Friday, 5 February 2010

कृपया! मीडिया उपभोक्ता को नासमझ न समझे

अन्नू आनंद
मीडिया वही दिखाता या छापता है जो लोग देखना या पढ़ना चाहते हैं। यह कथन बार बार दोहराया जा रहा है। लेकिन क्या सह सही है? किसी भी प्रोडेक्ट के लांच से पहले जिस प्रकार मार्किटिंग सर्वे की जाती है इन दिनो शायद मीडिया भी अपने ‘प्रोडेक्ट’ यानी चैनल या अखबार की शुरूआत से पहले ऐसी ही कोई सर्वे कराता हो। यह अलग बात है कि यह सर्वे भी उन्हीं लोगों के बीच कराई जाती है जिन की रूचियों को ध्यान में रखकर ‘प्रोडेक्ट’ बनाया जाता है। खैर, अब तो इसकी जरूरत भी अधिक दिखाई नहीं पड़ती क्यों कि हर नया चैनल वही दिखाना चाहता है जो दूसरे चैनल दिखाते हैं और चैनलों के टीआरपी ग्राफ के हिसाब-किताब से नए चैनल के कंटेट का निर्धारण हो जाता है। टीआरपी को समूचे देश के लोगों की अभिरूचियों का आधार मानते हुए मीडिया ने अपने पूरे चरित्र को ही बदल दिया गया है। टीआरपी की विश्वसनीयता और उसके तकनीकी गुणों और दोषों पर और बहस करना उचित नहीं क्योंकि बहुत से मीडिया विशेषज्ञ भी जानते हैं कि टीआरपी भले ही बहुत से लोगों के कैरियर का भविष्य निर्धारित करती हो लेकिन बहुसंख्यक लोगों की पसंद-नापसंद को पहचानने का यह मापदण्ड बेहद खोखला है। अलबता, टीआरपी के आधार पर कंटेट करना उचित नहीं ठहराया जा सकता।
हकीकत तो यह है कि अभी तक राष्टीय स्तर पर ऐसी कोई सर्वे नहीं हुई जिसमें देश के 76 प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों की इच्छाओं और आकंक्षाओं को भी शामिल किया गया हो और जो ये बताए कि मीडिया में जो दिखाया जा रहा है वे उनकी पसंद और इच्छाओं के अनुरूप है।
पिछले दिनों चैनल के एक राजनीतिक संपादक ने मीडिया के मौजूदा चरित्र को सही ठहराने की कोशिश में लिखा कि जनता की पसंद दिल्ली के बड़े सेमिनारों में आए लोगों से तय नहीं की जा सकती उसके लिए ‘जमीं पर जाना होगा।’ बिल्कुल सही कहा। लेकिन उसके साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि जमीन पर जाने का अभिप्राय केवल कुछ चुनिंदा और मध्यवर्गीय लोगों की पसंद नहीं बल्कि देश की बहुसंख्यक जनता की रूचियों हैं जो अक्सर मीडिया से गायब रहती हैं। अफसोस तो इसी बात का है कि शहरों से बाहर निकलकर कभी इस बात का पता लगाने की कोई सार्थक कोशिश ही नहीं की गई कि गावों के लोग जो देश की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं, क्या चाहते हैं--- ‘जमीन’ पर जाकर गांवों के उन सभी लोगों को शामिल कर के देखिए जो देश की अधिकतर जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन फिर भी ‘टैम’ से बाहर हंेै तो पता चलेगा कि लोगों की सोच अभी भी कुंठित नहीं हुई।
शहरों से बाहर ग्रामीण लोगों की राय जानने के एक प्रयास से यह सबक मिल जाएगा कि गावों के लोग समाचारों में शेयर -मार्किट, फिल्मी सितारे, भूत- प्रेत, फैशन या खान -पान से कहीं अधिक ऐसे प्रयासों, सरोकारों को देखना चाहतें हैं जिस से उनके रोजमर्रा के जीवन में सुधार हो सके। कम से कम समाचार चैनलों से तो वे सच और वास्तविक जीवन से जुड़ी घटनाओं और समस्याओं की खबरों की ही उम्मीद करते हैं। असली भारत का यह बहुसंख्यक समाज इस बात को अच्छी तरह समझता है कि बडी हस्तियों को जानने या फिर चमत्कारों और भविष्य को जानने -समझने की भूख मनोरंजन चैनलो से भी पूरी हो सकती है। लेकिन पेट की भूख को शंात करना है तो उन के लिए नए रेस्त्रां या नए किसी नए प्रोडेक्ट के लांच (जो अक्सर न्यूज का हिस्सा बनते जा रहे हैं) से कहीं अधिक यह जानना जरूरी है कि गावों की राशन की दुकानों में राशन क्यों नहीं पहुंच रहा। कुपोषण आखिर कौन सी बला है जो चैनलों पर दिखाई जाने वाली ‘प्रलय’ या ‘स्वाइन फल’ू से भी अधिक बच्चों की जानें ले रही है। गावों और कस्बों में यह सोच निरंतर फैल रही है कि मीडिया में आम आदमी और उसके सरोकार गायब क्यों है?ं अखबार और टीवी में केवल बड़े लोगों और सनसनीख्ेाज घटनाओं तक ही सिमटता क्यों जा रहा है? अपने तर्क के संदर्भ में यह बताना जरूरी होगा कि पिछले कुछ वर्षों में ग्रासरूट पत्रिका के संपादक होने के नाते मुझे करीब 15 राज्यों के छोटे कस्बों से लेकर दूर-दराज के असंख्य गावों का दौरा करने का मौका मिला। हर दौरे में गावों के चबूतरों पर हुई ग्रामीणों के साथ हुई बैठकों, स्थानीय कार्यकर्ताओं से लेकर कसबों के आम लोगों और लोकल पत्रकार बिरादरी के साथ ं हुईं सभी बैठकों में मीडिया का कंटेट खास चर्चा का विषय रहा। एक ही सवाल मुझे बार बार मीडिया का नुमाइंदा होने पर शर्मसार कर देता कि मीडिया में आम आदमी गायब क्यों है। मैं थोड़ा झेंपते हुए उन्हें भरोसा दिलाने की कोशिश करती कि जब महज एक प्रतिशत लोंगों से जुड़े शेयर मार्किट की खबरें अखबारों और चैनलों की हेडलाइन्स बन सकती हैं तो फिर आम आदमी से जुड़े सरोकार और विकास की खबरें क्यों नहीं। मीडिया पर हुई हर चर्चा इस तर्क को और मजबूत करती कि दर्शक या पाठक बेवकूफ नहीं।
ऐसा नहीं गांव और विकास की खबरें मीडिया का हिस्सा बिल्कुल नहीं है या नहीं रहा लेकिन मुझे गुस्सा इस बात की है कि अधिक लोगों के मसले अखबारों में केवल कुछ सेंटीमीटरों में और चैनलों में कुछ मिनटों तक ही सिमट कर क्यों रह जातें हैं? लाइफस्टाइल, भूत-प्रेत, भगवानों, चमत्कारों ज्योतिषियों की भविष्यवाणियों से लेकर शेयर मार्किट तक के लिए या तो अलग चैनल और पन्ने हैं या उनके लिए निर्धारित स्लाॅट हैं। लेकिन शिक्षा, भुखमरी, कृषि, कुपोषण, रोजगार जैसे मसले जो हमारे समाज का बड़ा सच है उससे हम नजरअदांज कर यह मानकर चल रहे हैं कि लोग यही देखना चाहते हैं। अरे अगर आप प्रोडेक्ट बेच रहे हैं तो उपभोक्ता को नासमझ भी मत समझें।
अभी गावों ओर कस्बों से निकले और ऐसी समस्याओं को उठाने का मिशन लिए पत्रकारिता में आने वाले मेरे वे साथी जो आज चैनलों और अखबारों के शीर्ष पदों पर बैठे हैं ऐसे सवाल पर झट ‘टीआरपी’ ओर विज्ञापनों की कमी का रोना लेकर बैठ जाएंगे। कैरियर और मीडिया की आर्थिक मजबूरी का दम भरते हुए इन बातों की आलोचना करते हुए कहेंगे नैतिकता का पाठ पढ़ाना आसान है। लेकिन मीडिया की आर्थिक व्यवस्था को सही रखने का गणित और। ठीक है भई, अगर व्यापार ही करना है तो फिर मीडिया का क्यों? यह नहीं भूलना होगा कि कई प्रकार की सहूलियतों और विशेषाधिकारों से खड़े किए गए इस मीडिया (जिसे व्यापार मान रहे हैं) से लाखों लोगों के हित जुड़े हैं। इस धंधे मंे तो भले ही ‘प्रोडेक्ट’ कितना भी खराब हो किसी कंज्यूमर कोर्ट में सुनवाई भी नहीं होगी।
अजीब बात यह है कि अधिकतर मेरे हमपेशी विचार गोष्ठियों और सेमीनारों में अपनी व्यावसायिक मजबूरियांे को स्वीकारने और कोई रास्ता निकालने की बजाय ये कहते नहीं थकते कि मीडिया तो समाज का आईना है और वह वही दिखाता है जो समाज में होता है और यही पत्रकार का धर्म है। कुछ समय पहले मीडिया पर हुई एक ऐसी ही गोष्ठी में एक दैनिक समाचार पत्र के प्रबंध संपादक ने ऐसे ही विचार रखे। लेकिन यह धर्म केवल एक विशिष्ट यानी इलीट वर्ग के प्रति क्यों निभाया जाता है। एनडीटीवी सहित कई अन्य चैनल कोहरे के कारण केवल फलाइटों के कैंसल होने से यात्रियों को होने वाली कठिनाइयों की खबर देता है। लेकिन 200 के करीब रेलगाड़ियां के प्रभवित होने और यात्रियों के प्लेटफार्मों पर बैठने की खबरें दूरदर्शन दिखाता है। अगर मीडिया समाज का आईना होने का दावा करता है तो माफ कीजिए हमारा देश केवल सांप बिच्छू स्वयंवर, उत्सवों, आयोजनों से भरा नहीं।
पिछले दिनों एक चैनल के संपादक ने हिम्मत दिखाते हुए इस बात को स्वीकारा कि टीवी ने पत्रकारों को ‘टीआरपीबाज’ बना दिया है और संपादकों को ‘ब्रांड मैनेजर’। इसलिए पत्रकारिता के सही मायने खो गए हैं संभव है इससे बहुत से अन्य संपादको को भी अपने छोटे होते कदों का अहसास हो और वे टीआरपी के भम्रजाल से बाहर निकल समाज का वास्तविक आईना बनने के प्रयासों को तेज करें।
(पूर्व संपादक मीडिया पत्रिका विदुर)