दिया जाता है। हसीना के मुताबिक स्कूल में दिन की शुरूआत प्रार्थना और योगा के साथ होती है। उसके बाद अलग-अलग विषयों पर नियमित कक्षाएं शुरू होती हैं। मुख्य तौर पर स्कूल में गणित, ंिहंदी, पर्यावरण पढ़ाया जाता है। शाम का समय खेल का होता है। सोने से पहले अंग्रेजी की क्लास होती हैं। सप्ताह के आखिरी दिन रविवार को बच्चों को चित्रकारी, कढ़ाई और दूसरे काम की चीजें सिखाई जाती हैं। इस के अलावा पढ़ाई में कमजोर रहने वाले बच्चों के लिए इस दिन विशेष कक्षाएं भी आयोजित की जाती हैं। यह दिन मां -बाप को भी अपने बच्चों से मिलने आने की छूट होती है। बच्चों मंे जिम्मेदारी और नेतृत्व की भावना पैदा करने के लिए उन्हें आश्रम के विभिन्न काम सौंपे जाते हैं। इसके लिए आश्रम में एक बाल संसद का गठन किया गया है। बाल संसंद के लिए एक प्रधानमंत्री और मंत्रियों का चुनाव किया जाता है। चयनित बाल मंत्रियों को स्वास्थ्य साफ सफाई, सांस्कृतिक और खेल कूद की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। बाल संसद के तहत विशेष समितियां भी बनाई गई हैं जो परिसर की साफ सफाई, बर्तन मांजने और समय पर हर काम को पूरा करने जिम्मा उठाती है।
जिस समय लेखक ने इस आश्रम में प्रवेश किया बहुत सी लड़कियों को अलग अलग समूहों में बंटा पाया। एक समूह में संवाददाताओं का चयन किया जा रहा था। पूछने पर पता चला कि यह हर माह लड़कियों द्वारा निकाले जाने वाले समाचारपत्र की तैयारी चल रही है। इसमें हर बार चक्रीय प्रक्रिया से चयनित संवाददाता माह के दौरान के अपने अनुभवों और अन्य मुद्दों पर लिखती हैं। एक समूह में गाने की रिहर्सल चल रही थी और एक अन्य कमरे में कुछ लड़कियां वाद विवाद और निबंध याद करने में व्यस्त थीं। यह तैयारी हर माह होने वाली बाल सभा के लिए की जा रही थी
श्री सुरेश के मुताबिक जब हमने इस प्रोजेक्ट को शुरू किया था तो सबसे पहले हमें युनिसेफ से दो साल के लिए सहयोग मिला था। उसके बाद वर्ष 2002 से यह प्रोजेक्ट दो सालों के लिए रीच इंडिया के सहयोग से चला। लेकिन उसके बाद पिछले दो सालों से सर्व शिक्षा के अभियान के ब्रिज कोर्स योजना से इसे वित्तीय मदद मिल रही है। लेकिन इसमें फंड अधिक न होने के कारण अभी हमें बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। श्री सुरेश के मुताबिक वर्ष 2005-06 में 100 में से 75 लड़कियों को हम नियमित स्कूलों में दाखिल कराने मे सफल रहे। इसी तरह वर्ष 2006-07 में 53 लड़कियांे को यहां ब्रिज कोर्स करने के बाद नियमित स्कूलों में दाखिला मिला। इस साल दो लड़कियां बोर्ड की परीक्षा भी दे रही हैं।
आश्रम के माहोल की बोरियत को तोड़ने के लिए समय समय पर लड़कियों को ऐतिहासिक स्थलों या दूसरे पिकनिक स्थलों पर भी लेजाया जाता है। इससे उन्हें अपने गांव के अतिरिक्त बाहरी दुनिया को देखने और समझने का मौका मिलता है।
जैसा कि कभी स्कूल न जाने वाली यहां की शाहीना कहती है मैं यहां आने से पहले अंधेरे से बहुत डरती थी लेकिन अब मुझे अधेंरे में भी डर नहीं लगता, मैं नहीं जानती थी कि शिक्षा की लौ इतनी तेज होती है।

2 comments:

रवि रतलामी said...

अंधेरे से उजाले की ओर की यात्रा का यथार्थ विवरण दिया है आपने. स्तुत्य प्रयास.

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

बहुत अच्छा िलखा है आपने । साथॆक प्रयास ।

http://www.ashokvichar.blogspot.com