Saturday, 23 October 2010

मीडिया

 पेड न्यूज से भी खतरनाक है अंधविश्वासों का प्रचार
अन्नू आनंद

आखिर क्या कारण है कि अंधविश्वासों और पाखंडों पर लोगों का विश्वास शिक्षा के स्तर में सुधार के बावजूद बढ़ता जा रहा है? सही जवाब यह है कि अब अंधविश्वासों के साथ बाजार जुड़ गया है। बाजार के जुड़ने के साथ ही सभी प्रकार के प्रपंचों, आंडबरों, पाखंडों और अवैज्ञानिक सोच के प्रति मीडिया की रूचि बढ़ रही है। अभी तक चमत्कारों, भूतप्रेतों और अंधविश्वासों को फैलाने के लिए केवल टीवी चैनलों को ही दोष दिया जाता था। सांप सपेरे का खेल, प्रलयों की झूठी भविष्यवाणियों का प्रचार- प्रसार करने में चैनल अभी भी मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि विजुअल मीडिया से स्वयं को अधिक मैच्योर मानने वाला प्रिंट मीडिया भी इस होड़ में अब पीछे नहीं रहा। पाठकों की गिनती बढ़ाने की चाह में विभिन्न अखबार हर तबके को अपना लक्ष्य बनाने में जुटे हैं। स्पर्धा की इस लड़ाई में वे यह भूल रहे हैं कि लोगों की आस्थाओं और विश्वास को बाजार में तब्दील करने में वे लोगों को अज्ञानता की उस दलदल में धकेलने का काम भी कर रहें हैं जहां से उबरने में कईं सदियां लग गईं। मीडिया के लिए फिलहाल ‘बेचना’ ही सबसे बड़ी उपलब्धि है।

कुछ दिन पहले राजधानी दिल्ली से निकलने वाले मुख्य दैनिक समाचारपत्र की एक बायलाइन स्टोरी में लिखा हुआ था कि ‘‘रात्रि़ को सोने से पूर्व बालकनी से वस्त्रों (खासतौर पर सफेद रंग) को उतार लेना चाहिए ऐसी मान्यता है कि रा़ित्र में वस़्त्र बाहर सूख रहे हों तो अतृप्त आत्माएं उन वस्त्रों पर कुदृष्टि डालकर उन वस्त्रों के पहनने वालों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती हैं।’’

खराब स्वास्थ्य का कारण अत्ृप्त आत्माओं को बताना और वस्त्रों के माध्यम से उनकी कुदृष्टि पड़ने की बात किसी फूहड़ सोच का नतीजा है।

मीडिया के किसी भी माध्यम में किसी भी खबर, आलेख, कार्यक्रम या फिर विज्ञापन के जरिए लोगों मंे भ्रम फैलाना, उन्हें अज्ञानता का पाठ पढ़ाना, डराना, धमकाना या फिर अंधविश्वासों को प्रकाशित या प्रसारित करना एक खतरनाक अपराध है। इसकी एक वजह यह भी है कि अखबार में छपे और टीवी में आने वाले किसी भी खबर को अभी भी बहुत बड़ा वर्ग सत्य मानकर चलता है। ऐसे लोग अक्सर यह तर्क देते हैं कि, ‘‘अरे भई गलत कैसे होगा मैंने अखबार में पढ़ा था। या ‘‘टीवी में देखा था।’’ लेकिन झूठ और आडंबरों पर आधारित ऐसी खबरों और प्रोग्रामों की गिनती बढ़ती ही जा रही है।

पाठकों को भ्रमित करने वाली और कुतर्कों पर आधारित 10 अक्तूबर को छपी इसी स्टोरी में आगे लिखा था ‘‘घर के मुख्य द्वार से यदि रसोई कक्ष दिखाई दे तो घर की स्वामिनी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता और उसके बनाए खाने को ज्यादा लोग पसंद नहीं करते हैं। कौन सी वास्तुकला ऐसे विचारों को प्रचारित कर रही है? किसी भी शास्त्र, कला के नाम पर इस प्रकार के कुतर्कों को प्रचारित करने का मुख्य कारण केवल मुनाफा हो सकता है जो लोगों को भ्रमित कर ऐसे अंधविश्वास के झूठे समाधानों को बेचकर कमाया जा सकता है। मीडिया ऐसे उपायों और समाधानों को बेचने का मुख्य माध्यम बनता जा रहा है। विके्रताओं और मीडिया मालिकांे के इस मिले -जुले खेल में आम आदमी खासकर जो निराश और शोषित हैं, ऐसे प्रपंचों में जकड़ जाते हंै।

अभिव्यक्ति की आजादी का जो अधिकार हम पत्रकारों और लेखकों को लिखने की आजादी प्रदान करता हैे वही पाठको और दर्शकों को सही तार्किक और तथ्यों पर आधारित सूचनाएं और ज्ञान प्रकाशित-प्रसारित करने की जिम्मेदारी और जवाबदेही की भी मांग करता है।

ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं जब अखबार और टीवी चैनल लोगों को महज गुमराह करते नजर आते है। लेकिन इसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती। इन दिनों कुछ टीवी चैनलों पर बाधा मुक्ति यंत्र और नजर सुरक्षा कवच को बेचने के लिए लोगों को पूरी तरह से गुमराह किया जा रहा है। इन कार्यक्रमों में पढ़ने के बावजूद बच्चे के अंक कम आने, व्यापार में घाटा होने या बेटी की सगाई टूटने का कारण किसी रिश्तेदार या मित्र की नजर लगना बताया जा रहा है। इसके लिए नाटक रूपातंरण के रूप में ऐसी झूठी कहानियों को फिल्माया जाता है और समाधान के रूपमें यंत्र या कवच खरीदने पर जोर दिया जाता है।

अपने प्रोडेक्ट को बेचने के लिए उसे विज्ञापित करना जायज ठहराया जा सकता है लेकिन उसके लिए लोगों को भयभीत करना या फिर झूठी कहानियों के माध्यम से यह प्र्रचारित करना कि यह यंत्र यानी गले में पहनने वाला पेंडेट न लिया गया तो आप के अधूरे काम कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। किसी भी चीज को बेचने के लिए विज्ञापन की भी कोई आाचार संहिता है। बेचने का मतलब यह नहीं कि लोगों को गुमराह किया जाए वह भी नेशनल चैनल पर। मीडिया के नाम पर सरकार से लाइसेंस और दूसरी सुविधाएं लेने का अर्थ यह नहीं कि आम लोगों में भूत प्रेत, अतृप्त आत्माओं अंधविश्वासों से भरा फूहड़ अज्ञान का प्रचार करो। पेड न्यूज से भी खतरनाक इस मर्ज से भी मीडिया को सावधान रहना होगा। समाचारों के रूप में हर समय आंतक और जिज्ञासा बनाकर खबरों को बेचने वाले चैनलों और अतार्किक, रूढ़िवादिता, अवैज्ञानिक तथ्यों और जादू टोनो जैसे अज्ञान को फैलाने वाले हर माध्यम के खिलाफ भी आवाज उठाने की जरूरत है क्योंकि यह एक उन्नतशील समाज के लिए बेहद खतरनाक प्रवृति है।

आखिर क्या कारण है कि अंधविश्वासों और पाखंडों पर लोगों का विश्वास शिक्षा के स्तर में सुधार के बावजूद बढ़ता जा रहा है? सही जवाब यह है कि अब अंधविश्वासों के साथ बाजार जुड़ गया है। बाजार के जुड़ने के साथ ही सभी प्रकार के प्रपंचों, आंडबरों, पाखंडों और अवैज्ञानिक सोच के प्रति मीडिया की रूचि बढ़ रही है। अभी तक चमत्कारों, भूतप्रेतों और अंधविश्वासों को फैलाने के लिए केवल टीवी चैनलों को ही दोष दिया जाता था। सांप सपेरे का खेल, प्रलयों की झूठी भविष्यवाणियों का प्रचार- प्रसार करने में चैनल अभी भी मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि विजुअल मीडिया से स्वयं को अधिक मैच्योर मानने वाला प्रिंट मीडिया भी इस होड़ में अब पीछे नहीं रहा। पाठकों की गिनती बढ़ाने की चाह में विभिन्न अखबार हर तबके को अपना लक्ष्य बनाने में जुटे हैं। स्पर्धा की इस लड़ाई में वे यह भूल रहे हैं कि लोगों की आस्थाओं और विश्वास को बाजार में तब्दील करने में वे लोगों को अज्ञानता की उस दलदल में धकेलने का काम भी कर रहें हैं जहां से उबरने में कईं सदियां लग गईं। मीडिया के लिए फिलहाल ‘बेचना’ ही सबसे बड़ी उपलब्धि है।
कुछ दिन पहले राजधानी दिल्ली से निकलने वाले मुख्य दैनिक समाचारपत्र की एक बायलाइन स्टोरी में लिखा हुआ था कि ‘‘रात्रि़ को सोने से पूर्व बालकनी से वस्त्रों (खासतौर पर सफेद रंग) को उतार लेना चाहिए ऐसी मान्यता है कि रा़ित्र में वस़्त्र बाहर सूख रहे हों तो अतृप्त आत्माएं उन वस्त्रों पर कुदृष्टि डालकर उन वस्त्रों के पहनने वालों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती हैं।’’खराब स्वास्थ्य का कारण अत्ृप्त आत्माओं को बताना और वस्त्रों के माध्यम से उनकी कुदृष्टि पड़ने की बात किसी फूहड़ सोच का नतीजा है।

मीडिया के किसी भी माध्यम में किसी भी खबर, आलेख, कार्यक्रम या फिर विज्ञापन के जरिए लोगों मंे भ्रम फैलाना, उन्हें अज्ञानता का पाठ पढ़ाना, डराना, धमकाना या फिर अंधविश्वासों को प्रकाशित या प्रसारित करना एक खतरनाक अपराध है। इसकी एक वजह यह भी है कि अखबार में छपे और टीवी में आने वाले किसी भी खबर को अभी भी बहुत बड़ा वर्ग सत्य मानकर चलता है। ऐसे लोग अक्सर यह तर्क देते हैं कि, ‘‘अरे भई गलत कैसे होगा मैंने अखबार में पढ़ा था। या ‘‘टीवी में देखा था।’’ लेकिन झूठ और आडंबरों पर आधारित ऐसी खबरों और प्रोग्रामों की गिनती बढ़ती ही जा रही है।

पाठकों को भ्रमित करने वाली और कुतर्कों पर आधारित 10 अक्तूबर को छपी इसी स्टोरी में आगे लिखा था ‘‘घर के मुख्य द्वार से यदि रसोई कक्ष दिखाई दे तो घर की स्वामिनी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता और उसके बनाए खाने को ज्यादा लोग पसंद नहीं करते हैं। कौन सी वास्तुकला ऐसे विचारों को प्रचारित कर रही है? किसी भी शास्त्र, कला के नाम पर इस प्रकार के कुतर्कों को प्रचारित करने का मुख्य कारण केवल मुनाफा हो सकता है जो लोगों को भ्रमित कर ऐसे अंधविश्वास के झूठे समाधानों को बेचकर कमाया जा सकता है। मीडिया ऐसे उपायों और समाधानों को बेचने का मुख्य माध्यम बनता जा रहा है। विके्रताओं और मीडिया मालिकांे के इस मिले -जुले खेल में आम आदमी खासकर जो निराश और शोषित हैं, ऐसे प्रपंचों में जकड़ जाते हंै।

अभिव्यक्ति की आजादी का जो अधिकार हम पत्रकारों और लेखकों को लिखने की आजादी प्रदान करता हैे वही पाठको और दर्शकों को सही तार्किक और तथ्यों पर आधारित सूचनाएं और ज्ञान प्रकाशित-प्रसारित करने की जिम्मेदारी और जवाबदेही की भी मांग करता है।

ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं जब अखबार और टीवी चैनल लोगों को महज गुमराह करते नजर आते है। लेकिन इसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती। इन दिनों कुछ टीवी चैनलों पर बाधा मुक्ति यंत्र और नजर सुरक्षा कवच को बेचने के लिए लोगों को पूरी तरह से गुमराह किया जा रहा है। इन कार्यक्रमों में पढ़ने के बावजूद बच्चे के अंक कम आने, व्यापार में घाटा होने या बेटी की सगाई टूटने का कारण किसी रिश्तेदार या मित्र की नजर लगना बताया जा रहा है। इसके लिए नाटक रूपातंरण के रूप में ऐसी झूठी कहानियों को फिल्माया जाता है और समाधान के रूपमें यंत्र या कवच खरीदने पर जोर दिया जाता है।
अपने प्रोडेक्ट को बेचने के लिए उसे विज्ञापित करना जायज ठहराया जा सकता है लेकिन उसके लिए लोगों को भयभीत करना या फिर झूठी कहानियों के माध्यम से यह प्र्रचारित करना कि यह यंत्र यानी गले में पहनने वाला पेंडेट न लिया गया तो आप के अधूरे काम कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। किसी भी चीज को बेचने के लिए विज्ञापन की भी कोई आाचार संहिता है। बेचने का मतलब यह नहीं कि लोगों को गुमराह किया जाए वह भी नेशनल चैनल पर। मीडिया के नाम पर सरकार से लाइसेंस और दूसरी सुविधाएं लेने का अर्थ यह नहीं कि आम लोगों में भूत प्रेत, अतृप्त आत्माओं अंधविश्वासों से भरा फूहड़ अज्ञान का प्रचार करो। पेड न्यूज से भी खतरनाक इस मर्ज से भी मीडिया को सावधान रहना होगा। समाचारों के रूप में हर समय आंतक और जिज्ञासा बनाकर खबरों को बेचने वाले चैनलों और अतार्किक, रूढ़िवादिता, अवैज्ञानिक तथ्यों और जादू टोनो जैसे अज्ञान को फैलाने वाले हर माध्यम के खिलाफ भी आवाज उठाने की जरूरत है क्योंकि यह एक उन्नतशील समाज के लिए बेहद खतरनाक प्रवृति है।
(विदुर की पूर्व सम्पादक)