Tuesday, 10 July 2012

सरकार की दोहरी नीति ने बच्चों से छुड़वाया स्कूल


अन्नू आनंद
(देवास, मध्य प्रदेश)
मध्य प्रदेश में मैला ढोने वालों के पुनर्वास को लेकर कर्इ प्रकार की अनियमितताएं देखने को मिल रही हैं। सरकार की पुनर्वास नीति में इतने सुराख हैं कि यहां पर कर्इ जिलाें में इस काम को छोड़ने वाले कर्इ लोग फिर से इस काम को अपनाने लगे हंै। फरवरी 2002 में देवास जिले में चलने वाले 'गरिमा अभियान के तहत किरन सहित बस्ती की 26 महिलाओं ने यह काम करना छोड़ दिया। मध्य प्रदेश में इस अभियान के तहत मैला ढोने वालों को अपनी मान मर्यादा और सम्मान की खातिर इस काम को छोड़ने के लिए तैयार किया जा रहा है। किरन बताती है कि यह काम छोड़ने के बाद उन सभी महिलाओं के पास बच्चों का पेट पालने के लिए कोर्इ विकल्प नहीं था। उन्होंने खेतों में मजदूरी करना शुरू किया लेकिन यह मजदूरी का काम भी कभी-कभार मिलता। मजदूरी के काम से अनजान किरन अक्सर नौ बीघा सोयाबीन काटती जबकि उसे मजदूरी केवल सात बीघा की ही मिलती। किरन सहित काम छोड़ने वाली बस्ती की अन्य महिलाओं के बच्चों को स्कूल में मिलने वाली छात्रवृत्ति भी बंद कर दी गर्इ। अब बस्ती के अधिकतर बच्चे स्कूल से बाहर हंै।
केंद्र सरकार ने जब वर्ष 1993 में मैला ढोने के अमानवीय कार्य को बंद करने का सफार्इ कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सनिनर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम 1993 लागू किया था तो साथ में काम छोड़ने वाले लोगों के लिए पुनर्वास की राष्ट्रीय योजना भी लागू की थीं। इनमें से एक योजना अस्वच्छ धंधों में लगे लोगों के बच्चों को शिक्षित बनाने के संबंध में थी। अप्रैल 1993 से लागू इस योजना के तहत अस्वच्छ धंधों में लगे लोगों के दो बच्चों को दस माह तक पहली से दसवीं कक्षा तक छात्रवृत्ति प्रदान करने का प्रावधान है। योजना के मुताबिक एक से पांचवीं तक 40 रुपए प्रति माह और छठी से आठवीं तक 60 रुपए प्रति माह तक की छात्रवृत्ति निर्धारित की गर्इ थी। इस आर्थिक प्रोत्साहन ने देश भर में मैला ढोने के काम में लगे बहुत से परिवारों के बच्चों को स्कूलों में पहुंचाने का काम किया।
लेकिन जब वर्ष 2000 से कानून के तहत सरकारी और गैरसरकारी प्रयासों के चलते मैला ढोने वाले लोगों द्वारा काम को त्यागने की प्रवृति ने जोर पकड़ा तो इसका सबसे बुरा प्रभाव स्कूली बच्चों पर पड़ा। स्कूलों में उनको मिलने वाली छात्रवृत्ति बंद होने लगी। इसकी मुख्य वजह यह है कि बच्चों को छात्रवृत्ति की इस कल्याणकारी योजना और कानून में ही विरोधाभास है। कानून अस्वच्छ धंधे पर रोक लगाता है जबकि योजना अस्वच्छ धंधे में लगे बच्चों को ही स्कूली शिक्षा के लिए सहायता देती है।


मैला ढोने का काम बंद करने वाली बस्ती की शोभा ने अपनी दो लड़कियों का स्कूल छुड़वा दिया। वह बताती है कि एक तो काम नहीं ऊपर से बच्चों की फीस, वर्दी और दूसरे खर्चे हम कहां से लाएं। किरन ने बताया कि जब स्थानीय सरकारी अधिकारियों से पूछा तो उन्होंने बताया कि छात्रवृत्ति तो अस्वच्छ धंधों में लगे लोगों के बच्चों के लिए है जब काम छोड़ दिया तो छात्रवृत्ति क्यों मिलेगी। किरन तर्क देती है कि एक तरफ तो सरकार यह प्रथा बंद करना चाहती है और इसके लिए कानून भी बनाया है दूसरी ओर उसी कानून का सहारा लेकर हमारे बच्चों के पढ़ने के रास्ते बंद किए जा रहे हैं हम बच्चों की जरूरतें कैसे पूरी करें। ऐसे में हमारे पास बच्चों को स्कूल से हटाने के अलावा क्या विकल्प है। पिछले वर्ष किरन ने गरिमा अभियान के तहत आयोजित जनसुनवार्इ में भी सरकार से ऐसे धंधों को छोड़ने वालों के बच्चों को दोगुनी छात्रवृत्ति देने की मांग की थी।
किरन की बातों में दम है लेकिन स्थानीय सरकारी अधिकारी सिर्फ कागजों की भाषा समझते हंै। इस छात्रवृत्ति को पाने के लिए साल में 100 दिन काम करने का हलफनामा देना पड़ता है। जिस पर सरकारी अधिकारी को हस्ताक्षर करने होते हैं। कोर्इ भी सरकारी अधिकारी यह मानना नहीं चाहता कि उनके जिले में मैला ढोने का काम चल रहा है। इसलिए बच्चों को छात्रवृत्ति नहीं मिल पाती।     
2500 की आबादी वाले सिआ गांव में वर्षों से मैला ढोने के काम को त्यागने वाली 54 वर्षीया मन्नू बार्इ कहती है, ''जब मैं और मेरी बहुएं यह काम करते थे तो मेरे पोते-पोतियों  के साथ स्कूल में भेदभाव होता था। अब काम छोड़ दिया तो हम बच्चों को स्कूल भेजने के काबिल ही नहीं रहे। सरकारी सहायता भी तो बंद कर दी गर्इ। संतोष बताती है कि पहले मैं मैला सिर पर ढोकर ले जाती थी बदले में मुझे बासी रोटी फेंक कर दी जाती थी। बच्चे स्कूल जाते तो उन्हें नल से पानी नहीं पीने दिया जाता। उनको टाटपल्ली पर बैठने भी नहीं देते थे। बच्चे घर आकर शिकायत करते। दोपहर के भोजन में भी उन्हें अलग बिठाकर भोजन खाने को मिलता। लेकिन बाद में जब गांव में इस काम को छोड़ने का अभियान शुरू हुआ और कानून के बारे में जानकारी दी गर्इ तो हमने काम छोड़ दिया, लेकिन हमें काम छोड़कर क्या मिला। आज न हमारे पास काम है उस पर बच्चों को शिक्षा में मिलने वाली मदद भी बंद हो गर्इ। आज जब हमारे काम की वजह से स्कूल में उन्हें शर्मसार नहीं होना पड़ता और वे सभी बच्चों के समान व्यावहार पाने के काबिल हुए हैं तो प्रशासन ने बच्चों को मिलने वाली राशि बंद कर दी। यह कहां का न्याय है।
वास्तव में मैला ढोने जैसे श्राप से मुकित दिलाने के लिए चालू की गर्इ सरकारी पुनर्वास योजनाओं में इतनी कमियां हैं कि निर्धारित समय सीमा तक इस काम को बंद करने का लक्ष्य अभी बेहद दूर जान पड़ता है। केंद्र की यूपीए सरकार ने सामाजिक न्याय मंत्रालय को यह आदेश दिया है कि दिसंबर 2007 तक सभी राज्यों में यह काम पूरी तरह बंद हो जाना चाहिए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए योजना आयोग ने 'मैला ढोने से मुकित राष्ट्रीय कार्ययोजना 2007 भी बनार्इ है। जिस का मकसद 2007 के अंत तक इस काम को पूरी तरह बंद किया जाना है। लेकिन जमीनी हकीकत अलग ही कहानी बयां करती है।
मध्य प्रदेश सरकार ने हार्इकोर्ट में हलफनामा दिया है कि मध्य प्रदेश में अब कोर्इ भी  मैला ढोने का काम नहीं कर रहा। जबकि यहां के नौ जिलों में पिछले वर्ष गरिमा अभियान द्वारा करार्इ गर्इ सर्वे से पता चलता है कि अभी भी यहां 618 लोग इस काम में लगे हैं। इस के अलावा 52 ऐसे लोगों का भी पता चला जिन्होंने काम छोड़ने के बाद उचित पुनर्वास के अभाव में फिर से इस काम को अपना लिया है। जो लोग ये काम छोड़ चुके हैं उन से  आज भी अन्य हीन काम जैसे गांव में मरे पशुओं को फेंकना, श्मशान से मृतक के कपड़े लेना, लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करना, जजमानी करना और किसी की मृत्यु होने पर ढोल बजाना इत्यादि कामों को कर रहें हैं और इन जातिगत कामों के बंटवारे को रोकने के लिए सरकार के पास कोर्इ ठोस नीति नहीं है।
सरकार का पूरा जोर आर्थिक पुनर्वास पर है। अधिकतर योजनाएं भी पुरुषों को ध्यान में रखकर बनार्इ जा रही हैं। जबकि इस धंधे में 93 प्रतिशत महिलाएं लगी हुर्इ हैं। जिन रोजगारों के लिए कर्जा दिए जाने की व्यवस्था है वे अधिकतर पुरुषों द्वारा किए जाते हैं। देवास जिला में इस मुíे पर काम करने वाली संस्था 'जनसाहस के प्रमुख आसिफ के मुताबिक अधिकतर ऐसे कामों के लिए कर्जा दिया जा रहा है जो पुरुष करते हैं। जैसे आटो, दुकानदारी आदि। ऐसा नहीं है कि ये काम महिलाएं नहीं कर सकतीं लेकिन उन्हें प्रशिक्षण के माध्यम से सशक्त बनाने की जरूरत है और ये लंबी प्रक्रिया है। आसिफ के मुताबिक स्कूलों से मिलने वाली आर्थिक मदद के बंद होने की नीति इन लोगों को यह काम न छोड़ने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। उन्होंने बताया कि भावरासागर में मैला ढोने के काम मे लगी शोभा की छह लड़कियां स्कूल जाती थीं, लेकिन जब उसने वर्ष 2003 में काम छोड़ा तो कुछ समय बाद उसकी सभी बेटियों को स्कूल छोड़ना पड़ा क्योंकि स्कूल से मिलने वाली आर्थिक सहायता यानी कि छात्रवृत्ति बंद हो गर्इ और शोभा के लिए बिना सहायता के उन्हें पढ़ाना संभव नहीं था। 
किरन, शोभा, संतोष जैसी बाल्मीकी बस्ती की अधिकतर महिलाओं को यह काम छोड़े पांच वर्ष हो चुके हैं, लेकिन आज भी वे कभी खेतों में दाने तो कभी अनाज की फसल आने का इंतजार करती हैं तो कभी नगर पंचायत से नाली या गटर साफ करने की पर्ची कटने का इंतजार। यह काम केवल 15 दिनों के लिए बारी-बारी से हर परिवार को दिया जाता है।
सरकार नौ प्रतिशत आर्थिक वृद्धि का भले ही जश्न मनाती रहे लेकिन हकीकत तो यह है कि आज भी छह लाख के करीब लोग इस अमानवीय काम को करने का खामियाजा भुगत रहे हैं। अब देखना यह है कि सरकार दिसंबर 2007 तक इन लोगों को इस प्रथा से निजात दिलाने के साथ ही उनके स्कूलों मे पढ़ने वाले बच्चों के साथ भी न्याय कर पाती है या फिर कोर्इ नर्इ तारीख, नया साल इनकी उम्मीद की परीक्षा लेगा।
(यह लेख २००७ में जनसत्ता, ग्रासरूट में कवर स्टोरी सहित क्षेत्रीय समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ है.)