अभी तो खुरचन ही हाथ लगी
अन्नू आनंद
उदारीकरण की शुरूआत के करीब दो दशकों के बाद ग्लोबलाइजेशन के दौर में महिलाओं की स्थिति का आकलन करते हुए ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ की कहावत याद आती है। यानी यूं कहें कि मुक्त बाजार व्यवस्था ने महिलाओं को दिया कम पर लिया अधिक तो गलत नहीं होगा। भूमंडलीकरण की आंधी ने जहां कुछ प्रतिशत महिलाओं को फायदा पहुंचाने का काम किया उससे कहीं अधिक प्रतिशत महिलाओं को विश्व व्यापार की शर्तों के थपेड़ो ने उनकी पंारपरिक आजीविका के साधनों को छीनकर उन्हें अर्थ व्यव्स्था से बाहर करने पर भी मजबूर किया है। पहले से ही सामाजिक असमानता के माहौल में जीती भारतीय महिलाओं पर भूमंडलीकरण का प्रतिकूल असर अधिक नजर आता है। हमारे देश की आर्थिक व्यव्स्था में महिलाओं का सबसे अधिक योगदान कृषि के क्षेत्र में है। यहां अधिकतर खेतिहर कार्य महिलाओं द्वारा किए जाते हैं। महिलाओं का ज्ञान और उनकी निपुणता बीजों की सुरक्षा, खाद्य उत्पादन और फसलों की विविधता और खाद्य प्रोसेसिंग में काम आती है। लेकिन विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत कृषि पर कारपोरेट जगत का दबदबा बढ़ा है। जो खाद्य सुरक्षा महिलाओं के काम पर निर्भर करती है उसे कारपोरेट संबंधित खाद्य संस्कृति ने पीछे धकेल दिया है। ट्रिप्स ( व्यापार संबंधित बौद्दिक संपति अधिकार) समझौते के तहत ग्रामीण महिलाओं से बीज और जैव विविधता का ज्ञान छिनकर ग्लोबल कंपनियों के हाथों चला गया है। वर्ष 2005 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने भूमंडलीकरण के कृषि पर होने वाले प्रभावों पर कराए एक अध्ययन में कहा था कि विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि पर समझौता अनुचित और असमान है और इससें कृषि में कार्यरत महिलाओं पर नकारात्मक बदलाव आया है। कारपोरेट आधरित कृषि ने महिलाओं को उनकी खाद्य उत्पादन और खाद्य प्रस्संकरण की जीविका से बेदखल करने का काम किया है। यह सही है कि ग्लोबलाइजेशन ने अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में महिलाओं को रोजगार के असीम अवसर प्रदान किए है। जो महिलाएं परिवार की देखभाल में समय बिताती थीं उन्हें श्रम प्रधान इन इकाइयों में काम करने का अवसर मिला लेकिन इस प्रक्रिया ने महिलाओं से उनके काम के बुनियादी अधिकार छीन लिए। 1990 से शुरू हुए एसएपी (ढांचागत समयोजन) कार्यक्रम के तहत कई विदेशी कंपनियों ने अपने निर्यात उधोगों जैसे कपड़ा, खेल का सामान, फूड प्रोसेसिंग, खिलौनों की इकाईयों को भारत में खोलकर महिलाओं को सस्ता श्रम मानते हुए उन्हे अधिक से अधिक काम पर रखा। लेकिन असुरक्षित माहौल और दमघोंटू काम की स्थितियों ने महिलाओं को ‘गुलाम वेतनभोगी’ बनाने का काम अधिक किया। नौकरियां मिलीं लेकिन न तो युनियन बनाने के अधिकार और न ही अपने अधिकारों के खिलाफ लड़ने या आवाज उठाने के अधिकार मिल सके। काम की उचित कल्याणकारी सरकारी नीतियों के अभाव ने इन महिलाओं को बदहाल और गुलाम बनाने वाली कार्य स्थितियों में भी काम करने का आदी बना दिया है। इस प्रक्रिया ने ‘गरीबी के स्त्रीकरण’ को अधिक प्रोत्साहित किया है। एक अनुमान के मुताबिक विश्व के कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई घंटे काम करती हंै। लेकिन विश्व की केवल दस तिहाई आय अर्जित करती हंै और विश्व की केवल एक प्रतिशत संपति की मालकिन हंै। ग्लोबलाइजेशन के चलते आर्थिक और सामाजिक स्तर पर आगे बढ़ने के रास्ते खुलने का कुछ हद तक लाभ शहरों की शिक्षित अधिकार संपन्न महिलाओं को हुआ। लेकिन यहां भी फायदा उन्हीं महिलाओं को मिला जो संगठित क्षेत्रों की कंपनियों में बेहतर कार्य शर्तों पर काम करने की स्थिति में अधिक थीं। संचार माध्यमों के विस्तार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, मीडिया के विस्तार और विश्व स्तरीय संस्थाओं के भारत में खुलने से महिलाओं को समान अवसर और अपने अधिकारों के प्रति जागृत करने का काम किया है। इस से महिलाओं के स्तर में बदलाव लाने की कुछ हद तक कोशिश भी सफल हुई। गैर सरकारी संगठनों के आने से महिलाओं में साक्षरता और वोकेशनल प्रशिक्षण का लाभ भी मिला है। लेकिन खुले बाजार से पैदा हुई उपभोक्ता संस्कृति का शिकार भी महिलाएं बनीं। इस संस्क्ति ने महानगरों से लेकर छोटे शहरों की महिलाओं को महज उपभोक्ता और उत्पादक बनाने का काम अधिक किया है। ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया ने विकास के नए आयाम बनाए हैं लेकिन लाभों के असमान वितरण से आर्थिक असमानता बढ़ी है। वर्ष 2000 में बीजिंग प्लस 5 परिपत्र में 1995 में हुए संयुक्त राष्ट्र महिला सम्मेलन के बाद से हुई प्रगति का आकलन करते हुए कहा गया है कि ग्लोबलाइजेशन कुछ महिलाओं को अवसर प्रदान करता है लेकिन बहुत सी महिलाओं को हाशिये पर भी धकेलता है इसलिए समानता के लिए उन्हें मुख्यधारा में लाने की जरूरत है। ग्लोबलाइजेशन के मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए यह स्पष्ट है कि इससे समान रूप् से महिलाओं का भला होने वाला नहीं। ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है जो महिलाओं की कार्यक्षमता को बढ़ाने और भूमंडलीकरण के नकारात्मक सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का सामना करने के लिए उन्हें सशक्त बनाने का काम करे। भूमंडलीकरण का महिलाओं का उचित लाभ पहुंचे इसके लिए रोजगार की नीतियां को दुबारा तैयार करना होगा। ऐसे अवसरों का निर्माण करना होगा जिसमें महिलाएं विकास की प्रक्रिया में भागीदार बने। इसके लिए ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया के स्वरूप को बदलने की जरूरत है ताकि महज ‘लाभ’ पर केंद्रित नीतियों की बजाय ऐसी नीतियां बने जो लोगों पर केंद्रित हों और महिलाओं के प्रति अधिक जवाबदेह। वरना कहना गलत न होगा कि अभी तो खुरचन ही हाथ लगी। वरिष्ठ पत्राकार
यह लेख १२ जनवरी २०१० को राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में प्रकशित हुआ है