Friday, 26 September 2008

सामुदायिक पुलिस व्यवस्था से गावों में सुधार

(रायपुर, छत्तीसगढ़)

अन्नू आनंद

धनेली गांव की 19 वर्षीया रानी साहू की आखों में खुशी साफदेखी जा सकती थी। अपने बाएं हाथ की बैसाखी को संभालते हुए,बड़े-बड़े कदमों के साथ गांव की तंग गलियों से गुजरते हुए वहबड़े उत्साह के साथ उन घरों की ओर इशारा करती जा रही थीजहां पहले या तो अवैध शराब की भट्ठी चलती थी या अवैध शराबबिकती थी। लेकिन अब यहां भट्ठी का कोई नामो-निशान नहीं है।रानी का कहना है, ‘‘अब आपको गांव में अवैध शराब की कोई भट्ठीनहीं मिलेगी। हमारे गांव में अब शांति है। शराब के कारण अबगांव में कोई दंगा नहीं होता। अगर कोई बाहर से लाकर भी यहांशराब बेचने की कोशिश करता है तो ग्रामीणों के साथ होने वालीमासिक बैठक में उसे उठाया जाता है और दोषी व्यक्ति केखिलाफ कार्रवाई की जाती है।’’ अपनी बड़ी-बड़ी आखों को औरबड़ा करते हुए बड़े गर्व के साथ बताती है कि बहुत सालों के बादइस बार होली गांव में शांतिपूर्वक बीती। ‘‘न कोई लड़ाई-झगड़ाहुआ और न ही किसी के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज हुई। अबतो हमारा गांव काफी सुधर चुका है।’’रानी की बातों में सचाई थी। 1200 की जनसंख्या वाले रायपुरजिले के इस गांव में सुधार की छाया साफ दिखाई दे रही थी।गांव की जो महिलाएं पति या घर के अन्य सदस्यों के शराब पीनेके कारण परेशान रहती थीं, अब महिला समूह के माध्यम से गांवके बेकार पड़े तालाब को खरीद कर उसमें मछली पालन काव्यवसाय शुरू करने की योजना बना रही हैं। कुछ समय पहलेतक पति की मारपीट को चुपचाप सहन करने वाली यहां की अध्िाकतर महिलाएं अब जानती हैं कि उन्हें ऐसी स्थिति में क्या करनाहै। गांव के प्राथमिक स्कूल में बच्चों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़रही है। गांववाले गांव में होने वाले किसी भी प्रकार के लड़ाई-झगड़ेकी सूचना के अलावा पानी, सिंचाई या स्कूल से संबंधित शिकायतको समुदाय संपर्क समूह यानी कम्युनिटी लेसन ग्रुप (सीएलजी) केसदस्य को देते हैं। संपर्क समूह का यह सदस्य उसे बाद में गांवमें होने वाली पुलिस अधिकारियों के साथ सामुदायिक कानूनव्यवस्था की बैठक में उठाता है।धनेली गांव में ऐसे संपर्क समूह के 12 सदस्य हैं जो गांव मेंकानून व्यवस्था कायम रखने तथा ग्रामीणों को उनके अधिकारों केप्रति सचेत करने का काम कर रहे हैं। रानी भी ऐसे ही एक संपर्कसमूह की सदस्य है और वह गांव की किसी प्रकार की समस्या कोसुलझाने में हमेशा उत्सुक रहती है।जिले के अन्य गांव टेमरी की महिला बुकय्या साहू जब गांवकी सरपंच बनी तो वह यहां के पुरुषों की शराब की लत से बेहददुखी थी। सरपंच बनने के बाद उसके लिए सबसे बड़ी चुनौतीगांव में चलने वाली अवैध शराब की भट्ठी को बंद कराना था। वहबताती है कि पंचायत के पुरूष सदस्यों का मानना था कि जब वेपंचायत की बैठक में पीकर आते हैं तभी बाघ बन पाते हैं। वे हंसतेहुए कहती है, ‘‘लेकिन पिछले करीब एक साल से सभी ‘बाघ’बकरी बन चुके हैं क्योंकि अब गांव के अधिकतर पुरुष न तो शराबपीते हैं और न ही लड़ाई-झगड़ा कर सकते हैं क्योंकि वे जानतेहैं कि इसकी तुरंत रिपोर्ट पुलिस थाने में हो जाएगी। इसलिएहमारी पंचायत में अब काम होने लगा है।’’रानी और बुकय्या साहू अपने गांवों में आए इस बदलाव कापूरा श्रेय ‘सामुदायिक पुलिस व्यवस्था’ को देते हैं। मानव अधिकारोंपर कार्य करने वाली दिल्ली स्थित गैर सरकारी संस्था ‘कामनवेल्थह्यूमन राइटस इनिशिएटिव’ और राज्य मानव अधिकार आयोग केसहयोग से वर्ष 2004 से पाॅयलट प्रोजेक्ट के रूप में यह योजनारायपुर जिले के माना पुलिस स्टेशन से चल रही है। योजना कामुख्य उद्देश्य पुलिस और समुदाय के परस्पर संबंधों को बेहतरबनाकर गांवों में कानून व्यवस्था कायम करना और ग्रामीणों कोउनके कानूनी अधिकारों के प्रति सचेत कर उन्हें सबल बनाना है।अपनी तरह के इस अनोखे माॅडल को माना पुलिस स्टेशन से 12गांवों की 33 हजार जनसंख्या पर चलाया जा रहा है।आदिवासियों से घिरे इस क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या अवैधशराब, सट्टा, जुआ और गैर सामाजिक तत्व है। अधिकतर गांवों मंेअवैध शराब के कारण समूचा सामाजिक ताना-बाना बिखरा हुआथा। देश की अधिकतर जनसंख्या की तरह यहां के गांवों के भीभोले-भाले ग्रामीणों ने पुलिस को कभी अपनी समस्याओं केसमाधान के रूप में नहीं देखा था। अवैध शराब के अधिक प्रचलनके कारण यहां कानून और व्यवस्था की समस्या अक्सर रहती थी।दो साल साल पहले तक गांववालों ने कभी सोचा भी नहीं था किपुलिसकर्मी उनकी किसी भी समस्या को सुलझा सकते हैं। लेकिनअब वे केवल कानून-व्यवस्था के अलावा पानी और स्कूल जैेसीबुनियादी जरूरतों के लिए भी पुलिस की मदद लेते हैं।सीएचआरआई की योजना निदेशक डोयल मुखर्जी के मुताबिक,‘‘1861 का पुलिस एक्ट पुलिस और समुदाय के संबंधों के प्रतिखामोश है। इस एक्ट में विकेंद्रीकृत पुलिस व्यवस्था या निजीपुलिस व्यवस्था का कोई वर्णन नहीं है। अतः आमतौर पर लोगस्वयं को पुलिस से अलग रखते हैं और समाज और पुलिस कीभूमिकाएं विपरीत रहती हैं। माना पुलिस स्टेशन के प्रयोग में हमनेपुलिस और समुदाय को जोड़ कर उनमें संवाद बनाने की प्रक्रियास्थापित की जिसका परिणाम बेहद सार्थक रहा।’’ग्रामीण पुलिस व्यवस्था और सामुदायिक पुलिस व्यवस्था केइस मुद्दे पर राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिर्पोटों में भी चर्चा होतीरही है। आयोग की सिफारिश थी कि प्रभावी कानून के लिएव्यवस्था पंचायतों और सब-डिवीजन पुलिस अधिकारियों के बीचनिकट संबंध होने चाहिए। कुछ राज्यों मंे पुलिस मैन्यूएल में ग्रामीणसमुदायों के साथ बेहतर संबंधों, और सामुदायिक पुलिस व्यवस्थाके सहायक के रूप में ग्रामीण सुरक्षा समितियों के गठन का जिक्रभी है। केरल के तिरुअनंतपुरम में ‘कम्बाइन्ड एक्शन अगेंस्टथीव्स, चीट्स एण्ड होलीगन्स (कैच) नाम की सामुदायिक पुलिसव्यवस्था चल रही है।लेकिन स्थानीय पुलिस को इस प्रकार की व्यवस्था के लिएतैयार करना हमेशा एक चुनौती रहा है। माना में सीएचआरआई नेइस प्रयोग को शुरू करने से पहले छत्तीसगढ़ सरकार, राज्य मानवअधिकार आयोग और गैर सरकारी संगठनों से लंबा संवाद किया।लेकिन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती पुलिसकर्मियों को तैयारकरना था। डोयल के मुताबिक सबसे पहले माना के पुलिस अध्िाकारियों के साथ प्रशिक्षण कार्यक्रम किए गए जिनमें उन्हें समुदायको संसाधन के रूप में इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण दिया गया।उनके मनोवृति को परिवर्तित करने के लिए प्रशिक्षण में कई प्रकारके तकनीकों का इस्तेमाल किया गया। गांवों में किए गए सर्वे सेपता चला कि लोग ऐसी पुलिस व्यवस्था चाहते हैं जो दिखाई पड़ेऔर जिसमें तत्काल कार्रवाई के साथ जवाबदेही बने।योजना के तहत माना थाना क्षेत्र के 12 गांवों को चार बीटों मेंबांटा गया है। हर बीट की जिम्मेदारी एक सब इंस्पेक्टर और दोकांस्टेबल पर है। ये बीट अधिकारी अपने बीट क्षेत्र की समस्याओंको चिन्हित करते हैं। हर बीट में चार ग्रामीण सदस्यों वालेसमुदाय संपर्क समूह (सीएलजी) यानी कम्युनिटी लेसन ग्रुप बनाएगए हैं। इन समूहों के सदस्य गांव में कानून व्यवस्था कायम करनेऔर कानूनी साक्षरता के अलावा लोगों को उनके अधिकारों केप्रति जागृत करने में सहायता करते हैं। हर बीट अधिकारी कीअपने क्षेत्र के लोगों के साथ माह में एक बैठक होती है जिसमेंआम ग्रामीण अपनी समस्याएं रखते हैं। इन समस्याओं को रजिस्टरमें नोट किया जाता है और क्या कार्रवाई की जाएगी उसके प्रतिनोट लिखा जाता है। अगली बैठक में फिर इस बात की समीक्षाकी जाती है कि क्या कार्रवाई हुई और नहीं तो क्यों?जो समस्याएं इस बैठक में हल नहीं हो पाती उन्हें फिर हरमाह पुलिस स्टेशन में संपर्क समूहों के साथ मुख्य पुलिस अधिकारीके साथ होने वाली बैठक में उठाया जाता है। समुदाय के साथकाम करने वाले प्रोजेक्ट सहायक अंशुमन झा के मुताबिक, ‘‘इसबैठक में संपर्क समूहों के सदस्य स्कूली शिक्षा में अनियमितताएं,सिंचाई और तालाब की व्यवस्था करने जैसी समस्याओं पर भीचर्चा की जाती है। फिर संबंधित अधिकारियों को इसके प्रतिलिखा जाता है। दहेज या बाल विवाह जैसी सामाजिक समस्याओंके खिलाफ गांवों में अभियान चलाने के लिए संपर्क समूह केसदस्यों को तैयार किया गया है। स्थानीय संगठनों, पंचायतों औरपुलिस की मदद से संपर्क समूहों के माध्यम से समय-समय परगांवों में जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं।माना पुलिस स्टेशन के एसएचओ जेपी दुबे का कहना है, ‘‘इसप्रयोग के कारण अब जनता और पुलिस की दूरी कम हुई है। गांवके लोग अपनी पंचायतों के काम न करने की शिकायतें भी लेकरआते हैं और अब वे आपसी झगड़े भी पुलिस के माध्यम सेनिपटाना चाहते हैं। सामुदायिक पुलिस व्यवस्था के चलते गांवोंकी पंचायतें सक्रिय हुई हैं क्योंकि उन्हें आशंका रहती है कि गांवके किसी भी विकास कार्य में गड़बड़ी होने या कुछ कार्य न होनेकी शिकायत सामुदायिक बैठकों में हो जाएगी।’’श्री दुबे के मुताबिक इस प्रोजेक्ट के तहत जब गांव में कामशुरू हुआ तो हमें पता चला कि 12 पंचायतों में से आठ पंचायतोंके सरपंच निष्क्रिय हैं। ग्रामीणों के साथ होने वाली बैठकों मेंउनकी शिकायतें आने लगी।’’बड़ौदा गांव के सरपंच द्वारा एकाउंट न देने पर संपर्क समूह(सीएलजी) के सदस्यों ने जब उसकी शिकायत थाने में की तो वहतुरंत एकाउंट देने को तैयार हो गया। इस प्रकार गांव डूमरतराईमें एक केमिकल फैक्टरी के प्रदूषण से परेशान लोगों ने सीएलजीके माध्यम से फैक्टरी मालिक के खिलाफ थाने में शिकायत दर्जकी। इस गांव के संपर्क समूह के सदस्य लीलाराम साहू ने बतायाकि पुलिस ने फैक्टरी से नमूना लेकर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डको भेजा। बाद में राज्य मानव अधिकार आयोग में मामला उठायागया। परिणामस्वरूप जांच से घबराकर फैक्टरी के मालिक नेजांच शुरू होने से पहले ही स्वयं ही गांव से फैक्टरी को स्थानांतरितकर दिया।इन शिकायतों को बेहतर मंच प्रदान करने के लिए प्रोजेक्ट केतहत माना पुलिस स्टेशन से एक त्रैमासिक न्यूज लेटर की भीशुरूआत की गई है। जनता पुलिस संबंधों पर आधारित इसपत्रिका ‘सहयोग माना’ में पुलिस सुधार के लेखों के अलावापंचायतों के सदस्य अपनी मूलभूत समस्याओं को रखते हैं। पत्रिकाके संपादक ग्रामीण कृष्णकांत ठाकुर का मानना है कि पत्रिका केमाध्यम से लोग स्वयं को प्रशासन से जुड़ा हुआ मानते हैं। यहपत्रिका उनके और प्रशासन के बीच संवाद की एक बेहतर कड़ीका काम करती है।कभी पुलिसकर्मियों को अपना विरोधी मानने वाले ग्रामीणकेवल अपनी समस्याओं के प्रति ही अब चिंतित नहीं बल्कि अब वेपुलिसकर्मियों की सीमाओं और सरोकारों को समझने लगे हैं।वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ एक बैठक में इन ग्रामीणों नेमाना पुलिस स्टेशन के लिए एक छोटी जीप प्रदान करने की मांगरखी, ताकि गांवों में उनकी पेट्रोलिंग बढ़ सके। आखिर पुलिसस्टेशन को गाड़ी मिल गई।अपने प्रकार का यह अनूठा माॅडल इन गांवों में कानून व्यवस्थाकायम करने के अलावा गांववासियों को सशक्त बनाने का भीकाम कर रहा है। इसकी सफलता को देखते हुए अब इसेछत्तीसगढ़ के अन्य जिलों में भी अपनाने की कवायद चल रही है।जैसा कि सुश्री डोयल कहती है कि निजी स्तर पर सामुदायिकपुलिस व्यवस्था के कुछ प्रयोग तो हुए हैं लेकिन ग्रामीण क्षे़त्र मेंसंस्थागत स्तर पर अपनी तरह का यह पहला प्रयोग है।छत्तीसगढ़ पुलिस महानिदेशक श्री ओपी राठौर इस प्रयोग सेबेहद आश्वस्त हैं वह कहते हैं, इस प्रयोग से थाने में दर्ज होनेवाले मामलों की गिनती बड़ी है। अब महिलाएं भी अधिक संख्यामें शिकायतें लेकर आती हैं। इस प्रयोग की सफलता से खुशहोकर राज्य पुलिस विभाग राज्य के अन्य जिलों में भी इसे शुरूकरने की योजना बना रहा है।सुविधाओं के अभाव में पुलिसकर्मियों के लिए ऐसा प्रयोगचलाना सरल नहीं। बिना किसी विशेष प्रोत्साहन के उन परअतिरिक्त जिम्मेदारियां डालना एक मुश्किल ही नहीं कठिन चुनौतीहै, जैसा कि अंशुमन कहते हैं, ‘‘लेकिन इससे गांववालों के दिलोंमें पुलिस वालों का आदर भाव बढ़ा है, अब वे उन्हें अपना दोस्तऔर मानव अधिकारों के रक्षक मानते हैं।’’ आखिर यह एक बहुतबड़ी उपलब्धि है।

Thursday, 11 September 2008

A school without pen and bag



By : Annu Anand
Udaipur, Rajasthan
It was an unusual classroom of seventh standard in Central Public Senior School in the tribal belt of south Rajasthan, in Udaipur. All forty students in the class were taking geography lessons on their respective computers. They were doing an exercise of a chapter on earth and rocks. All the information on the chapter was accessible on their computer screens. The kids were busy exploring different sections of their lesson with the help of their little mouse. To an outsider, it may appear that a computer class is in session.
But this is a unique class. They study all subjects - mathematics, Hindi or general knowledge - on the computer. Similar was the scene in all other classrooms in the school. Even nursery kids were learning A for Apple and Ant from their computers. As soon as they see pictures, the class would reverberate with sounds of the children.
This school is well on way to becoming the country's first pen-less and bag-less school. It was started in 1998 and has about 1200 students on its rolls. When Alka Sharma, the school's principal, founded the institution she wanted to free children from the burden of school bags on their shoulders. She began thinking of different ways and means of doing so and decided to use computers to translate her ideas into action. After all, she thought, computerized education has a bright future. This inspired her to go ahead and transform her dream into reality. To begin with, she used software to transform syllabus of different subjects into computerized modules.
The whole class is introduced to a new lesson with the help of a liquid crystal display (LCD) and projector. The subject teacher lectures in recorded voice the lesson's main points as in a normal classroom. Then children do the exercises on their computers. For homework and exercises, children are allowed to take computers home by rotation. The head of the Computer Department, Sunil Bawel, says: "Teachers with help from technical staff prepare question papers using special software packages such as Karo Karo." The 'answer sheets' are checked on computers and marks given to students instantly.
All tests for second to the 12th standard are conducted over computers only. Alka Sharma says: "We would like to have the final examination of 12th standard also on computers, but parents are not yet ready for it. Moreover, the state examination board has to agree for the change." So, about half the final examinations in the school are conducted over computers while the rest are taken the traditional way- with paper and pen.
In 2003, the school received second prize for excellence in computer education from the President, Dr. A P J Abdul Kalam. "Initially when I used to talk about pen-less school, people used to be surprised. But now my dream has taken shape. After we got this recognition, parents are also encouraged about the experiment and are now helping the school in conducting all exams on computers," says Alka Sharma. Most children in the school are happy with the new teaching system. Showing pictures of different rock on his computer screen, Mayank, studying in the seventh standard, says this way one can explore different subjects creatively and also get practical information. "We can make power point presentations even on difficult subjects", adds Kirti Jain of the same class.
For children who work for long hours on computers, physical exercises are prescribed. They are taught to practice pranayama and yoga. In addition, there is facility for acupressure also. In every class the computer kept is on a trolley so that it can be moved around in case the teacher has to explain something. All information about the school's e-library and video library is available on compact discs and children can access these.
As the principal says, the school is fully equipped and ready to be the completely computerized teaching institution in the country. Even final examinations will be conducted on computers once the education department gives the go-ahead.

Wednesday, 3 September 2008

सरपंच की सूझबूझ से गांव में आया पानी


अन्नू आनंद
अलवर से कोई 85 किलोमीटर दूर कच्चे और उबड़-खाबड़ रास्ता तय करने के बाद गांव पड़ता है बरवा डूंगरी। यहां रहने वाली बलोदेव पंचायत की सरपंच 45 वर्शीय लालीदेवी अपने घर के खुले अहाते में गांव में लगाई जाने वाली शौचालयों की सीटों को रखवा रही थी। यह सीटें बरवा डूंगरी और बलोदेव गांव के गरीबी की रेखा से नीचे वाले परिवारों के घरों में लगाए जाएंगे। बलोदेव पंचायत मे पांच राजस्व गांव आते हैं।
सरपंच लाली देवी के मुताबिक गांव की सबसे बड़ी समस्या शौचालय की है। सीटों को गिनते हुए वह बताती है कि गांव में सभी घरों में शौचालय नहीं। खासकर गरीबों की बस्ती में। इन परिवारों को काफी दिक्कत होती है। महिलाओं के लिए रात में बाहर जाना उतना आसान नहीं हैं। गांव में जंगली जानवर भी आते हैं। क्षेत्रीय सुधार योजना के तहत लाली देवी ने इन परिवारों में शौचालय की सुविधा प्रदान करने का प्रस्ताव भेजा। जो मंजूर हो गया। अब लाली देवी प्रसन्न है कि गांव की सबसे बड़ी परेशानी दूर हो जाएगी। लेकिन लाली देवी के लिए यह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं जिस सूझबूझ से वह दो गांवों में पानी की समस्या को हल कर रही है उस के लिए इन गावों में दनकी विशेष प्रंषसा की जाती है।
बरवा डूंगरी के इस छोटे से गांव में करीब 35 परिवार रहते हैं। इनमें अधिकतर मीणा जात के हैं। इस गांव के साथ सटा हुआ गांव पांवटा है। यहां पर गुर्जर जात के करीब 45 परिवार रहते हैं। ये लोग अधिकतर छोटी मोटी खेती या पशुपालन से अपना गुजारा करते हैं। लेकिन राजस्थान में पिछले कुछ सालों मे पड़ने वाले सूखे और राज्य में हमेशा रहने वाली पानी की कमी ने इनकी समस्याओं को बढ़ाने का काम ही किया। ये गांव पिछले कईं सालांे से पानी की किल्लत झेल रहे थे। जबकि यहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित नारायणी माता के गांव में स्थित नारायणी माता के मंदिर का कुण्ड हमेशा पानी से भरा रहता है। इस कुण्ड से एक नाला निकलता है। लेकिन इस नाले का अधिकतर पानी व्यर्थ बह जाता था।
नाले का पानी इस्तेमाल करने के लिए गांववालों ने कई बार उस पर मिट्टी का बांध बनाया लेकिन बरसात आते ही वह टूट जाता और पानी चारों ओर बिखर कर व्यर्थ बहने लगता। दोनो गांववालों ने आपसी सहमति से समस्या का हल करने की सोची। दोनों गांववालों ने अपने-अपने गांव के प्रतिनिधि चुनकर एक समिति बनाई जो इस का हल खोज सके। गांवों के प्रतिनिधि नारायणी माता गांव स्थित ‘चेतना’ संस्था के पास अपनी समस्या लेकर गए। यह संस्था कासा से मिलने वाली आर्थिक सहायता से आसपास के क्षेत्र में सामाजिक आर्थिक विकास के कार्य करती है। संस्था के सचिव दीन दयाल व्यास के मुताबिक वर्ष 99 उनके कार्यकत्र्ताओं ने दोनो गांव के लोगों के साथ बैठकें की और समस्या के हल पर विचार किया गया। आखिर नाले पर छोटा सा पक्का बांध बनाने पर सहमति हुई।’’
गांवों द्वारा नियुक्त समिति की देखरेख में वर्श 99 के जून माह में पक्का बांध बनाकर पानी रोकने का काम शुरू हुआ। दोनों गांववालों ने बांध बनाने की कुल लागत का 25 प्रतिशत वहन करने की पेशकश की। बांध बनाने में कुल 95 हजार रुपए का खर्चा आया। लेकिन पक्का बांध बनाने के बाद पानी का इस्तेमाल न्यायोचित ढंग से इस्तेमाल करने के लिए दोनों गांवों ने एक अनूठा तरीका निकाला। व्यास के मुताबिक पानी के उचित बटवारे गांववालो की सहमति के बिना संभव नहीं था। इस कार्य में लाली देवी ने लोगांे में सहमति बनाने का अद्भुत कार्य किया। बनाए गए बांध में दो रास्ते पानी के निकास के लिए रखे गए। एक निकास से पांवटा गांव को पानी मिलता है दूसरे से बरवा डूंगरी को। दोनों गांवों ने बारी-बारी से पानी लेने पर सहमत हुए। पांवटा गांव के पानी लेने के समय बरवा डूंगरी का निकास बंद कर दिया जाता है और जब बरवा डूंगरी को पानी चाहिए होता है तो पांवटा को पानी देने वाले निकास को बंद कर दिया जाता है। इस तरह आपसी समझ और मेल जोल से दोनों गांव व्यर्थ बहते पानी को अपने खेतों में इस्तेमाल कर रहे हैं। लाली देवी के नेतृत्व में गांववालो ने जिस समझ से पानी की समस्या को हल किया उससे जल विवाद में फसे कर्नाटक और तमिलनाडू राज्यों को भी सीख मिलती है।
इस संबंध में पांवटा गांव की तिबारी में बैठे रामकिषोर कहते है कि नाले पर पक्का बांध बना देने से अब वह दो बीघा की बजाए तीन बीघा जमीन पर फसल बोने में समर्थ हैं। हुक्का गुड़गुड़ाते छोटे लाल भी उनके समर्थन में बोलते हुए बताते हैं, ‘‘अब पानी खूब आयो। पहले कच्चा बांध होने के कारण बरसात से टूट जाता था अब हम दो गांव तीन-तीन घंटे की बारी से पानी इस्तेमाल करते हैं खेत को पानी अच्छा मिल रहा है।’’
लाली देवी वर्ष 2000 में सुरक्षित सीट से बलोदेव पंचायत की सरपंच चुनी गई थी। दो लड़को और दो लड़कियों की मां लाली देवी घर के कामों को निपटाने के बाद खेती का काम भी देखती है। वह मानती है कि सरपंच बनने के बाद उसे बहुत से कामों में पति की सहायता लेनी पड़ी लेकिन धीरे धीरे उन्होंने कामों की बारीकी को पहचानना षुरू किया। इस काम में उन्हें पंचायत सदस्यों के लिए आयोजित प्रशिक्षण से काफी मदद मिली। उनके मुताबिक वह अभी भी गांव के बुर्जगों के सामने घूंघट निकालती हैं लेकिन अब यह घूंघट उसके काम के प्रति उत्साह और आत्मविश्वास मे बाधा नहीं बनता। सरपंच बनने के बाद गांव मंे दो स्कूल और धिरोड़ा गांव मे स्वास्थ्य केंद्र बनवाने के बाद अब वह पंचायत के सभी गावों मे शौचालय बनावाने के कार्य को पूरा करने में जुटी हैं।
इस के बाद उनकी सब से बड़ी प्राथमिकता बरवा डंूुगरी मे स्वास्थ्य केंद्र खोलने की है। लाली देवी के मुताबिक उनके गांव में नर्स दूर गांव से आती है और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी 17 किलोमीटर दूर है जिसकी वजह से रात में डिलीवरी में महिलाओं को बेहद मुश्किल होती है। बलोदेव पंचायत में पांच महिलाएं और सात पुरूश हैं। पंचायत की सभी महिला सदस्यों से राय लेने के बाद ही कोई फैसला हो पाता है। लाली देवी के पति और वार्ड पंच कल्याण सिंह मीणा कहते हैं, ‘‘पहले पंचायत के बहुत से कामों में वह उनकी मदद करते थे लेकिन अब तो पंचायत मींटिग में उनके बहुत से फैसलों को सरपंच रद्द कर देती हैं। उन की इस बात पर लाली देवी हंसते हुए कहती है, ‘‘अब बात तो वही मानी जाएगी जिस पर सब की सहमति हो। फिर अब हमें अपनी समझ पर पूरा भरोसा है। जरूरत है इस समझ को पहचानने की।’’लाली देवी की इस बात में दम है।
जरूरत पड़ने पर एक अनपढ़ और देहाती महिला केवल अपने अनुभव के आधार पर बड़े बड़े विवादों को भीे सुलझा सकती है जो शहर के पढ़े लिखे लोग अपने तर्कों के आधार पर भी नहीं कर सकते। कम से कम सरपंच लालीदेवी का अनुभव तो यही सीख देता है।