अनसुनी आवाज़ उन लोगों की आवाज़ है जो देश के दूर दराज़ के इलाकों में अपने छोटे छोटे प्रयासों के द्वारा अपने घर, परिवार समुदाय या समाज के विकास के लिए संघर्षरत हैं। देश के अलग अलग हिस्सों का दौरा करने के बाद लिखी साहस की इन कहानियों को मैं अख़बारों और इस ब्लॉग के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना चाहती हूँ क्योंकि ये खामोश योधाओं के अथक संघर्ष की वे कहानियाँ हैं जिनसे सबक लेकर थोड़े से साहस और परिश्रम से कहीं भी उम्मीद की एक नयी किरण जगाई जा सकती है।
Thursday, 13 May 2010
निरूपमा की मौत में छिपा ज़ात का सवाल
अन्नू आनंद
निरूपमा किसी गांव, बस्ती की रहने वाली कम पढ़ी लिखी या अशिक्षित परिवार की बेटी नहीं थी। देश की राजधानी में दिल्ली में रहने वाली, आथर््िाक रूप से संपन्न और बुद्विजीवी कहलाए जाने वाल व्यवसाय पत्रकारिता से संबंधित थी। ऐसे में अगर उसके प्रेम विवाह की इच्छा उसकी मौत का कारण बनती है और जात से बाहर विवाह करने को अपमान मानने वाला पढ़ा लिखा परिवार अगर अपने सम्मान के लिए अपनी ही बेटी की जान ले लेता है तो निश्चिय ही यह प्रवृति काफी खतरनाक है। इस पर गंभीरता से बहस की जरूरत है।
निरूपमा की मौत से सब से अधिक स्तब्ध और सदमे का एक कारण यह भी है कि आनॅर किलिंग यानी ‘मान के लिए जान’ के इस घृणित और तालिबानी रिवायत को अभी तक केवल एक विशेष समुदाय, जाति और विशेष भौगोलिक क्षेत्रों से ही जोड़ कर देखा जाता था। जात बिरादरी से बाहर या गौत्र में शादी करनेे के कारण जिन युवा लड़के -लड़कियों की जाने गईं उसके लिए मुख्य दोषी वे दकियानूसी खाप पंचायतें थीं जिनके तुगलकी फरमानों से डरकर मां बाप या रिश्तेदारों ने मान के लिए अपने बच्चों को ही मार डाला। लेकिन निरूपमा की हत्या ने साबित कर दिया है कि जात को अपना मान सम्मान मानने की प्रवृति उच्च, सभ्य और शिक्षित परिवारों में भी हावी है। केवल जात से बाहर प्रेम करने या विवाह करने की इच्छा जाहिर करने पर उसकी हत्या कर देना घरेलु हिंसा का वह घृणित स्वरूप है जहां घर का व्यक्ति घर के सदस्य (खासकर महिलाओं ) के साथ बर्बर से बर्बर बर्ताव करने को भी अपना हक मानता है।
दरअसल जात और धर्म को लेकर जो मानसिकता हमारे समाज में घर कर चुकी है उसकी जड़े केवल पिछड़े और अनपढ़ वर्ग तक सीमित नहीं। यह हमारी सामाजिक बुनावट में रसी बसी है। जातिगत सूचक के रूप में उपनाम हमें खास पहचान देते हैं। कोई व्यक्ति कितना भी पढ़ा लिखा या उच्च स्तर पर हो लेकिन जातिगत आधरित उसके उपनाम से ही उसकी काबिलियत और हैसियत को आंका जाता है। इन जातिगत सूचकों को त्यागकर अगर कोई महज अपने नाम से अपनी पहचान बनाना चाहता है तो उसे निम्न या पिछड़ी जाति का मान कर उस से भेदभाव का रवैया अपनाया जाता है। निरूपमा की मौत समाज में जाति के महत्व पर कईं सवाल खड़े करती है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि जात के आधार पर समाज को विभिन्न खंाचों में बांटना क्या उचित है? प्रतिभा, गुण, शिक्षा की बजाय जात के आधार पर उच्च निम्न स्तर का वर्गीकरण क्या एचित है?
इन्ही सवालों के बीच दूसरी ओर सम्मान के लिए जान लेने वाली खाप पंचायतों के विभिन्न नेताओं ने हरियाणा में एक बड़ी बैठक कर हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन कर गौत्र में विवाह करने पर प्रतिबंध लगाने की मांग रखी है। इसके लिए उन्होंने निर्वाचित प्रतिनिधियों को मांग का समर्थन करने के लिए एक माह का समय दिया है। गौत्र में विवाह के कारण हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कईं युवाओं को पिछले दिनों अपनी जानें गवानी पड़ी। मीडिया और सामाजिक संगठनों की द्वारा इन पंचायतों के खिलाफ आवाज उठाने के बावजूद सरकार राजनैतिक हितों की खातिर इन पंचायतों के खिलाफ कोई कार्रवाई न कर सकी। सरकार की लापरवाही के चलते अब खाप पंचायत की प्रवृति सभ्य पढ़े लिखे परिवारों ने भी अपनानी शुरू कर दी है। इन परिवारों में भी छोटे से मान के लिए हत्या करना एक सामान्य व्यवहार का रूप ले रहा है। इस प्रवृति को रोकने के लिए गंभीरता से सोचना होगा। बहस का मुद्दा तो यह है कि हमारा फर्ज क्या सदियों से चले आ रहे जाति के दकियानूसी बंधन को तोड़ने वाले युवाओं को प्रोत्साहित करना है या फिर जातीय खांचांे को बढ़ाने वाली प्रवृतियों को। आने वाली जनगणना में जात के वर्गीकरण का समर्थन करने वाले नेताओं को भी अपनी राय बनाने से पहले जातिगत समाज से होने वाले खतरों के प्रति गंभीरता से विचार करना होगा।
वरिष्ठ पत्रकार
निरूपमा किसी गांव, बस्ती की रहने वाली कम पढ़ी लिखी या अशिक्षित परिवार की बेटी नहीं थी। देश की राजधानी में दिल्ली में रहने वाली, आथर््िाक रूप से संपन्न और बुद्विजीवी कहलाए जाने वाल व्यवसाय पत्रकारिता से संबंधित थी। ऐसे में अगर उसके प्रेम विवाह की इच्छा उसकी मौत का कारण बनती है और जात से बाहर विवाह करने को अपमान मानने वाला पढ़ा लिखा परिवार अगर अपने सम्मान के लिए अपनी ही बेटी की जान ले लेता है तो निश्चिय ही यह प्रवृति काफी खतरनाक है। इस पर गंभीरता से बहस की जरूरत है।
निरूपमा की मौत से सब से अधिक स्तब्ध और सदमे का एक कारण यह भी है कि आनॅर किलिंग यानी ‘मान के लिए जान’ के इस घृणित और तालिबानी रिवायत को अभी तक केवल एक विशेष समुदाय, जाति और विशेष भौगोलिक क्षेत्रों से ही जोड़ कर देखा जाता था। जात बिरादरी से बाहर या गौत्र में शादी करनेे के कारण जिन युवा लड़के -लड़कियों की जाने गईं उसके लिए मुख्य दोषी वे दकियानूसी खाप पंचायतें थीं जिनके तुगलकी फरमानों से डरकर मां बाप या रिश्तेदारों ने मान के लिए अपने बच्चों को ही मार डाला। लेकिन निरूपमा की हत्या ने साबित कर दिया है कि जात को अपना मान सम्मान मानने की प्रवृति उच्च, सभ्य और शिक्षित परिवारों में भी हावी है। केवल जात से बाहर प्रेम करने या विवाह करने की इच्छा जाहिर करने पर उसकी हत्या कर देना घरेलु हिंसा का वह घृणित स्वरूप है जहां घर का व्यक्ति घर के सदस्य (खासकर महिलाओं ) के साथ बर्बर से बर्बर बर्ताव करने को भी अपना हक मानता है।
दरअसल जात और धर्म को लेकर जो मानसिकता हमारे समाज में घर कर चुकी है उसकी जड़े केवल पिछड़े और अनपढ़ वर्ग तक सीमित नहीं। यह हमारी सामाजिक बुनावट में रसी बसी है। जातिगत सूचक के रूप में उपनाम हमें खास पहचान देते हैं। कोई व्यक्ति कितना भी पढ़ा लिखा या उच्च स्तर पर हो लेकिन जातिगत आधरित उसके उपनाम से ही उसकी काबिलियत और हैसियत को आंका जाता है। इन जातिगत सूचकों को त्यागकर अगर कोई महज अपने नाम से अपनी पहचान बनाना चाहता है तो उसे निम्न या पिछड़ी जाति का मान कर उस से भेदभाव का रवैया अपनाया जाता है। निरूपमा की मौत समाज में जाति के महत्व पर कईं सवाल खड़े करती है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि जात के आधार पर समाज को विभिन्न खंाचों में बांटना क्या उचित है? प्रतिभा, गुण, शिक्षा की बजाय जात के आधार पर उच्च निम्न स्तर का वर्गीकरण क्या एचित है?
इन्ही सवालों के बीच दूसरी ओर सम्मान के लिए जान लेने वाली खाप पंचायतों के विभिन्न नेताओं ने हरियाणा में एक बड़ी बैठक कर हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन कर गौत्र में विवाह करने पर प्रतिबंध लगाने की मांग रखी है। इसके लिए उन्होंने निर्वाचित प्रतिनिधियों को मांग का समर्थन करने के लिए एक माह का समय दिया है। गौत्र में विवाह के कारण हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कईं युवाओं को पिछले दिनों अपनी जानें गवानी पड़ी। मीडिया और सामाजिक संगठनों की द्वारा इन पंचायतों के खिलाफ आवाज उठाने के बावजूद सरकार राजनैतिक हितों की खातिर इन पंचायतों के खिलाफ कोई कार्रवाई न कर सकी। सरकार की लापरवाही के चलते अब खाप पंचायत की प्रवृति सभ्य पढ़े लिखे परिवारों ने भी अपनानी शुरू कर दी है। इन परिवारों में भी छोटे से मान के लिए हत्या करना एक सामान्य व्यवहार का रूप ले रहा है। इस प्रवृति को रोकने के लिए गंभीरता से सोचना होगा। बहस का मुद्दा तो यह है कि हमारा फर्ज क्या सदियों से चले आ रहे जाति के दकियानूसी बंधन को तोड़ने वाले युवाओं को प्रोत्साहित करना है या फिर जातीय खांचांे को बढ़ाने वाली प्रवृतियों को। आने वाली जनगणना में जात के वर्गीकरण का समर्थन करने वाले नेताओं को भी अपनी राय बनाने से पहले जातिगत समाज से होने वाले खतरों के प्रति गंभीरता से विचार करना होगा।
वरिष्ठ पत्रकार
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